Tuesday, May 19, 2020

असहयोग आन्दोलन : ...जब डाॅ. हेडगेवार बंदी बनाए गए

1921 में डाॅ0 हेडगेवार पर राजद्रोहात्मक भाषण देने के अपराध में मुकदमा चलाया गया था। उस समय डाॅ0 साहब ने न्यायालय में जो उत्तर दिया था, वह हर देशभक्त के लिए स्मरणीय है। उनका वह ऐतिहासिक वक्तव्य सामने रखता यह आलेख पांचजन्य के 20 मार्च, 1961 के अंक में प्रकाशित हुआ था।

मैं अच्छी तरह जानता हूं कि मातृभूमि के भक्तों को दमन की चक्की में पीसने वाली सरकार के ऊपर मेरे कथन का कोई भी परिणाम नहीं होने वाला है। फिर भी मैं इस बात को दुहराना चाहता हूं कि हिन्दुस्थान भारतवासियों के लिए ही है और पूर्ण स्वराज्य हमारा ध्येय है। आज तक ब्रिटिश प्रधानों एवं शासकों द्वारा उद्घोषित ‘आत्म निर्णय’ का नारा यदि कोरा ढ़ोंग मात्र है तो सरकार खुशी से मेरे भाषण को राजद्रोहात्मक समझे, पर ईश्वर के न्याय पर से मेरा विश्वास कभी भी हिल नहीं सकेगा।’
इन शब्दों में 8 जुलाई सन् 1921 में अंग्रेज न्यायाधीश श्री स्मेली के कोर्ट में पूजनीय डाॅक्टर हेडगेवार ने अपने ऊपर लगाए गए राजद्रोह के आरोप का उत्तर दिया था। उनके प्रभावी भाषण से समूचे कोर्ट के वातावरण में सनसनी फैल गई तथा न्यायाधीश महोदय ने अपनी कार्रवाई को 5 अगस्त तक स्थगित कर देने में ही भलाई समझी।
यह घटना उन दिनों की है कि जब कांग्रेस के आदेशानुसार असहयोग आंदोलन के लिए देष में भूमिका तैयार की जा रही थी। पूजनीय डाॅक्टर जी उन दिनों मध्य कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। अतः महात्मा जी के असहयोग आन्दोलन की मूल भूमिका से असहमत रहते हुए भी संगठन के एक सिपाही के नाते उन्होंने आन्दोलन का प्रचार प्रारम्भ कर दिया। गांव-गांव में अपने उग्र देशभक्तिपूर्ण वक्तव्यों से उन्होंने नव चैतन्य निर्माण किया। ब्रिटिश सरकार भला इस देशभक्त की इन कार्यवाहियों को कैसे सह सकती थी ? अतः राजद्रोहात्मक भाषण देने के अपराध में जब मुकदमा चलाया गया तो अपने पक्ष की सफाई पेश करते हुए डाॅक्टर जी ने उक्त घोषणा की थी।
5 अगस्त को जब पुनः उनका मुकदमा पेश हुआ तो उन्होंने स्वयं के ऊपर लगाए गए आरोप की धज्जियां उड़ाते हुए एक लिखित वक्तव्य दिया।
उक्त ऐतिहासिक वक्तव्य में उन्होंने कहा-

