Friday, March 31, 2023

सूर्योपासक देश – जापान के कण -कण में हिन्दू संस्कृति

- डॉ. नितिन सहारिया

जापान शब्द चीनी भाषा के जिम्पोजशब्द से बना है. जिसका अर्थ होता है, ‘सूर्य का देश’. जापान चिर अतीत काल से सूर्य उपासक रहा है. उस देश के निवासी स्वयं को सूर्य की संतान कहते हैं. जापान सम्राट मेईजीकी वे कविताएं सुप्रसिद्ध हैं, जिसमें उन्होंने जापान की आत्मा का सूर्य की ज्योति के रूप में चित्रण किया है.

जापान की धार्मिक परंपरा यह है कि प्रातः काल पूर्व की दिशा में मुंह करके खड़े हो सूर्य दर्शन करें नमन करें और इस दर्शन सौभाग्य के उपलक्ष्य में ताली बजाएं. वे सूर्य को अपना उपास्य और आदर्श मानते हैं. हर जापानी उस प्रेरक गीत को गुनगुनाता रहता है, जिसके बोल हैं

हम सूर्य की संतान हैंहम दिव्य देश के गौरव हैं .” …..

संसार भर में सबसे पुरानी लकड़ी की इमारत जापान की नारा' नगर का हार्युजीमंदिर है. यह सातवीं सदी के आरंभ का बना है. समीप ही बनी एक सावा झील के किनारे का फुकुजीका पांच मंजिला मंदिर है, इसकी ऊंचाई 165 फीट है. निकटवर्ती क्षेत्र एक प्रकार का विस्तृत उद्यान है, जहां तरह -तरह के हिरण निर्भय विचरण करते हैं. झील में लोग मछलियां खरीद कर उन्हें प्रवाहित करते हुए दया धर्म का पालन करते हैं.

को फुईदी प्राचीन काल का समृद्ध बौद्ध विहार है. जहां होसो - संप्रदाय के बौद्ध धर्माचार्य रहते थे. जापानी सम्राटों ने उस स्थान को अपनी श्रद्धा का प्रमुख केंद्र माना. उस क्षेत्र में कितने ही धर्मस्थान बनाए जो कभी 175 तक पहुंच गए थे. उनमें से कुछ तो टूट-फूट गए, किंतु दायन जीगंगोजी, हार्युजी तोदाइज’ ‘याकुशी यह पांच मंदिर अभी भी समुन्नत मस्तक लिए खड़े हैं. को फूईजी मंदिर सन् 768 में बना था. इसमें पत्थर की बनी सुंदर 1800 लालटेन दर्शकों का विशेष आकर्षण हैं. अब इन लालटेनों की संख्या और भी बढ़ाकर 3000 कर दी है. पर्वों के अवसर पर इन सब में दीपदान की दिवाली जैसी मनोरम शोभा देखते ही बनती है.

तोदाइजी बुद्ध मंदिर में आठवीं सदी की बनी विशालकाय बुद्ध प्रतिमा है. इसकी ऊंचाई 53 फ़ीट, 6 इन्च है. घुंघराले बालों के गुच्छे 966 हैं. इस प्रतिमा का भार 500 मीट्रिक टन है. संसार भर के मूर्ति इतिहास में यह मूर्ति अपने ढंग की अनोखी है.

जापान की नगरी नारा में मथुरा- वृंदावन जैसी राग- रंग की धूमधाम रहती है. वहां के मंदिरों में आकर्षक नृत्य के साथ अनेकों धर्मोंत्सव होते रहते हैं. जापानी स्वभाव से प्रकृति सौंदर्य के पूजक हैं. उनके निजी घरों में भी छोटे- बड़े उद्यान बने होते हैं. तिक्कों का तोशूगू मंदिर पहाड़ काटकर इस प्रकार बनाया है, जिससे ना केवल धर्म -भावना की वरन प्रकृति पूजा की आकांक्षा भी पूरी हो सके. जापान के ओसाका नगर का बौद्ध मंदिर देखने योग्य है. वह छठी शताब्दी का बना हुआ है. स्वच्छता और शांत वातावरण देखकर यह विचार उठता है कि क्यों न भारतीय मंदिरों का वातावरण भी ऐसा ही सौम्य बनाया जाए.

