Wednesday, June 30, 2021

मीडिया में इमरजेंसी के हालत बताने वालों ने इमरजेंसी की विभीषिका नहीं देखी – रमेश शर्मा

 इंदौर. वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा ने कहा कि आजकल कुछ लोग कहते हैं कि देश में आपातकाल की स्थिति बनी हुई है. या तो ये वो लोग हैं जिन्होंने आपातकाल की विभीषिका नहीं देखी या ये आपातकाल के सहभागी रहे हैं. जो लोग कहते हैं कि आज मीडिया पर सरकार का नियंत्रण है, उन्हें इंदिरा के शासनकाल को देखना चाहिए. मैं रात को अपने घर पर गया और आपातकाल की रात्रि १२ बजे सभी मीडिया संस्थानों के कार्यालयों की लाइट बंद कर दी गई. इसलिए २६ को अखबार नहीं छपे, २७ को अखबार छपे. पत्रकारों को २० सूत्रीय सशर्त पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़ते थे, अन्यथा नौकरी से बाहर निकाल दिया जाता था. समाचार पत्रों में पुलिस द्वारा दी जा रही यातनाओं को नहीं बताया जा सकता था. सम्पादकों को सीधे बैठक बुलाकर निर्देश दिया गया कि सरकार विरोधी कोई भी खबर नहीं चलनी चाहिए. देश में आपातकाल के समय लगभग 500 जिले थे, सभी जिलों के कलेक्टर सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय को नोटिस करते थे. बीच के सभी तंत्र को समाप्त कर दिया गया. आज अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे लगाते हैं और इस खबर पर पैनल डिस्कशन करते हैं और कहते हैं कि मीडिया में इमरजेंसी जैसे हालत हैं, उनकी यह बात सुनकर हंसी आती है. रमेश शर्मा विश्व संवाद केंद्र मालवा और दैनिक स्वदेश इंदौर के संयुक्त कार्यक्रम आपातकाल मीडिया कल, आज और कल विषय पर सम्बोधित कर रहे थे.

कार्यक्रम के अध्यक्ष इंदौर प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष व स्वदेश के पूर्व प्रबंध सम्पादक कृष्ण कुमार अष्ठाना जी ने कहा कि मैं उन कुछ लोगो में हूँ, जिनका आपातकाल का पूरा समय जेल में रहकर बीता. स्वदेश के सभी पत्रकार जेलों में बंद कर दिए गए. सरकार की स्तुति करने वाले अखबार ही चल रहे थे. आपातकाल में मेरे कई परिचितों की नौकरी चली गई. कई लोग आज भी उस दुःख को भोग रहे हैं. कई देशभक्तों की जेल में ही मृत्यु हो गई, उनके दुःख की कोई सीमा नहीं है.

प्रस्तावना व भूमिका स्वदेश के पूर्व सम्पादक व विश्व संवाद केंद्र के वर्तमान अध्यक्ष दिनेश जी गुप्ता ने रखी. परिचय महेश तिवारीसंचालक स्वदेश ने करवाया. आभार प्रदर्शन विवेक गोरे जी ने किया. कार्यक्रम में मालवा के सभी वरिष्ठ पत्रकार उपस्थित रहे.

Tuesday, June 29, 2021

यादों में आपातकाल – दो : जब जेपी की हुंकार से सिंहासन हिल उठे!

 जयराम शुक्ल

कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ का नारा इंदिरा इज इंडिया गली कूँचों तक गूंजने लगा. इसी बीच मध्यप्रदेश में पीसी सेठी को हटाकर श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री बनाया गया. अखबारों की हालत यह कि पहले पन्ने से लेकर आखिरी तक इंदिरा गांधी, संजय गाँधी उनके चमचों की खबरों से पटे. हर हफ्ते कहीं न कहीं रैलियाँ, सभाएं. भीड़ जोड़ने का काम स्कूल के प्राचार्यों, हेडमास्टरों को दे दिया गया. शहर में कोई बड़ा नेता आता तो स्कूलों के सामने बसें लगवा दी जातीं और रैली सभाओं में हम बच्चे भीड़ बढ़ाने, नारे लगाने के लिए भेजे जाते.

जब नवमी पढ़ रहा था तभी श्यामाचरण शुक्ल का हमारे शहर दौरा बना. वे यहाँ हवाई जहाज से आने वाले थे. उनकी सभा के लिए यहाँ के सबसे बड़े खेल के मैदान में पंडाल लगाया गया. मेरी याद में इतना बड़ा पंडाल आज तक नहीं देखा. जिस दिन मुख्यमंत्री को आना था, चार बसें स्कूल के दरवाजे पर लगवा दी गईं. कक्षाएं स्थगित कर बच्चों को बस में हवाई पट्टी भेज दिया गया. वहां पता चला कि श्यामाचरण शुक्ल आने वाले हैं, हम लोगों को उनका स्वागत करना है.

पहले तो अच्छा लगा कि जिंदगी में पहली बार नजदीक से हवाई जहाज और मुख्यमंत्री देखने को मिलेंगे. लेकिन घंटे भर इंतजार करते-करते मुट्ठियों में रखे गेंदे के फूल सूखने लगे जो हम बच्चों को मुख्यमंत्री के ऊपर बरसाना था. हम प्यास से बिलबिलाने लगे. भूख भी लग आई, ऊपर से क्वाँर-कार्तिक की तेज धूप. कुल मिलाकर कर पहली बार इमरजेंसी इतनी जालिम लगी.

