Thursday, December 31, 2020

मथुरा – आरएसएस विभाग कार्यालय पर हमला

 

गत सोमवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मथुरा कार्यालय के सामने से निर्माण सामग्री चुराते हुए एक युवक को कार्यालय पर रहने वाले विद्यार्थियों और विस्तारकों ने पकड़ कर पुलिस बुला कर उनके हवाले कर दिया था. इस मामले में पुलिस कर्मियों ने लापरवाही बरती और मौके पर आए कांस्टेबल और हेड कांस्टेबल ने युवक पुलिस थाने न ले जाकर चौराहे से ही छोड़ दिया.

वही, युवक पुलिस को सौंपे जाने से क्षुब्ध होकर अगले दिन मंगलवार को 20-30 युवकों के साथ धमक जमाने के उद्देश्य से संघ कार्यालय पर आ पहुंचा और आवेश में आकर ललकारने लगा, परंतु वहां उपस्थित विद्यार्थियों और विस्तारकों की संख्या एवं साहस देख कर ये लोग उस समय वापस चले गए.

लेकिन, थोड़ी देर बाद ही दोबारा 50 से 60 लोगों के साथ विभाग कार्यालय पर आए, जिसमें महिलाएं भी थीं और आते ही उन्होंने वहां पड़ी निर्माण सामग्री में से ईंट पत्थर उठा कर फैंकना शुरू कर दिया.

विद्यार्थियों और विस्तारकों ने हमले पर प्रतिरोध दर्ज करवाया तथा उपद्रवी भीड़ को कार्यालय से बहुत दूर उनकी बस्ती के मुहाने तक खदेड़ दिया.

तत्पश्चात पुलिस तथा वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को सूचना दी, तत्काल ही पुलिस के अधिकारी और संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता घटनास्थल पर पहुंच गए. पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए युवक तथा उसके साथ आए अन्य मुख्तियार, सरफ़राज़, आहिल खान आदि 25 उपद्रवियों को पकड़ा लिया है, जिसमें से 13 को भारतीय दंड संहिता की धारा 307 एवं अन्य जघन्य धाराओं में जेल भेज दिया गया और दोनों कॉन्स्टेबल और हेड कॉन्स्टेबल को निलंबित कर दिया है.

आज बुधवार को भी पीएसी की 2 कंपनियों के साथ क्यूआरटी, पुलिस विभाग के 1 सीओ, 3 इंस्पेक्टर के साथ 8 कांस्टेबलों ने उनकी बस्ती से लेकर कार्यालय तक पैदल मार्च किया.

वर्तमान में अभी तक 2 चेक पोस्ट, एक मुस्लिम बस्ती में और एक कार्यालय के समीप बनाई गई है, जिसमें पुलिस अधिकारियों और पीएसी की एक-एक कंपनी तैनात है.

श्रोत- विश्व संवाद केन्द्र, भारत

Saturday, December 26, 2020

भारतीय चित्र साधना ने फिल्मी क्षेत्र के विकास के लिए किये गये परिवर्तन को सराहा

       फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भारत एक अग्रणी देश है। इस संदर्भ में केंद्र सरकार ने फिल्मी क्षेत्र के विकास के लिए जो एक बड़ा निर्णय लिया है, भारतीय चित्र साधना  ने उसकी सराहना किया है सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का आभार प्रकट करते हुए संगठन ने कहा कि जिस प्रकार तीव्रता से फिल्मों के निर्माण व वितरण का कारोबार बढ़ रहा था, उसके लिए एक छत के नीचे प्रशासनिक ढांचा समय की मांग थी। भारतीय चि़त्र साधना के अध्यक्ष प्रोबृज किशोर कुठियाला ने कहा कि सरकार के इस नवाचारी कदम से न केवल संसाधनों की बचत होगी प्रत्युत नवाचार और सृजनात्मकता को भी प्रोत्साहन मिलेगा। उन्होंने कहा कि मनोरंजन, ज्ञान और सूचना वर्तमान युग के सामाजिक जीवन की अनिवार्यताएं है और यह प्रशासनिक कर्तव्य है कि कलात्मक अभिव्यक्ति को अधिक से अधिक उभारने के उपाय किये जाए। फिल्म डिविज़न, फिल्म समारोह निदेशालय, राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार एवं बाल फिल्म समिति का विलय करके राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम बनाना समय की आवश्यकता थी। प्रोकुठियाला ने कहा कि आत्मनिर्भर, विकसित व सम्पन्न भारत बनाने के लिए फिल्मों की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है। भारतीय चित्र साधना को विश्वास है कि राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम फिल्मी कलाकारों एवं फिल्म निर्माण विशेषज्ञों को सहूलियत दे करके राष्ट्रीय उद्देश्यों को प्राप्त करने का कर्तव्य निभाएगा।

