देश में चल रहे चीनी उत्पादों के बहिष्कार के बीच केन्द्र सरकार द्वारा 59 चीनी एप्प के प्रतिबन्ध को भी जोरदार समर्थन मिल रहा है. सोमवार को सरकार द्वारा टिक-टाक, शेयर इट, ब्यूटीप्लस समेत 59 चीनी एप्प को देश भर प्रतिबंधित कर दिया गया. इन एप्प के माध्यम से चीन द्वारा भारत के नागरिकों के मोबाइल को हैक किये जाने जानकारी मिलते ही यह कदम उठाया गया है. काशी में भी इस कदम का पूरा समर्थन मिला है. स्थानीय लोग इसे देश की सुरक्षा के लिए मजबूत कदम के साथ चीन के अर्थव्यवस्था पर बड़ा प्रहार भी बता रहे है. लोगों का कहना है कि चीनी एप्प को प्रतिबंधित करके सरकार ने बहुत अच्छा कार्य किया. चीन के हर सामानों का बहिष्कार जरूरी है. चीन हमारे साथ चालबाजी करे और हम उसके सामानों का इस्तेमाल करें, यह ठीक नहीं. 59 चीनी मोबाइल एप्प पर प्रतिबन्ध स्वागत योग्य है. लोगों ने कहा कि सरकार का यह फैसला चीन की कमर तोड़ने वाला हैं.
Tuesday, June 30, 2020
Monday, June 29, 2020
काशी में बना रिकॉर्ड : एक दिन में 42,000 को रोजगार, 50,789 प्रवासी श्रमिकों की स्किल मैपिंग
कोरोना कालखण्ड में लॉक डाउन के दौरान बेरोजगार हुए लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए शासन-प्रशासन द्वारा शुरू किये गये अभियान के अंतर्गत एक दिन में रिकॉर्ड संख्या में लोगों को रोजगार दिया गया. जिला प्रशासन द्वारा मनरेगा के अंतर्गत कार्य शुरू कर एक दिन में सर्वाधिक 42,000 लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया गया. इसके साथ प्रशासन एक दिन में 50,789 प्रवासी श्रमिकों की स्किल मैपिंग कर रोजगार उपलब्ध कराने में जूटा हुआ है.
हेल्पलाइन नंबर जारी, फ़ोन करें, मिलेगी नौकरी
मनरेगा में नौकरी करने के इच्छुक लोगों के लिए हेल्पलाइन नंबर भी जारी किया गया है. विभिन्न प्रदेशों से आये 3470 प्रवासी श्रमिको ने रोजगार माँगा. सभी को रोजगार उपलब्ध कराया जा चुका है. इसके साथ प्रशासन ने हेल्पलाइन नंबर 9795531503 भी जारी किया है. कोई समस्या आने पर उक्त हेल्पलाइन नंबर पर कॉल किया जा सकता है. नाम, ग्राम पंचायत का नाम और मोबाइल नंबर सहित शिकायत दर्ज कराया जाएगा. उक्त जानकारी के पश्चात रोजगार की व्यवस्था की जाएगी.
बहुत कुछ कहती है रिमूव चाइना एप के लोकप्रिय होने की कहानी
-डॉ.
जयप्रकाश सिंह
भारत और चीन के मध्य पैदा हुए सीमा-गतिरोध के बीच ’रिमूव चाइना एप’ की लोकप्रियता भारतीयों की जनभावनाओं की दिशा और दशा के बारे में बहुत कुछ बताती हैं. हालांकि, इसकी बढ़ती लोकप्रियता के बीच गूगल प्ले स्टोर से इसका हटाया जाना भारतीय जनभावनाओं के साथ होने वाले तकनीकी खिलवाड़ की कहानी भी कहती है.
17 मई को लांच होने के दो सप्ताह के भीतर रिमूव
चाइना एप को 50 लाख से अधिक लोगों ने इसको डाउनलोड किया था.
यह एप किसी व्यक्ति के मोबाइल में कार्य कर रहे सभी चायनीज एप की पहचान करता है.
हालांकि उन एप्स को अनइंस्टाल करने का निर्णय मोबाइल उपयोगकर्ता पर ही निर्भर करता
है. यह आटोमैटिक रिमूविंग एप नहीं है.
यह एप 3.5 एमबी स्थान घेरता है. हालांकि इस एप की कुछ
सीमाएं भी हैं. यह चीनी मोबाइल फोन में पहले से ही इनबिल्ट एप्स की पहचान नहीं कर
पाता. यह केवल उन्हीं चीनी एप्स की पहचान करता है, जो बाद में
अन्य स्रोतों से मोबाइल में इस्टाल किए गए हों.
इस
एप का निर्माण जयपुर केन्द्रित वनटच एपलैब ने किया है. इसका निर्माण करने वाली
कम्पनी वनटचएपलैब्स का दावा है कि उसका मोबाइल और वेब एप्लीकेशन के निर्माण और
देखरेख का 8 से
अधिक वर्षों का अनुभव है. निर्माताओं के अनुसार इस एप का निर्माण शैक्षणिक
उद्देश्यों को लेकर किया गया है. यह उपयोगकर्ता को कुछ निश्चित एप्स के निर्माता
देश को पहचानने में मदद करता है. इसे 4.9 से
अधिक की रेटिंग मिली, जो
किसी भी नए एप के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती है. यह एप टिकटॉक, पबजी, यूसी
ब्राउजर जैसे कई चायनीज एप्स को अपने मोबाइल से हटाने का सुझाव देता है.
गूगल
प्ले स्टोर के फ्री एप्स की श्रेणी में यह एप शीर्ष स्थान पर पहुंच गया था, इसके बाद गूगल ने अपनी नीतियों को हवाला देते हुए इसे
प्ले स्टोर से हटा दिया था. इससे पहले गूगल प्ले स्टोर ने टिकटॉक के प्रतिद्वंदी
माने जाने वाले मित्रों एप को हटा दिया था. उस समय भी नीतियों का हवाला दिया गया
था.
