Saturday, November 15, 2025

सद्भावना भारत का स्वभाव है – डॉ. मोहन भागवत जी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि  सद्भावना भारत का स्वभाव है। नियम और तर्क के आधार पर समस्याएं ठीक नहीं हो सकती, इसके लिए सद्भावना चाहिए और हमें यही काम करना है। उन्होंने कहा कि स्वार्थ भावना यह दुनिया का स्वभाव है। स्वार्थ भावना के आधार पर दुनिया को सुखी करने का प्रयास दो हज़ार साल से चल रहा है और विफल हो रहा है क्योंकि स्वार्थ सबका भला नहीं कर सकता। जिसमें ताकत है वो अपना स्वार्थ साध लेता है, उसके मन में कोई संवेदना नहीं रहती। स्वार्थ तो परस्पर विरोधी होता ही है।

सरसंघचालक जी शुक्रवार को मालवीय नगर स्थित पाथेय कण संस्थान के नारद सभागार में आयोजित सामाजिक सद्भाव बैठक को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि समाज को बचाना है तो उसका प्रबोधन करना आवश्यक है। कुछ शक्तियां ऐसी हैं जो भारत को आगे बढ़ना नहीं देना चाहती हैं। हिन्दू भारत का प्राण है, इसलिए भारत को तोड़ने की कोशिश करने वाले लोग हिन्दुओं को तोड़ना चाहते हैं। आज ड्रग्स का जाल फैलाया जा रहा है। इसके पीछे जो ताकतें हैं वो भारत को दुर्बल बनाना चाहती हैं।

उन्होंने कहा कि पंच परिवर्तन का कार्यक्रम हमने दिया है। बहुत सरल कार्यक्रम है। यह समरसता, पर्यावरण, कुटुम्ब प्रबोधन, स्व का जागरण और नागरिक कर्तव्य है। परिवार में आत्मीयता होती है तो ड्रग और लव जिहाद जैसी बातें हमेशा दूर रहती हैं। पर्यावरण के लिए छोटी-छोटी बातें करनी हैं, पानी बचाओ, सिंगल यूज प्लास्टिक हटाओ और पेड़ लगाओ। उन्होंने कहा कि सद्भावना के आधार पर ये बातें समाज के आचरण में लाना है, यह तब आएगी जब पहले हम इसे अपने आचरण में लाएंगे। सबमें सम्मान, प्रेम और आदर रहेगा तो सारे संकट समाप्त हो जाएंगे।

बैठक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्र संघचालक डॉ. रमेशचंद्र अग्रवाल, प्रदेश के विभिन्न समाजों के पदाधिकारी और गणमान्य लोग उपस्थित रहे।

Tuesday, November 11, 2025

ओ.टी.टी. प्लेटफॉर्म की सामग्री का नियमन हो

 

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि समाज की गरिमा और नैतिकता को नष्ट करने की छूट दी जाए
  • 17वां राष्ट्रीय अधिवेशन, 7, 8, 9 नवंबर 2025 – रीवा
  • अखिल भारतीय साहित्य परिषद के रीवा अधिवेशन -2025 में पारित प्रस्ताव

परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई, और परोपकराय सताम् विभूतयः की मान्यता पर आधारित हमारी संस्कृति आज अति भौतिकता से प्रभावित होकर बाजारवाद का संत्रास झेल रही है। आज हम जिस घोर व्यावसायिक समय में जी रहे हैं, उसने जीवन के मूलभूत संसाधनों को व्यापार में परिवर्तित कर दिया है। तकनीकों पर बाजारवादी शक्तियों का नियंत्रण है। इसी की परिणति है कि डिजिटल मीडिया का एक अति विशाल उद्योगतंत्र खड़ा हो गया है तथा पारंपरिक प्रसारण माध्यमों की जगह ऑनलाइन स्ट्रीमिंग ने ले ली है। ओवर-द-टॉप (ओटीटी) के सभी प्लेटफॉर्म और गेमिंग एप्स पर अधिकांश मनोरंजन की सामग्री का स्वरूप बदलकर नकारात्मक एवं जीवन मूल्यों रहित होता जा रहा है।