  • मुझे यह कहा गया है कि मैं अपने ऊपर लगाए गए इस आरोप का स्पष्टीकरण दूं कि मेरे भाषण, नीति-नियमानुसार प्रस्थापित ब्रिटिश राज्य शासन के विरुद्ध असंतोष, द्वेष व द्रोह उत्पन्न करने वाले तथा भारतवासियों एवं यूरोपीय लोगों के बीच द्वेष भाव पैदा करने वाले होते हैं। हिन्दुस्थान के अन्दर किसी भारतवासी के कार्य की न्याय परीक्षा करने का कार्य कोई विदेशी  राजसत्ता करे, इसे मैं अपना और अपने महान देश का अपमान समझता हूं।
  • हिन्दुस्थान के अन्दर कोई न्यायाधिष्ठित राजसत्ता विद्यमान है, ऐसा मुझे अनुभव नहीं होता और जब कोई इस प्रकार की बात मुझसे करता है तो मुझे आश्चर्य होता है। हमारे देश में इस समय शासन-सत्ता के नाम पर अगर कुछ है तो वह है पाशविक शक्ति के बल पर लादी गयी गुण्डागर्दी मात्र ही। कानून उसके लिए केवल मजाक की वस्तु है और न्यायासन है उसका खिलौना। इस पृथ्वी तल पर यदि कहीं किसी राजसत्ता को जीवित रहने का अधिकार है तो वह केवल उस राजसत्ता को, जो जनता के लिए, जनता के द्वारा प्रस्थापित जनता की राजसत्ता हो। इसके अतिरिक्त अन्य प्रकार की दिखाई देने वाली राज-पद्धति का अर्थ है- देश को व्यवस्थित रूप से लूटने के लिए धूर्त लोगों द्वारा आयोजित षड़यंत्र।
  • अपने देश बन्धुओं के मन में अपनी दीन मातृभूमि के प्रति उत्कट मातृभूमि का भाव प्रदीप्त करने तथा भारत भारतीयों का ही है, यह तत्व के अन्तःकरण में अंकित करने का मैेंने प्रयास किया है। यदि किसी भारतीय के लिए रजद्रोही हुए बिना राष्ट्रभक्ति केइ तत्वों का प्रतिपादन करना संभव न हो तथा भारतीय एवं यूरोपीय लोगों में शत्रु भाव उत्पन्न किए बगैर सत्य बोलना भी उसके लिए असंभव हो गया हो, यदि स्थिति इस सीमा तक पहुंच गई हो तो यूरोपीय लोग अथवा स्वयं को भारत का षासक कहने वाले अंग्रेजों को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सम्मानपूर्वक अपना बिस्तर समेटने की घड़ी नजदीक आ गई है।
  • मैं देख रहा हूं कि मेरे भाषणों का पूरा और सही वृत्त नहीं लिखा गया है। मेरा जो भाषण यहां प्रस्तुत किया गया है, वह काफी तोड़-मरोड़कर विपर्यस्त और गलत ढ़ंग से प्रस्तुत किया गया है। पर मुझे उसकी कोई चिन्ता नहीं।