            भारतीय चित्र साधना के ट्रस्टी और सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता अतुल गंगवार ने बताया कि सम्पूर्ण फिल्म जगत में केन्द्रिय सरकार के इस नवाचारी कदम से उत्साह का वातावरण बना है। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि निगम बनने से उद्योग से जुड़े सभी प्रकार के विशेषज्ञों को न केवल काम करने की सहूलियत होगी परन्तु उनकी व्यवसायिकता में भी उत्कृष्टता आयेगी।

            भारतीय चित्र साधना गैर-सरकारी संगठन है जो फिल्म निर्माण के क्षेत्र में युवाओं को प्रशिक्षित व प्रोत्साहित करने का कार्य करता है। चित्र साधना का उद्देश्य भारतीय कला संस्कृति व मूल्यों पर आधारित फिल्मी सामग्री को बड़ी मात्रा में तैयार करवाना एवं अधिक से अधिक नागरिकों तक पहुंचाने का है। भारतीय चित्र साधना अपेक्षा करती है कि नवनिर्मित राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम में फिल्मों से सम्बन्धित विशेषज्ञों को अधिक से अधिक सहभागिता की व्यवस्था रहेगी। प्रोकुठियाला ने कहा कि इस विषय पर चित्र साधना सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को अपने सुझाव भी प्रेषित करेगा।

संसद द्वारा पारित कानूनों को फाड़ना, लोकतांत्रिक अधिकार नहीं बल्कि अराजकता है

देवेश खंडेलवाल

देश में कृषि सुधार को लेकर केंद्र सरकार द्वारा उठाये कदम राजनीतिक गतिरोध का मुद्दा बन गए हैं. संसद द्वारा पारित तीन कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ विरोध जताने के लिए कांग्रेस शासित राज्य पंजाब के किसान दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे हैं. दूसरी तरफ, कांग्रेस सहित वामपंथी एवं अन्य विपक्षी दल केंद्र सरकार पर इन कानूनों को वापस लेने का दवाब बना रहे है.

केंद्र में कोई भी सरकार हो, जब कोई विधेयक संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे एक लम्बी संवैधानिक प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है. कृषि सुधार को लेकर संसद में पारित कानून कोई एक ही रात के तुगलकी फरमाननहीं थे. बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत संसद द्वारा पारित किये गए थे. किसानों की आय में बढ़ोतरी, बिचौलियों से राहत, और अनावश्यक लालफीताशाही से बाहर निकालने की मांग वर्षों पुरानी है. बस जरुरत एक ठोस निर्णय पर पहुंचने की थी, जिसे वर्तमान केंद्र सरकार ने साकार किया.

कृषि में बड़े पैमाने पर सुधारों की चर्चा को गति जुलाई 2004 में यूपीए (I) सरकार के दौरान मिलनी शुरू हुई. हालांकि, मनमोहन सिंह सरकार को राष्ट्रहित के मामलों पर टालमटोल करने और उन्हें लंबित करने में महारत हासिल थी. धीरे-धीरे सरकार में भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया और हर मुद्दे पर अलोकप्रिय होने का डर हावी होने लगा था. अतः इस सरकार ने कृषि सुधारों सहित रक्षा सौदे, आतंकवाद पर रोकथाम, आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था और विदेश नीति सम्बन्धी अनेक मामलों को लटकाए रखा.

यूपीए (I) सरकार के गठन के एक महीने के अन्दर यानि 19 जुलाई, 2004 को लोकसभा में कृषि सुधारों पर एक सवाल कृषि मंत्री से पूछा गया था. इस पर तत्कालीन कृषि राज्य मंत्री कांतिलाल भूरिया ने मंडी शुल्क खत्म करने, निजी क्षेत्र द्वारा उच्च तकनीक प्रदान करना, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के लिए यूनिफाइड फूड लॉ, विदेशी खरीददारों को चिन्हित करना, और निजी क्षेत्र को निवेश के लिए प्रोत्साहित करने वाला पांच स्तर वाला कृषि सुधारों का एक खाका प्रस्तुत कर दिया.

