Saturday, February 24, 2024

महापुरूष देश की एकता, अखंडता और अस्मिता के प्रतीक – रमेश जी

संत जब मां के कोख से जन्म लेता है, तो वह किसी न किसी जाति कुल में होता है। लेकिन वह महान बनता है अपने कर्म से

-    संत रविदास जी ने कहा है कि भगवान का भजन सब कर सकते हैं

मीरजापुर| महापुरूष जाति नही बल्कि देश की एकता, अखंडता और अस्मिता के प्रतीक हैं, इसीलिए हमारा संपूर्ण समाज महापुरूषों की जयंती मनाता है| यह संत रविदास, संत कबीर एवं गोस्वामी तुलसीदास जैसे मनीषियों के जीवन के समर्पण का परिणाम है कि विश्व पटल पर भारत एक महाशक्ति बनकर उभर रहा है| उक्त विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काशी प्रांत प्रचारक रमेश जी ने व्यक्त किया| वे मीरजापुर में आयोजित संत रविदास जयंती कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे|

उन्होंने कहा कि सर्वे भवंतु सुखिन: का दर्शन भारत में प्राचीनकाल से था, यहाँ की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं सनातन परंपरा को आगे बढ़ाने वाले संतो एवं महापुरुषों के जीवन को आदर्श मानकर एवं उनकी तिथियों को मनाकर समाज परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लगातार कार्य करता आ रहा है ताकि समाज को संतो मनीषियों के जीवन से प्रेरणा मिल सके। संतो मनीषियों से प्रेरणा लेकर ही सर्व समाज राष्ट्रोन्नति मे अपनी भूमिका का निर्वहन कर पाएगा।

संत परंपरा के वाहक, जिन्होंने अपने तप साधना के बल पर समाज की कुरीतियों को दूर करने का प्रयास कर उसमें सफलता हासिल किया, ऐसे महानायक संत शिरोमणि की जयंती पर देश के अंदर भिन्न-भिन्न कार्यक्रम आज संपन्न हो रहे हैं। यह संपूर्ण समाज और देशवासियों के लिए गौरव की बात है। आडंबर एवं कृतियों से उठकर जहां संघ महापुरुषों की जयंती मना रहा है, वहीं कुछ लोग, दल व जाति में समाज को, महापुरुषों को बांटने का काम कर रहे हैं। यहां तक की देवी-देवताओं को भी जाति-बंधन में बांटने का प्रयत्न किया है।

कहाकि भारत भाव, राग और ताल से मिलकर बनता है। यहां की परंपराओं को पुनर्जीवित करने का कार्य संतो महापुरषों ने किया है, जिसके बल पर परम वैभव की शिखर पर यह देश पहुंच रहा है।  यही कारण है कि सारी दुनिया इसे जगतगुरु के रूप में सिरमौर मानती थी। इसके पीछे संत महापुरुष और यहां की आध्यात्मिक जीवन शैली है। संतो महापुरुषों ने मिलकर देश को गढा है। अलग-अलग युगों काल खंडो में महापुरुषों का जन्म हुआ। संत जब मां के कोख से जन्म लेता है, तो वह किसी न किसी जाति कुल में होता है। लेकिन वह महान बनता है अपने कर्म से। रविदास उन संतों में से हैं जिन्होंने धर्म से बड़ा कर्म को माना है। इस देश में कर्म की प्रधानता रही है और जो कर्म को आधार दिया वह महानता की शिखर पर चढ़ता आया है। 

    प्रांत विचारक ने आगे कहाकि एक बार संत रविदास के मित्र, जो साथ खेला करते थे जब वह एक दिन नहीं आये, तो रविदास चिंतित होकर उनके घर गए और देखा तो उनका प्राण निकल चुका था, लेकिन रविदास जी परिजनों को भी  देख व्यथित हो गए और शव के पास बैठकर सहलाने लगे, कुछ ही देर में वह बालमित्र उठकर बैठ गया।