जिन मूलभूत सिंद्धांतों पर राष्ट्रों के परस्पर संबन्ध अधिष्ठित रहते हैं, उन्हीं तत्वों  के अनुसार मैं यूरोपीय अथवा अंग्रेज बन्धुओं के साथ व्यवहार कर रहा हूं। मैंने जो कुछ भी कहा है, वह सब अपने देश बन्धुओं के अधिकारों एवं स्वातंत्र्य के प्रति भावना के लिए है और उसके एक-एक अक्षर के समर्थन के लिए मैं तैयार हूं।
अंगारों के समान प्रखर, इन षब्दों को पढ़कर न्यायाधीश महोदय के मुख से यदि अकस्मात ये उद्गार निकल पड़े कि ‘‘इनके मूल भाषण की अपेक्षा इनका यह सफाई वाला वक्तव्य ही अधिक राजद्रोहात्मक है’’ तो क्या आष्चर्य ? पर यह वक्तव्य लिखित होने के कारण सर्व-साधारण तक उसमें सन्निहित भावों को पहुँचाना संभव नहीं था। विदेशी ब्रिटिश सरकार के सच्चे स्वरूप को जनता के सम्मुख प्र्रस्तुत कर उसके समूलोच्चाटन के लिए उनके अन्तःकरण में प्रखरता निर्माण करने का कोई भी अवसर डाॅक्टर जी कैसे खो सकते हैं। अतः उन्होंने न्यायालय के अन्दर अपने मुकदमें को देखने के लिए एकत्रित जनसमुदाय एवं पेट के लिए अपनी आत्मा को बेचने के लिए उद्धत सरकारी कर्मचारियों के सम्मुख अपना मनोगत भाव रखने के लिए वहीं पर एक प्रभावशाली भाषण दिया। उन्होंने कहा-
‘‘हिन्दुस्थान भारतवासियों का है, तथा हमें उसमें पूर्ण स्वराज चाहिए- यही साधारणतः मेरे भाषणों का विश्व रहता है। परन्तु केवल इतना ही कहने मात्र से काम नहीं चलता। स्वराज्य कैसे मिल सकता है और उसकी प्राप्ति के पश्चात किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, यह भी लोगों को समझना आवष्यक है। अन्यथा, ‘यथा राजा तथा प्रजा’, इस न्याय के अनुसार हमारे लोग भी अंग्रेजों का ही अनुसरण करने लगेंगे। अंगे्रज जो स्वयं के राज्य पर संतुष्ट न रहकर दूसरों के देशों पर आक्रमण कर वहीं के निवासियों को गुलाम बनाने में सदैव तत्पर रहते हैं। साथ ही, गत महायुद्ध से यह भी स्पष्ट हो चुका है कि उनके स्वातंत्र्य पर आंच आते ही अपने खड्ग केा बाहर लाकर रक्त की नदियां बहाने में भी वे संकोच नहीं करते। इसीलिए हमें अपने लोगों को सावधान करना पड़ता है कि ‘देखो, तुम अंग्रेजों के इन राक्षसी गुणों का अनुसरण मत करो। केवल शांतिपूर्ण उपाय से ही स्वराज्य प्राप्त करो और स्वराज्य मिलने के पश्चात दूसरों के देशों पर गिद्ध-दृष्टि न डालते हुए अपने ही देश में संतुष्ट रहो।’ लोगों के अन्तःकरण में इस बात को अच्छी तरह बिठा देने के लिए कि ‘एक देश के लोगों द्वारा दूसरे देश पर राज्य करना’ अन्याय है, मैं अपने भाषणों में बार-बार उस तत्व का प्रतिपादन करता हूं। उसी समय प्रचलित राजकरण से सम्बंध आता है। कारण, आज अपने इस प्रिय हिन्दुस्थान दुर्देव से विदेशी अंग्रेज अन्यायपूर्वक शासन कर रहे हैं, यह हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं। सचमुच विश्व के अन्दर ऐसा भी कोई कानून है क्या, जो किसी एक देश के लोगों को दूसरे देश पर शासन करने का अधिकार देता हो ? सरकारी वकील महोदय! मेरा आपसे यह सीधा सवाल है, इस प्रश्न का उत्तर क्या आप दे सकेंगे ? क्या यह बात प्रकृति के ही विरुद्ध नहीं है ? और यदि ‘किसी एक देश के लोगों को दूसरे देश पर शासन करने का कोई अधिकार नहीं है’, यह बात सचमुच ही सही हो तो अंगे्रजो को हिन्दुस्थान की जनता को पैरों तले रौंदकर उस पर शासन का अधिकार किसने दिया? अंग्रेज तो इस देश के नहीं हैं। तो फिर उनके द्वारा हिन्दू-भूमि के पुत्रों को गुलाम बनाकर, ‘इस हिन्दुस्थान के हम मालिक है’ इस प्रकार की घोषणा करना क्या न्याय, नीति और धर्म का गला घोटने के ही समान नहीं है ?’’
‘‘इग्लैण्ड को परतंत्र बनाकर उस पर राज्य करने की हमारी इच्छा नहीं है। परन्तु जिस प्रकार अंग्रेज लोग इंग्लैण्ड पर, जर्मन लोग जर्मनी पर शासन करते हैं, उसी प्रकार हम हिन्दुस्थान के लोग अपने देश पर शासन चाहते हैं। अंगे्रजों की गुलामी का बिल्ला लगाने के लिए हम तैयार नहीं हैं। हमें पूर्ण स्वाधीनता चाहिए और उसे प्राप्त किये बिना हम शांत नहीं बैठ सकते। अपने देश में स्वतंत्रता की सांस लेने की इच्छा करना, क्या नीति और कानून के विरुद्ध है ? मैं समझता हूं कि कानून के पैरों के तले नीति को रौंद डालने के लिए कानून नहीं बनाए जाते। वे बनाए जाते हैं नीति को संरक्षण प्रदान करने के लिए।’’
उनके इस धीरोदात्त और तर्कसंगत भाषण का वहां पर उपस्थित लोगों पर कैसा प्रभाव हुआ होगा, यह कहने की आवश्यकता नहीं। उपस्थित जनसमुदाय के अंगे्रजों का भय और आतंक, सब कुछ भूलकर ‘डाॅक्टर हेडगेवार जिन्दाबाद’ क गगनभेदी नारे लगाने का क्या परिणाम हुआ होगा, यह तो कोई भी अनुमान लगा सकता है।
न्यायाधीश स्मेली ने अपना निर्णय दिया- ‘‘आपके भाषण राजद्रोहात्मक हैं। अतः आप इस बात की इस बात के लिए हजार-हजार रुपए की दो जमानतें और एक हजार रुपए का मुचलका देकर यह वचन दें कि आप एक वर्ष तक भाषण देना बन्द कर देंगे।’’
इस पर नरकेशरी डाॅ. हेडगेवार का उत्तर था।
‘‘आप चाहे जो निर्णय दें। मेरा मन इस बात का साक्षी है कि मैंने कोई अपराध नहीं किया है। सरकार की दृष्टि में अपराध नहीं किया है। सरकार की दुष्ट नीतियों से उद्भूत अग्नि में दमनशाही के इस कारनामे से धूत की आहुति ही पड़ेगी। मुझे विश्वास है कि इन परकीय राज्यकर्ताओं को शीघ्र अपने पापों के लिए पश्चाताप करने का अवसर उपस्थित होगा। सर्वसाक्षी पमेश्वर के न्याय पर मेरी पूर्ण आस्था है, इसलिए मुझसे मांगी गई जमानत देने से मैं साफ इनकार करता हूं।’’
पराधीन देश के स्वाभिमानी सपूत को इस ‘निर्भीकता के लिए दण्ड’ मिलना ही था। उन्हें एक वर्ष का सश्रम कारावास भुगतना पड़ा।

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