एक साल बीत गया, लेकिन जमीन पर हालत में बदलाव नहीं आया. अतः कांतिलाल भूरिया ने लोकसभा के समक्ष 22 अगस्त, 2005 को एक प्रश्न का जवाब देते हुए कहा, “मौजूदा कृषि उपज विपणन समिति कानून किसान को सीधे उत्पादक से संपर्क करने में बाधा उत्पन्न करता है. उसे अपना माल लाइसेंसधारी व्यापारियों एवं मंडियों के माध्यम से ही बेचना पड़ता है. ऐसा ही फलों एवं सब्जियों के मामले में भी होता है. इस दौरान किसान से लेकर फुटकर विक्रेता के बीच इतने बिचौलिए होते हैं कि किसान को अंतिम उपभोक्ता मूल्य तक 30 प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पड़ता है.

इन दो उदाहरणों से स्पष्ट है कि यूपीए (I) सरकार को किसानों की समस्याएं और उनके माल की उचित कीमत नहीं मिलने का अंदाजा था. इस संदर्भ में वे लोकसभा में लगातार बयान भी दे रहे थे. सरकार समस्या और उसका समाधान दोनों बता रही थी, लेकिन उसे किसानों तक पहुंचाने की प्रतिबद्धता एवं दृष्टिकोण उसके पास नहीं था.

साल 2005-06 में कृषि पर संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने भी कृषि सुधार के दर्जनों सुझाव पेश किये. भंडारण की आधुनिक और वृहद व्यवस्था के लिए निजी निवेश को लाने की बात कही गयी. साथ ही कमेटी ने स्वीकार किया कि कई बार किसानों को फसल का दाम एमएसपी (MSP) से अच्छा निजी खरीददारों से मिल जाता है. उसी साल गेहूं का एमएसपी 650 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया और उस पर 50 रुपये का अतिरिक्त बोनस भी दिया गया था. हालांकि, किसानों ने अपनी फसल निजी व्यापारियों को बेची क्योंकि वहां उन्हें 800 रुपए प्रति क्विंटल का दाम मिल रहा था.

इसी दौरान, सरकार ने निश्चय कर लिया कि भंडारण के अतिरिक्त अगर किसान को उसकी फसल का दाम निजी व्यापारियों से अच्छा मिलता है तो वह वहां बेचने के लिए स्वतंत्र होगा. तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने 24 अप्रैल, 2012 को लोकसभा में यह सूचना दे दी थी. किसानों के लिए राहतों और सुधारों की जमीन पर हकीकत बिलकुल नगण्य थी. दरअसल, केंद्र सरकार एकतरह से खानापूर्ति के लिए बयानबाजी कर रही थी. खेतों में फसल के उत्पादन से लेकर उसे मंडियों में उचित दामों में बेचना इतना भी आसान नहीं था. केंद्र-राज्य सरकारों के कानून, अध्यादेश अथवा मंडी समितियों के स्थानीय व्यवस्थाओं में ही किसान फंस कर रह जाता था. सिर्फ लोकसभा अथवा राज्यसभा में कहने भर से काम नहीं चल सकता था. इसलिए व्यवस्थित तौर पर कानूनों की आवश्यकता थी.

इस क्रम में साल 2017 में फिर से प्रयास शुरू हुए. एनडीए सरकार मॉडल एपीएमसी एंड कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्टलेकर आई. जिसके अंतर्गत किसानों की उपज का मुक्त व्यापार, विपणन चैनलों के माध्यम से प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना, और पूर्व-सहमत अनुबंध के तहत खेती को बढ़ावा देना शामिल था. साल 2018-19 में कृषि पर लोकसभा और राज्यसभा के 31 सदस्यों वाली स्टैंडिंग कमेटी ने बताया कि मॉडल एपीएमसी एंड कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्टको लेकर राज्यों में अधिक रूचि देखने को नहीं मिल रही है.

कमेटी के सुझाव पर जुलाई 2019 में सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक उच्चस्तरीय सीमिति बनायी गयी. इसके संयोजक देवेन्द्र फडणवीस (महाराष्ट्र) और सदस्यों में एच. डी. कुमारस्वामी (कर्नाटक), मनोहरलाल खट्टर (हरियाणा), पेमा खांडू (अरुणाचल प्रदेश), विजय रूपानी (गुजरात), योगी आदित्यनाथ (उत्तर प्रदेश), कमल नाथ (मध्यप्रदेश), और नरेन्द्र सिंह तोमर (केंद्रीय कृषि मंत्री) और नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद को सदस्य-सचिव बनाया गया.

