स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए शत प्रतिशत मतदान जरूरी : सरसंघचालक
नागपुर, अक्टूबर 13 :सामान्य नागरिकों के लिए चुनाव राजनीति नहीं है वरन वह उसके अनिवार्य प्रजातांत्रिक कर्तव्य निभाने का अवसर है। इसलिए मतदान करते समय मतदाता के रूप में नागरिकों द्वारा दलों की नीति व प्रत्याशी के चरित्र का सम्यक् समन्वित दृष्टि से मूल्यांकन करना चाहिए। नागरिकों के लिए चुनाव को महत्वपूर्ण मानते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि सामान्य जनता को किसी छल, कपट अथवा भावना के बहकावे में नहीं आना चाहिए, बल्कि राष्ट्रहित की नीति पर चलनेवाले दल तथा सुयोग्य सक्षम प्रत्याशी को देखकर मतदान करना चाहिए। 100 प्रतिशत मतदान होना प्रजातंत्र के स्वास्थ्य को पोषित करता है। डॉ. भागवत संघ के विजयादशमी उत्सव के कार्यक्रम में सभा को सम्बोधित कर रहे थे।
नागरिकों के चुनावी समय के कर्तव्य पर जोर डालते हुए सरसंघचालक ने कहा कि उदासीनता को त्यागकर इस दिशा में होनेवाले सभी प्रयासों में चुनाव करानेवाली व्यवस्थाओं व व्यक्तियों से हमारा सहयोग होना चाहिए। लेकिन चुनाव में मतदान करनेभर से और सारा भार चुने हुए लोगों के सिर पर डाल देने से हमारा कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता, वरन चुनाव के बाद प्रत्याशी के कार्यों पर नजर रखते हुए उसे सीधे पटरी पर बनाए रखने की जिम्मेदारी भी जनता की होती है।
उन्होंने कहा कि मतदान के द्वारा अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करने का समय निकट आ गया है। बहुत से नवीन एवं युवा मतदाता होंगे। हम यह अपना कर्त्तव्य निर्वहन कर सकें, इसलिए हमें सर्वप्रथम यह चिन्ता करनी पड़ेगी कि मतदाता सूची में अपना नाम सुयोग्य रीति से प्रविष्ट हुआ है या नहीं।
उल्लेखनीय है कि विजयादशमी का यह कार्यक्रम नागपुर स्थित रेशिमबाग़ परिसर में सम्पन्न हुआ। इस कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि विख्यात लेखक लोकेश चंद्र उपस्थित थे, साथ ही सरकार्यवाह भैयाजी जोशी, नागपुर महानगर के संघचालक दिलीप गुप्ता व सह संघचालक लक्ष्मण पार्डिकर तथा विदर्भ प्रांत के सह संघचालक राम हरकरे व्यासपीठ पर विराजमान थे।
आगे देश की आर्थिक स्थिति पर विचार रखते हुए सरसंघचालक डॉ. भागवत ने कहा कि सामान्य व्यक्तियों के जीवन को त्वरित प्रभावित करनेवाली देश की आर्थिक स्थितियां होती हैं। और, हमारे देश की सामान्य जनता प्रतिदिन बढ़नेवाली महंगाई की मार से त्रस्त है। दो वर्ष पूर्व हमारे देश के आर्थिक महाशक्ति बनने की चर्चा बड़े जोर से चल रही थी, अब रूपये के लुढकने का क्रम जारी है। उन्होंने कहा कि वित्तीय घाटा, चालू खाते का घाटा एवं विदेशी विनियम कोष में निरन्तर कमी की चर्चा चल रही है। आर्थिक विकास दर में बढ़ती गिरावट को देखते हुए स्पष्ट होता है कि हमारे अर्थ तंत्र के संचालन की गलत दिशा हो रहा है। आश्चर्य यह है कि इन सब स्थितियों के बावजूद सरकारी हठधर्मिता नीतियों की दिशा बदलने के लिये बिल्कुल तैयार नहीं है।
शासन की गलत नीतियां
सरसंघचालक ने सरकार की गलत नीतियों का ध्यान दिलाते हुए कहा, एक के बाद एक देश के उत्पादन के क्षेत्रों का स्वामित्व अपने देश के लोगों की तिरस्कारपूर्वक उपेक्षा कर विदेशी हाथों में देनेवाली नीतियां चलाई जा जा रही हैं। देश की आय का बड़ा हिस्सा बनानेवाले लघु उद्यमी, छोटे उद्यमी, स्वयं-रोजगार पर आश्रित खुदरा व्यापारी ऐसे सभी को विदेशी निवेशकों के साथ विषम स्पर्धा के संकट में अपने ही शासन द्वारा धकेला जा रहा है। उनके निर्वाह, देश की स्वावलंबिता तथा देशवासियों की उद्यमिता की प्रवृत्ति के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा रहा है। रोजगार के अवसर घट गए हैं। गांवों से रोजगार के लिए शहरों की ओर जानेवाली संख्या बढ़ने से शहर व गांव दोनों में कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। तथाकथित विकास की दिखावटी चमक कितनी भी हो, आर्थिक दृष्टि से सामान्य व पिछड़े वर्गों को उसका लाभ मिलना दूर, जीवन चलना दूभर कर देनेवाली परिस्थितियों का सामना करने की नौबत आ पड़ी है। लगातार उच्चपदस्थों के आर्थिक भ्रष्टाचार के प्रकरण उजागर होने तथा उनके विरूद्ध जनता में पनपा असंतोष आंदोलनों के द्वारा व्यक्त होने के बाद भी ऐसे कांडों के असली अपराधी खुले घूम रहे हैं, ऐसे प्रकरणों के न्याययुक्त निरसन के लिए पर्याप्त प्रभावी कानून बनाने के स्थान पर राज्यतंत्र के द्वारा उन कानूनों को जन्म से ही पंगू बनाने के प्रावधान डालने का प्रयास हो रहा है।