मनोरंजन के नाम पर इनके द्वारा जो हिंसक, अश्लील एवं मर्यादाहीन सामग्रियां परोसी जा रही हैं, वे अत्यंत लज्जास्पद एवं निंदनीय हैं। ये युवावर्ग और बालमन व मस्तिष्क में उग्रता, अश्लीलता, विकृत यौनाचार और नशाखोरी जैसे दुराचारों को महिमा मंडित कर उन्हें अधोपतन की ओर अग्रसित कर रही हैं। इन माध्यमों में प्रदर्शित अधिकांश दृश्य, वोकिज़्म और नकारात्मक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने वाली होती हैं। आज इस तरह के प्लेटफॉर्म और गेमिंग एप्स युवाओं को आत्महत्या के लिए प्रेरित कर रहे हैं। साथ ही अधिकांश प्लेटफॉर्म भारत के सांस्कृतिक मूल्यों एवं परम्पराओं पर आघात कर उनको विकृत रूप में चित्रित करती हैं। इनका अनियंत्रित प्रसारण समाज एवं राष्ट्र जीवन के लिए अत्यधिक घातक है।

अखिल भारतीय साहित्य परिषद, जो भारतीय साहित्य, संस्कृति और चिंतन के संरक्षण तथा संवर्धन के लिए समर्पित है, इस गंभीर स्थिति पर गहरी चिंता व्यक्त करती है। परिषद का यह मानना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि समाज की गरिमा और नैतिकता को नष्ट करने की छूट दी जाए। स्वतंत्रता और अनुशासन, सृजन और मर्यादा, ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

अतः यह अधिवेशन भारत सरकार तथा सभी राज्य सरकारों से मांग करता है कि –

1.  ओ.टी.टी. प्लेटफॉर्म एवं गेमिंग एप्स पर प्रसारित होने वाली प्रत्येक सामग्री के परीक्षण, नियमन, और वर्गीकरण हेतु शासन द्वरा एक सशक्त, स्वायत्त विधायी नियामक संस्था का गठन किया जाए।

2.  डिजिटल माध्यमों में प्रस्तुत किसी भी दृश्य, संवाद या विचार जो भारत की संविधानिक गरिमा, धार्मिक आस्था, सांस्कृतिक मूल्यों या सामाजिक मर्यादा और सनातन परंपरा को आहत करते हों, उन पर कड़ी निगरानी रखी जाए।

3.  किशोरों और युवाओं के लिए उपयुक्त सामग्री के आयु आधारित नियंत्रण तंत्र को अनिवार्य बनाया जाए।

4.  जो मंच या माध्यम अश्लीलता, हिंसा, नशाखोरी या विकृत जीवन मूल्यों का प्रचार करते हैं, उनके विरुद्ध कठोर कानूनी दंडात्मक कार्रवाई की जाए।

5.  भारतीय भाषाओं और संस्कृति के संवर्धन हेतु भारतीय मूल्यों पर आधारित वैकल्पिक मनोरंजन माध्यमों को प्रोत्साहित किया जाए।

    अंत में, अखिल भारतीय साहित्य परिषद का मानना है कि साहित्य, संस्कृति और समाज की शुचिता तभी सुरक्षित रह सकती है, जब जनमानस में सजगता, संवेदनशीलता और नैतिकता बनी रहे। अतः अखिल भारतीय साहित्य परिषद भारत सरकार तथा सभी राज्य सरकारों से यह मांग करती है कि उपर्युक्त सभी विषयों का संज्ञान लेकर इस दिशा में उचित कदम उठाए।

देश में बनी वस्तुओं के साथ भाषा-भूषा, भजन, भवन, भ्रमण और भोजन का भी स्वदेशी होना आवश्यक — मनोज जी

प्रयागराज। स्वदेशी का तात्पर्य केवल देश में बनी वस्तुओं का उपयोग नहीं, बल्कि स्वदेशी भाषा-भूषा, भजन, भवन, भ्रमण और भोजन को आत्मसात करना ही स्वदेशी आंदोलन का मूल उद्देश्य है। उक्त विचार भारतीय मजदूर संघ जैसे अनेक राष्ट्रवादी संगठनों के शिल्पकार एवं राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के 105वें जयन्ती के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र के क्षेत्र संपर्क प्रमुख मनोज कुमार जी ने व्यक्त किया। सोमवार को प्रो० राजेन्द्र सिंह (रज्जू भय्या) विश्वविद्यालय, प्रयागराज में आयोजित कार्यक्रम को सम्बो​धित करते हुए उन्होंने छात्रों से आग्रह किया कि वे अपने जीवन में स्वदेशी भाव का संचार करें, जब भारत अपनी जड़ों से जुड़ेगा, तभी सशक्त और आत्मनिर्भर बनेगा।” आगे कहा कि दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने मजदूर, किसान और व्यापारी तीनों वर्गों के बीच एक समन्वित दृष्टि प्रस्तुत की।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि ईस्टर्न यूपी चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री, प्रयागराज के अध्यक्ष विनय कुमार टंडन ने कहा कि “वर्तमान समय में उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में स्वदेशी का महत्व और भी बढ़ गया है। स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा देने से न केवल रोजगार सृजन होगा, बल्कि भारत विश्व अर्थव्यवस्था में सशक्त स्थान प्राप्त करेगा। विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे विद्यार्थियों में नवाचार और उद्यमिता की भावना विकसित करें।”

