भारतीय सनातन धर्म एवं संस्कृति
जो शाश्वत है, जिसके संस्थापक या प्रारंभ काल का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता. लेकिन
यह सदैव अपनी विराटता के साथ रहती आई. इतना ही नहीं बल्कि इसी सनातन धर्म से सिक्ख, बौद्ध, जैन पंथों का प्रादुर्भाव हुआ. हमारी सनातन संस्कृति बिना किसी बन्धन
के लोगों के स्वतंत्र चिन्तन -मत के अनुसार बहुलतावादी सांस्कृतिक जीवटता के
इतिहास को संजोकर अमर चेतना की तरह प्रवाहित हो रही है.
अनेकानेक षड्यंत्रों, आक्रमणों, कुठाराघातों
के बावजूद भी यह अपनी महत्ता को बरकरार रखे हुई है. सनातन -हिन्दू धर्म का जनजातीय
समाज एक अभिन्न अंग अपने विकासकाल से ही रहा है, यह अलग बात है
कि सभ्यताओं के विकास एवं लगातार आक्रमणों के कारण जनजातीय समाज के स्थान परिवर्तन
एवं परम्पराओं, संस्कृति, विवाह, रीतिरिवाज, पूजा पद्धति, बोली एवं कार्यशैली में भले ही आंशिक
अन्तर दिखता हो. किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सनातन हिन्दू समाज की जनजातीय
एवं गैर जनजातीय इकाइयों का मूल तत्व एवं केन्द्र हिन्दुत्व की धुरी ही है. वैदिक
साहित्य की ओर यदि हम दृष्टिपात करें तो ऋग्वैदिक कालीन समाज जनजातीय समाज के
स्वरूप के साथ ही आगे बढ़ रहा था तथा आज भी यदि हम किसी भी जनजातीय समाज में देखें
तो यह साफ-साफ परिलक्षित होता है कि उनकी पूजा पद्धतियों में भगवान शिव का त्रिशूल, डमरू, स्वास्तिक, देव एवं देवी
की उपासना, श्रीफल नारियल, तुलसी, तांत्रिक
क्रियाओं में नींबू-मिर्च, गोबर से लिपाई-पुताई इत्यादि के प्रयोग, क्या हिन्दू
समाज से अलग अस्तित्व को दर्शाते हैं?
जनजातीय समाज द्वारा जिन देवताओं को महायदेव, ठाकुरदेव, बूढ़ादेव, पिलचूहड़ाम के
स्वरूप में स्मरण एवं पूजन करते हैं .उन्हीं देवताओं को गैर जनजातीय सनातन हिन्दू
धर्मावलम्बी समाज शिव, महेश, नीलकंठ आदि नामों से जानते एवं पूजते हैं.
उत्तर -पूर्व भारत में सीमांत जनजातियों की भांति “मिशमिश” जनजाति सूर्य
एवं चन्द्रमा की पूजा “दान्यी-पोलो” के स्वरूप में करते हैं. इस पर उनका
मानना है कि सूर्य, चन्द्र सत्य के पालनकर्ता भगवान हैं, इसी प्रकार
इसी परम्परा को अरुणाचल प्रदेश की लगभग सभी पच्चीसों जनजातियां मानती हैं. सनातन
हिन्दू धर्म में प्रकृति को माँ के स्वरूप में पूजने एवं प्रकृति के तत्वों – भू, जल, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्र, नदी-तालाब, समुद्र, वृक्षों यथा – पीपल, नीम, तुलसी, आम, गुग्गुल, बरगद इत्यादि
की पूजा करने की परम्पराएं अनवरत चली आ रही हैं. क्या यह सब हमारी जनजातीय
संस्कृति के अभिन्न अंग एवं मूलस्वरूप को नहीं दर्शाती हैं?
धार्मिक अनुष्ठानों में यज्ञ वेदी का निर्माण वैदिक कालीन
समाज में एवं हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो से उन चिन्हों यथा – वेदी, पशुपति की
मूर्ति इत्यादि का प्राप्त होना, हमारी उसी संस्कृति का ही तो प्रमाण हैं, जिनके
ध्वंसावशेष आज तक भी लगातार विभिन्न स्थलों से प्राप्त हो रहे हैं. वर्तमान में
हमारे जनजातीय समाज में कुल देवी-देवताओं के पूजन की पद्धति एवं पूजन में हवन
(होम) किया जाना हिन्दुत्व की पूजन प्रक्रिया का हिस्सा एवं सनातन की अक्षुण्ण परम्पराओं
के द्योतक हैं. चाहे जनजातीय समाज द्वारा नागों की पूजा करना एवं उनके भित्तिचित्र, शैलचित्र को
उकेरना हो, वह आज भी गैर जनजातीय समाज में नागपंचमी के त्यौहार के रुप
में मनाया जाता है तथा सनातन धर्मावलम्बी नाग देवता की पूजा कर अपने घरों के मुख्य
द्वार में नाग देवता का प्रतीकात्मक चित्रण कर उनसे लोकमंगल की कामना करते हैं, यह हमारी
विशुद्ध सांस्कृतिक विरासत ही तो है, जिसे सनातन हिन्दू समाज का प्रत्येक
समाज बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाता है.
