Tuesday, September 30, 2025

श्री गुरुजी – जिनके एक आह्वान पर युवाओं ने जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया

 - डॉ. शुचि चौहान

वर्ष 1942, दिनांक 17 मार्च, अवसर था वर्ष प्रतिपदा का। एक कृश काय सन्यासी लोगों को सम्बोधित कर रहा था – “हमारा अहोभाग्य है कि हम आज जैसी संकटपूर्ण परिस्थिति में पैदा हुए हैं। संसार में उसी का नाम अमर होता है जो संकटकाल में कुछ कर दिखाता है। एक वर्ष के लिए अपने व्यक्तिगत जीवन के सारे विचार स्थगित कर दीजिए। इस असिधारा व्रत को अपनाकर एक वर्ष के लिए सन्यासी बन जाइए। अपने प्रति चाहे जितना कठोर बनना पड़े, उसके लिए तैयार हो जाइए।”

यह वह दौर था, जब भारत स्वतंत्रता की लड़ाई के निर्णायक चरण में था और मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग कर रही थी। जगह जगह दंगे हो रहे थे। ऐसे समय में सन्यासी के आह्वान का युवाओं पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उद्बोधन के बाद कुछ ही दिनों में अकेले अमृतसर से 52 और लाहौर से 48 युवाओं ने स्वयं को राष्ट्र सेवा के लिए सन्यासी के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया, इनमें बड़ी संख्या में डॉक्टर, स्नात्कोत्तर, स्नातक और शास्त्री शामिल थे। यह तपस्वी और कोई नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी थे।

श्री गुरुजी का संघ से परिचय बनारस में हुआ था, जहां वे पहले पढ़ाई और बाद में अध्यापन से जुड़े थे। वहीं पर उनकी भेंट भैय्याजी दाणी से हुई। भैय्याजी स्वयंसेवक थे और डॉ. हेडगेवार की प्रेरणा से बनारस में संघ कार्य कर रहे थे। भैय्याजी ने श्री गुरुजी को शाखा से जोड़ा, जिसका बाद में उन्होंने नेतृत्व भी किया। 1937 में जब श्री गुरुजी नागपुर लौटे, तब डॉ. हेडगेवार के निकट सहयोगी बनकर कार्य करने लगे। श्री गुरुजी के समर्पण और नेतृत्वशीलता जैसे गुणों को देखते हुए उन्हें 1939 में सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में संघ के सरसंघचालक बने। इस समय संघ महाराष्ट्र के बाहर दिल्ली, पंजाब, बंगाल, बिहार, कर्नाटक, मुंबई आदि प्रांतों में फैल चुका था, लेकिन देश का बड़ा हिस्सा अभी भी अछूता था। श्री गुरुजी ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार देने का बीड़ा उठाया।

लेकिन यह आसान नहीं था। तब संघ कार्य बहुत कठिन होता था। पूर्णकालिक प्रचारक बहुत कम थे। प्रचारकों के पास भोजन-पानी से लेकर रात को रहने तक का कोई ठिकाना न था। बस एक झोला होता था, जिसमें एक जोड़ी कपड़े, कभी कभी सत्तू या सूखी रोटी, कोई पुस्तक या पेपर व पेन होता था। घरों में सम्पर्क और शाखा कार्य की चुनौतियाँ थीं। सम्पर्क के लिए भी पैदल ही घूमना पड़ता था। श्री गुरुजी ने सबसे पहले प्रचारकों की संख्या बढ़ाने और शाखा विस्तार पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने लाहौर, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अनेक यात्राएँ कीं, जन सम्पर्क बढ़ाया। युवाओं को प्रचारक बनने के लिए प्रेरित किया। इन प्रचारकों को देश के अलग-अलग भागों में संघ कार्य के विस्तार के लिए भेजा। वे अपने उद्बोधनों में प्रायः कहा करते थे कि यदि देश के मात्र तीन प्रतिशत लोग भी समर्पित होकर देश की सेवा में लग जाएं तो देश की बहुत सी समस्याएं स्वतः समाप्त हो जाएंगी।

वह कहते थे, शाखाएं संघ की रक्त वाहिनियां हैं, इनकी मजबूती आवश्यक है। वर्ष 1950 में वे पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में आए। प्रभात शाखा के स्वयंसेवक माला लेकर स्टेशन पहुंचे तो उन्होंने माला पहनने से मना कर दिया और कहा, ‘आप शाखा छोड़कर क्यों आए हो? क्या आप मुझे नेता मानते हो? मुझे अच्छी शाखा चाहिए। अच्छी शाखा देखता हूं तो मेरे शब्दों में शक्ति आ जाती है।’

श्री गुरुजी कार्यकर्ताओं की सँभाल बहुत अच्छी करते थे। उनका व्यवहार ऐसा था कि जो उनसे मिलता, उनका ही होकर रह जाता था। उनका यह गुण भी संघ विस्तार में बहुत काम आया। बाला साहब देवरस अक्सर कहा करते थे, श्री गुरुजी ने अपने परिश्रम और व्यक्तिगत सम्पर्क के माध्यम से देव दुर्लभ कार्यकर्ता निर्मित किए और उन्हें निरंतर सक्रिय रखा।