श्रोत - विश्व संवाद केन्द्र, भारत
Friday, June 26, 2020
आपातकाल 1975 - सत्ता के नशे में लोकतंत्र की हत्या
- नरेन्द्र सहगल
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 25 जून 1975 में उस समय एक काला
अध्याय जुड़ गया, जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती
इंदिरा गांधी ने सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं, राजनीतिक शिष्टाचार तथा सामाजिक मर्यादाओं को
ताक पर रखकर मात्र अपना राजनीतिक अस्तित्व और सत्ता बचाने के लिए देश में आपातकाल
थोप दिया। उस समय इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी नीतियों, भ्रष्टाचार
की पराकाष्ठा और सामाजिक अव्यवस्था के विरुद्ध सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के
नेतृत्व में ‘समग्र क्रांति आंदोलन’ चल
रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के
पूर्ण समर्थन मिल जाने से यह आंदोलन एक शक्तिशाली, संगठित
देशव्यापी आंदोलन बन गया।
उन्हीं दिनों श्रीमति इंदिरागांधी के खिलाफ
चुनाव में ‘भ्रष्ट तौर तरीके’अपनाने
के आरोप में चल रहे एक केस में उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट की इलाहाबाद खंडपीठ ने
इंदिरा जी को सजा देकर छह वर्षों के लिए राजनीति से बेदखल कर दिया था। कोर्ट के
फैसले से बौखलाई इंदिरा गांधी ने बिना केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सहमति एवं कांग्रेस
कार्यकारिणी की राय लिए सीधे राष्ट्रपति महोदय से मिलकर सारे देश में इमरजेंसी
लागू करवा दी। इस एकतरफा तथा निरंकुश आपातकाल के सहारे देश के सभी गैर कांग्रेसी
राजनीतिक दलों, कई
सामाजिक संस्थाओं, राष्ट्रवादी शैक्षणिक संस्थाओं, सामाचार
पत्रों, वरिष्ठ
पत्रकारों/नेताओं को काले कानून के शिकंजे में जकड़ दिया गया। डीआईआर (डिफेंस ऑफ
इंडिया रूल) तथा मीसा (मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट) जैसे सख्त कानूनों के
अंतर्गत लोकनायक जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल
कृष्ण आडवाणी, चौधरी
चरण सिंह, प्रकाश
सिंह बादल,सामाजवादी
नेता सुरेन्द्र मोहन और संघ के हजारों अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को 25 जून 1975 की रात्रि को गिरफ्तार
करके जेलों में बंद कर दिया गया। न्यायपालिका को प्रतिबंधित तथा संसद को पंगू
बनाकर प्रचार के सभी माध्यमों पर सेंसरशिप की क्रूर चक्की चला दी गई। आम नागरिकों
के सभी मौलिक अधिकारों को एक ही झटके में छीन लिया गया।
इस समय देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही
एकमात्र ऐसी संगठित शक्ति थी, जो इंदिरा गांधी की तानाशाही के साथ टक्कर
लेकर उसे धूल चटा सकती थी। इस संभावित प्रतिकार के मद्देनजर इंदिरा जी ने संघ पर
प्रतिबंध लगा दिया। मात्र दिखावे के लिए और भी छोटी मोटी 21संस्थाओं
को प्रतिबंध की लपेट में ले दिया गया। किसी की ओर से विरोध का एक भी स्वर न उठने
से उत्साहित हुई इंदिरा गांधी ने सभी प्रांतों के पुलिस अधिकारियों को संघ के
कार्यकर्ताओं की धरपकड़ तेज करने के आदेश दे दिये गए। संघ के भूमिगत नेतृत्व ने उस
चुनौती को स्वीकार करके समस्त भारतीयों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने का
बीड़ा उठाया और एक राष्ट्रव्यापी अहिंसक आंदोलन के प्रयास में जुट गए। थोड़े ही
दिनों में देशभर की सभी शाखाओं के तार भूमिगत केन्द्रीय नेतृत्व के साथ जुड़ गए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भूमिगत नेतृत्व
(संघचालक, कार्यवाह,प्रचारक)
एवं संघ के विभिन्न अनुशांगिक संगठनों जनसंघ, विद्यार्थी परिषद, विश्व
हिन्दू परिषद एवं मजदूर संघ इत्यादि लगभग 30 संगठनों ने भी इस आंदोलन
को सफल बनाने हेतु अपनी ताकत झोंक दी। संघ के भूमिगत नेतृत्व ने गैर कांग्रेसी
राजनीतिक दलों, निष्पक्ष बुद्धिजीवियों एवं विभिन्न विचार के
लोगों को भी एक मंच पर एकत्र कर दिया। सबसे बड़ी शक्ति होने पर भी संघ ने अपने
संगठन की सर्वश्रेष्ठ परम्परा को नहीं छोड़ा। संघ ने नाम और प्रसिद्धी से दूर रहते
हुए राष्ट्रहित में काम करने की अपने कार्यपद्धति को बनाए रखते हुए यह आंदोलन
लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा घोषित ‘लोक संघर्ष समिति’ तथा ‘युवा
छात्र संघर्ष समिति’ के नाम से ही चलाया। संगठनात्मक बैठकें, जन