प्रक्रिया के तहत, सबके सुझावों को समाहित करते हुए 5 जून, 2020 को कृषि सुधार से सम्बंधित तीन अध्यादेश जारी कर दिए गए. जिन्हें संसद द्वारा इसी साल सितम्बर में पारित किया गया. भारत के राष्ट्रपति ने भी उन पर अपनी मुहर लगा दी.

अब विडम्बना देखिए, लगभग 15 सालों के बाद कृषि सुधार के लिए कोई कानून बनाए गए, तो आम जन-जीवन को प्रभावित करने के लिए सड़कों को बाधित किया जाने लगा. विपक्षी दलों द्वारा अराजक तरीके से कानूनों की प्रतियां विधानसभाओं में फाड़ दी गयी. सामाजिक वैमनस्य फैलाने के लिए उत्तेजक एवं भड़काऊ भाषण दिए गए. सोशल मीडिया के माध्यम से भ्रमित और झूठी खबरों को फैलाया गया. कांग्रेस शासित राज्य सरकारों ने विशेष विधानसभा सत्र बुलाकर कानूनों के बहिष्कार का निर्णय लिया.

जब कृषि सम्बन्धी तीन विधेयक संसद के समक्ष रखे गए तो सभापति के समक्ष नारेबाजी की गयी, माइक तोड़े गए, और सदन का बहिष्कार भी किया गया. संसदीय समितियों की बैठकों में अनुपस्थित रहना एक सामान्य सी बात हो गयी है. जिस पर शायद ही किसी का ध्यान जाता होगा. इस तरह देशहित में एक नीतिगत फैसले का विरोध सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए किया गया.

जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए (I) और (II) के पास सत्ता थी तो उसके पास किसानों को मजबूत और स्थाई तौर पर राहत देने के लिए पूरे 10 साल का समय था. जो उन्होंने एक के बाद एक बयानबाजी कर गंवा दिया. ऐसा नही था कि कांग्रेस के एजेंडे में किसान हित शामिल नही थे. बस कृषि सुधार उनके प्राथमिक कार्यों में शामिल नहीं था. अब वर्तमान केंद्र सरकार को मौका मिला तो उन्होंने किसान के हितों की रक्षा के लिए ठोस पहल कर दी. इन कानूनों के धरातल पर उतरने के बाद ही उनका विश्लेषण किया जा सकता है. उससे पहले, केंद्र और राज्यों के संबंधों को कमजोर करना अथवा संसद द्वारा पारित कानूनों को फाड़ना कोई लोकतांत्रिक अधिकार नहीं, बल्कि अराजकता है.

श्रोत- विश्व संवाद केंद्र, भारत

Friday, December 25, 2020

पहली बार श्रीमद्भागवत गीता का अंग्रेजी अनुवाद काशी में हुआ

काशी/ श्रीमद्भागवत गीता को दुनिया आज पूरी आस्था के साथ स्वीकार कर रही है . श्रीमद्भागवत गीता का महत्व पूरी दुनिया आज अच्छी तरह समझ रही है. गीता के प्रति इस विश्वास की डोर मजबूत करने में काशी ने भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. गीता का अनुवाद संस्कृत से किसी यूरोपीय भाषा में 1784 में पहली बार  किया गया. यह कार्य ईस्ट इंडिया कंपनी के जूनियर क्लर्क चार्ल्स विलकिंस ने किया. बंगाल के तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने भी इसमें काफी सहयोग किया था. चार्ल्स ने हेस्टिंग्स के कहने पर काशी आकर काशीनाथ भट्टाचार्य से संस्कृत सीखा और गीता का अनुवाद किया.

चार्ल्स विलकिंस की अंग्रेजी अनुवाद के 2 वर्ष पश्चात अन्य भाषाओं में भी गीता का अनुवाद किया जाने लगा. विलकिंस के अनुवाद के बाद रशियन और फ्रेंच भाषा में भी गीता का अनुवाद किया गया और उसके कुछ वर्ष के बाद जर्मन भाषा में भी गीता का अनुवाद हुआ.