नेता पर बरसाने के लिए दिए गए फूल ही चबाकर कर भूख शांत करने की जैसी ही चेष्टा की वैसे ही नारा गूँज उठा ..श्यामा भैय्या आए हैं, नई रोशनी लाए हैं. वस्तुस्थिति यह थी कि हम बच्चों के आँखों के सामने दिन-दोपहर ही भूख-प्यास के मारे अँधेरा छाने लगा था. सामने से खुली जीप पर बंद गले की नीली कोट पहने श्यामाचरण जी मुस्कराते निकल गए. हम लोग कैसे भी वापस शहर पहुंचे.. और शेष समय इमरजेंसी और उसके नेताओं को गरियाते हुए बिताया जिनकी वजह से भूखे-प्यासे मरना पड़ा.

शाम को कौतूहल देखने सभा स्थल गए तो पता चला कि यहां भीड़ जोड़ने का जिम्मा दूसरे स्कूलों पर है. सभा में स्कूली बच्चों के झुंड थे. उधर नेताओं के भाषण चल रहे थे. शाम की आकाशवाणी की न्यूज बुलेटिन में मुख्यमंत्री की रैली और सभा में उमड़ी भारी भीड़ का जिक्र था और स्थानीय अखबारों का पहला पन्ना उनकी तस्वीरों व भाषणों से भरा था. समूचे देश में यही चल रहा था. जमीन उत्तरोतर खिसक रही थी, पर प्रायोजित भीड़ ऊपर के नेताओं को ऐसे ही चकमा देती रहती. 77 में भीड़ और रैलियों के ऐसे ही खुफिया फीडबैक की वजह से इंदिरा जी आम चुनाव के लिए राजी हुईं.

इमरजेन्सी हटी और नेता लोग जेल से छूटने लगे. फिर चुनाव हुआ. जिसमें जेपी के संरक्षण में बनी जनता पार्टी की सरकार ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार को हटा दिया. इस साल मैं दसवीं पढ़ रहा था. तब तक मैं यमुनाप्रसाद शास्त्री के परिवार में एक सदस्य के तौर पर शामिल हो चुका था. उनकी आभा की छाया में रहते हुए मोरार जी भाई देसाई, चंद्रशेखर, बाबू जगजीवन राम, मधु दंडवते, सुरेंद्र मोहन, राजनारायण आदि दिग्गजों को नजदीक से देखा. किसी नेता के यहां बड़े-बड़े हाकिम अफसर कैसे ड्यूटी बजाते हैं, यह भी देखा. उन पुलिस वालों को भी देखा जिन्होंने इमरजेंसी में जिन नेताओं को हथकड़ियां पहनाईं थी, अब वे उनकी चिरौरी कर रहे थे. किशोरवय स्कूली छात्र के लिए यह कौतुक भी जबरदस्त था जो मेरी जिंदगी के हिस्से लिखा था.

हम लोगों ने राजनीति का दुरुपयोग भी किया. स्कूल में हमारी क्लास में बड़े अफसरों के कई बिगडैल बेटे जो हम देहाती छात्रों का मजाक उड़ाते थे, उनके अफसर पिताओं के नाम की सूची बना ली. शास्त्री जी के यहां जो भी मंत्री आते थे, उन्हें वही सूची थमाकर कहते कि इनको रीवा से भगा दीजिए. वैसे भी जनता पार्टी की प्रदेश सरकार में शास्त्री जी के कई शिष्य थे जो पहली बार में ही कैबिनेट मंत्री बन गए. बहरहाल ग्यारवीं में जब उन छात्रों को क्लास में नहीं देखा तो अंदाज लगा लिया कि निश्चित ही इनके पिताओं को सरगुजा-बस्तर भेज दिया गया होगा. इमरजेन्सी में उन मुख्यमंत्री जी के स्वागत में जितने कष्ट झेले थे, जनता राज के मजे ने उसे भुला दिया. स्कूली छात्र जीवन में इमरजेन्सी लगने और फिर उतरने की इतनी ही राम कहानी से अपन का वास्ता पड़ा. अब आगे वह सब जो इंदिरा के आपातकाल के बारे में पढ़ने व सुनने को मिला

जनता सरकार कैसे गिरी.. ऐसे विषयों की समझ तब बननी शुरू हुई, जब 1983-84 में पत्रकारिता का छात्र था. खबरों की दुनिया के मुहाने पर बैठकर जल्द ही उन सभी जिज्ञासाओं का समाधान तलाशता था, जो बेचैन किया करती थीं. अखबारों में व्यंग्य स्तंभों का चलन उन दिनों काफी लोकप्रिय था. इसी तरह के किसी स्तंभ में एक किस्सा पढ़ा जो कुछ यूँ था दैवयोग से एक बार किन्नरों के घर एक बच्चा पैदा हुआ. दूसरों के बच्चों के जन्मने पर नाचने गाने वाले किन्नरों के ही घर जब यह सुअवसर आया तो फिर कैसा जश्न हुआ होगा समझ सकते हैं. नाचने गाने की खुशी के बाद इस बात पर बहस चल पड़ी कि बच्चे को नाम किसका दिया जाए. बहस गंभीर होती गई. एक बूढ़े किन्नर ने सुझाया कि वरिष्ठता के क्रम में सभी एक-एक करके उसका बाप होने का सुख लें. समझाइश काम कर गई. सब बारी-बारी से उसे लाड प्यार करने लगे. जब आखिरी किन्नर की बारी आई तो उसने देखा बच्चे की सांस थम गई है, नाड़ी भी नहीं चल रही. यानि कि लाड प्यार के चक्कर में इतना भी ख्याल नहीं रहा कि इसे दूध और घुट्टी वगैरह भी चाहिए. बच्चे की आसमयिक मौत हो गई. 77 की जनता पार्टी की सरकार 80 आते-आते इसी तरह गिर गई.