जागरण हेतु साहित्य का प्रकाशन और वितरण, सम्पर्क की योजना,सत्याग्रहियों
की तैयारी, सत्याग्रह
का स्थान, प्रत्यक्ष
सत्याग्रह, जेल
में गए कार्यकर्ताओं के परिवारों की चिंता/सहयोग, प्रशासन
और पुलिस की रणनीति की टोह लेने के लिए स्वयंसेवकों का गुप्तचर विभाग आदि अनेक
कामों में संघ के भूमिगत नेतृत्व ने अपने संगठन कौशल का परिचय दिया।
इस आंदोलन में भाग लेकर जेल जाने वाले
सत्याग्रही स्वयंसेवकों की संख्या डेढ़ लाख से ज्यादा थी। सभी आयुवर्ग के
स्वयंसेवकों ने गिरफ्तारी से पूर्व और बाद में पुलिस के लॉकअप में यातनाएं सहीं।
उल्लेखनीय है कि पूरे भारत में संघ के प्रचारकों की उस समय संख्या 1356 थी, अनुशांगिक संगठनों के प्रचारक इसमें शामिल
नहीं हैं, इनमें
से मात्र 189 को ही मात्र पुलिस पकड़ सकी, शेष भूमिगत रहकर आंदोलन का संचालन करते रहे।
विदेशों में भी स्वयंसेवकों ने प्रत्यक्ष वहां जाकर इमरजेंसी को वापस लेने का दबाव
बनाने का सफल प्रयास किया। विदेशों में इन कार्यकर्ताओं ने ‘भारतीय
स्वयंसेवक संघ’ तथा ‘फ्रेंड्स
ऑफ इंडिया सोसायटी’ के नाम से विचार गोष्ठियों तथा साहित्य वितरण
जैसे अनेक कामों को अंजाम दिया।
जब देश और विदेश दोनों जगह संघ की अनवरत
तपस्या से आपातकालीन सरकारी जुल्मों की पोल खुलनी शुरु हुई और इंदिरा गांधी का
सिंहासन डोलने लगा तब चारों ओर से पराजित इंदिरा गांधी ने संघ के भूमिगत नेतृत्व
एवं जेलों में बंद नेतृत्व के साथ एक प्रकार की राजनीतिक सौदेबाजी करने का विफल
प्रयास किया था -‘‘संघ से प्रतिबंध हटाकर सभी स्वयंसेवकों को
जेलों से मुक्त किया जा सकता है, यदि संघ इस आंदोलन से अलग हो जाए’’ परंतु
संघ ने आपातकाल हटाकर लोकतंत्र की बहाली से कम कुछ भी स्वीकार करने से मना कर
दिया। इंदिरा जी के पास स्पष्ट संदेश भेज दिया गया -‘‘देश
की जनता के इस आंदोलन का संघ ने समर्थन किया है, हम
देशवासियों के साथ विश्वासघात नहीं कर सकते, हमारे लिए देश पहले है, संगठन
बाद में’’।
इस उत्तर से इंदिरा गांधी के होश उड़ गए।
अंत में देश में हो रहे प्रचंड विरोध एवं
विश्वस्तरीय दबाव के कारण आम चुनाव की घोषणा कर दी गई। इंदिरा जी ने समझा था कि
बिखरा हुआ विपक्ष एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ सकेगा, परन्तु
संघ ने इस चुनौती को भी स्वीकार करके सभी विपक्षी पार्टियों को एकत्र करने जैसे
अति कठिन कार्य को भी कर दिखाया। संघ के दो वरिष्ठ अधिकारियों प्रो. राजेन्द्र
सिंह (रज्जू भैय्या) और दत्तोपंत ठेंगडी ने प्रयत्नपूर्वक चार बड़े राजनीतिक दलों
को अपने दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर एक मंच पर आने को तैयार करा लिया। सभी दल जनता
पार्टी के रूप में चुनाव के लिए तैयार हो गए।
चुनाव के समय जनसंघ को छोड़कर किसी भी दल के
पास कार्यकर्ता नाम की कोई चीज नहीं थी, सभी के संगठनात्मक ढांचे शिथिल पड़ चुके थे, इस
कमी को भी संघ ने ही पूरा किया। लोकतंत्र की रक्षा हेतु संघर्षरत स्वयंसेवकों ने
अब चुनाव के संचालन का बड़ा उत्तरदायित्व भी निभाया। ‘द
इंडियन रिव्यू’ के
संपादक एम.सी. सुब्रह्मण्यम ने लिखा था -‘‘जिन लोगों ने आपात काल के दौरान संघर्ष को
वीरतापूर्वक जारी रखा उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों का विशेष उल्लेख
करना आवश्यक है। उन्होंने अपने व्यवहार से न केवल अपने राजनीतिक सहयोगी कार्यकर्ताओं
की प्रसंशा प्राप्त की वर्ना जो कभी उनके राजनीतिक विरोधी थे उनसे भी आदर प्राप्त
कर लिया'।
प्रसिद्ध पत्रकार एवं लेखक दीनानाथ मिश्र ने
लिखा था -‘‘भूमिगत
आंदोलन किसी न किसी विदेशी सरकार की मदद से ही अक्सर चलते हैं, पर
भारत का यह भूमिगत आंदोलन सिर्फ स्वदेशी शक्ति और साधनों से चलता रहा। बलात नसबंदी, पुलिसिया
कहर, सेंसरशिप, तथा
अपनों को जेल में यातनाएं सहते देखकर आक्रोशित हुई जनता ने अधिनायकवाद की ध्वजवाहक
इंदिरा गांधी का तख्ता पलट दिया। जनता विजयी हुई और देश को पुनः लोकतंत्र मिल गया।
जेलों में बंद नेता छूटकर सांसद व मंत्री बनने की होड़ में लग गए, परंतु
संघ के स्वयंसेवक अपने राष्ट्रीय कर्तव्य की पूर्ति करके अपनी शाखा में जाकर पुनः
संगठन कार्य में जुट गए"।
(आपातकाल के दौरान 16 महीने की जेल यात्रा कर
चुके लेखक पूर्व संघ प्रचारक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