मालवीय जी ने हिन्दी भाषा के लिए काशी में चलाया था आन्दोलन

काशी/ महामना पं. मदन मोहन मालवीय जी ने हिंदी भाषा को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए कठिन संघर्ष किया था. इसके लिए उन्होंने आन्दोलन भी चलाया था. उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा की सदस्यता स्थापना के प्रथम वर्ष ही ले ली थी. नागरी प्रचारिणी सभा के माध्यम से उन्होंने हिंदी के लिए लड़ाई लड़ी. उत्तर प्रदेश की राजभाषा के रूप में 19वीं शताब्दी तक हिंदी का कोई स्थान नहीं था. मालवीय जी ने तर्कसंगत पक्ष रखा कि न्यायालयों की भाषा हिंदी बने. उन्होंने लेफ्टिनेंट गवर्नर से भेंट भी की. देश में हिंदी को प्रमुख स्थान दिलाने के लिए उन्होंने वकालत छोड़ दिया. मालवीय जी ने एक सौ पृष्ठों का ऐतिहासिक ज्ञापन तैयार किया था जिसके लिए उन्हें अनेक स्थानों का दौरा भी किया था. देवनागरी लिपि को ही न्यायालयों की भाषा बनाये जाने के समर्थन में उन्होंने 60 हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षर एकत्र किये थे. हिंदी के लिए पहली बार सुनियोजित इस आन्दोलन में मालवीय जी के परामर्श से बाबू श्याम सुंदर दास ने आन्दोलन के लिए नगरों में समितियां गठित की. अन्तःत महामना के प्रयासों ने 20 अगस्त 1896 को रंग दिखाना शुरू कर दिया. राजस्व परिषद् द्वारा एक प्रस्ताव पारित किया गया कि समन आदि की भाषा एवं लिपि हिन्दी होगी. हालाँकि यह कार्य रूप में नहीं लाई जा सकी. इसके बाद 15 अगस्त 1900 को उर्दू के साथ नागरी लिपि को भी अतिरिक्त भाषा के रूप में मान्यता मिली.

Thursday, December 24, 2020

24 दिसम्बर / जन्मदिवस – कर्तव्यनिष्ठ व सेवाभावी श्रीकृष्ण चंद्र भारद्वाज जी

 

संघ के प्रचारक का अपने घर से मोह प्रायः छूट जाता है. पर, 24 दिसम्बर, 1920 को पंजाब में जन्मे श्रीकृष्ण चंद्र भारद्वाज के एक बड़े भाई नेत्रहीन थे. जब वे वृद्धावस्था में बिल्कुल अशक्त हो गये, तो श्रीकृष्ण चंद्र जी ने अंतिम समय तक एक पुत्र की तरह लगन से उनकी सेवा की. इस प्रकार उन्होंने संघ और परिवार दोनों के कर्तव्य का समुचित निर्वहन किया.

श्रीकृष्ण चंद्र जी अपनी शिक्षा पूर्ण कर वर्ष 1942 में प्रचारक बने. प्रारम्भ में उन्होंने पंजाब, दिल्ली और फिर उत्तर प्रदेश के उन्नाव में संघ कार्य किया. वर्ष 1963 में उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रचारकों की एक बैठक काशी में हुई थी. वहां से जिन प्रचारकों को बिहार भेजा गया, उनमें श्रीकृष्णचंद्र जी भी थे. बिहार में भोजपुर और फिर भागलपुर में वे जिला प्रचारक रहे. आपातकाल  में भूमिगत रहकर वे जन-जागरण एवं सत्याग्रह के संचालन में लगे रहे. पुलिस  और कांग्रेसी मुखबिरों के भरपूर प्रयास के बाद भी वे पकड़ में नहीं आये. वर्ष 1977 में आपातकाल समाप्त होने पर जब वनवासी कल्याण आश्रमके कार्य का पूरे देश में विस्तार किया गया, तो उन्हें बिहार में इसका संगठन मंत्री बनाया गया. उनके लिए यह काम बिल्कुल अपरिचित और नया था. पर, उन्होंने इस दायित्व पर रहते हुए वर्तमान झारखंड तथा बिहार के अन्य वनवासी क्षेत्रों में सघन संपर्क कर संगठन की सुदृढ़ नींव रखी.