जापानी पुरातत्ववेता तकाकसू ने जापानी संस्कृति का इतिहास लिखते हुए स्वीकार किया है कि उसका विकास भारतीय संस्कृतिकी छाया में हुआ है. जापान में बुद्धसेन भारद्वाजनामक भारतीय धर्म प्रचारक ने सारा जीवन उसी देश में धर्म शिक्षा देते हुए व्यतीत किया था. पहले वे अपने कुछ साथियों सहित ओसाका पहुंचे थे, और उन्होंने सारे जापान में यात्राएं की और जापानी जनता को हिन्दू धर्म अनुयाई बनाया. इस महान धर्म- प्रचारक का स्मारक अभी भी नारानगर में बना हुआ है. जापान में सूर्य देवता की पूजा होती है. दिवाली भारत की तरह ही वहां मनाई जाती है. ऐतिहासिक अवशेषों के अनुसार सूर्यवंशी राजाओं ने वहां पहुंचकर शासन सूत्र संभाला था और राज्य व्यवस्था का सूत्र पात किया था. तत्पश्चात बौद्ध प्रचारक वहां पहुंचे और जापान में बौद्ध पंथ फला-फूला.

जापान के धर्म, दर्शन और चिंतन पर भारतीय संस्कृति की गहरी छाप है. प्रथा परंपराओं में अंतर रहते हुए भी भावनात्मक दर्शन वही है, जो भारत की आत्मा कहा जाता है. जापान के देवालयों में भारतीय देवी-देवताओं की सम्मान पूर्वक स्थापना की गई है. जापानी भाषा के अनुसार उनके नाम बदल गए हैं, पर उनकी आकृति- प्रकृति के अनुसार वे भारतीय देवताओं के साथ पूरी तरह संगति रखते हैं.

सूर्य ,ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, कार्तिकेय, अग्नि, कुबेर, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा, राम, कृष्ण दस अवतारों की प्रतिमाएं ऐसी लगती है मानो वे किसी हिन्दू धर्मानुयायी ने ही स्थापित की हों. यमको इसी नाम से मृत्यु का देवता माना जाता है. मंदिरों में हवन कुंड बने हैं, जिनमें द्रव्य, समिधा, अगरबत्ती आदि जलती हैं. मंदिरों में प्रवेश करने से पहले हाथ -मुंह, पैर धोने का नियम है.

जापान में पुरानी जाति है एनु. उसकी मुखाकृति आर्य नस्ल की है. कहते हैं कि वे भारत से उस देश से गए धर्म- प्रचारको की संताने हैं. मंदिरों में बुद्ध के वचन देवनागरी अक्षरों में लिखे होते हैं. जापानी संस्कृत भाषा तो नहीं पर देवनागरी लिपि भली प्रकार जानते हैं. मंदिरों में अंकित बुद्ध प्रवचनों को पढ़ने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती. जापानी, चीनी लिपियां बनावट में एक जैसी लगती हैं, पर उनके बीच जमीन- आसमान जैसा अंतर है. जापानी अक्षर हिंदी की तरह ही ध्वनि पूरक होते हैं. उसकी वर्णमाला का क्रम नागरी जैसा ही है, जबकि चीनी में किन्हीं आकृतियों के आधार पर भाव व्यंजना का होना माना जाता है.

जापान में बौद्धिसेन भारद्वाज सन् 738 में पहुंचे थे और उन्होंने जापानी वर्णमाला को व्यवस्थित किया था. जापान सम्राट शोप्टने इस बौद्ध भिक्षु का स्वागत -सम्मान किया था. बौद्धिसेन भारद्वाजके नाम से जापान का हर शिक्षित व्यक्ति परिचित है.

