Saturday, December 26, 2020

संसद द्वारा पारित कानूनों को फाड़ना, लोकतांत्रिक अधिकार नहीं बल्कि अराजकता है

देवेश खंडेलवाल

देश में कृषि सुधार को लेकर केंद्र सरकार द्वारा उठाये कदम राजनीतिक गतिरोध का मुद्दा बन गए हैं. संसद द्वारा पारित तीन कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ विरोध जताने के लिए कांग्रेस शासित राज्य पंजाब के किसान दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे हैं. दूसरी तरफ, कांग्रेस सहित वामपंथी एवं अन्य विपक्षी दल केंद्र सरकार पर इन कानूनों को वापस लेने का दवाब बना रहे है.

केंद्र में कोई भी सरकार हो, जब कोई विधेयक संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे एक लम्बी संवैधानिक प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है. कृषि सुधार को लेकर संसद में पारित कानून कोई एक ही रात के तुगलकी फरमाननहीं थे. बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत संसद द्वारा पारित किये गए थे. किसानों की आय में बढ़ोतरी, बिचौलियों से राहत, और अनावश्यक लालफीताशाही से बाहर निकालने की मांग वर्षों पुरानी है. बस जरुरत एक ठोस निर्णय पर पहुंचने की थी, जिसे वर्तमान केंद्र सरकार ने साकार किया.

कृषि में बड़े पैमाने पर सुधारों की चर्चा को गति जुलाई 2004 में यूपीए (I) सरकार के दौरान मिलनी शुरू हुई. हालांकि, मनमोहन सिंह सरकार को राष्ट्रहित के मामलों पर टालमटोल करने और उन्हें लंबित करने में महारत हासिल थी. धीरे-धीरे सरकार में भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया और हर मुद्दे पर अलोकप्रिय होने का डर हावी होने लगा था. अतः इस सरकार ने कृषि सुधारों सहित रक्षा सौदे, आतंकवाद पर रोकथाम, आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था और विदेश नीति सम्बन्धी अनेक मामलों को लटकाए रखा.

यूपीए (I) सरकार के गठन के एक महीने के अन्दर यानि 19 जुलाई, 2004 को लोकसभा में कृषि सुधारों पर एक सवाल कृषि मंत्री से पूछा गया था. इस पर तत्कालीन कृषि राज्य मंत्री कांतिलाल भूरिया ने मंडी शुल्क खत्म करने, निजी क्षेत्र द्वारा उच्च तकनीक प्रदान करना, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के लिए यूनिफाइड फूड लॉ, विदेशी खरीददारों को चिन्हित करना, और निजी क्षेत्र को निवेश के लिए प्रोत्साहित करने वाला पांच स्तर वाला कृषि सुधारों का एक खाका प्रस्तुत कर दिया.

एक साल बीत गया, लेकिन जमीन पर हालत में बदलाव नहीं आया. अतः कांतिलाल भूरिया ने लोकसभा के समक्ष 22 अगस्त, 2005 को एक प्रश्न का जवाब देते हुए कहा, “मौजूदा कृषि उपज विपणन समिति कानून किसान को सीधे उत्पादक से संपर्क करने में बाधा उत्पन्न करता है. उसे अपना माल लाइसेंसधारी व्यापारियों एवं मंडियों के माध्यम से ही बेचना पड़ता है. ऐसा ही फलों एवं सब्जियों के मामले में भी होता है. इस दौरान किसान से लेकर फुटकर विक्रेता के बीच इतने बिचौलिए होते हैं कि किसान को अंतिम उपभोक्ता मूल्य तक 30 प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पड़ता है.

इन दो उदाहरणों से स्पष्ट है कि यूपीए (I) सरकार को किसानों की समस्याएं और उनके माल की उचित कीमत नहीं मिलने का अंदाजा था. इस संदर्भ में वे लोकसभा में लगातार बयान भी दे रहे थे. सरकार समस्या और उसका समाधान दोनों बता रही थी, लेकिन उसे किसानों तक पहुंचाने की प्रतिबद्धता एवं दृष्टिकोण उसके पास नहीं था.

साल 2005-06 में कृषि पर संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने भी कृषि सुधार के दर्जनों सुझाव पेश किये. भंडारण की आधुनिक और वृहद व्यवस्था के लिए निजी निवेश को लाने की बात कही गयी. साथ ही कमेटी ने स्वीकार किया कि कई बार किसानों को फसल का दाम एमएसपी (MSP) से अच्छा निजी खरीददारों से मिल जाता है. उसी साल गेहूं का एमएसपी 650 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया और उस पर 50 रुपये का अतिरिक्त बोनस भी दिया गया था. हालांकि, किसानों ने अपनी फसल निजी व्यापारियों को बेची क्योंकि वहां उन्हें 800 रुपए प्रति क्विंटल का दाम मिल रहा था.