कुछ वर्ष बाद उन्हें बिहार क्षेत्र का बौद्धिक प्रमुख बनाया गया. व्यवस्थित काम के प्रेमी होने के कारण बौद्धिक पुस्तिका तथा अन्य बौद्धिक पत्रक ठीक से छपकर निर्धारित समय से पूर्व सब शाखाओं तक पहुंच जाएं, इसकी ओर उनका विशेष ध्यान रहता था. सेवाभावी होने के कारण बीमार प्रचारक तथा अन्य कार्यकर्ताओं की देखभाल में वे बहुत रुचि लेते थे. समय से दवा देने से लेकर कपड़े और कमरे को धोने तक में वे कभी संकोच नहीं करते थे. नित्य शाखा को श्रद्धा का विषय मानकर वे इसके प्रति अत्यधिक आग्रही  रहते थे. निर्णय करने के बाद उसे निभाना उनके स्वभाव में था. नब्बे के दशक में जब श्रीराम मंदिर आंदोलन ने गति पकड़ी, तो उन्हें बिहार में विश्व हिन्दू परिषद का संगठन मंत्री बनाया गया. इस दौरान हुए सब कार्यक्रमों में बिहार की भरपूर सहभागिता में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा.

हिन्दी भाषा से उन्हें बहुत प्रेम था. यदि कोई उनसे बात करते समय अनावश्यक रूप से अंग्रेजी का शब्द बोलता, तो वे उसे तुरन्त सुधार कर उसका हिन्दी अनुवाद बोल देते थे. इससे सामने वाला व्यक्ति समझ जाता था और फिर सदा हिन्दी बोलने का ही निश्चय कर लेता था. श्रीकृष्ण चंद्र जी पाइल्स के मरीज थे. अतः वे मिर्च और मसाले वाले भोजन से परहेज करते थे, पर प्रवास में सब तरह के परिवारों में भोजन के लिए जाना पड़ता है. अतः कई बार मिर्च वाला भोजन सामने आ जाता था. ऐसे में वे दूसरी बार बनवाने की बजाय उसी सब्जी को अच्छी तरह धोकर खा लेते थे. उनके कारण किसी को कष्ट हो, यह उन्हें अच्छा नहीं लगता था.

जालंधर में रहने वाले उनके बड़े भाई भी अविवाहित थे. एक दुर्घटना में वे काफी घायल हो गये. ऐसे में श्रीकृष्ण चंद्र जी उनकी सेवा के लिए वहीं आ गये. उनके देहांत के बाद वे कई वर्ष लुधियाना कार्यालय पर रहे. जब वृद्धावस्था के कारण उनका अपना स्वास्थ्य खराब रहने लगा, तो वे जालंधर कार्यालय पर ही रहने लगे. वहां पर ही 16 फरवरी, 2012 को उनका देहांत हुआ.

Wednesday, December 23, 2020

स्वामी श्रद्धानंद जी – स्वराज्य, स्वधर्म व स्वाभिमान हेतु बलिदान महात्मा

 - विनोद बंसल (राष्ट्रीय प्रवक्ता, विश्व हिन्दू परिषद)

एडवोकेट मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानंद तक की जीवन यात्रा प्रत्येक व्यक्ति के लिए बेहद प्रेरणादायी है. स्वामी श्रद्धानंद उन बिरले महापुरुषों में से एक थे, जिनका जन्म ऊंचे कुल में हुआ. किन्तु बुरी लतों के कारण प्रारंभिक जीवन बहुत ही निकृष्ट किस्म का था. स्वामी दयानंद सरस्वती से हुई एक भेंट और पत्नी के पतिव्रत धर्म तथा निश्छल निष्कपट प्रेम व सेवा भाव ने उनके जीवन को क्या से क्या बना दिया. काशी विश्वनाथ मंदिर के कपाट सिर्फ रीवा की रानी के लिए खोलने और साधारण जनता के लिए बंद किए जाने व एक पादरी के व्यभिचार का दृश्य देख मुंशीराम का धर्म से विश्वास उठ गया और वह बुरी संगत में पड़ गए.

किन्तुस्वामी दयानंद सरस्वती के साथ बरेली में हुए सत्संग ने ना सिर्फ उन्हें जीवन का अनमोल आनंद दिया, अपितु उन्होंने उसे सम्पूर्ण संसार को खुले मन से वितरित भी किया. समाज सुधारक के रूप में उनके जीवन का अवलोकन करें तो पाते हैं कि प्रबल विरोध के बावजूद, उन्होंने, स्त्री शिक्षा के लिए अग्रणी भूमिका निभाई. ईसाई मिशनरी विद्यालय में पढ़ने वाली स्वयं की बेटी अमृत कला को जब उन्होंने ईसा-ईसा बोलतेरा क्या लगेगा मोल. ईसा मेरा राम रमैया, ईसा मेरा कृष्ण कन्हैया‘ गाते हुए सुना तो वे हतप्रभ रह गए. वैदिक संस्कारों की पुनर्स्थापना हेतु उन्होंने घर – घर जाकर चंदा इकट्ठा कर गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय की स्थापना हरिद्वार में कर अपने बेटे हरीश्चंद्र और इंद्र को सबसे पहले प्रवेश करवाया.