देश की सुरक्षा
डॉ. भागवत ने कहा कि देश की सुरक्षा पर छाए संकटों के बादल भी ज्यों के त्यों बने हैं। भारत की सीमाओं में घुसपैठ, भारत के चारों ओर के देशों में अपने प्रभाव को बढ़ाकर भारत की घेराबंदी करना, भारत के बाजारों में अपने माल को झोंकना आदि का क्रम चीन के द्वारा पूर्ववत चल रहा है। हमारी ओर से पूरी इच्छाशक्ति दृढ़ता व सामर्थ्य के साथ इसका उत्तर दिया जाना चाहिए, पर ऐसी गंभीर घटनाओं को छुपाया जाता है। इधर पाकिस्तान की नीतियों में भारत के प्रति उसका द्वेष का स्पष्ट दिखता है, फिर भी अपनी ओर से पाकिस्तान के दु:साहस को बढ़ानेवाली नीति का वही ढीला-ढाला भोला-भाला रूख हमारे शासन की ओर से होता है। यह बात किसी के समझ में नहीं आती।
उत्तर पूर्वांचल की समस्या का जिक्र करते हुए सरसंघचालक ने कहा कि वहां की देशभक्त जनता की उपेक्षा कर वोट बैंक की राजनीति के चलते अलगाववादी कट्टरपंथी व घुसपैठ कर आई विदेशी ताकतों का बेहूदा तुष्टीकरण दिखाई देता है। वहां के विकास की उपेक्षा पूर्ववत चल रही है। इतने वर्षों में वहां की सीमाओं तक पथनिर्माण, वहां की जनता को रोजगार के अवसर देनेवाली विकास योजनाएं तथा वहां की सीमाओं की चौकसी व मजबूती को चाकचौबंद रखने में कोई संतोषजनक प्रगति नहीं दिखाई दे रही है।
डॉ. भागवत ने कहा कि देश के सुरक्षा की दृष्टि से इन संकटों की बिसात को देखते हुए नेपाल, तिब्बत, श्रीलंका, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, म्यांमार तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में भारतीय मूल के लोगों के हितों का संवर्धन करते हुए उन देशों से आत्मीय संबंधों में दृढ़ता लाने की आवश्यकता है। पर इस दिशा में सरकार के कार्य में उदासीनता दिखाई देती है। इसलिए इस दृष्टि से अपनी सामरिक तैयारी व स्वयंपूर्णता, सूचनातंत्र तथा सुरक्षाबलों का संख्यात्मक विकास व उनका मनोबल बढ़े ऐसे उपाय होना चाहिए।
आतंरिक सुरक्षा
देश की आतंरिक सुरक्षा के सम्बन्ध में सरसंघचालक ने कहा कि देश की अंतर्गत सुरक्षा की स्थिति भी गंभीर है। विदेशी विचारों से प्रेरित, वहां से विविध सहायता प्राप्त कर देश के संविधान, कानून व व्यवस्था आदि की हिंसक अवहेलना करनेवाली सभी शक्तियों का अब एक गठबंधन सा बन गया है, ऐसा दृश्य देश के विभिन्न भागों में दिखाई देता है। सामान्य लोगों के शोषण, अपमान व अभाव की परिस्थिति को शीघ्रतापूर्वक दूर करना, शासन-प्रशासन का व्यवहार अधिक जबाबदेह व पारदर्शी बनाना तथा दृढ़तापूर्वक हिंसक गतिविधियों का मूलोच्छेद करना इसमें आवश्यक शासन की इच्छाशक्ति का अभाव अभी भी यथावत् बना हुआ दिख रहा है। सर्वसामान्य प्रजा इन सब परिस्थितियों से ऊब गयी है, विक्षुब्ध है, वह परिवर्तन चाहती है। परंतु देश की राजनीति वोटों के स्वार्थ के चक्रव्यूह में ही खेलने में धन्यता मानकर चल रही है। इस परिस्थिति का सबसे प्रथम व सबसे अधिक भुक्तभोगी है भारत की प्रजा में बहुसंख्यक परंपरा से इस देश का वासी हिन्दू समाज।
डॉ. भागवत ने बताया कि जम्मू के किश्तवाड़ में बसनेवाले हिन्दू व्यापारियों की संख्या किश्तवाड़ शहर में अत्यल्प (15 प्रतिशत) है। वहां के दुकानों पर सांप्रदायिक विद्वेष से प्रेरित भीड़ ने हमला किया। राज्य सरकार के गृहमंत्री तथा वहां के पुलिस अधिकारियों की उपस्थिति व उकसावे में लूटपाट व विध्वंस का यह षडयंत्र सुनियोजित ढंग से चला। शेष जम्मू क्षेत्र की देशभक्त जनता के त्वरित व प्रभावी विरोध के कारण हिन्दुओं की प्राण रक्षा हुई। कई करोड़ों की उनकी हानि के ऐवज में अब राज्य सरकार हिन्दुओं को कुछ लाख की भरपाई देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान रही है। उपद्रवकारी व उनके पक्षपाती सूत्रधारों पर कानूनी कारवाई का तो कोई विचार ही नहीं है। यह वही जम्मू कश्मीर राज्य है, जहां के मुख्यमंत्री ने कुछ ही दिन पहले वहां यात्रा पर आए यूरोपीय प्रतिनिधि मंडल को यह कहा कि जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय नहीं, सशर्त जुड़ाव हुआ है। इससे घाटी की राजनीति में सक्रिय उन शक्तियों की मानसिकता प्रगट होती है जो सत्ता में बैठकर तरह-तरह के अवैध कुचक्र चलाकर समूचे जम्मू-लद्दाख-कश्मीर से ही भारत की एकात्मता, अखंडता व राज्य के भारत का अविभाज्य अंग होने के पक्षधरों को क्रमश: बेदखल करना चाहती है। और दुर्भाग्य से केन्द्र की राजनीति पिछले दस वर्षों से उन्हीं का पृष्ठपोषण कर रही है।