श्री गुरुजी एक ओर ऐसे कार्यकर्ता गढ़ रहे थे और संघ विस्तार कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर देश में अनेक चुनौतियां एक-एक कर सामने आ रही थीं, जिनमें सही निर्णय और दूरदर्शिता अत्यंत आवश्यक थी। 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ। 1946 में बंगाल में डायरेक्ट एक्शन डे पर मुस्लिम लीग ने हजारों हिन्दू काट डाले। अगस्त 1947 में भारत विभाजन हुआ, उस समय भी हिन्दुओं की लाशों से भरी रेलगाड़ियां पाकिस्तान से भारत पहुंचीं। अक्तूबर 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर को लेकर भारत पर हमला किया। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या हो गई। 20 हजार स्वयंसेवकों सहित श्री गुरुजी गिरफ्तार कर लिए गए, संघ पर प्रतिबंध लगा। 1962 में चीन से युद्ध हुआ और 1965 में पाकिस्तान से। इन सभी अवसरों पर श्री गुरुजी के नेतृत्व में संघ स्वयंसेवकों का जो सेवा और समर्पण भाव सामने आया, उससे हर बार संघ पहले से मजबूत हुआ, उसका विस्तार हुआ। 1973 तक इसकी शाखाओं का जाल पूरे देश में फैल गया था।

इसी दौर में समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में जहां-जहां आवश्यकता लगी स्वयंसेवकों ने श्री गुरुजी की प्रेरणा से 23 से अधिक संगठन भी खड़े किए। भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए विस्थापितों की दुर्दशा पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के व्यवहार से खिन्न होकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संसद से 8 अप्रैल 1950 को त्यागपत्र दे दिया और एक नए राजनीति दल के गठन की आवश्यकता अनुभव की, तो वे श्री गुरुजी से मिले। उसके बाद 1951 में जनसंघ की स्थापना हुई। इसी प्रकार 1952 में श्री गुरुजी और ठक्कर बप्पा की प्रेरणा से वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना हुई। 1955 में श्रमिक क्षेत्र में विशुद्ध भारतीय दृष्टिकोण का प्रस्तुतिकरण आवश्यक मानते हुए श्री गुरुजी की ही प्रेरणा से दत्तोपंत ठेंगड़ी ने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की। विश्व हिन्दू परिषद, किसान संघ, विद्या भारती आदि संगठनों की स्थापना के श्री गुरुजी प्रेरणा स्रोत रहे।

संघ इस विजयादशमी (2 अक्तूबर) को सौ वर्ष का हो रहा है। इससे जुड़े संगठनों की संख्या 32 से अधिक हो गई है। वर्तमान में देशभर में एक करोड़ से अधिक स्वयंसेवक हैं, इनमें से लगभग 6 लाख प्रतिदिन शाखा जाते हैं। इसके अतिरिक्त भी कई स्वयंसेवक विविध क्षेत्रों में संघ प्रेरित संगठनों में कार्यरत हैं। देश भर में 73,646 स्थानों पर संघ की गतिविधियां चल रही हैं। 83,139 शाखाएं लग रही हैं। सरसंघचालक के आह्वान पर दो वर्ष का समय देने वाले 2,453 लोगों ने अपना घर छोड़ा है। संघ अब विशाल वटवृक्ष बन चुका है। इस सफलता के पीछे बहुत बड़ा हाथ श्री गुरुजी की दूरदर्शिता का है। संघ आज भी उसी संगठनात्मक संरचना पर चल रहा है, जिसे उन्होंने वर्षों की तपस्या से गढ़ा था।

Monday, September 29, 2025

संघ शताब्दी – राष्ट्र साधना के 100 वर्ष

नरेन्द्र कुमार (अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

विजयादशमी (2 अक्तूबर 2025) के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण कर लेगा। संघ की स्थापना डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने विक्रमी संवत् 1982 की विजयादशमी को नागपुर (महाराष्ट्र) में की थी। डॉ. हेडगेवार जन्मजात देशभक्त थे। स्वाधीनता आन्दोलन के सभी प्रयासों में वे सक्रिय थे। कोलकाता में मेडिकल की पढ़ाई के समय अनुशीलन समिति के सदस्य के रूप में सक्रिय थे। 1921 में अंग्रेज़ सरकार ने राजद्रोह का मुक़द्दमा चलाया और एक वर्ष के कारावास की सजा हुई। 1930 में जंगल सत्याग्रह करके जेल गए, जिसमें उन्हें 9 महीने का कारावास हुआ।

संघ स्थापना का लक्ष्य 

डॉ. हेडगेवार ने संघ स्थापना का लक्ष्य सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित कर हिन्दुत्व के अधिष्ठान पर भारत को समर्थ और परमवैभवशाली राष्ट्र बनाना रखा। इस महत्वपूर्ण कार्य हेतु वैसे ही गुणवान, अनुशासित, देशभक्ति से ओत-प्रोत, चरित्रवान एवं समर्पित कार्यकर्ता आवश्यक थे। ऐसे कार्यकर्ता निर्माण करने के लिए उन्होंने एक सरल, अनोखी किन्तु अत्यंत परिणामकारक दैनन्दिन ‘शाखा’ की कार्यपद्धति संघ में विकसित की। और संघ ने इस कार्यपद्धति से लाखों योग्य कार्यकर्ता तैयार किए जो इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गत 100 वर्षों से समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं।