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कुलपति डॉo अखिलेश कुमार सिंह ने कहा कि दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने भारतीय चिंतन, श्रम एवं अर्थव्यवस्था को स्वदेशी दृष्टिकोण से जोड़कर आत्मनिर्भर भारत की वैचारिक नींव रखी। आज के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में उनके विचार न केवल प्रासंगिक हैं, बल्कि भारत के विकास का पथ-प्रदर्शन करने में सहायक हैं।

कार्यक्रम में जनपद प्रयागराज के उपजिलाधिकारी विजय शर्मा जी, हिमांशु मौर्य, जिला प्रचारक मंगल, अंकित पांडे समेत विश्वविद्यालय के अनेक संकायाध्यक्ष, विभागाध्यक्ष, शिक्षकगण, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, ग्राहक पंचायत, लघु उद्योग भारती, सहकार भारती एवं अन्य संवैचारिक संगठनों के लोग, अधिकारीगण एवं बड़ी संख्या में छात्र-छात्राओं की सहभागिता रही। कार्यक्रम का संयोजन स्वदेशी जागरण मंच स्वावलंबी भारत अभियान काशी प्रांत के सह समन्वयक गंगेश नारायण पांडेय ने किया।

Saturday, November 1, 2025

धरती आबा बिरसा मुंडा के 150वें जन्म वर्ष पर सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले जी का वक्तव्य

धरती आबा बिरसा मुंडा के 150वें जन्म वर्ष पर सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले जी का वक्तव्य

भारत के गौरवशाली स्वाधीनता संग्राम में जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों व योद्धाओं की एक दीर्घ परंपरा रही है और उनका योगदान अविस्मरणीय रहा है। भगवान बिरसा मुंडा का इस स्वतंत्रता संग्राम के श्रेष्ठतम नायकों, योद्धाओं में विशेष स्थान है। 15 नवंबर 1875 को उलीहातु (झारखंड) में जन्मे भगवान बिरसा का यह 150 वाँ जन्म वर्ष है। अंग्रेजों और उनके प्रशासन द्वारा जनजातियों पर किए जा रहे अत्याचारों से त्रस्त होकर उनके पिता उलीहातु से बंबा जाकर बस गए। लगभग 10 वर्ष की आयु में उन्हें चाईबासा मिशनरी स्कूल में प्रवेश मिला। मिशनरी स्कूलों में जनजाति छात्रों को उनकी धार्मिक परंपराओं से दूर कर ईसाई मत में मतांतरित करने के षड़यंत्र का उन्हें अनुभव आया। मतांतरण से न केवल व्यक्ति की धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक चेतना अवरुद्ध होती है बल्कि धीरे-धीरे समाज की अस्मिता भी नष्ट हो जाती है। केवल 15 वर्ष की आयु में ईसाई मिशनरियों के षडयंत्रों को समझते हुए उन्होंने समाज जागरण के द्वारा अपनी धार्मिक अस्मिता और परम्पराओं की रक्षा के लिए संघर्ष प्रारंभ कर दिया। मात्र 25 वर्ष की आयु में भगवान बिरसा ने उनके समाज में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की लहर पैदा कर दी जो स्वयं विकट परिस्थितियों से ग्रस्त था। ब्रिटिश शासन द्वारा प्रशासनिक सुधार के नाम पर वनों का अधिग्रहण करते हुए जनजातीय समाज से भूमि का स्वामित्व छीनना तथा जबरन श्रम नीतियां लागू करने के विरोध में भगवान बिरसा ने व्यापक जन आंदोलन खड़ा किया। उनके आंदोलन का नारा “अबुआ दिशुम-अबुआ राज” (हमारा देश-हमारा राज) युवाओं के लिए एक प्रेरणा मंत्र बन गया, जिससे हजारों युवा “स्वधर्म” और “अस्मिता” के लिए बलिदान देने हेतु प्रेरित हुए। जनजातियों के अधिकारों, आस्थाओं, परंपराओं और स्वधर्म की रक्षा के लिए भगवान बिरसा ने अनेक आंदोलन व सशस्त्र संघर्ष किए। अपने पवित्र जीवन लक्ष्य के लिए संघर्ष करते हुए वह पकड़े गए और मात्र 25 वर्ष की अल्पायु में कारागार में दुर्भाग्यपूर्ण और संदेहास्पद परिस्थिति में उनका बलिदान हुआ।