एक दूसरे धर्म प्रचारक धर्म बोधिकी गाथाएं भी जापान भर में सुविदित हैं. उन्होंने सन् 645 में असाध्य रोग ग्रसित सम्राट कोटुकूको अपने तपबल से जीवन दान दिया था. सम्राट ने उनके लिए अवलोकितेश्वर मंदिर बनवाया और राजमहल में बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद के लिए एक विशेष विभाग स्थापित किया. उनके योग साधन एवं धर्म प्रचार से सहस्रों जापानी प्रभावित हुए और अनुयायी बने.

Thursday, March 30, 2023

लोकतंत्र के आधार हैं राम


तुलसी को राजारामप्रिय नहीं हैं। वे अपने काव्य में लगातार राम के लोकनायकत्वको निखारते हैं। वे राम को राजा की जगह लोकनायकबनाते हैं। राम का लोकतंत्रीकरण करते हैं। इसीलिए राम के राज्याभिषेक पर तुलसी जनस्वीकृति चाहते हैं। इस जनस्वीकृति के लिए वे राम को पूरे देश में घुमाते हैं। समाज के सभी वर्गों से संपर्क कराते हैं।

तुलसी का साहित्य, लोकतंत्र, लोकमंगल और आदर्श राज्य व्यवस्था की अभिव्यक्ति है। उनका रामचरितमानस लोकतांत्रिक मूल्यों की आधारशिला है। उन्होंने रामराज्यनाम की जिस वैचारिकी का सूत्रपात किया, दुनिया के लगभग हर लोकतंत्र का अंतिम लक्ष्य वही है। लोकतंत्र के सारे सूत्र इसी रामराज्य से निकलते हैं। तुलसी का रामराज्य समतामूलक है। रामचरितमानस में राज्य की अनीति के प्रति क्रोध है। राजतंत्र के उत्कर्ष का अस्वीकार है। जनतंत्र की नई अवधारणाएं हैं और लोकतंत्र के चरम आदर्शों की कल्पना है। वे लोकमंगल के ध्वजवाहक हैं। जन-मन के कवि हैं। तुलसी ने वाल्मीकि और भवभूति के राम को पुर्नस्थापित नहीं किया। उनका राम सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के भारत की विषमताओं को तोड़ता एक लोकतांत्रिक नायक है।

तुलसी को राजारामप्रिय नहीं हैं। वे अपने काव्य में लगातार राम के लोकनायकत्वको निखारते हैं। वे राम को राजा की जगह लोकनायकबनाते हैं। राम का लोकतंत्रीकरण करते हैं। इसीलिए राम के राज्याभिषेक पर तुलसी जनस्वीकृति चाहते हैं। इस जनस्वीकृति के लिए वे राम को पूरे देश में घुमाते हैं। समाज के सभी वर्गों से संपर्क कराते हैं। चौदह वर्ष राम सपत्नीक जनता के बीच रहते हैं। घास पर सोते हैं। पैदल चलते हैं। झोंपड़ी में रहते हैं।

निषाद को मित्र बनाते हैं। वनवासियों को गले लगाते हैं। कंदमूल खाते हैं। इस अभियान में जनसामान्य, ऋषि-मुनियों और बौद्धिक वर्ग से उनके नेतृत्व को स्वीकृति मिलती है। तुलसी शासक और जनता के आपसी रिश्ते को परिभाषित करते हैं। राज्य और जनता के बीच सम्पर्क सेतु राम हैं। इसी आधार पर लोकतांत्रिक समाज बनता है।

तुलसी अपने लोकतंत्र में राम को व्यक्ति नहीं, आदर्श और मूल्य के तौर पर गढ़ते हैं। वे वनवासी राम के भक्त हैं। वे करुणार्द्र हैं, दयालु प्रजा के लिए सहायता मांगते, सहायता देते, सबको अपनाते हैं। राज सिंहासन पर बैठे राम की, तुलसी इस कदर उपेक्षा करते हैं, कि पूरे राज्याभिषेक को अपनी कथा में जल्दी से निबटा देते हैं।