संघ कार्य विस्तार

इस यात्रा में संघ उपहास, विरोध के मार्ग पार कर स्वीकृति एवं समर्थन की प्राप्ति की स्थिति में पहुँच गया है। संघ अपने श्रेष्ठ अधिष्ठान, उत्तम कार्यपद्धति और स्वयंसेवकों के नि:स्वार्थ देशभक्ति से भरे, समरसतायुक्त आचरण के कारण समाज का विश्वास जीतने में सफल हुआ है। आज संघ कार्य सर्वदूर, सभी क्षेत्रों में दिखाई देता है और प्रभावी भी है। आज सम्पूर्ण भारत में 98 प्रतिशत जिलों और 92 प्रतिशत खण्डों (तालुका) में संघ की शाखाएं चल रही हैं। देशभर में 51740 स्थानों पर 83,129 दैनिक शाखाएं तथा अन्य 26460 स्थानों पर 32147 साप्ताहिक मिलन चल रहे हैं, जो लगातार बढ़ रहे हैं। इनमें 59 प्रतिशत शाखाएं युवाओं (छात्रों) की हैं।

समाज परिवर्तन की दिशा में बढ़ते कदम

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये पहले चरण में संगठन खड़ा करने पर ही ध्यान केंद्रित किया। समाज में यह विश्वास निर्माण किया कि हिन्दू समाज संगठित हो सकता है, एक दिशा में कदम से कदम मिलाकर एकसाथ चल सकता है। एक स्वर में भारत माता की जय-जयकार कर सकता है। संघ को इसमें सफलता भी मिली।

1940 के नागपुर वर्ग में प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए देश के हर राज्य से स्वयंसेवक उपस्थित हुए थे। डॉ. हेडगेवार ने वर्ग में आए स्वयंसेवकों को अपने अंतिम भाषण में संबोधित करते हुए कहा था, “आज मेरे सामने मैं हिन्दू राष्ट्र की छोटी-सी प्रतिमा देख रहा हूँ।”

स्वाधीनता के पश्चात् 1948 में राजनीतिक कारणों से तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने संघ पर प्रतिबन्ध लगाकर समाप्त करने का दुस्साहस किया, जिसे स्वयंसेवकों ने लोकतांत्रिक पद्धति से सत्याग्रह करके सरकार को झुकने के लिये मजबूर किया और सरकार को संघ से प्रतिबन्ध हटाना पड़ा।

भारत के स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा ‘स्व’ के आधार पर थी, उसी ‘स्व’ के आधार पर समाज जीवन का प्रत्येक क्षेत्र खड़ा हो, यह आवश्यक था। इस हेतु संघ की प्रेरणा से स्वयंसेवकों ने दूसरे चरण में शिक्षा, विद्यार्थी, मजदूर, राजनीति, किसान, वनवासी, कला आदि क्षेत्रों में विविध संगठनों के माध्यम से कार्य प्रारम्भ किया। आज अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विद्या भारती, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, संस्कार भारती, लघु उद्योग भारती, स्वदेशी जागरण मञ्च जैसे 32 से अधिक संगठन समाज जीवन में सक्रिय हैं और अपने-अपने क्षेत्र में प्रभावी भी हैं। ये सभीसंगठन स्वायत्त, स्वतन्त्र और स्वावलंबी हैं।

सेवा कार्य

स्वयंसेवक अपनी योग्यता, क्षमता के अनुसार सामाजिक समस्याओं व चुनौतियों के समाधान करने के लिए हमेशा सक्रिय रहते हैं। देशभक्ति और सेवाभाव से ओत-प्रोत स्वयंसेवक समाज के दुःख देखते ही दौड़ पड़ते हैं, तभी आज किसी भी प्राकृतिक अथवा अन्य आपदाओं के समय वहाँ तुरन्त पहुँचते हैं और समाज की सेवा में जुट जाते हैं। केवल आपदा के समय ही नहीं, तो नियमित रूप से समाज में दिखने वाले अभाव, पीड़ा, उपेक्षा को दूर करने के लिए सर्वत्र प्रयास करते हैं। इसलिए संघ ने अपने तीसरे चरण में 1988-89 में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी की जन्मशताब्दी में सेवा कार्यों को अधिक गति और व्यवस्थित रूप देने का निर्णय लिया। और 1990 में विधिवत सेवा विभाग आरंभ हुआ। आज संघ स्वयंसेवक अभावग्रस्त क्षेत्र व लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार और स्वावलंबन के विषयों पर ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में 1,29,000 सेवा कार्य चला रहे हैं। समाज परिवर्तन के इन प्रयासों में स्वयंसेवकों को समाज का भरपूर सहयोग और समर्थन मिल रहा है।