    उन्होंने बताया कि रविदास जी संतो के लिए निशुल्क पदवेष बनाते थे। बालक रविदास संत शरण और संत चरण में लगातार बना रहे। इनका छोटी उम्र में विवाह कर दिया गया। उनकी सहधर्मिणी के आते ही उनकी आस्था और भी बढ़ गई और सामाजिक रूढ़ी और वैमनस्य को दूर करने का प्रयास शुरू किया। काशी में प्रवचन, प्रेरणा, प्रबोधन करना शुरू किया। तब कुछ लोगों में ईर्ष्या भाव होने लगी। रविदास जी ने कहा है कि भगवान का भजन सब कर सकते हैं।

    गंगा स्नान पर “मन चंगा तो कठौती में गंगा” प्रसंग की चर्चा करते हुए कटौती में से सोने का कंगन निकालना की वृत्तांत को विस्तार से बताया। कहा प्रयागराज कुंभ में शास्त्रार्थ के दौरान विद्वानों के चुनौती पर उन्होंने एक भारी भरकम पत्थर जब गंगा में डाला तो वह पत्थर गंगा स्नान कर नीचे जाने के बाद पुन: ऊपर जाकर तैरने लगा। चित्तौड़ की महारानी मीराबाई एवं झलकारी बाई भी रविदास की शिष्य थी, जो स्वयं काशी चलकर आई थी और बाद में चित्तौड़ में भंडारे का आयोजन कर उन्हें आमंत्रित किया था। जब रविदास पहुचे और भोजन का समय हुआ तो कुछ लोगों ने साथ बैठकर भोजन करने से मना किया। आश्चर्य की बात है कि जैसे ही सभी लोग भोजन करने लगे, हर दो विद्वानों के बीच संत रविदास बैठे हुए भोजन करते नजर आए यह आश्चर्य ही नहीं बल्कि ईश्वरी शक्ति थी जिसके कारण काशी नरेश ने भी उनको गुरु माना और उन्हें संत शिरोमणि की उपाधि प्राप्त हुई, क्योकि संत रविदास किसी पंथ संप्रदाय के विरोधी नहीं थे| वे व्यक्ति से नहीं बल्कि विचारों से परहेज करते थे। बताया कि रविदास और कबीर दोनों एक दूसरे को बड़ा और उपासक मानते थे। क्योंकि संतो ने छोटा-बड़ा, अगड़ा-पिछड़ा नही, बुराई, विसंगति दूर करने का काम, अधर्म से धर्म की ओर ले जाने का काम किया है। देश के अंदर सामाजिक चुनौतियो, बुराइयो को दूर करने वाले लाखो उनके भक्त बने। जब सिकन्दर लोदी को लगा कि इस्लाम को खतरा बढ़ गया है, तो रविदास को दिल्ली बुलाया। संत रविदास दिल्ली में लोदी से मिले, तो उनके सनातनी व्यवहार से वह उनके शरण में आ गया और माफी मांगा। उस समय संत रविदास ने प्रलोभन अथवा दबाव में आकर हिंदू धर्म अथवा हिंदुत्व को नहीं छोड़ा और न स्वीकार किया और निरंतर सनातन धर्म के लिए लगे रहे| ऐसी चुनौतियों को सहने के कारण ही दुनिया में सनातन का अस्तित्व है और भारत विश्व गुरु एवं परम वैभव की ओर आज अग्रसर है।

   इस अवसर पर मा. सह विभाग संचालक धर्मराज जी, विभाग प्रचारक प्रतोष जी, मा. जिला संघचालक शरद चंद जी, जिला कार्यवाह चंद्र मोहन जी, सह जिला कार्यवाह नीरज जी, जिला प्रचारक धीरज जी, अशोक सोनी जी, राजेंद्र जी, केशव जी, वीरेंद्र जी, सुनील जी, लखन जी, अनिल जी, विमलेश जी, शैलेश जी एवं सौरभ जी आदि स्वयंसेवक एवं गणमान्य नागरिक उपस्थित रहें|



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