23 वर्ष की उम्र में
इलेक्ट्रिकल एंड मेकेनिकल इंजीनियरिंग में गोल्ड मेडल वो भी 65 वर्ष पहले। इसमें कोई संदेह नहीं कि एक चमचमाता हुआ कैरियर इस
प्रतिभाशाली युवक का इंतजार कर रहा था, परंतु उसके सपने
तो सारी दुनिया से अलग थे। शायद इतिहास लिखने वाले लोग साधारण राह नहीं चुनते,
और यही गुड़ीबंडे, कोलार जिला, कर्नाटक के गजेटेड ऑफिसर ब्रम्हसूरय्या व उनकी पत्नी पुट्टतायाम्मा की
दूसरी संतान अजीत कुमार जी ने किया। किसी बड़ी कंपनी में नौकरी ज्वाइन करने के बजाय
1957 में वो रातोंरात घर छोड़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
के प्रचारक निकल गये। संघ के यशस्वी प्रचारकों में से एक अजीत जी ने अपने अल्प
जीवन काल में बेंगलुरु में सेवा के क्षेत्र में एक यूनीक मॅाडल हिन्दू सेवा
प्रतिष्ठान की स्थापना की। जिसने कई नयी अवधारणाओं को जन्म दिया। सेवा करने वाले
लोग ट्रेंनिग देकर भी तैयार किये जा सकते हैं, महिलाएं भी
अपना पूरा जीवन सेवाव्रती के रूप में समाज को दे सकती हैं, ये दोनो ही विचार संघ के लिए एकदम नये थे। किंतु उन्होंने इस परिकल्पना
को साकार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया व संगठन की सहमति से 1980 में "हिंदू सेवा प्रतिष्ठान" की स्थापना कर सेवाव्रती बनने
के इच्छुक युवक व युवतियों की, 23 लोगों की, प्रथम बैच की, 40 दिन की, ट्रेनिंग आरंभ हुयी। नेले, अरूण, चेतना, प्रसन्ना काउंसलिंग सेंटर, सेवामित्र, सुप्रजा जैसे कुछ प्रकल्पों को
चलाने वाले सभी सेवाव्रती, संस्थान को यहीं से मिले।
स्वर्गीय अजीत जी की संकल्पना अब विशाल वटवृक्ष बन चुकी है। स्थापना से लेकर आज तक
42 वर्षों में यहाँ से ट्रेनिंग लेकर 4000 से अधिक लोगों ने अपना जीवन सेवाकार्यों के लिए समर्पित किया, जिनमें 3500 महिलाएं हैं। इनमें से अधिकांश लोगों ने अपनी युवा अवस्था के 3-10 वर्ष और कुछ ने तो अपना पूरा जीवन सेवा को समर्पित कर दिया
बेंगलुरु में BE करते हुए कंबनपेटे की कल्याण शाखा से
संघ जीवन का आरंभ करने वाले अजीत जी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हालांकि उनकी
संघ शिक्षा देर से आरंभ हुयी किंतु कालेज जीवन में प्रथम शिक्षा वर्ग बाद ही उनके
जीवन की दिशा बदल गयी।कालेज जीवन में विद्यार्थी परिषद का कार्य करते हुए भी वे
आभाव ग्रस्त बंधु बांधवों का जीवन संवारने के लिए चिंतित रहने लगे थे।
1957
में संघ के प्रचारक निकलने के बाद 1960-75 तक संघ के विभिन्न दायित्वों को पूरा करते हुए वे आपतकाल में मीसा बंदी के
रूप में 2 बरस जेल में रहे। वहां भी उन्होंने बंदीजनों को
योग का प्रशिक्षण दिया। संघ के वर्गों के पाठ्यक्रम में योग को शामिल करने का
श्रेय भी अजीत जी को ही जाता है। इसके लिए उन्होंने प्रख्यात योगाचार्य श्री
पट्टाभि से योगासन सीखे।
हिंदू सेवा प्रतिष्ठान में सेवाव्रतियों की
ट्रेनिंग का पाठ्यक्रम बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अजीत जी के सहयोगी