इसके अतिरिक्त स्वयंसेवक प्रशासन अथवा सरकार पर निर्भर न रहते हुए अपने ग्राम का सर्वांगीण विकास सभी ग्रामवासी मिलकर करें, इस उद्देश्य से ‘ग्राम-विकास’ का कार्य भी कर रहे हैं। भारतीय नस्ल की गायों का संरक्षण, संवर्धन एवं नस्ल सुधार करते हुए जैविक खेती के लिए किसानों को प्रशिक्षण, प्रबोधन एवं प्रोत्साहन देने की दृष्टि से ‘गौ संरक्षण एवं संवर्धन’ का कार्य भी करते हैं।

पंच परिवर्तन

संघ के स्वयंसेवक अपने परिवार में संघ जीवन शैली को अपनाते हुए समाजानुकूल परिवर्तन करने का निरन्तर प्रयास करते हैं। साथ ही व्यापक समाज परिवर्तन के लिए विभिन्न प्रकार के उपक्रम नियमित रूप से करते रहते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शताब्दी वर्ष के पश्चात समाज परिवर्तन के अगले चरण में प्रवेश कर रहा है। और यह समाज जागरण का एक बड़ा और व्यापक अभियान होगा। इस चरण में स्वयंसेवक समाज की सज्जन शक्ति के साथ मिलकर कार्य करने की दिशा में अग्रसर होंगे। इस हेतु समाज में जागरूकता निर्माण करने के लिए और व्यक्तिगत, पारिवारिक जीवन में व्यवहार में लाने के लिए पाँच विषयों का आग्रह है। इसे पंच परिवर्तन कहा गया।

ये पाँच विषय हैं – 1. सामाजिक समरसता, 2. पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन 3. कुटुम्ब प्रबोधन, 4. स्व आधारित जीवन, और 5. नागरिक कर्तव्यबोध। ये विषय समाज की एकता, अखण्डता और मानवता की भलाई के लिए आज की परिस्थितियों में आवश्यक हैं।

गत सौ वर्षों से यह महायज्ञ अविरत रूप से चल रहा है। सम्पूर्ण समाज संगठन के द्वारा देश के सामने आने वाली सभी समस्याओं और चुनौतियों का समाधान कर, समाज में स्थायी परिवर्तन लाने हेतु समाज की व्यवस्थाओं का युगानुकूल निर्माण करना, यही संघकार्य का उद्देश्य है। किन्तु अपना देश बहुत विशाल है, और कोई एक संगठन इसमें स्थायी परिवर्तन नहीं ला सकता है। अमृतकाल का यह समय अपनी पवित्र मातृभूमि को पुनः विश्वगुरु सिंहासन पर आरूढ़ करने के लिए सभी मतभेद भुलाकर, एकसाथ आकर, पुरुषार्थ करने का समय है।

 

Saturday, September 27, 2025

संघ की प्रार्थना संघ का सामूहिक संकल्प, प्रार्थना में मंत्र का सामर्थ्य – डॉ. मोहन भागवत जी

नागपुर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि संघ की प्रार्थना संघ का सामूहिक संकल्प है। 1939 से स्वयंसेवक शाखा में प्रार्थना के माध्यम से संकल्प का उच्चारण रोज़ करते आ रहे हैं। इतने वर्षों की साधना से प्रार्थना को मंत्र का सामर्थ्य प्राप्त हुआ है, और यह केवल बताने की नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव करने की बात है।

सरसंघचालक जी अत्याधुनिक संगीत संयोजन से स्वरबद्ध संघ प्रार्थना और विभिन्न भारतीय भाषाओं में उसके अर्थ सहित अभिनव ध्वनिचित्रफीति (ऑडियो-विजुअल) का लोकार्पण समारोह में संबोधित कर रहे थे। इस निर्माण में प्रसिद्ध संगीतकार राहुल रानडे, प्रसिद्ध गायक शंकर महादेवन और सुप्रसिद्ध उद्घोषक हरीश भिमानी की प्रमुख भागीदारी है। रेशीमबाग स्मृति भवन परिसर में स्थित महर्षि व्यास सभागार में संपन्न हुए लोकार्पण समारोह में अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे। सरसंघचालक जी ने इस अवसर पर संघ प्रार्थना का इतिहास और उसका प्रभाव विस्तार से बताया।

उन्होंने कहा कि यह प्रार्थना संपूर्ण हिन्दू समाज द्वारा मिलकर पूर्ण किए जाने वाले ध्येय को व्यक्त करती है। इसमें भारतमाता की प्रार्थना है। इसमें पहला नमस्कार भारतमाता को और बाद में ईश्वर को है। इसमें भारतमाता से कुछ भी मांगा नहीं गया है, बल्कि जो उन्हें देना है, उसका उच्चारण है। जो मांगना है, वह ईश्वर से मांगा गया है। यह प्रार्थना सिर्फ शब्द या उसका अर्थ नहीं है, बल्कि इससे भारतमाता के लिए भाव व्यक्त होता है।

1939 से आज तक स्वयंसेवक रोज़ शाखा में प्रार्थना का उच्चारण करते हैं। इतने वर्षों की साधना से इस प्रार्थना को मंत्र की शक्ति प्राप्त हुई है, और यह प्रत्यक्ष अनुभव करने की बात है। प्रार्थना से स्वयंसेवक पक्का होता है।