इमरजेंसी क्यों लगी? इस पर दर्जनों पुस्तकें आ चुकी हैं. हजारों से ज्यादा विश्लेषण और आलेख छप चुके. अब भी हर साल इसकी बरसी पर लेख आते हैं. इमरजेंसी को दूसरी गुलामी कहा जाता है. गिरफ्तार होने वाले अब लोकतंत्र के सेनानी हैं. कई सरकारों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भाँति पेंशन बाँध दी और भी कई सुविधाएं दी.

इमरजेन्सी को नागरिक अधिकारों पर सबसे बड़ा हमला माना गया. आज भी इसकी डरावनी तस्वीर पेश की जाती है. वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी आत्मकथा बियांड द लाइन्समें इमरजेन्सी के कारणों का तथ्यपरक ब्योरा दिया है. लेकिन इस ब्योरे के पूर्व की कथा संक्षेप में जाननी चाहिए.

सन् 71 में बांग्ला विजय ने इंदिरा जी के कद को लार्जर दैन लाइफ बना दिया. कांग्रेस के ओल्ड गार्ड्स (नेहरूकालीन नेता) जल्द ही ठिकाने लगा दिए गए. अटलबिहारी वाजपेयी जैसे नेता ने लोकसभा में इंदिरा जी को दुर्गा कहकर महिमामंडित किया. इंदिरा जी के कद के सामने सब बौने थे. बैंकों और खदानों के राष्ट्रीयकरण तथा राजाओं के प्रिवीपर्स को बंद करने के फैसले की वजह से दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां भी इंदिरा जी की भक्त हो गईं. जनसंघ का दायरा सिमटा हुआ था. सोशलिस्ट पार्टियों का सबसे प्रभावी धड़ा कांग्रेस में शामिल हो चुका था. शेष सोशलिस्टी आपस में लड़ झगड़ रहे थे. विपक्ष में ऐसा कोई नहीं था जो इंदिरा जी की स्वेच्छाचरिता के खिलाफ कुछ कह सके.

इंदिरा जी अपने मुख्यमंत्रियों को ताश के पत्तों की तरह फेंट रहीं थी. इसी फेंटाफेंटी के बीच बिहार के समस्तीपुर में ललित नारायण मिश्र की हत्या हो गई. गुजरात में चिमनभाई पटेल सरकार के खिलाफ छात्र और युवाओं ने मोर्चा खोल लिया. गली-गली में शोर है चिमनभाई चोर हैका नारा इसी आंदोलन में गूंजा था, जिसने बाद में अन्य नेताओं से जुड़कर विस्तार पाया. बिहार में अब्दुल गफूर के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी. यहां भी छात्र इस सरकार के खिलाफ आंदोलित थे.

इस बीच राजनीति से दूर सर्वोदय आंदोलन से जुड़े जयप्रकाश नारायण से सत्ता की स्वेच्छाचरिता देखी नहीं गई. उन्होंने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा कि वे अपने मुख्यमंत्रियों के भ्रष्टाचार और सत्ता की स्वेच्छाचरिता पर लगाम लगाएं. एकछत्र साम्राज्ञी बन चुकीं इंदिरा जी को जेपी की यह समझाइश नागवार लगी. जबकि जेपी ने यह पत्र साधिकार लिखा था क्योंकि कि वे इंदिरा जी को अपनी भतीजी मानते थे. यह इतिहास जानता है कि कमला नेहरू और जेपी के बीच सीता और लक्ष्मण जैसे रिश्ते रहे. जेपी नेहरू द्वारा प्रस्तावित उप-प्रधानमंत्री का पद भी अस्वीकार कर चुके थे.

जेपी के पत्र के जवाब में इंदिरा जी ने अखबारों में यह तंज कसा कि उद्योगपतियों के पैसे से पलने वाले कुछ लोग भ्रष्टाचार की बात करते हैं”. यह बयान पढ़कर जेपी ने अपना आर्थिक ब्योरा, आमदनी और खर्च, सब कुछ लौटती डाक से इंदिरा जी को भेज दिया. इंदिरा जी के इस बयान को उन्होंने एक चुनौती के मानिंद लिया और उसी दिन तय कर लिया कि इस स्वेच्छाचारी सरकार को जड़ से उखाड़ फेकेंगे.

विपक्ष लस्त-पस्त था. जेपी ने छात्रों और युवाओं में उम्मीद देखी. उन्होंने गुजरात जाकर छात्रों के नवनिर्माण आंदोलनको अपना समर्थन दिया. आंदोलन की चरम परणित चिमनभाई सरकार के इस्तीफे से हुई. इस सफलता की आँच पूरे देश ने महसूस की. बिहार में अब्दुल गफूर सरकार के खिलाफ मोर्चा खुल गया. जेपी ने युवा छात्र संघकी स्थापना करके देश भर के विद्रोही छात्रों और युवाओं को जोड़ लिया.