उन्होंने कहा, केवल सत्ता स्वार्थ से मोहित व अंध होकर देश व देशभक्तों की शक्ति कुचलने की इस कुटिल देश घातक राजनीति का दूसरा स्पष्ट उदाहरण है। हाल ही में घटी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर की घटनाएं। एक ही संप्रदाय विशेष की गुंडागर्दी की लगातार चली घटनाओं की सत्ता के समीकरणों के चलते केवल उपेक्षा ही नहीं की गई, वरन उनको प्रोत्साहन व संरक्षण भी दिया गया। राज्य के चुनावों के पहले से ही कानून संविधान को ताक पर रख तथा कथित अल्पसंख्यक मतों के तुष्टीकरण की स्पर्धा चली ही थी। सत्ता प्राप्ति के बाद सत्तारूढ़ दल के इशारे पर प्रशासन ने अपने अधिकारों की मर्यादा में कानून द्वारा निर्देशित कार्य करने के तथाकथित अपराध पर एक प्रशासकीय अधिकारी को निलंबित कर तथा देशभर के संतों की पुर्णतः वैध व शांततामय अयोध्या परिक्रमा को रोककर विवादित बनाकर अपनी छद्म धर्मनिरपेक्षता की आड में साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने का खेल भी शुरू किया था। ऐसे पक्षपाती व लोकविरोधी नीति के परिणाम एक भयंकर उद्रेक के रूप में फूट पड़े जिन पर नियंत्रण करने में शासन व प्रशासन असमंजस में पडकर पंगु बना रहा। अब भी सत्य का सामना करने के बजाय सारी बातों का दोष हिन्दू समाज व सत्य बोलने का साहस करने वालों के माथे पर मढने का, माध्यमों के एक वर्ग का सहारा लेकर प्रयास चल रहा है। ऐसे सभी उपद्रवों के पीछे जो कट्टरपंथी असहिष्णु आतंकी प्रवृती है, तथा उनसे साठगांठ रख उनको बल देनेवाली प्रवृत्तियॉं है उनके कारनामे तो नैरोबी के मॉल से लेकर पेशावर के चर्च तक की गई जघन्य हत्याओं जैसी घटनाओं में सर्वत्र उजागर हो रहे है। परन्तु सत्ता के स्वार्थ में अंध राजनीति को यह सूर्य प्रकाश के समान सत्य साक्षात् होकर भी दिखता नहीं।
दुर्भाग्य है कि देश की प्रजा को समदृष्टि से देखकर देश का शासन चलाना जिनका दायित्व है उन्हीं की ओर से मन, वचन और कर्म से हिन्दू समाज के विरोध में अथवा तथाकथित अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के लिये यह बातें हो रही है। जिस प्रकार देश के गृहमंत्री ने तथाकथित अल्पयंख्यक युवकों के बारे में नरमी बरतने की सूचना राज्यों के शासकों को भेजी तथा जिस प्रकार तमिलनाडु में हाल में ही घटित हिन्दू नेताओं के कट्टरपंथियों द्वारा हत्याओं की उपेक्षाओं की शृंखला पहले उपेक्षा हुई, और बाद में जांच में ढिलाई देखी गई।
शिक्षा नीति में बदलाव आवश्यक
सरसंघचालक डॉ. भागवत ने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर विचार करते हुए कहा कि केवल व्यापारी वृत्ति से चलनेवाली आज की शिक्षा नीति में मूलभूत परिवर्तन करना आवश्यकता है। क्योंकि, इस नीति के चलते वर्तमान शिक्षा सर्वसामान्य लोगों के पहुंच से बाहर तो हो ही गई है, उसमें गुणवत्ता तथा संस्कारों का निर्माण भी बंद हो गया है। शिक्षा क्षेत्र में एतद्देशीय लोगों के उद्यम को अनुत्साहित कर, विदेशी शिक्षा संस्थाओं के अनियंत्रित संचार को आमंत्रित कर पूरी शिक्षा को ही विदेशी हाथों में सुपूर्द करने की तैयारियां चल रही है, ऐसा दिखता है। वैभव संपन्न राष्ट्रनिर्माण के लिए नई पीढ़ी को सब प्रकार से सुसज्जित करने के बजाय शिक्षा को भी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए अर्थार्जन के अवसरों से भरा एक नया बाजार क्षेत्र मानकर उसका विचार करना देश के भविष्य को जिस अँधेरी गर्त में ढकेलेगा, इसका तनिक भी विवेक आज शिक्षा के क्षेत्र को दी जानेवाली दिशा में नहीं दिखता।
देश में महिला पर अत्याचारों के प्रमाण में वृद्धि के पीछे प्रमुख कारणों में संस्कारों का अभाव यह भी एक कारण है। नई पीढ़ी को उत्तम संस्कार मिले इसकी व्यवस्था हमारे समाज की कुटुंब-व्यवस्था में भी है। इसलिए इस दिशा में अपनी कुटुंब-व्यवस्था का अध्ययन व कुछ अनुसरण करने की इच्छा आज विश्वभर में दिखाई देती है। परन्तु उसके इस महत्व को बिल्कुल ही न समझकर विभिन्न अनावश्यक कानूनों को लाकर कुटुंब के अन्तर्गत व्यक्तियों के संबंधों को भी अर्थ व्यवहार में बदलने का प्रयास चला है। वह सदभावना से किया गया हो तो भी उसके पीछे की सोच में कुटुंब-व्यवस्था समाज में सामाजिक सुरक्षा व सामाजिक उद्यम का कितना अहम् उपकरण रहा है, इसके अध्ययन का अभाव निश्चित रूप से दिखाई देता है।