उन्होंने कहा कि संघ में बाल और शिशु स्वयंसेवक भी हैं। उन्हें प्रार्थना का अर्थ क्या समझ आता होगा? ऐसा नहीं है कि उन्हें समझ नहीं आता होगा। हो सकता है कि वे शब्द और अर्थ न समझते हों, लेकिन प्रार्थना एक भाव है। किसी भी शाखा में शिक्षकों को परेशान करने वाला शिशु स्वयंसेवक भी प्रार्थना के समय दक्ष और प्रणाम की मुद्रा में खड़ा होता है। दाहिने पैर में मच्छर काटे तो भी वह बाएँ हाथ को प्रणाम की मुद्रा में रखकर दाहिने हाथ का उपयोग करता है।

प्रार्थना का पहला रूप भाव है। उसमें संकल्प की दृढ़ता है। उसमें मातृभूमि के प्रति भक्ति-प्रेम है। भाव को समझने के लिए किसी विद्वत्ता की आवश्यकता नहीं होती। ये बातें स्वयंसेवकों को समझ में आती हैं। भाव का प्रभाव बहुत बड़ा है। स्वयंसेवक को वह महसूस होता है। जो प्रार्थना से पता चलना चाहिए, वह उन्हें पता चलता है।

मोहन भागवत जी ने कहा कि संघ की यह धारणा है कि जब संपूर्ण हिन्दू समाज की कार्यशक्ति का योगदान लगेगा, तभी भारतमाता को परम वैभव प्राप्त होगा। यदि ऐसा होना है, तो पहले भाव, फिर अर्थ और तब शब्द का एक प्रवाह है। लेकिन, अगर गति बढ़ानी है, तो शब्द से अर्थ की ओर और अर्थ से भाव की ओर भी जाना होगा। उन्होंने उदाहरण दिया – प्राथमिक विद्यालय के एक संस्कृत शिक्षक रास्ते से जा रहे थे, जब कुछ स्वर उनके कानों पर पड़े। वे उनके अर्थ और शब्द से अभिभूत हो गए। उत्सुकता से उन्होंने वहाँ के बच्चों से पूछा तो बच्चों ने बताया कि ‘हम संघ के लोग हैं और यह हमारी प्रार्थना है’। प्रार्थना के इस प्रभाव के कारण वे संघ की शाखा में आने लगे और आगे चलकर संघ के बंगाल प्रांत के प्रांत संघचालक बने। वे थे केशवचंद्र चक्रवर्ती।

इसलिए, यह प्रवाह भी शुरू होना चाहिए और यह उपक्रम ऐसे प्रवाह को शुरू करने का साधन है। शब्द, अर्थ और भाव, इन तीनों बातों के अनुरूप संगीत का संयोग बहुत कम बार आता है। मैंने जब पहली बार यह ट्रैक सुना तो तुरंत समझ में आया कि वह प्रार्थना को उस वातावरण में ले जाता है। इसका इंग्लैंड की भूमि पर तैयार होना एक बोनस है। इसका जितना प्रचार-प्रसार होगा, उतने ही नए लोग संघ से जुड़ेंगे। संगीत में अपना सामर्थ्य है। वह कान से सीधे मन में उतरता है। इस उपक्रम से जुड़े सभी लोगों को बधाई देते हुए सरसंघचालक जी ने उन्हें धन्यवाद दिया।

हरीश भिमानी ने कहा कि आज का पल हमारे लिए अकल्पनीय है। सबसे महत्वपूर्ण देवी भारतमाता ही है। उनका कहीं भी मंदिर नहीं है। यह कार्य मुझसे करवाया गया है। यह मेरे लिए केवल अनुष्ठान नहीं, बल्कि अर्ध्य है। राहुल रानडे ने कहा कि यह विचार सबसे पहले भिमानी ने ही मेरे सामने रखा था। इस अवसर पर सरसंघचालक ने उनका विशेष सत्कार किया।

समारोह में प्रार्थना के हिंदी और मराठी अनुवादों की चित्रफीति का प्रदर्शन किया गया। यह प्रार्थना लंदन के रॉयल फिलरमॉनिक ऑर्केस्ट्रा के सहयोग से संगीतबद्ध की गई है। प्रसिद्ध गायक शंकर महादेवन ने प्रार्थना को स्वर दिया है, और प्रार्थना के हिंदी अनुवाद को हरीश भिमानी तथा मराठी अनुवाद को सुप्रसिद्ध अभिनेता सचिन खेडेकर ने स्वर दिया है। गुजराती और तेलुगु सहित लगभग 14 भारतीय भाषाओं में प्रार्थना के अनुवाद का प्रदर्शन किया जाएगा। 

Sunday, September 21, 2025

संघ शताब्दी – राष्ट्रीय एकता का बीज : संघ स्थापना की पृष्ठभूमि



व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण का ध्येय’

भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है – ‘संगठन और समर्पण’। जब-जब समाज विखंडित हुआ, आत्मविश्वास डगमगाया और पराधीनता की बेड़ियाँ मजबूत हुईं, तब-तब इस भू-भाग ने कोई न कोई शक्ति उत्पन्न की। इस शक्ति ने राष्ट्र को जाग्रत कर आत्मविश्वास का संचार किया। ऐसी ही शक्ति का स्वरूप है – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।