समाज के प्रति अपने प्रेम और बलिदान के कारण संपूर्ण जनजाति समाज उन्हें देव स्वरूप मानकर धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा कहकर श्रद्धान्वत होता है। भारत सरकार ने संसद भवन परिसर में उनकी प्रतिमा स्थापित कर उनका समुचित सम्मान किया है। प्रतिवर्ष 15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा का जन्मदिन “जनजाति गौरव दिवस” के रूप में मनाया जाता है। उनका बलिदान स्वाधीनता संघर्ष में जनजातियों के महती योगदान का उदाहरण बनते हुए संपूर्ण राष्ट्र के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया है। धार्मिक आस्था, सांस्कृतिक परम्परा, स्वाभिमान और जनजातीय समाज की अस्मिता की रक्षा हेतु भगवान बिरसा मुंडा के जीवन का संदेश आज भी प्रासंगिक है ।

वर्तमान काल में विभाजनकारी विचारधारा के लोगों द्वारा भारत के संदर्भ में जनजाति समुदाय को लेकर एक भ्रांत और गलत विमर्श खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसे समय में भगवान बिरसा मुंडा की धार्मिक और साहसिक पराक्रम की गाथाएं अनेकानेक भ्रांतियों को दूर करते हुए समाज में स्वबोध, आत्मविश्वास और एकात्मता को दृढ़ करने में सदैव सहायक सिद्ध होगी। भगवान बिरसा मुंडा की 150 वीं जयंती के अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वयंसेवकों सहित संपूर्ण समाज को आवाहन् करता है कि भगवान बिरसा मुंडा के जीवन-कर्तृत्व और विचारों को अपनाते हुए “स्व बोध” से युक्त संगठित और स्वाभिमानी समाज के निर्माण में महती भूमिका का निर्वहन करें।

राष्ट्रगीत वंदेमातरम् के 150 वर्ष पूर्ण होने पर दत्तात्रेय होसबाले जी का वक्तव्य

राष्ट्रगीत वंदेमातरम् के 150 वर्ष

मातृभूमि की आराधना और संपूर्ण राष्ट्र जीवन में चेतना का संचार करने वाले अद्भुत मन्त्र “वंदेमातरम्” की रचना के 150 वर्ष पूर्ण होने के शुभ अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्रगीत के रचयिता श्रद्धेय बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय को कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करते हुए उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता है। 1875 में रचित इस गीत को 1896 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में राष्ट्रकवि श्रद्धेय रविंद्रनाथ ठाकुर ने सस्वर प्रस्तुत कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था। तब से यह गीत देशभक्ति का मंत्र ही नहीं अपितु राष्ट्रीय उद्घोष, राष्ट्रीय चेतना तथा राष्ट्र की आत्मा की ध्वनि बन गया।

तत्पश्चात बँग-भंग आंदोलन सहित भारत के स्वाधीनता संग्राम के सभी सैनानियों का घोष मंत्र “वंदेमातरम्” ही बन गया था। इस महामंत्र की व्यापकता को इस बात से समझा जा सकता है कि देश के अनेक विद्वानों और महापुरुषों जैसे महर्षि श्रीअरविंद, मैडम भीकाजी कामा, महाकवि सुब्रमण्यम भारती, लाला हरदयाल, लाला लाजपत राय आदि ने अपने पत्र पत्रिकाओं के नाम में वंदेमातरम् जोड़ लिया था। महात्मा गांधी भी अनेक वर्षों तक अपने पत्रों का समापन “वंदेमातरम्” के साथ करते रहे।

वंदेमातरम्” राष्ट्र की आत्मा का गान है जो हर किसी को प्रेरणा देता है। वंदेमातरम् अपने दिव्य प्रभाव के कारण 150 वर्षों के बाद भी संपूर्ण समाज को राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना से ओत-प्रोत करने की सामर्थ्य रखता है। आज जब क्षेत्र, भाषा, जाति आदि संकुचितता के आधार पर विभाजन करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, तब “वंदेमातरम्” वह सूत्र है, जो समाज को एकता के सूत्र में बांधकर रख सकता है। भारत के सभी क्षेत्रों, समाजों एवं भाषाओं में इसकी सहज स्वीकृति है। यह आज भी समाज की राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक पहचान और एकात्म भाव का सशक्त आधार है। राष्ट्रीय चेतना के पुनर्जागरण और राष्ट्र निर्माण की इस पावन बेला में इस महामंत्र के भावों को हृदयंगम करने की आवश्यकता है।