स्वामी जी मानते थे कि जिस समाज और देश में शिक्षक स्वयं चरित्रवान नहीं होते, उसकी दशा अच्छी हो ही नहीं सकती. उनका कहना था कि हमारे यहां टीचर हैंप्रोफ़ेसर हैंप्रिसिंपल हैंउस्ताद हैंमौलवी हैं पर आचार्य नहीं हैं. आचार्य अर्थात् आचारवान व्यक्ति की महती आवश्यकता है. चरित्रवान व्यक्तियों के अभाव में महान से महान व धनवान से धनवान राष्ट्र भी समाप्त हो जाते हैं.

जात-पात व ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाकर समग्र समाज के कल्याण के लिए उन्होंने अनेक कार्य किए. अंग्रेजी में एक कहावत है कि चेरिटी बीगिन्स एट होम. अर्थात् शुभकार्य का प्रारंभ स्वयं से करें. प्रबल सामाजिक विरोधों के बावजूद अपनी बेटी अमृत कलाबेटे हरिश्चद्र व इंद्र का विवाह जात-पात के समस्त बंधनों को तोड़ कर कराया. उनका विचार था कि छुआछूत ने इस देश में अनेक जटिलताओं को जन्म दिया है तथा वैदिक वर्ण व्यवस्था  द्वारा ही इसका अंत कर अछूतोद्धार संभव है.

वे हिन्दी को राष्ट्र भाषा और देवनागरी को राष्ट्र-लिपि के रूप में अपनाने के पक्षधर थे. सतधर्म प्रचारक नामक पत्र उन दिनों उर्दू में छपता था. एक दिन अचानक ग्राहकों के पास जब यह पत्र हिंदी में पहुंचा तो सभी दंग रह गए क्योंकि उन दिनों उर्दू का ही चलन था. त्याग व अटूट संकल्प के धनी स्वामी श्रद्धानन्द ने 1868 में यह घोषणा की कि जब तक गुरुकुल के लिए 30 हजार रुपये इकट्ठे नहीं हो जाते तब तक वह घर में पैर नहीं रखेंगे. इसके बाद उन्होंने भिक्षा की झोली डाल कर न सिर्फ़ घर-घर घूम 40 हजार रुपये इकट्ठे किए, बल्कि वहीं डेरा डाल कर अपना पूरा पुस्तकालयप्रिंटिंग प्रेस और जालंधर स्थित कोठी भी गुरुकुल पर न्योछावर कर दी.

उनका अटूट प्रेम व सेवा भाव भी अविस्मरणीय है. गुरुकुल में एक ब्रह्मचारी के रुग्ण होने पर जब उसने उल्टी की इच्छा जताई तब स्वामी जी द्वारा स्वयं की हथेली में उल्टियों को लेते देख सभी हत्प्रभ रह गए. ऐसी सेवा और सहानुभूति और कहां मिलेगीस्वामी श्रद्धानन्द का विचार था कि अज्ञानस्वार्थ व प्रलोभन के कारण धर्मांतरण कर बिछुड़े स्वजनों की शुद्धि करना देश को मजबूत करने के लिए परम आवश्यक है. इसीलिएस्वामी जी ने भारतीय हिन्दू शुद्धि सभा की स्थापना कर दो लाख से अधिक मलकानों को शुद्ध किया. परावर्तन के अनेक कीर्तिमान बनाने के बावजूद एक बार शुद्धि सभा के प्रधान को उन्होंने पत्र लिख कर कहा कि ‘अब तो यही इच्छा है कि दूसरा शरीर धारण कर शुद्धि के अधूरे काम को पूरा करूं’.