चुके लेखक पूर्व संघ प्रचारक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Thursday, June 25, 2020
आपातकाल से सबक लेने के अवसर
- केसी त्यागी
यूरोप के अधिकांश देशों में पिछले 75 वर्षों से विजय दिवस बडे़ उत्साह और उमंग के साथ मनाया
जाता है। यह विजय दिवस दूसरे विश्व युद्ध मे नाजी जर्मनी की हार के उपलक्ष्य में
मनाया जाता है। हर वर्ष मई माह में हिटलर के जुल्मों से त्रस्त देशों में विभिन्न
कार्यक्रमों, नाजीवाद पर आधारित
फिल्मों, नुक्कड़ नाटकों आदि के जरिये जुल्म-ज्यादातियों के किस्से
प्रचारित किये जाते हैं। कोरोना संकट के कारण इस बार कोई भव्य आयोजन नहीं हो पाया, फिर भी फ्रांस, जर्मनी, इटली, पोलैण्ड, नीदरलैण्ड आदि में
जुलूस निकाले गये। इसी सिलसिले में 24 जून को एक विशाल कार्यक्रम मास्को में आयोजित हुआ, जिसमें भारतीय सेना ने भी शिकरत की। जैसे रूस और तमाम
यूरोपीय देश नाजी जर्मनी के अत्याचारों को याद करते हैं वैसे ही हम भारतीयों को
आपातकाल के काले दिनों का स्मरण करना चाहिए। 45 साल पहले 25 जून, 1975 को
सारे लोकतांत्रिक अधिकारों को समाप्त कर और आपातकाल की घोषणा कर दमन चक्र चलाया
गया, लेकिन भारत में आज उसके खिलाफ उस प्रकार की बेचैनी वितृष्णा
और रोष दिखाई नहीं पड़ता जैसा यूरोप में हिटलर के नेतृत्व वाले जर्मनी को लेकर
दिखाई पड़ता है। हमें इस पर विचार करना चाहिए कि क्या हम नई पीढ़ी में आपातकाल के
खतरों के प्रति पर्याप्त चेतना पैदा कर रहे हैं।
1971 में आम चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को विशाल
बहुमत मिला। विपक्ष के बडे़ दिग्गज नेता इंदिरा की लहर में पराजित हो गये। इंदिरा
गांधी रायबरेली में समाजवादी नेता राजनारायण को पराजित कर विजयी रहीं। राजनारायण
ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में उनके निर्वाचन को चुनौती दी। याचिका में भारत सरकार के
अधिकारी और अपने निजी सचिव यशपाल कपूर को चुनाव एजेंट बनाने, स्वामी अवैतानन्द को 50 हजार रूपये घूस देकर उम्मीदवार बनाने, वायुसेना के विमानों का दुरूपयोग करने, डीएम-एसपी की मदद लेने, मतदाताओं को शराब, कंबल आदि बांटने और निर्धारित सीमा से अधिक खर्च करने के
आरोप लगाए गये। इस मुकदमे की सुनवाई के बीच देश नित नए घटनाक्रमों का साक्षी बनता
रहा। तब समूची कांगे्रस पार्टी इंदिरा गांधी का पर्याय बन चुकी थी। इसी दौरान
गुजरात के छात्रों ने महंगाई के विरुद्ध नवनिर्माण आंदोलन जन्म दिया।
गुजरात के छात्र बढ़ी फीस और राज्य में फैले भ्रष्टाचार को लेकर लामबंद हो
गए। विरोध प्रदर्शन और सभाओं के बड़े आयोजनों ने सरकार के अस्तित्व को
ही चुनौती दे डाली। प्रशासन का कामकाज लगभग ठप हो गया। लगभग संन्यास ले चुके कांग्रेसी
दिग्गज मोरारजी देसाई की सक्रियता ने आंदोलन में नई जान फूंकी। समूचा विपक्ष
गुजरात सरकार की बर्खास्तगी पर अड़ गया। नाजुक स्थिति देखते हुए
गुजरात विधानसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव की घोषणा करनी पड़ी। इसने समूचे
विपक्ष को लामबंद कर दिया और जनता में भी बदलाव की आकांक्षा को
जन्म दिया। देशभर में जन आंदोलन की बाढ़ सी आ गई।
अप्रैल 1974 में बिहार के छात्रों ने अब्दुल गफूर सरकार के
विरुद्ध छात्र युवा संघर्ष समिति बनाकर आंदोलन तेज कर दिया। नौजवानों के आंदोलन
को नई दिशा तब मिली जब जयप्रकाश नारायण ने भी उसे समर्थन दे
दिया। बदले माहौल में मजदूर नेता जॉर्ज फर्नाडिस ने 8 मई, 1974 को देशव्यापी रेल हड़ताल की घोषणा
कर दी। सरकार को हड़ताली आंदोलनकारियों से निपटने के लिए सेना तक की मदद लेनी पड़ी।
बिहार विधानसभा को भी भंग करने की मांग जोर पकड़ने लगी।
विधायक निवास से निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों का निकलना असंभव हो गया। देश भर में
जेपी का नाम गूंजने लगा। समूचा विपक्ष उनके पीछे लामबंद
हो गया।
12 जून, 1975 को गुजरात
चुनावों के नतीजे विपक्ष के पक्ष में आ रहे थे और कांग्रेस पार्टी पिछड़ रही थी, लेकिन सबसे बड़ा
समाचार इलाहाबाद से यह आया कि जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को चुनाव
में भ्रष्टाचार अपनाने का दोषी मान कर उनके चुनाव को अवैध
घोषित करने के साथ ही उन्हें छह साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य साबित कर दिया
है। इसके बाद इंदिरा ने हिटलर के रास्ते जाने का फैसला कर