इतिहास केवल अतीत का ब्योरा भर नहीं है, बल्कि यह वर्तमान और भविष्य के निर्माण का मार्गदर्शक है। संस्कृत में “इतिहास” का अर्थ ही है – “इति-ह-आस” अर्थात् ऐसा ही हुआ।

राष्ट्र जीवन के उत्थान और पतन के पीछे कुछ गहरे कारण छिपे रहते हैं।

चरित्र और चेतना में स्थायी परिवर्तन आवश्यक

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने अपने जीवन काल में समाज, धर्म, राजनीति और क्रांतिकारी आंदोलनों से जुड़कर उनका अध्ययन किया। वे अनेक आंदोलनों में नेतृत्वकारी भूमिका निभाते हुए भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि केवल आंदोलनों के सहारे राष्ट्र का स्थायी पुनरुत्थान संभव नहीं है। इसके लिए समाज के चरित्र और चेतना में स्थायी परिवर्तन आवश्यक है। डॉ. हेडगेवार जी ने राष्ट्र की पराधीनता के मूल कारणों को तीन प्रमुख बिंदुओं में स्पष्ट किया। पहला, आत्मविस्मृति – समाज अपने गौरवशाली अतीत, हिन्दुत्व की श्रेष्ठता, राष्ट्रीय एकात्मता और सामाजिक समरसता को भूल चुका था। दूसरा, आत्मकेन्द्रित वृत्ति – जहाँ समाजहित की उपेक्षा कर व्यक्तिगत स्वार्थ और एकाकीपन प्रभावी हो गया था। तीसरा, सामूहिक अनुशासन का अभाव -जिसके कारण समाज विघटित हो गया और राष्ट्र परतंत्रता की ओर बढ़ा। इन्हीं कारणों के चलते डॉ. हेडगेवार ने यह निश्चय किया कि यदि राष्ट्र को पुनः सशक्त बनाना है तो समाज में आत्मगौरव, निःस्वार्थ भावना और अनुशासित संगठन का संस्कार करना होगा। यही विचार आगे चलकर संघ की स्थापना का आधार बने और राष्ट्रीय जागरण की दिशा में एक नयी शक्ति का संचार हुआ।

पराधीनता के समय संगठन का अभाव

भारत पर मुस्लिम और ब्रिटिश आक्रमणों ने केवल राजनीतिक पराधीनता ही नहीं दी, बल्कि समाज और राष्ट्र-जीवन पर गहरे दुष्प्रभाव भी छोड़े। इन आक्रमणों के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में प्रतिक्रियात्मक देशभक्ति का निर्माण हुआ। यह देशभक्ति भावनात्मक अवश्य थी, परंतु उसमें सकारात्मक, स्वाभाविक और दीर्घकालीन दृष्टि का अभाव दिखाई देता है। शताब्दियों की पराधीनता ने भारतीयों के भीतर आत्महीनता की भावना उत्पन्न की। अपनी भाषा, शिक्षा, जीवन मूल्यों, महापुरुषों और गौरवशाली इतिहास के प्रति स्वाभिमान शून्यता बढ़ी। यहाँ तक कि स्वयं को “हिन्दू” कहने में भी लज्जा का अनुभव होने लगा। इसी के साथ राष्ट्रीयता की भ्रामक अवधारणाएँ भी उभरीं। यह भाव कि “देश का भाग्य हिन्दू समाज से जुड़ा है” समाज में कमजोर पड़ गया। स्वतंत्रता आंदोलनों के समय नेतृत्व में आत्मविश्वास की कमी रही। मुस्लिम समाज को साथ रखने के लिए अनेक नेताओं ने राष्ट्रीयता के मूल सिद्धांतों और मानबिंदुओं को भी त्याग दिया। वन्दे मातरम् जैसे राष्ट्रगान को छोड़ने और खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने जैसी घटनाएँ इसी मानसिकता का परिणाम थीं।

सबसे बड़ी कमी रही – संगठन का अभाव। समाज संगठित नहीं था, जिसके कारण अनेक आंदोलन बीच में ही टूट गए। कुछ व्यक्तियों के बल पर पूरे राष्ट्र की समस्याओं का समाधान संभव न था।

भारत’ हिन्दू राष्ट्र है

इतिहास हमें यह शिक्षा देता है कि संगठन, आत्मविश्वास और स्वाभिमान ही राष्ट्र की स्थायी स्वतंत्रता और प्रगति के आधार हैं। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने स्पष्ट रूप से कहा कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और राष्ट्र की शक्ति ही सभी कार्यों की सफलता की आधारशिला है। उन्होंने समझाया कि शक्ति का सही उपयोग संगठन में ही संभव है। अतः समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए संगठन और अनुशासन अनिवार्य हैं। डॉ. हेडगेवार जी ने देखा कि समाज में आत्मविस्मृति, स्वार्थपरता और अनुशासनहीनता के कारण राष्ट्र पराधीन बना हुआ है। इन सभी दोषों को दूर करने और राष्ट्र में पुनः शक्ति, आत्मगौरव और राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए उपाय सुझाए। उनका विचार था कि केवल जागरूक व्यक्तियों का समूह ही राष्ट्र की प्रत्येक विपत्ति का सामना कर सकता है और स्वतंत्रता आंदोलन की रीढ़ बन सकता है।

इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने स्वाभिमानी, संस्कारित, अनुशासित, चरित्रवान, शक्तिशाली और देशभक्ति से ओत-प्रोत व्यक्तियों के संगठन की आवश्यकता महसूस की। इन्हीं विचारों के आधार पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की।

संघ का स्वरूप विशेष रूप से शाखा रूपी अभिनव पद्धति पर आधारित है, जो व्यक्तियों को प्रशिक्षित कर राष्ट्र और समाज की सेवा हेतु तैयार करती है। डॉ. हेडगेवार जी का संदेश स्पष्ट था – केवल हिन्दू समाज का नहीं, सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन आवश्यक है। इसके लिए विशेष गुणयुक्त स्वयंसेवक तैयार किए जाएँ, जो अनुशासन, चरित्र और देशभक्ति में निपुण हों। यही विचार और सिद्धांत संघ की नींव बनकर आज भी समाज और राष्ट्र के उत्थान में मार्गदर्शन कर रहे हैं।

जीवन में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तीन शब्दों से मिलकर बना है – राष्ट्रीय, स्वयंसेवक और संघ।

राष्ट्रीय का अर्थ है – वह व्यक्ति जिसका अपने देश, उसकी परंपराओं, उसके महापुरुषों और उसकी सुरक्षा एवं समृद्धि के प्रति पूर्ण निष्ठा हो। ऐसा व्यक्ति देश के सुख-दुःख, हार-जीत और शत्रु-मित्र की समान अनुभूति कर सके। राष्ट्रीयता केवल भावनात्मक ही नहीं, बल्कि जीवन के सभी पहलुओं में व्यावहारिक रूप से व्यक्त होनी चाहिए। डॉ. हेडगेवार जी के दृष्टिकोण अनुसार, अपने देश में राष्ट्रीयता के सभी आवश्यक तत्वों की पूर्ति हिन्दू समाज के जीवन में होती है। अतः हिन्दू समाज का जीवन ही राष्ट्रीय जीवन है और व्यवहारिक दृष्टि से राष्ट्रीय, भारतीय और हिन्दू शब्द पर्यायवाची हैं।

स्वयंसेवक वह व्यक्ति है जो अपने अंदर की प्रेरणा से राष्ट्र, समाज, देश, धर्म और संस्कृति की सेवा करता है। यह सेवा निःस्वार्थ, अनुशासित और प्रमाणित रूप में होती है। स्वयंसेवक अपने कार्य के लिए किसी पुरस्कार या प्रतिफल की इच्छा नहीं रखता, बल्कि मातृभूमि की सेवा को परिपत्र, निरन्तर और योजनाबद्ध तरीके से करता है। संघ का मूल सिद्धांत यही है कि एक बार स्वयंसेवक हुआ तो वह जीवन पर्यन्त स्वयंसेवक रहता है। संघ केवल व्यक्तियों का समूह नहीं, बल्कि एक ऐसा संगठित, अनुशासित और समर्पित समाज निर्माण का माध्यम है, जो राष्ट्रीय चेतना और सेवा भाव को जीवन में स्थायी रूप से स्थापित करता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में स्वयंसेवक केवल नाम का सदस्य नहीं, बल्कि संगठन के उद्देश्यों को जीवन में अपनाने वाला सक्रिय कार्यकर्ता होता है। स्वयंसेवक से न्यूनतम अपेक्षाएँ स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं। उसे प्रतिदिन निर्धारित वेश में, निश्चित समय पर शाखा में उपस्थित होना अनिवार्य है। शाखा में भाग लेने के बाद अन्य बन्धुओं से संवाद और संपर्क बनाए रखना, कुछ नवीन बन्धुओं को संघ से जोड़ना भी उसका दायित्व है। इसके माध्यम से संगठन सशक्त और निरंतर विकसित होता है।

स्वयंसेवक का पड़ोसी धर्म भी संघ की सेवा में समाहित है। वह जहाँ रहता है, वहाँ के निवासियों से मधुर संबंध बनाए रखता है और उनके सुख-दुःख में यथासंभव सहयोग के लिए तत्पर रहता है।

व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण

संघ का शाब्दिक अर्थ संगठन या समुदाय है। यह समान विचार, समान लक्ष्य और आत्मीय भाव से जुड़े व्यक्तियों का समूह है, जो एक ही पथ, रीति और पूर्ण समर्पण भाव से कार्य करता है। संघ का स्वरूप प्राकृतिक उदाहरणों से तुलना करके समझा जा सकता है – जैसे रस्सी के तंतु, मधुमक्खियों का छत्ता या मानव शरीर।

Ready for Selfless Service संघ का स्वयंसेवक समाज सेवा में तत्पर, नियमित और चिर-विश्वसनीय होता है। यही गुण उसे संगठन और राष्ट्र के लिए अमूल्य बनाते हैं। एक बीते शतक में संघ ने जिस प्रकार लाखों व्यक्तियों को संस्कारित कर उन्हें समाजसेवा के पथ पर लगाया, वह अद्भुत है।

शताब्दी वर्ष केवल संघ की उपलब्धियों का उत्सव नहीं है। बल्कि यह आने वाले सौ वर्षों की दिशा तय करने का अवसर है। यह वह कालखंड है, जहाँ संघ का संदेश और भी गूंज रहा है – “संगठित भारत ही सशक्त भारत है”।

संघ का संदेश सरल है – व्यक्ति निर्माण से समाज जागेगा, समाज जागेगा तो राष्ट्र शक्तिशाली बनेगा।

लेखक – विनोद कुमार

(महाकौशल प्रांत प्रचार प्रमुख)

Monday, September 1, 2025

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के100 वर्ष : अखंड भारत को लेकर संघ का विचार...

