Monday, July 20, 2020

भारत की उम्मीदें, भारत का युवा ही साकार करेगा

डॉ. नीलम महेंद्रा

किसी भी देश की शक्ति होते हैं उसके नागरिक, और अगर देश युवाओं का हो तो कहने ही क्या


भारत युवाओं का देश है. भारतीय जनसंख्या आयोग के रजिस्ट्रार जनरल की ओर से तैयार किए सैंपल रेजिस्ट्रेशन सिस्टम 2018 की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में 25 वर्ष से कम आयु वाली आबादी 46.9% है. इसमें 25 वर्ष की आयु से कम पुरूष आबादी 47.4% और महिला आबादी 46.3%. यह आंकड़े किसी भी देश को प्रोत्साहित करने के लिए काफी हैं. भारत जैसे देश के लिए भी यह आंकड़े अनेकों अवसर और आशा की किरणें जगाने वाले हैं, लेकिन सिर्फ आंकड़ों से ही उम्मीदें पूरी नहीं होती, उम्मीदों को अवसरों में बदलना पड़ता है.
इसे हम भारत का दुर्भाग्य कहें या फिर गलत नीतियों का असर कि हम एक देश के नाते अपने अवसरों का उपयोग नहीं कर पाते और उन्हें उम्मीद बनने से पहले ही बहुत आसानी से उम्मीदों को दूसरे देशों के हाथों में फिसलने देते हैं. हमारे प्रतिभावान और योग्य युवा, जो इस देश की ताकत हैं, जिनमें देश की उम्मीदों को अवसरों में बदलने की क्षमता है, वे अवसरों की तलाश में विदेश चले जाते हैं. जो युवा इस देश को एक बार फिर से विश्वगुरु बनाने का सपना साकार करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं, वे अपने सपनों को साकार करने के लिए देश से पलायन करने के लिए विवश हो जाते हैं.
जी हां, यह कटु सत्य है कि ब्रेन ड्रेनेज का शिकार होने वाले देशों में भारत पहले स्थान पर आता है. यूएस नेशनल साइंस फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2003 से 2013 के बीच यूएस में भारतीय वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की संख्या में 85% की वृद्धि हुई है. अगर ब्रेन ड्रेनेज के मामले में एशिया के अन्य देशों से तुलना की जाए तो यहाँ भी इसी रिपोर्ट के अनुसार एशिया के सभी देशों को मिलाकर विदेश जाने वाले 2.96 मिलियन वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की संख्या में से भारत 9,50,000 के साथ पहले स्थान पर है.
लेकिन अगर आप सोच रहे हैं कि यह पिछले कुछ सालों की ही समस्या है तो ऐसा नहीं है. इस देश के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाते हैं. श्रीनिवास रामानुजन अय्यंगर का उदाहरण हमारे सामने है, जिनके पास गणित की कोई औपचारिक शिक्षा या डिग्री नहीं होने के बावजूद गणित में उनका योगदान अतुलनीय है. आज भले ही उनके नाम पर अनेकों सम्मान दिए जाते हों, लेकिन यह भी सच है कि उनके जीवन काल में इस देश में उनकी रिसर्च को कोई मदद तो दूर की बात है, स्वीकार्यता भी नहीं मिली थी. हार कर उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के एक ब्रिटिश गणितज्ञ जी.एच. हार्डी को अपनी रिसर्च भेजी तो हार्डी ने ना सिर्फ उनके कार्य को असाधारणमाना, बल्कि उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए उनके ब्रिटेन आने का प्रबंध भी किया. यह घटना 1913 की है. आज रामानुजन इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन गणित में उनके द्वारा किये काम पर जब लगभग सौ साल बाद 2011 – 2012 में रिसर्च की जाती है तो आज के गणितज्ञ भी उनके काम को गहन, बेहद बारीक और उच्चतम बौद्धिक स्तर का स्वीकार करते हैं. हरगोविंद खुराना, जिन्होंने पोस्ट ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई भारत में ही की थी, आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए थे. उसके बाद पीएचडी करके भारत आए, 1949 की बात है, लेकिन उन्हें यहाँ नौकरी नहीं मिली तो वे वापस विदेश चले गए और यूएस के नागरिक बन गए.