रामकथा के अंत में तुलसी राम को राजसिंहासन पर बैठाकर महाकाव्य का सुखांत नहीं करते। वे राम को लोक के बीच ले जाते हैं। अयोध्या की अमराई में भरत अपना गमछा बिछाकर उन्हें जमीन पर बिठाते हैं। राम, राज्य के आडम्बर से थक चुके हैं। राजा बनते ही राम थके हुए लगते हैं। उन्हें सिंहासन से दूर कहीं जनता के बीच जाना है। तुलसी राम को सिंहासन से उतार अयोध्या के उपवन में ले जाते हैं। राम यहीं बैठ ऋषि, मुनियों से संवाद करते हैं। यही तुलसी का लोकतान्त्रिक दर्शनहै। राम के सारे काम जनहित में हैं- कृपासिंधु जनहित तनु धरहीं। तुलसी के काव्य में किसान जीवन प्रभावी है। उसमें अन्न, जल, कांस, फसल, धान, खेत, बादल, ओले, वर्षा, द्रव आदि सब हैं।

अत्याचार के विरुद्ध लोकशक्ति

इस लोकतंत्र में प्रजा दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से मुक्त है : दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥रावण कुलीन था। परशुराम ब्राह्मण थे। बाली शक्तिशाली अत्याचारी था। राम की लोकपक्षधरता इन सबसे टक्कर लेती है। राम इन सबका नाश करते हैं। जनबल से, लोकशक्ति से। सेना के जरिए नहीं। राम की शक्ति जनता की शक्ति है। लोकशक्ति है। इसी के साथ वे अपने वन अभियान पर निकलते हैं। राम का वन गमन भी उनका लोकतंत्रीकरण है। राम राजा थे। चुने हुए जनप्रतिनिधि नहीं थे। तुलसी की सोच देखिए। देश की गरीबी, लाचारी और लोकमन को जानने के लिए वे उन्हें वन ले गए। जिस देश की अधिकांश जनता जंगलों, झोंपड़ियों में रहती है, उनका राजा राजप्रासाद या सुसज्जित महलों में रहकर उनकी मुश्किलों को नहीं समझ सकता।

राम घर से निकलते ही वनवासी का वल्कल वस्त्रपहनते हैं। उन्हें इतनी मुश्किल झेलने की जरूरत क्या थी? राजा दशरथ उनके लिए दंडकारण्य में एक महलनुमा निवास तो बनवा ही सकते थे। वे चाहते तो अपनी ससुराल जनकपुरी, रिश्तेदारों और पड़ोसियों की सेना लेकर लंका पर आसानी से चढ़ाई कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा न कर वनवासियों और गिरिजनों को संगठित किया। लोक स्वीकृति के लिए लोकशक्ति को संगठित किया।

लोकतंत्र का बीजमंत्र

वनवास को स्वीकारने के बाद राम, लक्ष्मण को अयोध्या में ही रोकना चाहते हैं। उसके लिए वे जो कारण बताते हैं, वही हमारे लोकतंत्र का बीजमंत्रहै। राम लक्ष्मण से कहते हैं, ‘पिता मोह में हैं। बूढ़े भी हो चले हैं। ऐसे में वे प्रजा को सुखी न रख पाए तो उन्हें नरक मिलेगा। इसलिए हे लक्ष्मण! तुम्हें अयोध्या में रुक कर प्रजा की चिंता करनी चाहिए।’ ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।।यहां दुखी पिता को संबोधित करते पुत्र राम नहीं, तुलसी का नीति पक्ष बोल रहा है। जिसके राज्य में प्रजा सुखी नहीं है, वह राजा नरक में जाएगा। तुलसी पूरे होशोहवास में कर्तव्य से च्युत राजाओं के पतन की भविष्यवाणी करते हैं। देश का मुखिया, शासक कैसा हो? इस पर विचार करते हुए तुलसी अपनी समकालीन लुटेरी शासन व्यवस्था पर कड़ा प्रहार करते हैं।