हिन्दू समाज की अवहेलना
सरसंघचालक ने कहा कि हिन्दू समाज की अवहेलना का क्रम निर्लज्जतापूर्वक चल रहा है। इस मानसिकता के आधार पर साम्प्रदायिक गतिविधि निरोधक कानून-2011 के नाम पर सब प्रकार के गैर कानूनी प्रावधानों को लागू करने का एक प्रयास किया गया था। संविधान के मार्गदर्शन की अवहेलना करते हुए सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण दिलाने के प्रावधान किए गए थे। करदाताओं के धन को अपनी ऐसी पक्षपाती योजनाओं तथा भ्रष्टाचार में व्यर्थ करनेवाले लोग देश के रिक्त भंडारों को भरने के लिए स्वर्ण की अपेक्षा हिन्दू मंदिरों से करते हैं। अब संपूर्ण प्रजा की श्रद्धा, पर्यावरण सुरक्षा, सागरी सीमा सुरक्षा, थोरियम जैसे मूल्यवान व दुर्मिल धातूओं के प्राकृतिक भंडारों की सुरक्षा, तटीय निवासी जनता का रोजगार आदि सबकी अपमानजनक अवहेलना की जा रही है, तथा स्वयं ही के द्वारा नियुक्त समिति की अनुसंशा का अधिक्षेप कर केन्द्र शासन में बैठे लोग सत्तास्वार्थ के लिए रामसेतू को तोड़कर ही सेतूसमुद्रम् प्रकल्प पूर्ण करने पर तुले हैं।
उन्होंने कहा कि देश की ये सारी स्थितियां देशवासियों के जीवन को प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रभावित करती हैं। राजनीतिक दलों व नेताओं को चुनकर सत्ता में भेजनेवाले मतदाता भी हम सभी सामान्य जन ही होते हैं। इसलिए परिस्थिति की चर्चा भयभीत होने के लिए नहीं, उपाय करने के लिए करनी चाहिए।
समर्थ कुटुंब व्यवस्था
डॉ. भागवत ने कहा कि समाज का संपूर्ण स्वरूप स्वयं में संजोए हुए सामाजिक संरचना की सबसे छोटी व अंतिम इकाई अपने देश में कुटुंब की मानी जाती है। समाज में जो परिवर्तन हमें अपेक्षित है, हम स्वयं के कुटुंब के आचरण व वातावरण के परिष्कार से प्रारम्भ करें। सादगी, स्वच्छता, पवित्रता, आत्मीयता आदि का दर्शन स्वयं के कुटुंब जीवन में हो सकें। अपने परिवारजनों में महिला वर्ग को हम सामाजिक दृष्टि से प्रबुद्ध व सक्रिय बनाएं। ऊर्जा, जल आदि की बचत, पर्यावरण-सुरक्षा, स्वदेशी का व्यवहार, अन्यान्य कारणों से कुटुंब के संपर्क आनेवाले सभी से आत्मीय, सम्मान व न्यायपूर्वक आचरण का उदाहरण हमारे कुटुंबियों का बने। रूढि कुरीति तथा अंधविश्वासों से मुक्त, जाति, पंथ, पक्ष, भाषा, प्रान्तों के भेदों से मुक्त समरसतापूर्ण अहंकार रहित स्रदय से सबका विचार व्यवहार व संचार रहें। अड़ोस-पड़ोस के निवासी जनों के साथ सुख-दु:खों में संवेदनशील व सक्रिय होकर हमारा कुटुंब अनुकरणीय सामाजिक आचरण की प्रेरणा व उदाहरण बनें यह अपना कर्तव्य है।
डॉ. भागवत ने सामाजिक सुधार की चुनौती का आह्वान करते हुए कहा कि अपनी इस सामाजिक पहल में सक्रिय होकर शतकों से चली दम्भ, पाखण्ड व भेद के दानव का अंत क्या हम नहीं कर सकते? हिन्दू समाज के एकरस जीवन का प्रारम्भ करने के लिए सभी हिन्दुओं के लिए सब हिन्दू धर्मस्थान, जल के स्त्रोत व श्मशान खुले नहीं कर सकते? सद्कृति के पक्ष में संपूर्ण समाज परस्पर आत्मीयता व भारतभक्ति के सूत्र में आबद्ध होकर खड़ा हो इसका यही एक उपाय है। देश के तंत्र व व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन तथा उनके स्वास्थ्य के लिए भी यही एकमात्र रास्ता है। ग्राम-ग्राम में व गली मुहल्ले में इस प्रकार के आचरणों के उदाहरणों से ही सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया की गतिवृद्धि होगी।
पुरुषार्थ का संकल्प
सरसंघचालक के पुरुषार्थ को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि देश के समक्ष बहुत सारी जटिल व विकराल चुनौतियां हैं, उनपर विजय प्राप्त करने के लिए हमें अपनी शक्ति को जागृत कर पुरुषार्थ की पराकाष्ठा करनी पड़ेगी। क्योंकि राष्ट्ररक्षण व पोषण का दायित्व प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जिनपर है उनकी क्षमता की बात तो दूर उनके उद्देश्यों पर ही प्रश्नचिन्ह लगने की स्थिति बनी है। इसलिए हम अपने व्यक्तिगत जीवन में शक्तिसंवर्धन व जीवन परिष्कार का प्रारम्भ करें। हम अपनी दिनचर्या में शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक बल की वृद्धि करने का नित्य अभ्यास करें। अपने भारत देश के भूतकाल का सत्य इतिहास, गौरव, वर्तमान की यथातथ्य जानकारी प्रामाणिक निष्पक्ष सूत्रों से प्राप्त कर हृयंगम करें। देश के भविष्य के संबंध त्यागी व नि:स्वार्थी महापुरूषों के चिन्तन व उनके द्वारा अपने कर्तव्यों के संबंध में उपदेशों की समान बातों का अनुसरण करें। हम संकल्प करें कि हम जीवन की क्षमताओं को परिश्रमपूर्वक बढ़ाकर जीवन में सब प्रकार का यश व विजय प्राप्त कर उसका विनियोग समाज के हित में परोपकार व सेवा के लिए करेंगे।