बिखरे समाजवादी, पुराने गांधीवादी उनसे जुड़ने लगे. और अभियान में जनसंघ भी जुड़ गया. नानाजी देशमुख जेपी के सहयोगी व प्रमुख रणनीतिकार बनकर उभरे. देश भर में विपक्षी एकता की एक लहर सी चल पड़ी. सबके निशाने पर इंदिरा गांधी ही थी. जन आक्रोश को समझने की जगह उसे सख्ती से कुचला जाने लगा.

इसी बीच यानि कि 1974 में मध्यप्रदेश में दो बड़ी राजनीतिक घटनाएं हुईं. सेठ गोविंददास के निधन से जबलपुर लोकसभा सीट रिक्त हो गई. भोपाल दक्षिण विधानसभा सीट में भी कुछ ऐसी ही स्थितियों के चलते उप चुनाव की नौबत आ गई. जबलपुर से छात्र नेता शरद यादव और भोपाल दक्षिण से बाबूलाल गौर संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी घोषित हुए. दोनों ही चुनावों में काँग्रेस की बुरी गत हुई. इन परिणामों ने विपक्षी एकता के लिए फेवीकोल का काम किया.

बियांड द लाइंस में कुलदीप नैय्यर लिखते हैं इंडियन एक्सप्रेस में नियुक्ति के कुछ दिन बाद ही गोयनका जी से यह सुनकर हैरान हो गया कि इंदिरा जी संविधान को भंगकर जेपी सहित तमाम विपक्षी नेताओं को जेल में ठूसना चाहती हैं. मैंने तो यह खबर नहीं बनाई, लेकिन जनसंघ के मुखपत्र मदरलैंड ने इसे मुखपृष्ठ पर छापा.इंदिराजी ने जेपी आंदोलन को निजी चुनौती की तरह लिया.

कभी-कभी संयोग या दुर्योग स्वमेव जुड़ते जाते हैं. 12 जून, 1975 का इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला कुछ इसी तरह का ही था. रायबरेली से इंदिरा गांधी के चुनावी प्रतिद्वंदी रहे सोशलिस्टी राजनारायण की याचिका पर फैसला देते हुए जज जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया. इस फैसले की दो मामूली वजहें थीं. एक ओएसडी यशपाल कपूर ने पीएमओ से बिना इस्तीफा दिए चुनाव प्रचार में हाथ बंटाया, दूसरा इंदिरा जी की सभाओं के लिए यूपी सरकार के अफसरों ने इंतजामात किए. ऐसे आरोप प्रायः हर दूसरी चुनावी याचिका में लगते हैं, पर इस फैसले से एक इतिहास रचा जाना बदा था. हाईकोर्ट ने अपील के लिए 15 दिन मुकर्रर किए थे. इसी बीच 15 जून 1975 को जेपी ने पटना के गांधी मैदान में छात्रों युवाओं की विशाल जनसभा में संपूर्ण क्रांति का आह्वान कर दिया.

कुलदीप नैय्यर लिखते हैं चुनाव से जुड़ा कानून कितना ही सख्त क्यों न हो, मेरा अपना ख्याल था कि यह फैसला एक चींटी को मारने के लिए हथौड़े के इस्तेमाल करने की तरह थासुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश कृष्णा अय्यर ने फैसले पर स्टे दे दिया और अपील के निपटारे तक के लिए व्यवस्था दी कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं. इलाहाबाद हाईकोर्ट से लेकर दिल्ली के सुप्रीमकोर्ट तक के फैसलों पर कालांतर में अंगुलियां उठीं.

कमाल की बात यह कि सुप्रीम कोर्ट में फैसले के खिलाफ अपील करने वाले वीएन खेर बाद में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस तक पहुंचे. जबकि, यह अपील उन्होंने इंदिरा जी के निर्देश पर नहीं स्वतः ही उत्साहित होकर दायर की थी.

खैर, इंदिरा जी इस्तीफा देने का मन बना चुकीं थी. उप चुनाव से चुनकर आने तक के लिए कमलापति त्रिपाठी को प्रधानमंत्री बनने की बात भी हो चुकी थी. यदि ऐसा होता तो लोकतंत्र में आपातकाल का कलंक टल जाता. पर, जिन दो लोगों ने इसे टलने नहीं दिया उनमें से एक थे संजय गांधी और दूसरे पं. बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे. दून स्कूल से फेल और इंग्लैण्ड में रोल्स रायस में मैकेनिकी कर नककटाई करवा चुके संजय गांधी की महत्वाकांक्षा परवान पर थी और यह अच्छा मौका था, जब सत्ता के सूत्र वे अपने हाँथों सँभाल लें.

परिणाम यह हुआ कि कैबिनेट की स्वीकृति लिए बगैर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलकर 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी. इसके बाद जो कुछ हुआ वह देश ने और समूची दुनिया ने देखा.

स्रोत- विश्व संवाद केन्द्र, भारत

Monday, June 28, 2021

भारतीय संस्कृति के अनुरूप हो, हमारी दिनचर्या – स्वांतरंजन

 

स्वदेशी जागरण मंच, जयपुर प्रांत द्वारा वैश्विक महामारी : कोरोना, चुनौती और समाधान पुस्तक का विमोचन कार्यक्रम बुधवार को वर्चुअल माध्यम से संपन्न हुआ. कार्यक्रम का आरम्भ दीप प्रज्जलवन और गायत्री मंत्र के साथ हुआ.