रहे एवं वर्तमान सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले जी कहते हैं कि अजीत जी
निरंतर चिंतित रहते थे कि जिन्हे सेवा की आवश्यकता है ऐसे लाखों है और सेवा करने
वालो की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है। व जिसके मूल स्वभाव में ही सेवा है
वो नारी भी सेवाकार्य से कोसों दूर खड़ी है। शायद उनकी
इसी पीड़ा ने जन्म दिया सेवाव्रती की परिकल्पना को। यानि सेवा के लिए उत्तम
व्यक्तियों का निर्माण कर उन्हें वंचित समाज के उत्थान में लगाना। इसके लिए
प्रतिष्ठान यहाँ ट्रेनिग लेने वाले सेवाव्रतियों को भारत की वैभवशाली परंपरा ,
महापुरुषों की जीवनियां, सेवा की
आवश्यकता, योग एवं अनुशासन का महत्व आदि विभिन्न विषयों
पर 40 दिन की ट्रेनिंग देता है। इसके बाद सेवाव्रती
3 साल फील्ड में अपनी रुचि के अनुसार सेवा कार्यों के लिए
समय देते हैं। इस दौरान उनके रहने, खाने के साथ छोटी सी
राशि मानधन के रूप में प्रतिष्ठान देता है। युवावस्था में अपने जीवन के तीन वर्ष
सेवा कार्यों को देने के बाद अधिकांश सेवाव्रती अपना पूरा जीवन सेवा को ही समर्पित
कर देते हैं। 1989 में यहाँ से ट्रेनिंग लेकर प्रतिष्ठान
में बरसों तक महिला विभाग की संचालिका रही और बाद में शेष जीवन सेवा को देने वाली
वनिता हेगड़े जी बताती हैं कि अजीत जी स्थापना के बाद सिर्फ नौ वर्ष जीवित रहे
किंतु इन नौ वर्षों में उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा इस प्रोजेक्ट को सफल करने में
लगाई।
ट्रेनिंग के दौरान वे पूरा समय वहां रहते एवं सभी
प्रतिभगियों से उनका आत्मीय संबंध बन जाता था। कौन सेवा बस्ती में कार्य कर पाएगा? किसकी योग्यता का उपयोग योग केंद्र में किया जा सकता है, वे बखूबी समझ जाते। न सिर्फ सेवाव्रतियों का सही नियोजन बल्कि वे वहां
ठीक से कार्य कर सकें इसको सुनिश्चित करने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी।
वे फील्ड में जाकर हर सेवाव्रती के साथ एक दिन बिताने का प्रयास करते थे।उनके सहज
स्नेह व ओजस्वी विचारों से प्रभावित होकर अनेक युवक व युवतियां आजीवन सेवा का
संकल्प लेने के लिए प्रेरित होते थे। सेवा के लिए उत्तम व्यक्ति का निर्माण होना
चाहिए यह भाव हिंदू सेवा प्रतिष्ठान के प्रथम निदेशक अजीत जी ने अपने सहयोगियों
में भी संचारित किया।
किंतु काल के क्रूर प्रहार ने उनको असमय ही हम सबसे छीन लिया, केवल 56
वर्ष की उम्र में 3 दिसंबर 1990 को बेंगलुरु संघ कार्यालय केशव कृपा से तुमकुर जाते समय सुबह 4 बजे एक कार दुर्घटना में उनका निधन हो गया।
उनको श्रद्धांजलि देते हुए नानाजी देशमुख ने कहा था कि समूचे उत्तर भारत के लिए यह विश्वास करना कठिन है कि 16 वर्ष की उम्र में कोई युवती सेवा से जुड़ने के लिए स्वयं एक फार्म भरकर ट्रेनिंग लेगी। किंतु अजीत जी ने एक असंभव से लगने वाले विचार को एक सफल प्रकल्प के रूप में साकार किया।
स्त्रोत - सेवागाथा
सेवा ही कर्म धर्म है
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