देश के नियम व्यवस्था का पालन करवाने का जितना दायित्व शासन-प्रशासन का है उतनाही उस नियम व्यवस्था के अनुशासन को दैनंदिन जीवन में स्वयंप्रेरणा से आग्रहपूर्वक पालन करके चलने का दायित्व समाज का है। भ्रष्टाचारमुक्त शुद्ध सामाजिक जीवन का प्रारंभ भी यहीं से होता है। अनुपयुक्त नियम-कानूनों को बदलने के लिये आंदोलन आदि के अधिकार भी संविधान के दायरे में जनता को दिए गए हैं। अत: अपने सभी नागरिक कर्तव्यों का तथा नियम-व्यवस्था का पालन पूर्ण रूप से करने की आदत भी समाज में डालने का काम हमें अपने से प्रारंभ करना होगा।
स्वामी विवेकानन्द सार्ध शती का स्मरण कराते हुए सरसंघचालक ने कहा कि स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र के पुनर्जागरण की कल्पना की थी। शुद्ध चरित्र, स्वार्थ व भेदरहित अंत:करण, शरीर में वज्र की शक्ति व हृदय में अदम्य उत्साह व प्रेम लेकर स्वयं उदाहरण बन राष्ट्र की सेवा में सर्वस्व समर्पण करनेवाले युवकों के द्वारा ही अपनी पवित्र भारतमाता को विश्वगुरु के पद पर आसीन करने का निर्देश उन्होंने समाज को दिया था।
उन्होंने कहा कि विजयादशमी के अवसर पर अपने व्यक्तित्व की सारी संकुचित सीमाओं का उल्लंघन कर हृदय में राष्ट्रपुरूष के भव्य स्वरूप की आराधना में सर्वस्व समर्पण का हम संकल्प लें, तथा समाजहित में चलनेवाले सभी कार्यों में विवेकयुक्त व नि:स्वार्थ-बुद्धि होकर हम सामूहिकता से सक्रिय हों।
इसके पूर्व कार्यक्रम के प्रारंभ में ध्वजारोहण के पश्चात मान्यवरों द्वारा शस्त्रपूजन किया गया तथा स्वयंसेवकों ने दंड-व्यायाम योग आदि का प्रदर्शन किया। तत्पश्चात कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि डॉ. लोकेश चन्द्र ने अपने संक्षिप्त भाषण में भारत के इतिहास और संघ भूमि की महिमा का बखान किया, और कहा कि शक्ति के साथ भक्ति का समन्वय हो तो हर विपरीत परिस्थिति पर विजय प्राप्त किया जा सकता है।
नागपुर महानगर संघचालक डॉ. दिलीप गुप्ता ने कार्यक्रम की प्रस्तावना तथा आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर हजारों स्वयंसेवकों के साथ ही भारी संख्या में नागरिक उपस्थित थे।
|
Thursday, October 17, 2013
स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए शत प्रतिशत मतदान जरूरी : सरसंघचालक
Sunday, October 13, 2013
RSS: Vijayadashmi Speech at Nagpur by Dr.Mohan Bhagwat
Rashtriya Swayamsevak Sangh
Abstract of speech (Translated from Hindi) given by P.P.Sarsanghchalak Man. Mohanji Bhagwat on the Occasion of Shri Vijayadashami-2013 (Sunday 13th Oct.)
The Navami is celebrated all over Bharatavarsha offering worship to Goddess Sakthi and weapons. Dasami is known as the day for Seemolanghan, i.e. the day for transcending the boundary. Today these two auspicious occasions have come together. We all know that our nation is faced with intricate and challenging problems, and it is for us to wake up our latent strength and overcome these problems through our hard work. The different types of problems confronting us have been persisting for a long time now and are taking serious turns. In a democratic polity, when those who are responsible to ensure the security and progress of the nation lack the necessary competence to face up to the task and even their very intentions are questionable, it becomes incumbent upon the samaj to put in its efforts with dedication and valour to overcome the challenges. A cursory glance would suffice to convince us of the enormity of the challenges we are facing. Since every year the nature of such challenges and ways of their resolutions is being discussed in detail on this platform on similar occasions, I would rather deal with them very briefly now.