चित्रकूट से विदा होते हुए भरत को राम का सबसे बड़ा उपदेश है। जो तुलसी के लोकतंत्र का प्राण है। राम, राजा और प्रजा के संबंधों पर कहते हैं, ‘मुखिया मुख सो चाहिए खान पान कहुं एक। पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।।राजा को मुख जैसा होना चाहिए जो खाने में अकेला हो। पर हर अंग को उससे पोषण एक जैसा मिलता रहे। यानी शासन पक्षपाती, अन्यायी न हो। इस लिहाज से राम हमारे पहले लोकतंत्रीय पुरुषोत्तमहैं। तुलसी राम के जरिए एक ऐसा लोकतंत्र रचते हैं जो नीति का शिलालेख है। जिसे अपना पाना आज की राजनीति के लिए भी आसान नहीं है। पूरे रामचरितमानस में जहां राजा के धर्म की बात आती है, तुलसी बेहद कठोर हो जाते हैं।

राजस्व और कर का प्रबंधन कैसा हो? यह तुलसी के लोकतंत्र का वह मूल्य है, जिस पर आज की अर्थव्यवस्था चलती है। मणि-माणिक महंगे किए, सहजे तृण, जल, नाज। तुलसी सोइ जानिए राम गरीब नवाजेमणि, माणिक महंगा और तृण, जल, अनाज सस्ता। यही तो लोकतंत्र में कर प्रबंधनमूल है।

तुलसी ने दोहावली में राजनीति पर कोई बीस दोहे लिखे हैं। जिनमें अधिकांश कर प्रणाली पर हैं। कुराज से समाज को उबारने की कल्पना ही रामराज्यहै। जिसमें साधारण प्रजा के दुख-सुख और सम्मान का पूरा ध्यान रखा गया है। जिसमें राजा को विवेकी, मंत्री को मोह रहित और ताकतवर लोगों को संयमी होने की जरूरत बताई गयी है।

तुलसी के लोकतंत्र का मूल था-

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा व भीरा॥’‘

लोकतंत्रात्मक शासन की गतिविधि जनसमूह की इच्छा का अनुसरण करने वाली होनी चाहिए। महाराज दशरथ को भी राम को युवराज बनाने के लिए जनस्वीकृति लेनी पड़ी थी। उस वक्त भी मंत्री वही होते थे जो जनपदों के विश्वासपात्र होते थे। राजा की राजसभा में सभी जातियों के लोग सभासद होते थे। तुलसी ने राम के जरिए भरत को लोकतंत्र का एक अनोखा मंत्र दिया – ‘राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहं मनोरथ गोई॥राजधर्म का सर्वस्व इतना ही है, जैसे मन में मनोरथ छिपा रहता है।

जनमत नियंत्रित लोकतंत्र

तुलसी का रामराज्य एक सबल और जनमत से नियंत्रित लोकतंत्र है। उसमें मनुष्य तो मनुष्य, पशु-पक्षी और वनस्पति भी अनुशासन में है। वृक्ष सदा फलते-फूलते हैं। हाथी, सिंह वैर-भाव भूलकर साथ रहते हैं। तालाब कमल से भरे रहते हैं। सूर्य उतना ही तपता है, जितनी जरूरत है। प्रकृति और मनुष्य एक-दूसरे के सहयोगी है।

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक संग गज पंचानन॥

खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई॥

रामराज्य का राजा भी गुणी है। वह लोक और वेद की नीति पर चलता है। धर्मशील, प्रजापालक, सज्जन और उदार है। राजा के गुणों को गिनाने में भी तुलसी हमेशा प्रजा के हित की बात करते हैं। उनकी सबसे ज्यादा चिंता प्रजा को लेकर है। राजा को प्रजा प्राणों से प्रिय है। फिर ऐसे राज्य में विषमता की कोई जगह कैसे हो सकती है। गांधी भारत में नए उदित होते जिस लोकतंत्र में रामराज्य की बात करते हैं, उसका मूलाधार भी तुलसी का रामराज्य ही है।