डाला। दिल्ली में पड़ोसी राज्यों से भीड़ जुटाई जाने लगी और इंदिरा नहीं तो देश नहीं जैसे
नारे सुनाई देने लगे। जेपी के नेतृत्व में समूचे विपक्ष ने
श्रीमती गांधी से इस्तीफे की मांग कर देशव्यापी आंदोलन की
रूप रेखा तैयार की। 25 जून को रामलीला मैदान में
रैली की घोषणा की गई है जिसमें सभी दलों के प्रमुख नेताओं को आमंत्रित को किया गया।
बगैर साधनों के भी रामलीला मैदान में जन सैलाब उमड़ पड़ा।
जनसंघ नेता मदनलाल खुराना ने सभा का संचालन किया। मुझे भी मंच साझा करने का अवसर
प्राप्त हुआ। जेपी ने अपने ओजस्वी भाषण में सिविल नाफरमानी
की घोषणा कर डाली। 25 जून की रात ही
श्रीमती गांधी ने आंतरिक सुरक्षा के खतरों का हवाला देकर
आपातकाल की घोषणा कर दी। जेपी, मोरारजी भाई, चौ. चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, पीलू मोदी, बीजू पटनायक आदि को
गिरफ्तार कर लिया गया। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली गिरफ्तारी चंद्रशेखर की थी जो कांग्रेस
में रहते हुए श्रीमती
गांधी और जेपी में संवाद के हिमायती थे। लोकतंत्र समाप्त हो गया और जेल के
भीतर-बाहर राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ अमानवीय व्यवहार होने
लगा। इस दमन चक्र से मुक्ति तब मिली जब 1977 के आम चुनावों में कांग्रेस की करारी हार
हुई, लेकिन 25 जून, 1975 का स्मरण इसलिए किया जाना
चाहिए ताकि देश तानाशाही
प्रवृत्तियों को लेकर सावधान रहे और आपातकाल की पुनरावृत्ति न
हो सके।
(आपातकाल में जेल
जा चुके लेखक जेडीयू के वरिष्ठ नेता हैं)
Wednesday, June 24, 2020
काशी में खुलेगा प्रदेश का पहला पैकेजिंग संस्थान
फलों और सब्जियों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए काशी के रामनगर में भारतीय पैकेजिंग संस्थान खोलने की तैयारी की जा रही है. इसका निर्माण राल्हुपुर मल्टीमॉडल टर्मिनल के आसपास किया जायेगा. मंडलायुक्त दीपक अग्रवाल और जिलाधिकारी कौशलराज शर्मा ने अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण के अधिकारीयों के साथ बैठक कर इसकी तैयारी में लगे हैं. पैकेजिंग संस्थान की कार्ययोजना के लिए शीघ्र ही वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अधिकारीयों को प्रधानमंत्री का प्रस्ताव भेजा जाएगा.
युवाओं के लिए रोजगार के अवसर:
जिलाधिकारी के अनुसार इस संस्थान से युवाओं को बड़े रोजगार के अवसर भी उपलब्ध होंगे. इसे शर शहर में प्रस्तावित तीन पैक हाउस व राजातालाब पेरिशिबल कार्गो से जोड़ा जाएगा. यहाँ से प्रशिक्षित युवाओं को कार्गों में नौकरी भी दी जा सकती है.
श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर के प्रसाद का डाकघर से होगा वितरण
श्रावण मास बाबा विश्वनाथ के भक्तों को घर बैठे श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर का प्रसाद मिलेगा. प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी डाकघर के माध्यम से प्रसाद भेजे जाने की तैयारी डाकघर ने शुरू कर दी है.
श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर में श्रावण मास में दर्शन के लिए देश-विदेश से बक्तों की भीड़ उमड़ती है. इसके बावजूद पिछले कई वर्षों से बड़ी संख्या में लोग डाक विभग से ऑनलाइन प्रसाद मंगवाते हैं. डाक विभाग ने इस वर्ष भी डिब्बाबंद प्रसाद श्रदालुओं तक पहुंचाने के लिए तैयारी शुरू कर दी है. डिब्बाबंद प्रसाद में श्रीकाशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग की छवि, महामृत्युंजय महायंत्रम, शिव चालीसा, धातु का बेलपत्र, राद्राक्ष के 108 दाने की मला और रक्षा सूत्र इत्यादि सम्मिलित है. यह प्रसाद का पैकेट इलेक्ट्रानिक मनीआर्डर से स्पीड पोस्ट द्वारा भेजा जाता है.
Tuesday, June 23, 2020
भारत की सीमा को अक्षुण्ण किये बिना नहीं रुकेगा यह अभियान
- आशुतोष भटनागर
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान दिवस पर विशेष
23 जून को डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी का
बलिदान दिवस है। किसी ने सोचा भी नहीं था कि स्वतंत्र भारत में भी देश की एकता और
अखण्डता के लिये बलिदान देना होगा। लेकिन ऐसा हुआ। डॉ. मुखर्जी ने जम्मू कश्मीर की
एकात्मता के लिये सर्वोच्च बलिदान दिया।
कोई भी बलिदान तभी सार्थक होता है जब वह
उस उद्देश्य को पूरा करने में समर्थ होता है जिसके लिये वह बलिदान दिया गया। डॉ.