‘100 वर्ष की संघ यात्रा : नए क्षितिज’। इस अवसर पर मंच पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के साथ सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले, क्षेत्र संघचालक श्री पवन जिंदल और प्रांत संघचालक डॉ. अनिल अग्रवाल उपस्थित थे। व्याख्यानमाला में पहले दिन एवं दूसरे दिन सरसंघचालक ने व्याख्यान दिया तथा तीसरे दिन ‘जिज्ञासा समाधान सत्र’ का आयोजन किया गया। यहां व्याख्यानमाला के संपादित अंश दिए जा रहे हैं-

प्रश्न-

1.  आप कहते हैं कि हिंदू-मुस्लिम का डीएनए एक है। यदि ऐसा है तो बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकालना क्या सही है?

2.  संघ ने विभाजन का विरोध क्यों नहीं किया?

3.  पाकिस्तान जैसे देश पर संघ का क्या विचार है?

4.  अखंड भारत को लेकर संघ का क्या विचार है?

5.  भारतवर्ष हमेशा वसुधैव कुटुम्बकम् के सिद्धांत पर चला है। फिर भी गत कुछ शताब्दियों में भारत की सीमाएं संकुचित क्यों हुई हैं?

उत्तर-

डेमोग्राफी’ की चिंता होती है और होने का कारण है कि ‘डेमोग्राफी’ बदलती है तो उसके कुछ परिणाम निकलते हैं। देश का विभाजन एक परिणाम है। मैं केवल भारत की बात नहीं कर रहा हूं। इंडोनेशिया में तिमोर को ले सकते हैं। सभी देशों में जनसांख्यिकीय असंतुलन की चिंता रहती है। संख्या से ज्यादा इरादा क्या है?

पहली तो बात संख्या की है। जनसंख्या असंतुलन का पहला कारण है कन्वर्जन। यह भारतीय परंपरा का हिस्सा नहीं है। मत-मजहब अपनी पसंद है। इसमें जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।

दूसरी बात है घुसपैठ। यह ठीक है कि हमारा डीएनए एक है, लेकिन हर देश की एक व्यवस्था होती है। इसलिए अनुमति लेकर आना चाहिए। यदि अनुमति नहीं मिलती है, तो नहीं आना चाहिए। विधि-विधान को परे रखकर किसी देश में घुस जाना गलत बात है। ऐसे लोगों के आने पर उपद्रव होता है। इसलिए घुसपैठ रोकना चाहिए।

तीसरा है जन्मदर। दुनिया में सब शास्त्र कहते हैं कि जिस समाज में जन्मदर तीन से कम होता है वह धीरे-धीरे लुप्त हो जाता है। इसलिए हर माता-पिता को तीन संतान के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। संघ ने विभाजन का विरोध किया था, लेकिन उस समय संघ की ताकत क्या थी? उस समय पूरा देश गांधी जी के पीछे था। उन्होंने कहा कि विभाजन नहीं होगा, लेकिन कुछ हुआ जो उन्होंने मान लिया। फिर विभाजन को रोका नहीं जा सका।

प्रश्न-

1.  पिछले कुछ वर्षों में भारत में शिक्षा के व्यवसायीकरण से शिक्षा का स्तर तेजी से गिरा है। पढ़े-लिखे बेरोजगारों की फौज तैयार हो रही है। संघ इस समस्या का क्या समाधान देखता है?

उत्तर-

शिक्षा नौकरी के लिए है, यह मानसिकता इसके लिए जिम्मेवार है। डिग्री चाहिए। क्यों चाहिए? नौकरी के लिए चाहिए। मैं कृषि विद्यापीठ में पढ़ा हूं, जिसमें बड़ी संख्या में एग्रीकल्चर वेटरनरी के छात्र थे। ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट होने के बाद वे लोग खेती में नहीं, नौकरी में गए, जबकि उनके घरों में 70, 100 एकड़ अच्छी खेती थी। पानी था, पंप थे, लेकिन अपने व्यवसाय में वापस नहीं गए। सरकारी नौकरी हो तो और अच्छा। यह मानसिकता सबको नौकरी की तरफ बढ़ाती है। हम नौकर नहीं बनेंगे, हम नौकरी देने वाले बनेंगे। ऐसी अगर सोच हो तो नौकरी की तरफ जो बड़ा प्रवाह जा रहा है, वह कम हो जाएगा। अपना खुद का काम करने से आजीविका चलती है।

- स्रोत - पाञ्चजन्य