The economic condition of the nation has an instant and direct bearing on the day-to-day routine and life of the common people. Presently the common people in our country are reeling under the unbearable weight of unending price-rise. Just two years back, loud noises were being made about making our country an economic super-power of the world. But today we are in search of means to arrest the trend of fall in the value of rupee so as to tide over the imminent economic crisis; i.e. fiscal deficit, current account deficit and depleting foreign exchange reserve, and the resultant economic crisis have now become the hot topic of common discourse. Stagnating economic growth, steep rise in foreign debt in comparison to Gross Domestic Product, etc. bear ample testimony to the fact that we are taking our economy in the wrong direction. However, what is more surprising is the refusal of the government to change the course and its continuation with its rigid policies. In the field of production, policies are formulated in such a way to deny the ownership to domestic entrepreneurs and entrust means of production to foreign hands. Small-scale entrepreneurs, small-time industrialists, retail businessmen and others, who contribute the major portion of the national income, are pushed into a difficult situation by our own government, in which they are compelled to compete with foreign entrants on uneven terms. As a result, a big question mark hangs on the future prospects of the domestic entrepreneurs, the self-reliance of the nation, and entrepreneurship of the society. Job opportunities have come down. The number of people migrating from villages to cities in search of livelihood has increased, and as a result a number of problems have cropped up in cities as well as villages. Whatsoever be the artificial glitter created by the so-called ‘‘progress,’’ from the economic view, this has not at all benefitted the common people and the backward classes. Further, the situation has made life-conditions extremely difficult. Even after the exposure of the rampant corruption at the highest echelons of power, and the full play of public ire and resentment against it through the movements against corruption, the real culprits involved in such acts still roam about freely. And, instead of enacting stringent laws to curb such nefarious practices, the political leadership is bringing in laws that are intrinsically flawed and full of loop- holes.
We have seen the result of the wrong growth pattern hurriedly followed by us with hubris imitating foreign yard - stick, with an eye on votes and notes, turning a blind eye to our national tradition, life-experience of thousands of years, environment, aspirations of our common people, their needs and priorities, etc., when nature retaliated with full fury, wreaked terrible destruction and devastation in Uttaranchal recently. If only we develop an indigenous pattern of growth, based on our own genius and in sync with the present times, keeping in mind the positive and negative aspects of modern technology, current world economic systems and trends, we will be able to achieve a growth that, along with bringing its benefits even to the last man in the row, will make us self - reliant, create jobs, improve quality, and ensure equity, justice and freedom from exploitation. And we have to realise that turning our faces away from this reality would only do great harm to the health of our national life. Remaining firm in this belief we have to force the powers-that-be to take the whole system in the same direction.
Also, with the same view, it is necessary to bring about total transformation in the present educational policy that seeks to commercialize education, not only because the education under this policy is beyond the reach of the common people, but also for the reason that it is quite incapable of fostering good qualities and culture. It seems efforts are being made to invite foreign educational institutions here with an aim to bring the entire educational sector exclusively under their domain by discouraging the ongoing local efforts in this arena. Instead of making it an instrument for equipping and preparing the new generation in every way for building a prosperous nation, if the education sector is treated as a market for international business that bring financial gains, the future of the nation will be bleak and it will land in a dark abyss. However, it appears that the orientation presently given to the educational sector is incapable of imparting the necessary wisdom to realise this danger. It must be kept in mind that one of the main reasons behind the growth in atrocities against women is lack of nourishment of cultural values.
The provision to impart this culture to the new generation is available in our family system. And with this realisation, our family system is being studied and to some extent emulated all over the world. However, without understanding the significance of this system, attempts are made to turn the inter-personal relationships within the family into some sort of financial dealings, by bringing in unnecessary laws. Even if this is done with some good intentions, it is amply clear that neither any thought has been given nor any study made to assess the importance of our family system from the point of view of social security and social enterprise.
The shadow of dark clouds hovering around our national security continues to persist. China continues to test our mettle by frequent incursions across India’s borders, attempts to besiege us by increasing influence in countries in our neighborhood, and dumping their products in our markets. We, on our part, have not been showing the will or the resolve to respond to these threats with firmness and full might. On the contrary, people are not taken into confidence by giving them a complete and factual picture of such serious issues. The statements made by those in responsible positions to dilute the seriousness of such developments, whenever correct information percolates from outside, raise the question of our sensitivity and alertness related to our border security, sovereignty, etc, and that becomes a matter of concern. It has been proved time and again that Pakistan’s policy is based on its hatred for India. Knowing this very well, why we are pursuing a weak and meek policy that encourages Pakistan’s misadventure is beyond anyone’s comprehension. In the northeast, the neglect and suppression of patriotic people, and abetment and appeasement of separatist terrorist forces and infiltrators for the sake of vote bank politics is continuing unabashed. Neglect of those areas in matters of development continues as in the past. All these years, construction of border roads, development aimed at providing job opportunities for local populace, and introduction of measures to further strengthen and fortify the facilities for border patrolling, have made no satisfactory progress.