मुखर्जी का बलिदान जम्मू कश्मीर राज्य में, और इसके निमित्त से पूरे देश में “एक प्रधान, एक विधान और एक
निशान” को स्थापित करने के संकल्प के साथ किया गया था। उनकी
मृत्यु के कुछ ही समय बाद राज्य से सदरे रियासत और वजीरे आजम के पदनाम हटा कर
क्रमशः राज्यपाल और मुख्यमंत्री के पदनाम प्रस्थापित कर दिये गये। इस प्रकार एक
प्रधान की बात लागू हो गयी। किन्तु राज्य का अलग संविधान और अलग राजकीय ध्वज अलगाव
को बढ़ाता ही गया। इसके कारण जो प्रश्न खड़े हुए वे इस देश के मानस में लगभग सात
दशकों तक गूँजते रहे, अपना उत्तर खोजते रहे।
इन प्रश्नों को उत्तर मिला 5 अगस्त 2019
को जब केन्द्र की सरकार ने अनुच्छेद 370 में संशोधन कर भारत का संविधान जम्मू
कश्मीर राज्य में पूरी तरह लागू कर दिया। अब वहाँ न अलग संविधान है और न अलग झंडा।
पश्चिमी पाक और पाक अधिक्रांत जम्मू कश्मीर के विस्थापितों, गोरखों, वाल्मीकियों,
राज्य की महिलाओं को तीन पीढ़ियों तक अन्याय सहने के बाद अब वे अधिकार हासिल हुए
हैं जिन्हें भारत का संविधान अपने प्रत्येक नागरिक के लिये सुनिश्चित करता है।
डॉ. मुखर्जी का पं. नेहरू से व्यक्तिगत
मतभेद नहीं था। वे चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में सबके लिये समान अवसर हों,
तुष्टिकरण किसी का न हो और संविधान के अनुरूप ही शासन व्यवस्था चले। जिस साम्प्रदायिक
विभेद के चलते भारत का विभाजन हुआ, उसे स्वतंत्र भारत में एक बार फिर पनपने देने
का परिणाम अपने लिये ही आत्मघाती होगा।
कश्मीर में शेख को सत्ता सौंपे जाने के
बाद जम्मू में साम्प्रदायिक आधार पर दमनचक्र चला जिसके विरोध में प्रजा परिषद ने
आंदोलन खड़ा किया था। प्रजापरिषद की मांगें भी राष्ट्रवादी और एकात्मता को मजबूत
करने वाली थीँ। डॉ. मुखर्जी इस समस्या के समाधान के लिये ही प्रयासरत थे। दिसम्बर
1952 में प्रजा परिषद के अध्यक्ष पं प्रेमनाथ डोगरा को कानपुर में सम्पन्न जनसंघ
के पहले अधिवेशन में जम्मू कश्मीर की स्थिति प्रतिनिधियों के समक्ष रखने के लिये
आमंत्रित किया गया। अधिवेशन में प्रजा परिषद के आन्दोलन को पूर्ण समर्थन देने तथा
इसे देशव्यापी बनाने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया। इसके लिये अन्य
राष्ट्रवादी संगठनों से सहायता प्राप्त करने की भी बात कही गयी।
संसद के अंदर और बाहर डॉ मुखर्जी ने जम्मू
कश्मीर का मामला जोरदार ढ़ंग से उठाया। इस संबंध में उनका पं नेहरू और शेख
अब्दुल्ला से लंबा पत्र व्यवहार भी चला। 9 जनवरी 1953 को उन्होंने पं. नेहरू को
पहला पत्र लिखा जिसमें ‘प्रजा परिषद की न्यायोचित माँगों को न ठुकराने’ की
अपील की। इस अपील का कोई स्पष्ट असर नहीं दिखाई पड़ा फिर भी उन्होंने अपने प्रयास
जारी रखे और संवाद बनाये रखने का प्रयास किया। सदन के भीतर भी उन्होंने पं. नेहरू
से प्रजा परिषद नेताओं से वार्ता का आग्रह किया जिसके उत्तर में उन्होंने कहा कि “यदि मैं शेख अब्दुल्ला के स्थान पर होता तो इससे भी कड़ी कार्रवाई करता”।
5 मार्च को दिल्ली स्टेशन के सामने उमड़े
जनसूह को संबोधित करते हुए श्री मुखर्जी ने कहा –“ अब हमारे सामने दो रास्ते शेष बचे हैं। पहला रास्ता इस अन्याय के समक्ष
सिर झुका कर बैठ जाने का रास्ता है जिसका अर्थ है शेख अब्दुल्ला की दुर्नीति का
विषफल प्रकट होने देना। दूसरा रास्ता है इस अन्याय का परिमार्जन करने के लिये
शुद्ध देशभक्ति से प्रेरित होकर सर्वस्व त्याग करने की तैयारी करना”। अत्यंत गंभीर एवं दृढ़ स्वर में डॉ मुखर्जी ने घोषणा की –
“हमने दूसरा मार्ग स्वीकार किया है”।
पत्रकारों के अतिरिक्त प्रधानमंत्री नेहरू
को भी उन्होंने अपना कार्यक्रम सूचित करते हुए तार भेजा। उन्होंने लिखा "आपकी जानकारी के
लिये मैं आपको बताना चाहता हूँ कि मैंने जानबूझ कर परमिट प्राप्त करने के लिये
आवेदन नहीं किया। चूंकि आपकी सरकार ने योजनापूर्वक ढ़ंग से कई लोगों को जो आपकी
कश्मीर नीति से मतभिन्नता रखते हैं, परमिट देने से इनकार कर दिया है। नैतिक,
वैधानिक तथा राजनैतिक, तीनों दृष्टियों से मेरा जम्मू जाना न्यायपूर्ण है।
उन्होंने यह भी कहा कि मैं उस भारतीय संसद का सदस्य हूँ जिसमें कश्मीर सम्मिलित है
और संसद के प्रत्येक सदस्य का यह कर्तव्य है कि देश के किसी भी भाग में किसी भी
स्थिति का अध्ययन करने वह स्वयं जाये”।
शेख अब्दुल्ला को भेजे गये एक अन्य तार
में उन्होंने लिखा कि “मैं ऐसी स्थिति का निर्माण करने के लिये उत्सुक हूं जिसके द्वारा परस्पर
सदभावना और शांतिपूर्ण समझौते पर पहुंचा जा सके। मैं आपसे मिलने की संभावना का भी
स्वागत करता हूं”। इसके जवाब में उन्हें शेख अब्दुल्ला का
तार मिला जिसमें उन्हें जम्मू न आने के लिये कहा गया था।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के
अनुसार, जो उस समय पत्रकार के रूप में उनके साथ थे, गुरदासपुर के डिप्टी कमिश्नर
ने स्वयं आकर कहा था कि हमारी तरफ से आपको कोई रुकावट नहीं होगी। किन्तु जैसे ही
वे माधोपुर के पुल पर आधी दूरी तक पहुंचे, जम्मू कश्मीर की पुलिस ने उन्हें
गिरफ्तार कर लिया। उनके साथ वैद्य गुरुदत्त और श्री टेकचन्द भी गिरफ्तार कर लिये
गये।
डॉ. मुखर्जी के सलाहकार बैरिस्टर उमाशंकर
त्रिवेदी को शेख सरकार ने डॉ. मुखर्जी से मिलने की अनुमति नहीं दी। अंततः उच्च
न्यायालय के निर्देश पर उनकी भेंट हो सकी। जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय ने बैरिस्टर
त्रिवेदी की याचिका पर 23 जून को सुनवाई की तारीख दी थी। सभी को उम्मीद थी कि इस
दिन वे मुक्त हो जायेंगे। किन्तु 22 जून की रात्रि को ही रहस्यमय परिस्थिति में
उनकी मृत्यु हो गयी। उनका शव कोलकाता भेज दिया गया।
भारतीय जनसंघ के तत्कालीन महामंत्री पं.
दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा – “जब सत्याग्रही कष्ट सहने के लिये अड़ जाता है तो कुछ समय तक अन्याय बढ़ते
हैं। प्रतिष्ठा और पार्टी-बाजी के मद में अन्धे सत्ताधारी उपेक्षा करते हैं जिसके
परिणामस्वरूप बलिदान होते हैं। किन्तु इसके साथ इन अस्वाभाविक कृत्यों की एक सीमा
रहती है जिसके बाद वह क्रमशः क्षीण होने लगते हैं और शुद्ध भावनाएं हिलोरें मारने
लगती हैं। बस, इसी समय सत्याग्रह सफल होता है”।
सत्याग्रह सफल हुआ। किन्तु इसमें राष्ट्रीय एकात्मता को सर्वप्रथम
मानने वाली तीन पीढ़ियों को अपनी आहुति देनी पड़ी। “एक प्रधान,
एक विधान और एक निशान” का संकल्प
तो पूरा हुआ है किन्तु इसके अगले चरण की घोषणा करने वाला उद्घोष – “जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है,
जो कश्मीर हमारा है, वह सारे का सारा है” आज भी अधूरा है। भारत की सीमाओं को अक्षुण्ण करने तक यह अभियान रुकेगा
नहीं, सत्याग्रह की सफलता के पश्चात डॉ. मुखर्जी के पहले
बलिदान दिवस का यह संकल्प है जिसकी पुष्टि 22 फरवरी 1994 का भारतीय संसद का
सर्वसम्मत संकल्प करता है। इसके अनुसार “पाकिस्तान
के साथ यदि कुछ शेष है तो वह उन भारतीय क्षेत्रों को वापस लेने का है जिन पर उसने
अवैध कब्जा कर रखा है, और ऐसा करने की क्षमता और
इच्छाशक्ति भारत में है”।
Monday, June 22, 2020
लद्दाख प्रान्त की गलवान घाटी में क्या हो रहा है?
डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
पिछले कुछ दिनों से लद्दाख की गलवान घाटी में
भारत और चीन की सेना आमने सामने है. 15 जून को दोनों
सेनाओं की आपस में भिड़न्त भी हो गई थी, जिसमें भारत के बीस सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए, इनमें वहां के
कमांडिंग ऑफिसर संतोष बाबू भी थे. ऐसा कहा जा रहा है कि चीनी सेना की इससे कहीं
ज़्यादा क्षति हुई है. इस घटना को 1962 में हुए भारत चीन
युद्ध की निरंतरता में ही समझना चाहिए.
इस विवाद की पृष्ठभूमि को जानना बहुत जरुरी है. 1914 में भारत और तिब्बत के बीच शिमला में एक सन्धि हुई थी. इस सन्धि में दोनों
देशों ने आपसी सहमति से अपनी सीमा रेखा निर्धारित की थी. उस समय भारत ब्रिटिश
सरकार के अधीन था और तिब्बत स्वतंत्र देश था. भारत की ब्रिटिश सरकार की ओर से इस
शिमला वार्ता में हेनरी मैकमोहन शामिल थे. इसलिए भारत-तिब्बत सीमा रेखा को ही
मैकमोहन लाईन कहा जाने लगा. दरअसल, शिमला में यह वार्ता त्रिपक्षीय थी. इसमें चीन भी शामिल था.
क्योंकि मंशा यह थी कि तिब्बत और चीन की सीमा रेखा भी निर्धारित हो सके ताकि चीन
और तिब्बत का तनाव भी समाप्त हो सके. चीन को मांचू शासकों की ग़ुलामी से आज़ाद हुए
अभी दो साल ही हुए थे. यह अलग बात है कि नए हान शासकों ने मंचूरिया के मांचुओं से
आज़ाद होने के बाद मंचूरिया पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था. नए चीनी शासकों की ओर से
शिमला वार्ता में ईवान चेन को भेजा गया. इवान चेन तो तिब्बत– चीन की
सीमा रेखा पर सहमत हो गए थे, लेकिन जब उन्होंने यह सहमति रेटिफिकेशन के लिए चीन सरकार को
भेजी तो उसने इसे अस्वीकार कर दिया. चीन के निकल जाने से शिमला की त्रिपक्षीय
वार्ता द्विपक्षीय रह गई और भारत-तिब्बत में सीमा रेखा को लेकर समझौता हो गया, जिसे उस समय की
तिब्बत सरकार ने स्वीकार कर लिया.