उनके लोकतंत्र में भाईचारा, प्रकृति, पर्यावरण की सुरक्षा सद्भाव है, जनजातियों, वनवासियों के साथ सद्भाव। पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता, वन्यजीवों के लिए दोस्ताना व्यवहार है। किसी को किसी से बैर नहीं है। किसी को शोक नहीं है। रोग दूर हो गए हैं। कम उम्र में मृत्यु नहीं होती। सब सुन्दर और निरोगी हैं। कोई दुखी, दरिद्र, दीन नहीं है। कोई मूर्ख या लक्षणहीन भी नहीं है।

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥

तुलसी की रामकथा के तीन वाचक और तीन श्रोता हैं। पहले शिव, फिर याज्ञवल्क्य और तब काकभुशुंडि। श्रोता भी तीन हैं पार्वती, भारद्वाज और गरुड़। काकभुशुंडि कौआ जाति के हैं। पक्षियों में निकृष्ट। गरुड़ पक्षियों में श्रेष्ठ। काकभुशुंडि के पांडित्य के कारण ही गरुड़ उनके शिष्य बनते हैं। यानी जाति के चक्र को तोड़कर कोई भी व्यक्ति पंडित हो सकता है। अगर वह ज्ञानी गुणी है, तो वह पूज्य है।

तुलसी का लोकतंत्र समतामूलक है। बैर न कर काहू सन कोई, राम प्रताप विषमता खोई।।यानी अहिंसक और बैर, विरोधी रहित समाज। रावण का राज्य पूंजीवादी था। सोने की लंका तानाशाही और शोषण का प्रतीक थी। रामराज्य का राजा अपने को सेवक समझता था। राम सेवक, भरत सेवक, लक्ष्मण, शत्रुघ्न और हनुमान सब सेवक। सबका सेवक धमहै।

तुलसी को राजा राम का असाधारण अलौकिक रूप पसंद नहीं है। उन्हें राम का आम आदमी सरीखा व्यवहार प्रिय है। वे जन सामान्य की तरह जीते हैं। तभी तो सेविकाओं के रहते सीता घरेलू काम अपने हाथ से करती हैं।

साभार - पांचजन्य 

तीर्थाटन की मौलिकता, धार्मिक महत्व, आध्यात्मिकता बनी रहनी चाहिए - नरेन्द्र ठाकुर

काशी। तीर्थाटन की मौलिकता, धार्मिक महत्व, आध्यात्मिकता बनी रहनी चाहिए, यह संदेश युवा पीढ़ी में अनिवार्य रूप से पहुंचे। भारत की जो आध्यात्मिकता और जीवन शैली है उस कारण दुनिया हमारी और आशान्वित होकर देखती है। क्या भारत का समाज इसके लिए तैयार है कि वह दुनिया को आध्यात्मिक मार्गदर्शन दे सके। उक्त विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख श्रीमान नरेन्द्र ठाकुर जी ने व्यक्त किया। वे विश्व संवाद केन्द्र, काशी न्यास द्वारा प्रकाशित विशिष्ट स्मारिका "तीर्थरूप काशी के लोकार्पण कार्यक्रम को सम्बोधित कर रहे थे।