वंदेमातरम्” गीत की रचना के 150 वर्ष पूर्ण होने के पावन अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सभी स्वयंसेवकों सहित सम्पूर्ण समाज से आवाहन् करता है कि वंदेमातरम् की प्रेरणा को प्रत्येक हृदय में जागृत करते हुए “स्व” के आधार पर राष्ट्र निर्माण कार्य हेतु सक्रिय हों और इस अवसर पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों को उत्साहपूर्वक भागीदारी करें।

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल बैठक

30-31 अक्टूबर-1 नवम्बर 2025, जबलपुर

 

माननीय सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले जी का वक्तव्य

श्री गुरुतेगबहादुर जी - भारतीय परंपरा के दैदीप्यमान नक्षत्र

सिख परम्परा के नवम गुरु, श्री गुरुतेगबहादुर जी की शहादत के 350 वें प्रेरणादायी दिवस पर इस वर्ष विभिन्न धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं सहित भारत के सम्पूर्ण समाज द्वारा श्रद्धा एवं सम्मान के साथ अनेकानेक कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है।

संघर्ष के उस कालखंड में भारत का अधिकांश भू-भाग विदेशी शासक औरंगजेब के क्रूर अत्याचारों से त्रस्त था। सम्पूर्ण भारतवर्ष में अनादिकाल से चली आ रही धर्माधिष्ठित संस्कृति एवं आस्थाओं को नष्ट करने हेतु बलपूर्वक मतांतरण किया जा रहा था। उसी कालखंड में कश्मीर घाटी से समाज के प्रमुख जन एकत्र होकर पं. कृपाराम दत्त जी के नेतृत्व में श्री गुरुतेगबहादुर जी के पास मार्गदर्शन हेतु आए। श्री गुरुजी ने परिस्थिति की भीषणता को समझते हुए समाज की चेतना एवं संकल्प शक्ति को जगाने हेतु निज के देहोत्सर्ग का निश्चय किया और औरंगजेब की क्रूर सत्ता को चुनौती दी। धर्मांध कट्टरपंथी शासन ने उन्हें गिरफ्तार कर मुसलमान बनो या मृत्युदंड स्वीकार करने को कहा। गुरु तेगबहादुरजी ने अत्याचारी शासन के सामने सिर झुकाने के स्थान पर आत्मोत्सर्ग का मार्ग स्वीकार किया। श्री गुरुतेगबहादुर जी के संकल्प और आत्मबल को तोड़ने की कुचेष्टा में मुगल सल्तनत ने उनके शिष्यों, भाई दयाला (देग में गरम तेल में उबालकर), भाई सतीदास (रुई-तेल में लपेटकर जीवित जलाकर) तथा भाई मतिदास (आरे से चीर कर) की नृशंसतापूर्वक हत्या की।

 तदुपरांत श्री तेगबहादुर जी मार्गशीर्ष शुक्ल 5, संवत् 1732 ( सन् 1675) को दिल्ली के चांदनी चौक में धर्म की रक्षा के लिए दिव्य ज्योति में लीन हो गए। उनकी शहादत ने समाज में धर्म की रक्षा के लिए सर्वस्वार्पण एवं संघर्ष का वातावरण खड़ा कर दिया, जिसने मुगल सत्ता की नींव हिला दी। श्री गुरु तेगबहादुर जी का जीवन समाज में धार्मिक आस्था के दृढ़ीकरण हेतु, रूढ़ि-कुरीतियों से समाज को मुक्त कर समाज कल्याण के लिए समर्पित था। उन्होंने श्रेष्ठ जीवन के लिए हर्ष-शोक, स्तुति-निंदा, मान-अपमान, लोभ-मोह, काम-क्रोध से मुक्त जीवन जीने का उपदेश दिया। मुगलों के अत्याचारों से आतंकित समाज में उनके संदेश "भै कहु को देत नाहि, न भय मानत आनि" (ना किसी को डराना और न किसी से भय मानना) ने निर्भयता और धर्म रक्षा का भाव जागृत किया।

 भारतीय परंपरा के इस दैदीप्यमान नक्षत्र श्री गुरुतेगबहादुर जी की शिक्षाएं और उनके आत्मोत्सर्ग का महत्व जन-जन तक पहुँचाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सभी स्वयंसेवकों सहित सम्पूर्ण समाज से आवाहन् करता है कि उनके जीवन के आदर्शों और मार्गदर्शन का स्मरण करते हुए अपने-जीवन का निर्माण करें एवं इस वर्ष आयोजित होने वाले सभी कार्यक्रमों में श्रद्धापूर्वक भागीदारी करें।