पुस्तक का विमोचन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय बौद्धिक शिक्षण प्रमुख स्वांतरंजन के कर कमलों से संपन्न हुआ. उन्होंने कहा कि श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी ने जो राह वर्षों पहले दिखाई, हमें उसी पर आगे बढ़ कर अग्रसर और उन्नत होना है. भारत में कोरोना महामारी ने अनेक प्रताड़ना के आयाम दिये हैं, अर्थ और शिक्षा को विशेष रुप से प्रभावित किया है. हमें इनमें सुधार करने की जरूरत है. हमारे देश के चिकित्सकों, वैज्ञानिकों, आयुर्वेदाचार्यों ने शोध करके कोरोना महामारी के बचाव व रोग के निदान हेतु विशेष कार्य किया है और अनेक दवाई, वैक्सीन बनाई हैं. जहां-जहां चुनौती आई, वहां पर भारत ने सामना करते हुए नये-नये तरीके अपना बचाव किया है.

इन्हीं में से प्रमुख हैं भारतीय संस्कृति के योग, प्राणायाम व दैनिक दिनचर्या. भारतीय संस्कृति की जीवन शैली को पुनर्जीवित करने का कार्य इस महामारी ने किया है. लोगों ने योग, प्राणायाम, आयुर्वेद को नजदीक से समझा है और भारतीय संस्कृति के अनुरूप इन आयामों को अपनाकर अपनी जीवनशैली को बदला है. लोगों ने उचित आहार व नियमित दिनचर्या अपनाकर महामारी का मुकाबला किया है. अनियमित दिनचर्या व जीवन शैली के कारण कोरोना महामारी का प्रकोप ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरों में ज्यादा रहा है. हम सभी स्वस्थ नियमित दिनचर्या अपनाकर, इस दिशा में कार्य करें तो स्वस्थ जीवन जी सकते हैं.

स्वदेशी जागरण मंच का पेटेंट फ्री वैक्सीन महत्वपूर्ण अभियान है, जिसका हम सभी को समर्थन करना चाहिए. इस पुस्तक को जन-जन तक पहुंचा कर, जनजागरण कर हम मानव कल्याण का कार्य कर सकते हैं. हम सभी भारतवासियों को वैश्विक चुनौतियों का अच्छी तरह सामना करना चाहिए.

कार्यक्रम में स्वदेशी जागरण मंच के अखिल भारतीय सह विचार विभाग प्रमुख डॉ. राजकुमार चतुर्वेदी ने पुस्तक के बारे में बताया कि कोरोना महामारी और वैश्विक संकट कितना गंभीर बना हुआ है, उसका उल्लेख इस पुस्तक में है. महामारी ने विकास की परिभाषा बदल दी है.

भारत देश व यहां के निवासी प्रत्येक भारतीय की महामारी में क्या भूमिका हो, इस बात की विवेचना इस पुस्तक में है. इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए. विश्व का कल्याण उन्नत टेक्नोलॉजी से नहीं होगा, बल्कि न्यायोचित ढंग से इस महामारी संकट का समाधान करना होगा.

विमोचन कार्यक्रम के मुख्य वक्ता वॉइस चांसलर चौधरी बंशीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी, हरियाणा और स्वदेशी जागरण मंच के अखिल भारतीय विचार विभाग प्रमुख प्रो. राजकुमार मित्तल ने कहा कि कोरोना महामारी से बचाव का तरीका शत-प्रतिशत टीकाकरण है. विश्व को बचाना है तो 787 करोड़ लोगों का टीकाकरण किस तरह करवाया जाए, इस पर गहनता से विचार किया जाना चाहिए. सभी को वैक्सीनेशन के लिए 1500 करोड़ डोज टीकों की जरूरत होगी, अकेले भारत को 200 करोड़ डोज टीके चाहिए. इस प्रकार पूरे विश्व का टीकाकरण करने में दो वर्ष से अधिक का समय लग सकता है. वर्तमान गति एवं योजना के अनुसार भारत की 70  प्रतिशत आबादी को वर्ष के अंत तक टीकाकरण संभव है.

वैक्सीनेशन, गति बढ़ाने, कीमतें कम करने व सर्वाधिक टीकाकरण करने का एक मात्र उपाय टीकों का अधिकाधिक उत्पादन है. इस मार्ग में सर्वाधिक बाधा पेटेंट कानून है, जिसकी वजह से पेटेंट स्वामित्व वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अतिरिक्त अन्य कंपनियां उत्पादन नहीं कर सकती हैं. विश्व के धनाढ्य विकसित देशों ने अपने यहां उत्पादित टीकों का 90 प्रतिशत पूर्व में आरक्षित कर अपने देश की 90 प्रतिशत जनता का टीकाकरण कर लिया है, जबकि विश्व के अधिकांश गरीब एवं विकासशील देशों की 10 प्रतिशत जनता को अभी तक भी टीका नहीं लगा है. इसलिए भारत और अफ्रीकी महाद्वीप के 100 से अधिक देशों ने डब्लूटीओ मे वैक्सीन और कोरोना की दवाइयों को पेटेंट फ्री करने हेतु एक याचिका प्रस्ताव प्रस्तुत किया है. जिसके समर्थन में भारत में स्वदेशी जागरण मंच एवं अनेक देशों के एनजीओ जनता की आवाज को सुदृढ़ता के साथ डिजिटल याचिका हस्ताक्षर अभियान, प्रदर्शन समर्थन के रुप में प्रस्तुत कर रहे हैं.