महर्षि दयानंद ने राष्ट्र सेवा का मूलमंत्र लेकर आर्य समाज की स्थापना की. कहा कि ‘हमें और आपको उचित है कि जिस देश के पदार्थों से अपना शरीर बनाअब भी पालन होता हैआगे होगाउसकी उन्नति तन-मन-धन से सब जने मिलकर प्रीति से करें’. स्वामी श्रद्धानन्द ने इसी को अपने जीवन का मूलाधार बनाया.

वे एक निराले वीर थे. इसी कारण लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा था ‘स्वामी श्रद्धानन्द की याद आते ही 1919 का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है. सिपाही फ़ायर करने की तैयारी में हैं. स्वामी जी छाती खोल कर आगे आते हैं और कहते हैं – ‘लोचलाओ गोलियां’. इस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं होगा?’

महात्मा गांधी के अनुसार ‘वह वीर सैनिक थे. वीर सैनिक रोग शैय्या पर नहींपरंतु रणांगण में मरना पसंद करते हैं. वह वीर के समान जीये तथा वीर के समान मरे’.

अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों के लिए रंग भेद के विरुद्ध सत्याग्रह कर रहे गांधी जी को आर्थिक सहयोग करने की अपनी इच्छा जब स्वामी जी ने अपने गुरुकुल के शिष्यों के समक्ष रखी तो उनमें से कुछ वरिष्ठ शिष्यों ने हरिद्वार के पास ही बन रहे दूधिया बांध में कुछ दिन मजदूर कर कमाए लगभग 2000 रुपये एकत्र कर गांधी जी को भेजे. इस सहयोग से अभिभूत गांधी जी ने भारत लौटने पर गुरुकुल कांगड़ी में स्वामी जी से भेंट की. गुरुकुल की शिक्षा पद्धति से प्रसन्न गांधी जी ने अपने बेटों को कुछ दिन गुरुकुल में ही रखा. स्वामी श्रद्धानंद ने ही एक मान पत्र के माध्यम से गांधी जी को महात्माकी उपाधि से पहली बार संबोधित किया था.

वे चाहते थे कि राष्ट्र धर्म को बढ़ाने के लिए, प्रत्येक नगर में एक ‘हिन्दू-राष्ट्र मंदिर’ होना चाहिए, जिसमें 25 हजार व्यक्ति एक साथ बैठ सकें. वहां वेदउपनिषदगीतारामायणमहाभारत आदि का पाठ हुआ करे. मंदिरों में अखाड़े भी हों जहां, व्यायाम द्वारा शारीरिक शक्ति भी बढ़ाई जाए. प्रत्येक हिन्दू राष्ट्र मंदिर पर गायत्री मंत्र भी अंकित हो. देश की अनेक समस्याओं तथा हिन्दोद्धार हेतु उनकी एक पुस्तक ‘हिन्दू सॉलिडेरिटी-सेवियर ऑफ़ डाइंग रेस’ अर्थात् ‘हिन्दू संगठन मरणोन्मुख जाति का रक्षक’ तथा उनकी आत्मकथा कल्याण मार्ग के पथिकआज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं.

संस्कारी शिक्षा, नारी स्वाभिमान, शुद्धि आंदोलन, राजनीतिक व समाजिक सुधार, स्वराज्य आंदोलन, अछूतोद्धार, वेद उपनिषद व याज्ञिक कार्यों का विस्तार इत्यादि के क्षेत्र में उनका योगदान सदियों तक विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगा.

राजनीतिज्ञों के बारे में स्वामी जी का मत था कि भारत को सेवकों की आवश्यकता है लीडरों की नहीं. शुद्धि आंदोलन से विचलित एक धर्मांध अब्दुल रशीद नामक इस्लामिक जिहादी ने 23 दिसंबर, 1926 को चांदनी चौक दिल्ली के दीवान हॉल स्थित कार्यालय में रुग्ण शैय्या पर लेटे स्वामी जी को धोखे से गोलियों से लहू-लुहान कर चिरनिद्रा में सुला दिया. वे आज स-शरीर भले हमारे बीच ना हों, किन्तु, उनका व्यक्तित्व, कृतित्व व शिक्षाएं मानव-जाति का सदैव कल्याण करती रहेंगीं. भगवान श्री राम का कार्य इसीलिए सफ़ल हुआ क्योंकि उन्हें हनुमान जैसा सेवक मिला. स्वामी श्रद्धानंद भी सच्चे अर्थों में स्वामी दयानन्द के हनुमान थे जो निःस्वार्थ भाव से राष्ट्र-धर्म की सेवा के लिए तिल-तिल कर जले.