मंगलवार को लंका स्थित विश्व संवाद केन्द्र, काशी कार्यालय पर लोकार्पण कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए उन्होंने आगे कहा कि काशी ज्ञान एवं समरसता की भूमि है। भारत में जन्में सभी मतपंथों का स्थान काशी में है। यहां तीर्थ क्षेत्रों में सम्पूर्ण समाज बिना भेदभाव के प्रवेश कर सकता है। तीर्थरूप काशी स्मारिका में समरसता का यही भाव निहित है। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव आयोजन में यह तथ्य सामने आया कि भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन को 75 वर्ष बाद भी हम नहीं जान पाये थे। वास्तव में यह आन्दोलन स्वधर्म, स्वदेशी और स्वराज हेतु था। विशिष्ट अतिथि श्रीकाशी विश्वनाथ मन्दिर न्यास के अध्यक्ष प्रो० नागेन्द्र पाण्डेय ने कहा कि काशी साहित्यिक दिप्त चेतना का प्रत्यक्ष स्थान है। तीर्थ का एक अभिप्राय जल से भी है। काशी के सभी कुण्ड और तालाब तीर्थ रूप है। तीर्थों पर हो रहे अतिक्रमण को रोकना समाज के सभी बुद्धजीवियों का कार्य है। विशिष्ट स्मारिका के अतिथि सम्पादक श्री रामाशीष सिंह ने कहा कि काशी के शिव राम-नाम को जपते हुए गलियों में विचरते रहते हैं। इसी काशी में आद्य शंकराचार्य ने महामाया से ज्ञान प्राप्त किया। विश्व का सर्वाधिक प्राचीन काव्य रामायण है। रामायण का उद्घाटन काशी में ही हुआ था। काशी में ही तुलसीदास ने रामलीला की परम्परा प्रारम्भ की। प्रधान सम्पादक प्रो० ओम प्रकाश सिंह ने स्मारिका परिचय कराते हुए बताया कि स्मारिका में हिन्दू जैन, बौद्ध, सिख समेत सभी मतपंथों के विषय सम्मिलित हैं। मंदिरों की नगरी काशी के अधिकतम मन्दिरों का इतिहास देने का प्रयास किया गया है। कार्यक्रम में उपस्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र के क्षेत्र कार्यवाह डॉ० वीरेन्द्र जायसवाल ने कहा कि काशी एक सांस्कृतिक अनुभव है। इसका वर्णन दस पुस्तकों में भी नहीं किया जा सकता । परन्तु फिर भी इस

पत्रिका द्वारा काशी के शिव को समझाने का प्रयास प्रशंसनीय है। काशीवासी बाबा विश्वनाथ को अपने परिवार का मानते हुए उनसे स्नेह मनुहार गुहार शिकायत प्रेम सब करता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए विश्व संवाद केन्द्र, काशी न्यास के अध्यक्ष प्रो० बिशन किशोर ने कहा कि स्मारिका में काशी की धरोहर को संजोने के लिए किया गया यह अद्भुत प्रयास सराहनीय है।

कार्यक्रम का प्रारम्भ अतिथियों ने भारत माता के चित्र के समक्ष दीप प्रज्जवलित कर किया। मंगलाचरण वेंकट रमन ने किया स्वागत सम्बोधन न्यास के उपाध्यक्ष डॉ. हेमन्त गुप्त एवं अतिथि परिचय स्मारिका के प्रबन्ध सम्पादक नागेन्द्र द्विवेदी ने किया। अन्त में मालविका तिवारी एवं अंजलि गुप्ता के स्वर में राष्ट्रीय गीत वन्देमातरम से कार्यक्रम का समापन किया ।

कार्यक्रम में पूर्वी उ.प्र.क्षेत्र प्रचार प्रमुख नरेन्द्र सिंह, सह प्रान्त कार्यवाह काशी प्रान्त डॉ. राकेश तिवारी, प्रान्त सम्पर्क प्रमुख दीनदयाल जी, प्रान्त प्रचार प्रमुख डा. मुरार जी, पद्मश्री प्रो. कमलाकर त्रिपाठी, विश्व संवाद केन्द्र काशी प्रमुख राघवेन्द्र जी, भाग प्रचार प्रमुख रवि जी समेत विश्व संवाद केन्द्र काशी न्यास के सभी सदस्य उपस्थित रहें। धन्यवाद ज्ञापन प्रान्त अभिलेखागार प्रमुख श्री सत्यप्रकाश एवं संचालन न्यास के सचिव श्री प्रदीप कुमार ने किया।