स्वदेशी जागरण मंच मांग करता है कि मानव कल्याण के लिए इन कंपनियों को अत्यधिक लाभ कमाने की नीति को त्याग कर, अधिक वैक्सीन उत्पादन कर विश्व में इनके समान वितरण की सुनिश्चितता हो. विश्व कुटुम्बकम की भावना रखते हुए सभी देशों की आबादी को वैक्सीनेशन की सुविधा मिले.

यादों में आपातकाल – एक : अनुशासन का शर्मनाक यातना पर्व…!

 - जयराम शुक्ल

पंद्रह अगस्त, 26 जनवरी यदि सरकारी आयोजन न होते तो पब्लिक इन्हें कब का भुला चुकी होती. लेकिन कुछ ऐसी तिथियां हैं, जिन्हें राजनीति भूलने नहीं देगी. सबसे ऊपर है – 25 जून 1975 का दिन. इस दिन देश में आपातकाल घोषित किया गया था.

आपातकाल पर मेरे दो नजरिए हैं, एक जो मैंने देखा, दूसरा जो मैंने पढ़ा और सुना. चलिए पहले से शुरू करते हैं. वो स्कूली छुट्टी के दिन थे, मैं गाँव के स्कूल से सातवीं पास करके आठवीं में जाने के लिए तैयार हो रहा था. 25 जून को गांव में खबर पहुँची कि मीसाबंदी हो गई. शाम को लोग चौगोला बनाकर रेडियो के पास बैठकर खबरें सुनते कि इंदिरा जी ने क्या कहामुझे जहाँ तक याद है, इंदिरा जी ने कहा था कि देश आंतरिक संकट से जूझ रहा है, कुछ विघटनकारी शक्तियाँ देश को बरबाद करने पर तुली हैं, इसलिए अब संयम और अनुशासन का समय आ गया है. रेडियो से आचार्य बिनोवा भावे की प्रतिक्रिया भी प्रसारित की गई, जिसमें उन्होंने कहा था यह आपातकाल नहीं, अनुशासन पर्व है.

दूसरे दिन से खबरें आना शुरू हो गई कि पुलिस ने गुंडों की धरपकड़ शुरू कर दी है. हमारे इलाके के कई नामी गुंडे पकड़कर जेल भेज दिए गए. कई व्यापारियों, जमाखोरों के यहां भी छापे पड़े. पुलिस उन्हें पकड़कर थाने ले गई. इमरजेंसी की जिस तरह से शुरुआत हुई गांव-शहर के लोगों ने अमूमन स्वागत ही किया.

सरकारी मुलाजिम समय पर दफ्तर जाने लगे, मास्टर स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने लगे. अपने गांव के ही दो सरकारी मुलाजिम जो शहर में दफ्तर में बाबू थे, दस-दस रुपये की घूस लेते हुए पकड़े गए और मुअत्तल कर दिए गए. मीसा की दहशत का आलम यह था कि खेतों में काम करने वाले हरवाह भी पूरे वक्त मेहनत करते क्योंकि उनके किसान मालिक यह कहते हुए धमकाते थे कि कामचोरी करोगे तो पुलिस मीसा में बंद कर देगी. गांव से शहर जाने वाली बसें इतनी पाबंद हो गईं कि उनके आने-जाने पर आप घड़ी मिला लें.

कुल मिलाकर इमरजेंसी की जो पहली छाप पड़ी, वह पटरी से उतरी व्यवस्थाओं को ठीक करने की थी. हां, गांव में यह खबरें आ ही नहीं पाती थीं कि कहां से किस नेता को, किस गुनाह में गिरफ्तार किया गया. गांव के आसपास रहने वाले छुटभैया नेताओं के यहां जब पुलिस पूछताछ के लिए या गिरफ्तार करने पहुँचती तो जरूर चर्चा शुरू होती कि मीसा तो गुंडों को पकड़ने के लिए है, लेकिन नेताओं को क्यों पकड़ा जा रहा है. गाँव की चौपालों में शुरू हुई फुसफुसाहट बाद में चर्चाओं में बदल गई कि इंदिरा जी अपने और अपनी पार्टी के विरोधियों को भी ठिकाने लगा रही हैं.

अपना विंध्य शुरू से ही समाजवादियों का गढ़ रहा है. डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का यहां बहुत प्रभाव था. आपातकाल के पहले इंदिरा जी के खिलाफ अभियान का नेतृत्व जेपी ही कर रहे थे. लिहाजा पूरे मध्यप्रदेश में जेपी आंदोलन का सबसे ज्यादा असर इसी क्षेत्र में था. यहां के युवा और छात्र जेपी आंदोलन से जुड़े. उन दिनों अखबारों में पहले से आखिरी पेज तक इंदिरा जी की तारीफ और एक ही जादू- कड़ी मेहनत, दूरदृष्टि, पक्का इरादा जैसे उपदेशक नारे छपते थे. संजय गांधी की फोटो और उनके भाषण इसी दौरान अखबारों में पढ़ा. यह भी जाना कि ये इंदिरा गांधी के बेटे हैं.