इसी दौरान, सरकार ने निश्चय कर लिया कि भंडारण के अतिरिक्त अगर किसान को उसकी फसल का दाम निजी व्यापारियों से अच्छा मिलता है तो वह वहां बेचने के लिए स्वतंत्र होगा. तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने 24 अप्रैल, 2012 को लोकसभा में यह सूचना दे दी थी. किसानों के लिए राहतों और सुधारों की जमीन पर हकीकत बिलकुल नगण्य थी. दरअसल, केंद्र सरकार एकतरह से खानापूर्ति के लिए बयानबाजी कर रही थी. खेतों में फसल के उत्पादन से लेकर उसे मंडियों में उचित दामों में बेचना इतना भी आसान नहीं था. केंद्र-राज्य सरकारों के कानून, अध्यादेश अथवा मंडी समितियों के स्थानीय व्यवस्थाओं में ही किसान फंस कर रह जाता था. सिर्फ लोकसभा अथवा राज्यसभा में कहने भर से काम नहीं चल सकता था. इसलिए व्यवस्थित तौर पर कानूनों की आवश्यकता थी.

इस क्रम में साल 2017 में फिर से प्रयास शुरू हुए. एनडीए सरकार मॉडल एपीएमसी एंड कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्टलेकर आई. जिसके अंतर्गत किसानों की उपज का मुक्त व्यापार, विपणन चैनलों के माध्यम से प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना, और पूर्व-सहमत अनुबंध के तहत खेती को बढ़ावा देना शामिल था. साल 2018-19 में कृषि पर लोकसभा और राज्यसभा के 31 सदस्यों वाली स्टैंडिंग कमेटी ने बताया कि मॉडल एपीएमसी एंड कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्टको लेकर राज्यों में अधिक रूचि देखने को नहीं मिल रही है.

कमेटी के सुझाव पर जुलाई 2019 में सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक उच्चस्तरीय सीमिति बनायी गयी. इसके संयोजक देवेन्द्र फडणवीस (महाराष्ट्र) और सदस्यों में एच. डी. कुमारस्वामी (कर्नाटक), मनोहरलाल खट्टर (हरियाणा), पेमा खांडू (अरुणाचल प्रदेश), विजय रूपानी (गुजरात), योगी आदित्यनाथ (उत्तर प्रदेश), कमल नाथ (मध्यप्रदेश), और नरेन्द्र सिंह तोमर (केंद्रीय कृषि मंत्री) और नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद को सदस्य-सचिव बनाया गया.

प्रक्रिया के तहत, सबके सुझावों को समाहित करते हुए 5 जून, 2020 को कृषि सुधार से सम्बंधित तीन अध्यादेश जारी कर दिए गए. जिन्हें संसद द्वारा इसी साल सितम्बर में पारित किया गया. भारत के राष्ट्रपति ने भी उन पर अपनी मुहर लगा दी.

अब विडम्बना देखिए, लगभग 15 सालों के बाद कृषि सुधार के लिए कोई कानून बनाए गए, तो आम जन-जीवन को प्रभावित करने के लिए सड़कों को बाधित किया जाने लगा. विपक्षी दलों द्वारा अराजक तरीके से कानूनों की प्रतियां विधानसभाओं में फाड़ दी गयी. सामाजिक वैमनस्य फैलाने के लिए उत्तेजक एवं भड़काऊ भाषण दिए गए. सोशल मीडिया के माध्यम से भ्रमित और झूठी खबरों को फैलाया गया. कांग्रेस शासित राज्य सरकारों ने विशेष विधानसभा सत्र बुलाकर कानूनों के बहिष्कार का निर्णय लिया.

जब कृषि सम्बन्धी तीन विधेयक संसद के समक्ष रखे गए तो सभापति के समक्ष नारेबाजी की गयी, माइक तोड़े गए, और सदन का बहिष्कार भी किया गया. संसदीय समितियों की बैठकों में अनुपस्थित रहना एक सामान्य सी बात हो गयी है. जिस पर शायद ही किसी का ध्यान जाता होगा. इस तरह देशहित में एक नीतिगत फैसले का विरोध सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए किया गया.

जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए (I) और (II) के पास सत्ता थी तो उसके पास किसानों को मजबूत और स्थाई तौर पर राहत देने के लिए पूरे 10 साल का समय था. जो उन्होंने एक के बाद एक बयानबाजी कर गंवा दिया. ऐसा नही था कि कांग्रेस के एजेंडे में किसान हित शामिल नही थे. बस कृषि सुधार उनके प्राथमिक कार्यों में शामिल नहीं था. अब वर्तमान केंद्र सरकार को मौका मिला तो उन्होंने किसान के हितों की रक्षा के लिए ठोस पहल कर दी. इन कानूनों के धरातल पर उतरने के बाद ही उनका विश्लेषण किया जा सकता है. उससे पहले, केंद्र और राज्यों के संबंधों को कमजोर करना अथवा संसद द्वारा पारित कानूनों को फाड़ना कोई लोकतांत्रिक अधिकार नहीं, बल्कि अराजकता है.

श्रोत- विश्व संवाद केंद्र, भारत

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