In view of the scenario created by these problems besetting our defense front, instead of taking measures to promote the interests of the people of Indian origin in Nepal, Tibet, Sri Lanka, Bangladesh, Afghanistan, Myanmar and South-east Asia, and strengthening our bond of love and friendship with those countries, we see the same complacency and duplicity being displayed. In the home-front also, let alone making our defense preparedness fool-proof and self-sufficient, communication system up-to-date, and effecting quantitative increase in defense forces and uplifting their morale, deliberations are on to invite foreign investments in defense production, and one after another, incidents are taking place that adversely affect the morale of our defense forces. As a result, how inimical forces are emboldened to pose challenges to us, both within the country and on the borders through their misadventures, is amply clear from the havoc wrought both by Pakistan and China through repeated ingressions into our territory, and the incidents like attacking our military camps, as happened at Hiranagar in Jammu. The internal security situation is also very worrisome. Reports of forces propelled by foreign ideologies and receiving all sorts of help from abroad, and who mock at our constitution and legal system through violent means, joining their forces by coming together, have been coming from different parts of the country. It is the exploitation of the common people and their terrible and poor living conditions that prepare the ground for such forces, and, as such, such problems should be addressed and solved immediately. For this, the government and the administration should become more responsive and transparent and mercilessly root out violent activities. However, it seems, the government lacks the necessary will-power to change its lukewarm attitude even now.
The ordinary citizen is fed up with this situation, is angry, and wants a change. However, because of selfish motives, Indian politics enjoys bliss in the vicious circle of vote bank. In such a situation it is the majority Hindu society, traditionally living in this land from time immemorial without any precondition whatsoever that is suffering the most.
Recently shops of Hindu businessmen at Kishtwar in Jammu, where the Hindu population is a meager 15%, were attacked and ransacked by people motivated by communal hatred. Abetted and prompted by the state home minister, who was present there, and in the presence of senior police officers, the loot and destruction went on in a very systematic manner. It was only because of the quick and effective response of the patriotic people living in other parts of the Jammu region the lives of the hapless Hindus could be saved. By compensating the victims in lakhs, who sustained losses worth crores of rupees, the state government seems to be proud that it has discharged its duty. Also need was never felt to take stringent action against the perpetrators and the zealots who hatched the criminal conspiracy. Mind you, this is the very same Jammu and Kashmir state whose Chief Minister recently told a European delegations visiting the state that accession of Jammu and Kashmir to India was only conditional and not absolute merger. What he said clearly indicates the mindset of the forces active in politics there, who, while remaining in power, play all sorts of illegal deceptive tricks to banish those who are committed to India’s unity and integrity and consider the state as an integral part of India, from the whole of Jammu-Ladak-Kashmir region. The project to rehabilitate remorseful former militants desirous of returning to the valley itself is quite strange, because the safe and honorable rehabilitation of the millions of Hindus of kashmir valley, and complete re-establishment of people displaced from Pak occupied kashmir and other places because of at least four invasions of Pakistan is still pending. Now, instead of allowing the former militants to come under proper procedure through the two prefixed routes, bringing thousands of such people hurriedly in a clandestine manner through a third route, i.e. through the Nepal border, seems to be part of a plan to make the demographic imbalance more acute. In Jammu region they want to start with Doda, Kisthwar, Poonch and Rajauri. This is a conspiracy to increase the numbers of those who could be made its part, including Bangladeshis and Rohingyas, and to reduce the number of patriotic people through threats and terrorists acts. The recent happenings in Kisthwar are only its part. Unfortunately, the politics played by the centre during the last decade has only strengthened the nerves of such people.
The recent happening at Mujaffarnagar in Uttar Pradesh are yet another example of the crooked politics detrimental to national interests, in which, blinded by the craze for power, the national and patriotic forces were suppressed. Unilateral and one-sided atrocities committed by the lumpen elements of a particular religious community were not only ignored by the government, which was busy with the balancing act, but were also encouraged and protected. Even before the elections were conducted in the state, putting the law and constitution on the back-burner, competition was on between politicians to appease the so-called minority vote. After coming to power, at the instance of the ruling party, an I.A.S. Officer was suspended for the “offence” of discharging duties staying within the limits of power accorded by law. Whipping up an unsavoury controversy by imposing a ban on the totally peaceful and lawful Ayodhya Parikrama, the game stoking the flames of communal feelings in the cover of secularism was kick started. Such biased and anti-people policies resulted in a severe public outburst, and to control that the Government became indecisive and was totally paralysed. Even now, instead of facing the truth, efforts are made to shift the entire blame on the Hindu society and those who showed the courage to tell the truth, with the help of the section of the media. The communal, intolerant and terrorist forces behind all such atrocious acts, and the elements that hobnob with them and provide them strength, stand exposed through the gory incidents of manslaughter that took place from the mall at Nairobi to the church at Peshavar. But our politicians, blinded by their greed for power, are quite unable to see this truth, which is as bright as daylight.
Further proof of extreme selfishness prevalent in our political system has come before the public in a very conspicuous manner. Unfortunately, those who are at the helm of affairs in the government, and who have a solemn commitment to treat all citizens on an equal footing, are treating Hindus with discrimination in thoughts, words and deeds and blatantly appeasing and pampering the so called minorities. The recent missive sent by the Union Home Minister directing the state governments to go soft on the youths belonging to the so-called minority community, and the way in which killings of Hindu leaders by the fundamentalist elements in Tamilnadu were handled with total disdain and the disinterest shown in the investigation of the said cases, compel us to say that the orientation of the politics is not to unite and integrate the whole society.