हमारे इलाके के दो बड़े नेता थे श्रीनिवास तिवारी और यमुनाप्रसाद शास्त्री. तिवारी जी 72 में सोशलिस्ट छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो चुके थे. वे हमारे मनगँवा क्षेत्र से विधायक थे. वे क्षेत्र में काँग्रेस के लिए सभाएं कर जनता को अपने भाषणों में बता रहे थे कि देश के भीतर किस तरह विघटनकारी तत्व काम कर रहे हैं. वे सभाओं में जयप्रकाश नारायण के खिलाफ आग उगल रहे थे. यह बाद में जाना कि तिवारी जी सोशलिस्ट में जेपी के शिष्य रहे हैं.

74 में मध्यप्रदेश की विधानसभा में दिए गए उनके एक भाषण की प्रति भी हाथ लगी, जिसमें उन्होंने जेपी को राष्ट्रद्रोही बताते हुए गिरफ्तार करने की माँग की थी. बाद में एक बार तिवारी जी से मैंने पूछा कि जिन जयप्रकाश नारायण ने जोशी यमुना श्रीनिवास का नारा दिया था, उन्हें ही बाद में आपने राष्ट्रद्रोही बताया. इस पर तिवारी जी ने जवाब दिया था कि मैं राजनीति में दोहरी प्रतिबद्धता पर यकीन नहीं करता, तब सोशलिस्टी था अब काँग्रेसी हूँ. आपातकाल के सवाल पर अन्य समाजवादी पृष्ठभूमि के कांग्रेसी नेताओं के विपरीत तिवारी जी पूरी ताकत के साथ इंदिरा जी के फैसले के पक्ष में थे.

दूसरे नेता थे यमुना प्रसाद शास्त्री. वे सिरमौर से अपने ही शिष्य काँग्रेस की टिकट पर मैदान में उतरे राजमणि पटेल के हाथों चुनाव गँवा चुके थे. शास्त्री जी की एक आँख गोवा में पुर्तगालियों के दमन में ही जा चुकी थी, दूसरी आँख में भी तकलीफ शुरू हो चुकी थी, उसका इलाज चल रहा था, इसलिए वे गिरफ्तारी से बचे रहे. शास्त्री जी बीमार हालत में भी आपातकाल के खिलाफ सक्रिय थे. उनके गृहगांव सूरा का घर अंडरग्राउंड फरारी काट रहे नेताओं की शरणस्थली रहा. कम लोगों को ही मालूम होगा कि 74-75 में नेपाल के प्रमुख नेता गिरजाप्रसाद कोइराला का पूरा परिवार सूरा में ही शरण लिए हुए था. नेपाल में भी भारत जैसे हालात थे.

शास्त्री जी के प्रिय शिष्य सोशलिस्ट नेता वृहस्पति सिंह ने मेरी जानकारी दुरुस्त की कि इंदिरा सरकार द्वारा बडोदा डायनामाइट केस के मुजरिम बनाए गए जॉर्ज फर्नांडिस ने भी यमुनाप्रसाद शास्त्री के गांव वाले घर में कुछ दिनों तक फरारी काटी थी. सूबे के प्रायः सभी सोशलिस्टी और जनसंघी जेल में थे. एक दर्जन से ज्यादा युवा छात्र ऐसे भी थे जो कॉलेज में फर्स्ट इयर पढ़ रहे थे, जेल भेज दिए गए. कइयों के परिजनों को छह महीने बाद खबर लगी कि वे जेल में हैं.

आपातकाल की गिरफ्तारी में पूरा समाजवाद था, नेता, गुंडे, चोर-उचक्के, कालाबाजारिए सभी जेल में एक भाव थे. बाद में उनमें से कइयो में ऐसा ट्रांसफार्मेशन हुआ कि वे जेल तो गए गुंडे के रूप में निकले नेता बनकर. जिन्हें बाद में टिकट भी मिली और वे फिर नेता बन गए. आज उन सबों को केंद्र व राज्य सरकारें अच्छी खासी पेंशन दे रही हैं.

बहरहाल, एक दिन गांव में खबर फैली की रीवा सेंट्रल जेल में गोली चली है और सबके सब मीसाबंदी मार डाले गए. खबर की पुष्टि का कोई आधार भी नहीं था. अखबार साफ-साफ कुछ नहीं लिखते थे. धीरे-धीरे खबर साफ हुई कि जेल में रीवा कलेक्टर धर्मेंद्रनाथ को मीसाबंदियों ने लात जूतों से जमकर पिटाई की. वजह यह कि कलेक्टर ने जेल में अव्यवस्थाओं को लेकर अनशन पर बैठे समाजवादी नेता कौशल प्रसाद मिश्र के साथ बदसलूकी कर दी. जिससे गुस्सा कर उनके अनुयायियों ने कलेक्टर की पिटाई कर दी थी.

भला हो उस एसपी का जिसने गोली चलाने के कलेक्टर के आदेश को मानने से मना कर दिया. वरना गांव में पहुँची कत्लेआम की वह खबर बिल्कुल सच साबित होती. बहरहाल लगभग सभी मीसाबंदियों को कड़ी यातनाएं दी गई. रात को कंबल परेड हुई, दूसरे दिन दुर्दांत अपराधियों की तरह आडा-बेडी लगाकर प्रदेश की दूसरी जेलों में शिफ्ट किया गया. घटना का पूरा ब्योरा 1978 में रीवा के ऐतिहासिक व्यंकटभवन में तब सुनने को मिला, जब यहां इमरजेन्सी के जुल्मों की सुनवाई करने शाह कमीशन आया था.