यदि हम आधुनिक इतिहास (हिस्ट्री) के बोध से अलग होकर अपने
सनातन कालक्रम की ओर दृष्टिपात करें तो हमारी सनातन हिन्दू संस्कृति अपनी सहचर्यता, बन्धुता एवं
समन्वय के साथ विश्व की अनूठी संस्कृति की मिसाल के तौर पर स्थापित है. हमारी
सनातन परंपरा में ईश्वरीय अवतारों, संत-महात्माओं की जाति देखने की
परंपरा कभी नहीं रही है. किन्तु जब इस पर अध्ययन किया जा रहा है तो हम उसका
विभिन्न कोणों से विश्लेषण एवं अध्ययन करते हैं.
त्रेतायुग में भगवान श्रीराम के वनवास काल में चित्रकूट से
दण्डकवन तथा लंका युद्ध से विजय तक के समय में उनके सहयोगी वही वनांचलों में निवास
करने वाले जनजातीय समाज रहे हैं. इस कड़ी में श्रृंग्वेरपुर के राजा निषाद राज गुह
ने भगवान के वनवास की जानकारी लगते ही अपना राज्य अपने आराध्य को सौंपने की बात
कही, किन्तु भगवान
राम ने उन्हें मित्र की पदवी देकर अपने समतुल्य बतलाया तथा मैत्रीबोध का
श्रेष्ठतम् मानक स्थापित किया.
चाहे गंगा पार उतारने के समय का केवट व भगवान राम का मधुर, स्नेहिल संवाद
हो या भगवान राम की भक्ति में लीन शबरी माता के जूठे बेर फल का सेवन करना एवं
उन्हें माँ के तौर में प्रतिष्ठित करना हो, यह सब हमारी सनातन हिन्दू संस्कृति
की ही विशेषता है. माता शबरी को आज भी समूचा हिन्दू समाज मां के रुप में पूजता है.
इससे अनूठा – अनुपम उदाहरण विश्व में और कहाँ मिलेगा? यही तो हमारी
सनातन संस्कृति एवं उसकी सदा प्रवाहित होने वाली स्नेह, सामंजस्य, श्रेष्ठता की
अविरल धारा है.
सनातन संस्कृति के महानायकों यथा – निषादराज गुह, माता शबरी, बिरसा मुंडा, टंट्या भील, जात्रा भगत, कालीबाई, गोविन्दगुरू, ठक्कर बापा, गुलाब महाराज, राणा पूंजा, भीमा नायक, भाऊसिंह
राजनेगी, राजा विश्वासु
भील, तुंडा भील, रानी
दुर्गावती, सरदार विष्णु गोंड जैसे अनेकानेक वीरों ने सनातन हिन्दुत्व
की रक्षा एवं अपनी संस्कृति एवं राष्ट्र के लिए जीवन समर्पित कर दिया. उस महान
परम्परा के संवाहकों के वंशजों को हिन्दू समाज से अलग बतलाना एवं लगातार विभिन्न
तरीकों से उनकी सांस्कृतिक विरासत से काटने के षड्यंत्र क्या हमारे जनजातीय समाज
के गौरवशाली अतीत एवं उनके पुरखों द्वारा स्थापित परिपाटी को नष्ट नहीं कर रहे हैं?
यदि जनजातीय समाज, सनातन हिन्दू धर्म से अलग होता तो क्या जनजातीय समाज के वे वीर
महापुरुष जिनको आज समूचा हिन्दू समाज अपना मानता है, क्या वे स्वयं की आहुति देकर धर्मान्तरण के विरोध एवं संस्कृति की
रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करते?