हम सब जानते हैं कि 1968 में उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया गया था. जिस देश में अपने देश के एक होनहार युवा के लिए एक नौकरी नहीं थी, आज उसी देश में अमरीकी नागरिक हरगोविंद खुराना के नाम पर उभरती हुई प्रतिभाओं को सम्मान दिए जाते हैं. सी.आर. राव, हरिश्चंद्र ऐसे नामों की फेहरिस्त अंतहीन है क्योंकि हमने अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा और 21वीं सदी में भी इस फेहरिस्त में नाम जुड़ते जा रहे हैं.
इस विषय में हम चीन से सीख सकते हैं जो चीन कल तक ब्रेन ड्रेनेज के मामले में भारत के करीब खड़ा था, आज उसने अपनी नीतियों में बदलाव करके अपने देश से प्रतिभाओं के पलायन को काफी हद तक रोक लिया है. इसके लिए उसने शोध और अनुसंधान पर जोर देना शुरू कर दिया है और उसके बजट में बेतहाशा वृद्धि की है. भारत की अगर हम बात करें तो हमारे यहाँ बुनियादी शिक्षा में प्रायोगिक के बजाय सैद्धांतिक शिक्षा पर जोर दिया जाता है. इसका परिणाम हमारे सामने उस सर्वे रिपोर्ट के रूप में आता है जो यह कहती है कि देश के 80% इंजीनियर बन कर निकलने वाले युवा नौकरी करने के लायक नहीं हैं. केवल 2.5% के पास वो टैलेंट होता है जो आज की आवश्यकता के अनुरूप है. और जैसा कि होता आया है, इस 2.5% में से अधिकांश युवा बेहतर अवसरों की तलाश में विदेश चले जाते हैं. सुन्दर पिचाई, सत्या नडेला, इंद्रा नूई, कल्पना चावला, ऐसे अनेकों नाम हैं.
अगर हम वाकई में एक देश के रूप में, एक राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें अपने देश की प्रतिभाओं को पहचानना होगा. ऐसी प्रतिभाएं जो विज्ञान के क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता रखती हों. भारत के पास प्रतिभाओं की कमी नहीं है. भारत सदा से ही कल्पनाओं और विचारों का केंद्र बिंदु रहा है.अपने लक्ष्यों को सीमित संसाधनों और कम बजट में हासिल करने की भारतीयों की क्षमता विश्व में बेजोड़ है. हमारे स्पेस प्रोग्राम इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं. पिछले कुछ सालों में इसरो ने जिस प्रकार विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है वो इसका सबूत है. लेकिन यह भी सच है कि भारतीय प्रतिभाओं के बिना भारत आगे नहीं जा सकता. देर से ही सही, लेकिन अब सरकार ने इस दिशा में सोचना शुरू कर दिया है. 2019 के बजट में देश की प्रतिभाओं को देश में ही अनेक अवसर उपलब्ध कराने की घोषणाएं तो हुई हैं, लेकिन उन्हें यथार्थ में बदलना सरकार के लिए चुनौती होगी.  अगर हम विश्व में भारत का कद बढ़ाने का सपना साकार करना चाहते हैं तो हमें इस दिशा में प्रयास करने होंगे कि हमारे देश की प्रतिभाओं को अपने सपने सच करने के लिए इसी देश की जमीन मिले. उनके हौसलों की उड़ान को इसी देश का आसमान मिले. अपने सपने सच करने के लिए उन्हें विदेशी धरती का सहारा ना लेना पड़े.
श्रोत - विश्व संवाद केन्द्र, भारत 

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