सन् 1976 में मैं नवमी पढ़ने गांव से शहर आ गया. रीवा के मॉडल स्कूल में दाखिला मिल गया. हम देहातियों के लिए यह किसी दून स्कूल से कम न थी. पहली बार जब स्कूल परिसर में घुसा तो उसकी सफेद दीवारों पर नारे लिखे पटे थे जो इमरजेंसी में संजयगांधी ब्रिगेड ने गढ़े थे. हर क्लास रूम के बाहर दूर दृष्टि पक्का इरादा.. दिख रहा था. स्कूल में नसबंदी वाले भी नारे लिखे थे. हम छात्र आपस में मजाक करते कि सरकार शादी करने पर ही बैन लगा दे न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी

अखबारों में रोज नसबंदी शिविरों की खबरें पढ़ते थे. बढ़ चढ़कर आंकड़े आते थे कि संजय गांधी की प्रेरणा से गांव के गांव ने नसबंदी करा ली. पटवारी, कानूनों खसरा खतौनी छोड़कर नसबंदी का लक्ष्य हासिल करने में भिड़े थे. काँग्रेस नेता नसबंदी शिविरों का उद्घाटन करते थे और नसकटवाए लोगों के साथ मुसकराते फोटो खिंचवाकर छपवाते थे. अखबारों में पूरा रामराज चल रहा था. पर फुसफुसाहट के साथ ये खबरे आने लगी कि जबरिया नसबंदी की जा रही है. जिले में ही कई कुँवारों की नसबंदी कर दी गई. मुझे याद है वो वाकया कि मेरे एक परिचित पटवारी के यहां पति-पत्नी पारिवारिक बंटवारे की पुल्ली लेने आए. पटवारी साहब को कुछ रिश्वत देने लगे तो उन्होंने मना करते हुए कहा पहिले कटवारा फेरि बँटवारा’… यानि कि पहले दोनों नसबंदी करवा लो फिर बँटवारा की पुल्ली फोकट में दे देंगे.

संजय गांधी के पाँच सूत्रीय कार्यक्रम कलेक्टरों के लिए ब्रह्मवाक्य की तरह थे. नसबंदी भी एक सूत्र था. इस सूत्र ने देशभर के हजारों, लाखों कुंवारों और बेऔलादों की नसबंदी करवा दी. एक भय का माहौल पैदा हो गया कि किसी को पकड़कर कहीं भी नसबंदी की जा सकती है. इमरजेंसी को इस सूत्र ने आम जनता के बीच सबसे ज्यादा बदनाम किया. मेरा मानना है कि यदि नसबंदी कार्यक्रम को जनजागरण के साथ तरीके से व्यवहार में लाया जाता तो आम जनता तमाम स्थितियों के बाद भी इंदिरा जी के साथ खड़ी होती. उसे नेताओं की गिरफ्तारी और प्रेस सेंसरशिप से भला क्या लेना देनादफ्तर में घूस बंद थी, सब समय पर हो रहा था, रेल बसें टाइम से चलती थीं, गुंडों सरहंगों का भय खत्म था, बनिये लूटने और मिलावटखोरी से डरने लगे थे. प्रारंभ में आम जनमानस में इमरजेंसी ने कुलमिलाकर यही प्रभाव छोड़ा था.

शहरों में अवैध कब्जों के हटाने का अभियान चला. लक्ष्य था कि सार्वजनिक भूमि को सरहंगों और प्रभावशाली व्यक्तियों से मुक्त किया जाएगा. हमारे शहर में जब यह अभियान शुरू हुआ तो सबने प्रशासन के इस कदम को सिरमाथे पर लिया. पर कुछ दिन बाद ही लोग देखने लगे कि प्रभावशाली और काँग्रेस के लोगों के अवैध कब्जे छोड़े जा रहे हैं. गरीब-गुरवे जो ठेला-गुमटी लगाकर पेट पाल रहे थे म्युनिसिपलिटी के लोग उन्हें उलटाने पलटाने तक सीमित हो गए तो इमरजेंसी का अर्थ कुछ-कुछ समझ में आने लगा. अपने शहर में सड़क को कब्जियाकर किए गए एक पक्का अतिक्रमण इसलिए नहीं तोड़ा जा सका क्योंकि वह प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल और एक बड़े कांग्रेस नेता के रिश्तेदार का था. जनता को धीरे-धीरे ये बातें समझ में आने लगीं और वह व्यवस्था के खिलाफ मन मसोसने लगी.

ऊपर से लेकर नीचे तक कांग्रेस के नेता मस्त थे कि जनता उनके साथ है. अखबार उनकी पार्टी की सरकार की जयजयकार कर रहे हैं. देवकांत बरुआ का नारा इंदिरा इज इंडियाचौतरफा गूँज रहा था. कांग्रेस की बड़ी रैलियां और सभाएं होतीं. वही भीड़ अखबारों में छपती पर वो भीड़ कहां से जुटती थी, नौवीं पढ़ते हुए यह मेरी अपनी आप बीती थी.

क्रमशः

स्रोत- विश्व संवाद केन्द्र, भारत