उपनिवेशवाद की त्रासदी से चले आ रहे षड्यंत्रों के बावजूद
भी जनजातीय समाज सनातन हिन्दू समाज का वह अविभाज्य एवं मूल अंग है, जिसके बिना
सम्पूर्ण हिन्दू समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है. आखिर वह कौन सा केन्द्र है, जब हमारे
जनजातीय समाज कष्ट में होते हैं या उनके साथ षड्यंत्र होते हैं, तब समूचा
हिन्दू समाज स्वयं को पीड़ित एवं चोटिल समझता है. क्या यह अपनेपन की पीड़ा नहीं है, यदि हमारे
जनजातीय समाज को कोई हमसे अलग करने की कुचेष्टा करता है तो हमारा रक्त क्यों खौल
उठता है? यह इसीलिए न!
क्योंकि वे हमारे अपने बान्धव हैं. जनजातीय समाज सनातन हिन्दू समाज की परम्परा के
वे संवाहक हैं जो सदैव सनातन हिन्दुत्व के लिए प्राणोत्सर्ग करने का साहस रखते रहे
आए हैं.
विश्व प्रसिद्ध उड़ीसा का
जगन्नाथपुरी मंदिर का इतिहास इस बात का साक्षी है कि भगवान जगन्नाथ की मूर्ति
जनजातीय समाज के महान राजा विश्वासु भील को ही प्राप्त हुई थी, जहां नीलगिरि की पहाड़ियों में भगवान जगन्नाथ की स्थापना की थी. इसी
तरह भुवनेश्वर के भगवान लिंगराज को बाड जनजाति के पुजारियों द्वारा स्नान करवाया
जाता है. कुल्के एवं रॉथरमुंड नामक विद्वानों ने अपने विभिन्न शोधों एवं अध्ययनों
से पाया कि – “कुरुबा, लंबाडी, येरूकुल, येनाडी एवं चेंचू जनजातियों के तिरुपति के भगवान वेंकटेश्वर से गहरे
सम्बन्ध हैं.
इसी तरह दक्षिण मेघालय में मासिनराम के निकट मावजिम्बुइन
गुफाएं हैं, जहाँ गुफा की छत से टपकते हुए जल मिश्रित चूने के जमाव से
शिवलिंग बना हुआ है. ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार यदि हम मानें तों यह मान्यता लगभग
लगभग 13वीं शताब्दी
से चली आ रही है. हाटकेश्वर धाम में जयन्तिया जनजाति समाज के लोग प्रति वर्ष
हिन्दू त्यौहार “शिवरात्रि महोत्सव” बड़े ही हर्षोल्लास एवं उत्साहपूर्वक
मनाते हैं.
वहीं वैष्णों देवी तथा केरल के भगवान अय्यप्पम से जनजातीय
समाज के आत्मिक एवं आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं. जनजातीय समाज द्वारा भगवान नरसिंम्ह
की स्तंभीय शांकवीय प्रतिमाओं को पूजा जाता है तथा इसी प्रकार विन्ध्य की विभिन्न
जनजातियों द्वारा हिन्दू परम्पराओं, पूजा पद्धतियों का लगभग उसी तरह पालन
एवं निर्वहन किया जाता है, जिस प्रकार शेष अन्य हिन्दू समाज करता है. छ.ग. का रामनामी
समाज तो भगवान राम के लिए समर्पित होने के लिए ही जाना जाता है, जिसका विस्तार
छ.ग., म.प्र. तथा
झारखंड तक है. रामनामी समाज पूर्णरूप राममय है, रामनामी समाज के बन्धु अपने सम्पूर्ण
शरीर में राम नाम का गोदना गुदवा लेते हैं. मोरपंख धारण करना, राम संकीर्तन
करना तथा राम के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाला यह समाज सनातन हिन्दू धर्म का
वटवृक्ष है.
इस प्रकार अनेकानेक उदाहरणों एवं जनजातीय समाज की पद्धति, सनातन हिन्दू
धर्म के लिए योगदान देने के शौर्य की कहानियों इत्यादि से यही बात स्पष्ट होती है
कि भारत के पूर्व से लेकर पश्चिम, उत्तर से लेकर दक्षिण, चारों दिशाओं में निवास करने वाला
जनजातीय समाज सनातन हिन्दू धर्म की धर्मध्वजा का पालन करने वाला है. बल्कि यह कहना
भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जिस कठोरता एवं नियमबद्धता के साथ हमारा जनजातीय समाज
सनातन हिन्दू धर्म का अपनी परंपराओं के अनुसार पालन एवं कार्यान्वयन करता है. उस
अनुरूप अन्य गैर जनजातीय हिन्दू समाज थोड़ा कमतर ही सिद्ध होता दिखता है. जनजातीय
समाज विशुद्ध तौर पर सनातन हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है जो सनातनी मूल्यों एवं
धर्मनिष्ठा के लिए जाने जाते हैं!
श्रोत - विश्व संवाद केन्द्र, भारत
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