The practice of heaping insults on the Hindu society continues shamelessly and because of this mindset, attempts were made to bring in a totally unlawful legislation under the name Prevention of Communal and Targeted Violence bill - 2011. Provisions were made to accord reservation on communal basis. Now, the people who squandered tax-payers money on such partisan projects and corruption were eyeing the gold deposits at Hindu temples to fill the empty government coffers. The people wielding power at the centre, who view with contempt matters like the dignity of the citizens, environmental protection, security of maritime boundaries, preservation of natural valuable resources like thorium, livelihood of coastal population, etc., because of their craze for power, are hell-bent on going ahead with the Sethusamudram project, destroying the Ramasetu, throwing into the dustbin the recommendations of the very committee appointed by them.
The conditions prevalent in the nation have a direct bearing on the life of the entire population. We, who elect the political parties and leaders as our rulers, are all ordinary people. So, we have to discuss about any given situation not to get scared, but for finding the solution. Fortunately for us, a major segment of our population comprises youths who are full of vigour, conviction, and expectations and pure at heart. Hence, any genuine and united efforts will certainly bear fruit.
From this point of view, we have an immediate though temporary responsibility before us. In democracy elections may be a matter of politics for contestants but for us common citizens it is an opportunity to perform our mandatory democratic duty. Voters will have an opportunity to elect their representatives in the near future. We have a large number of new and young voters. So as to discharge our responsibility as voters, first and foremost, we have to ensure that our names properly figure in the voters list. 100 per cent polling will make democracy healthier. We have to minutely evaluate the policies of contending political parties as also the character of the candidates while exercising our franchise. We should never fall prey to any form of deceptive propaganda or stratagem; neither should we allow ourselves to be carried away by cheap emotions or narrow-minded considerations. Our voting should be based purely on issues, to the parties who follow policies that serve our national interests and to the capable candidates who have integrity. Giving up complacency, we have to actively cooperate with all efforts that are being made in this direction, as well as the electoral process and the concerned individuals.
But our duty does not end just by voting and transferring the whole responsibility on the shoulders of elected persons. Any attempt at bettering strength and reformation should invariably start with our own personal life. Augmenting our physical, mental and intellectual strength should become part of our daily routine. We have to acquire knowledge about the real history of our nation, its greatness, and its present condition from authentic and unbiased sources. And regarding the future of the nation, we have to emulate the thoughts of great men of sacrifice and selflessness, and have to imitate the way they discharged their duties, which is nothing but practical guidance for us. Let us make a solemn resolve that we would earn fame and success by increasing our efficiency through strenuous efforts and use them not to serve personal selfish ends, but for the benefit of society, humanitarianism and service. On this sacred day, let us take a solemn pledge to transcend all narrow personal limitations and to heartily worship God in the form of our Rashtra, dedicating everything to it. And let us also make a commitment to wisely participate in all activities for the good of society and work with others without any selfish motive.
Even as the Government and administration have a responsibility to maintain the rule of law, society has an equal responsibility to be emphatic about voluntarily observing the law in day to day life. And from here starts the flow of corruption free pure and serene social life. In a democratic set up, the right to agitate staying within the framework of the constitution is the prerogative and means of the people to demand repeal of unjust and misconceived laws. And, at the same time, the people also have their own civic duties to discharge and the responsibility to abide by the laws of the land. And it is for every one of us to start with our own lives and set a perfect example in such matters.
According to Indian view, family, the smallest unit of our social system, is, in fact, the microcosmic form of the society. So whatever reforms we aim at should begin with bringing about the required changes in the behaviour and climate in our own family. Simplicity, truthfulness, purity, sanctity, love, etc. should be discernible in our family life. We have to ensure that women in our family are socially enlightened and active. In matters like conservation of water, electricity and other means of energy, environmental security, swadeshi habit, and treating those who come into contact with our family for various reasons with love, affection, respect and equity, etc, our family should be a perfect example. Everyone in the family should be free of feeling of high and low of birth, bad manners, superposition; and free of any discrimination in the name of caste, religion, political ideology, language, province, and their thoughts, acts and behaviour should be harmonious and egoless. Remaining sensitive to and actively sharing the happiness and sorrow of neighbours, our family should be an exemplar in social behaviour.
By actively addressing the social aspects, can’t we put an end to this centuries old evil of heresy, hypocrisy and discrimination? Can’t we throw open our centers of worship, sources of water, and crematoriums to all Hindus so as to enable Hindus to make a new beginning of harmonious life? This is the only means to bring the whole society on the side of Sad-dharma and good deeds, and string them together with the thread of ‘Bharat Bhakthi’. Also, there is no other way to bring about necessary changes in the policies and system of the nation and to keep it healthy. To provide living examples of such lofty behaviour in every village, colony, lane and by-lane is the only means to accelerate the process of social change.
It goes without saying that in all matters and discharging of responsibilities dealt with above, the Swayamsevaks should be naturally there before the society as the role-model. Because it is with the aim of bringing the society to an active, harmonious and organised state Rashtriya Swayamsevak Sangh has been striving for the last 88 years.
Swami Vivekananda, whose 150th birth anniversary celebrations are coming to an end shortly, had also envisaged the very same means to rejuvenate our nation. He has made it clear to the society that only through the youths, who are ready to renounce everything for the service of the nation and become perfect examples themselves by attaining pure character, selfless mind and discrimination, with body as strong as a Vajra and an heart infused with indomitable enthusiasm and love, to consecrate our sacred Bharatmata on the throne of Vishva Guru.
^^mfÙk"Br] tkxzr] çkI; ojkfUucks/kr**
“Arise Awake and stop not till the goal is reached...”