1947 में अंग्रेज
हिन्दुस्तान से रुखसत हो गए और उधर चीन के भीतर कम्युनिस्टों ने माओ के नेतृत्व
में वहाँ की च्यांग काई शेक की सरकार के खिलाफ गृहयुद्ध छेड़ रखा था. 1949 में इस गृहयुद्ध में चीन के बहुत बड़े भूभाग पर कम्युनिस्टों का कब्जा हो
गया. च्यांग काई सरकार का शासन केवल ताईवान में सीमित हो गया. माओ ने अपने कब्जे वाले
हिस्से का नाम पीपुल्ज रिपब्लिक ऑफ चायना रखा. लेकिन माओ के चीन ने 1950 में तिब्बत पर आक्रमण कर दिया. तिब्बत ने भारत सरकार से सहायता की
प्रार्थना की, लेकिन
भारत ने सहायता नहीं की. नेहरु को लगता था कि चीन से दोस्ती करना भारत के हित में
होगा. लेकिन सरदार पटेल ऐसा नहीं मानते थे. उनको लगता था – चीन, तिब्बत पर कब्जा
करने के बाद भारत पर आँख गड़ा देगा. परन्तु नेहरु अपने आपको अन्तरराष्ट्रीय मामलों
का विशेषज्ञ मानते थे. अन्तत: वही हुआ, जिसका सरदार पटेल को ख़तरा था. तिब्बत पर क़ब्ज़े के बाद
भारत-तिब्बत सीमा भारत-चीन सीमा बन गई थी. लेकिन अब पटेल मौजूद नहीं थे. चीन ने
भारत-तिब्बत के बीच 3488 किलोमीटर की सीमा रेखा मैकमोहन लाईन को मानने से इन्कार कर
दिया और अरुणाचल प्रदेश व लद्दाख के बहुत से हिस्से पर अपना दावा ठोकना शुरु कर
दिया. अब नेहरु भला चीन की यह माँग कैसे स्वीकार कर सकते थे? देश का दुर्भाग्य
था कि नेहरु 1947 से लेकर 1962 तक देश व सेना को
चीन के ख़िलाफ़ तैयार करने के बजाय, हिन्दी चीनी भाई-भाई के भ्रम जाल में फंसाते रहे. चीन ने 1962 में उन क्षेत्रों में क़ब्ज़ा करने के लिए, जिन्हें वह अपना बता रहा था, भारत पर हमला कर दिया. उस इतिहास को दोहराने की जरुरत नहीं
है.
चीन, लद्दाख व
अरुणाचल प्रदेश में काफ़ी भीतर तक घुस आया था. उसने स्वयं ही युद्ध विराम की घोषणा
कर दी. इतना ही नहीं, वह जीते
हुए क्षेत्र खाली कर पीछे भी हट गया. यह सब दुनिया की वाहवाही बटोरने के लिए था.
यदि वह भारतीय क्षेत्रों में सौ किलोमीटर अन्दर घुसा तो अस्सी किलोमीटर पीछे हट
गया और बीस किलोमीटर पर क़ब्ज़ा जमाए रखा. इस प्रकार उसने पूरी भारत तिब्बत सीमा
के स्थान पर एक नई सीमा रेखा बना दी, जिसे आजकल लाईन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल या वास्तविक नियंत्रण
रेखा कहा जाता है. चीन का कहना है कि अब भारत चीन अपनी सीमा का निर्धारण आपसी
बातचीत से करेंगे. बातचीत कैसे होगी, विवाद के मामले में उसे कैसे सुलझाया जाएगा, इसको लेकर दोनों
पक्षों में कई समझौते हो चुके हैं. उन्हीं में से एक समझौता है कि दोनों पक्षों
में कोई भी गोली नहीं चलाएगा. लेकिन चीन ने 1962 के बाद अपना सारा
ध्यान भारतीय सीमा के साथ तिब्बत में सैनिक दृष्टि से अपनी आधारभूत संरचना को
मज़बूत करने में लगा दिया क्योंकि वह निश्चिंत था कि सीमा पर भारत की ओर से
फ़िलहाल कोई ख़तरा नहीं है. सीमा पर इस प्रकार की शान्ति के बीच चीन ने अपनी
सामरिक स्थिति काफ़ी मज़बूत कर ली. बीच-बीच में वह एलएसी को भेदकर भारतीय सीमा में
घुस आता था. बातचीत के बाद कभी पीछे हट जाता था और कभी वहाँ बैठ जाता था. लेकिन हम
इसी से प्रसन्न थे कि सीमा पर एक भी गोली नहीं चली और मामला शान्ति से निपट जाता है.
बाकी जहां तक चीन द्वारा भारतीय भूमि पर कब्जा करते रहने की बात थी, उसके बारे में
नेहरु बता ही गए थे कि वहाँ घास का तिनका तक नहीं उगता.
लेकिन, अब गलवान घाटी में भारत सरकार ने उस ज़मीन की रक्षा करने का
निर्णय भी ले लिया है, जिस पर
घास का तिनका तक नहीं उगता. इसलिए 1967 की नाथुला घटना
के बाद चीन के लिए भी यह नया अनुभव है और भारत में उन लोगों के लिए भी जो बार बार
चिल्ला रहे हैं कि गलवान में क्या हो रहा है? लेकिन भारत की सेना अच्छी तरह जानती है कि गलवान में क्या
हो रहा है? और भारत
के लोग भी अच्छी तरह जानते हैं कि गलवान में क्या हो रहा है? अब तक तो चीन भी
समझ गया है कि गलवान में क्या हो रहा है? अलबत्ता कांग्रेस की इतालवी लॉबी और कम्युनिस्टों को यह सब
समझने में समय जरुर लगेगा कि गलवान में क्या हो रहा है?
(लेखक हिमाचल
प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति हैं.)
श्रोत - विश्व संवाद केन्द्र, भारत