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Thursday, December 19, 2024

महाकुम्भ : विश्व हिन्दू परिषद का कुटुम्ब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, मतांतरण, हिन्दू जन्म दर पर मंथन

प्रयागराज. सबसे बड़ा आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक समागम महाकुम्भ 2025, प्रयागराज में 40 करोड़ भक्तों के एकत्रित होने का अनुमान है. दिव्य-भव्य महाकुम्भ के सफल आयोजन के लिए सरकार के साथ विविध संगठन भी प्रयासरत हैं.

इस संबंध में विश्व हिन्दू परिषद शिविर की कार्य योजना पर प्रकाश डालते हुए विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय महामंत्री संगठन मिलिंद परांडे जी ने प्रेस वार्ता में बताया कि शिविर में 13 जनवरी से 28 फरवरी तक संगठन की गतिविधियाँ संचालित होंगी, जिसमें पूरे देश के 150 संप्रदायों के धर्मगुरु पूज्य संत शामिल होंगे.

केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की बैठक में कुटुम्ब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, मतांतरण, हिन्दू जन्म दर, घटती हिन्दू जन्म दर पर चर्चा और मार्गदर्शन प्राप्त होगा. शिविर में युवा संत सम्मेलन, साध्वी संत सम्मेलन का आयोजन होगा. साथ ही भारत के दक्षिण हिस्से से बड़ी मात्रा में इस वर्ष संत आचार्य गंगा स्नान के लिए पधारेंगे, साथ में उत्तर पूर्व प्रांत से बड़ी संख्या में संतों का आगमन होगा. देश-विदेश के बौद्ध मत के बड़े आचार्य एवं विश्व हिन्दू परिषद की सेवा में लगे लोगों का आगमन होगा. जनजातीय विस्तार वनांचल समाज का आगमन भी बड़ी संख्या में होगा.

सामाजिक समरसता की दृष्टि से समाज के सभी वर्गों का आगमन बड़ी संख्या में होगा. वि.हि.प के माध्यम से गौ रक्षा एवं गौ संवर्धन के क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्थाओं, कार्यकर्ताओं का बड़ा सम्मेलन आयोजित होगा. हम पहले हिन्दू हैं, भाव रखने वाले सभी जातियों के बीच कार्य करने वाले हजारों कार्यकर्ता, संस्थाओं का सम्मेलन शिविर में आयोजित होगा. कुटुम्ब प्रबोधन, लव जिहाद, हिन्दू संस्कारों का क्षरण, महिला सम्मान स्त्री शक्ति, ऐसे विचारों को लेकर एक विशाल माता-भगिनी सम्मेलन आयोजित होगा.

देश भर में हिन्दू समाज का मतांतरण रोकने के लिए तथा जो अन्य मजहब के लोगों को हिन्दू धर्म में लौटाना चाहते हैं, इनके स्वागत के कार्य में जुटे हजारों कार्यकर्ताओं का सम्मेलन, वेद तथा संस्कृत प्रचार के क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्थाओं, कार्यकर्ताओं का सम्मेलन आयोजित होगा. वि.हि.प शिविर में दिन प्रतिदिन कुंभ स्नान, गंगा स्नान करने वाले सामान्य भक्त गणों एवं धर्माचार्यों की सेवा प्रसाद का आयोजन शिविर के माध्यम से निरंतर किया जाएगा. महाकुम्भ मेले में प्रतिदिन सीता रसोई भंडारा का आयोजन भी होगा.

प्रेस वार्ता में मिलिंद जी के साथ क्षेत्र संगठन मंत्री गजेन्द्र जी और काशी प्रान्त अध्यक्ष कविन्द्र प्रताप सिंह जी भी उपस्थित रहे.

Thursday, December 12, 2024

न्यूनतम सुविधा में उत्तम सुशासन का कालखण्ड लोकमाता अहिल्याबाई का जीवन - मुकुन्द जी

- जो राजसत्ता अपनी प्रजा की हर समस्या का समुचित समाधान करें उसे पुण्यश्लोक कहा गया

काशी। न्यूनतम सुविधा में उत्तम सुशासन का कालखण्ड लोकमाता अहिल्याबाई होलकर का था। अहिल्याबाई के प्रशासनिक नेतृत्व को देखते हुए ’लेस गवर्नमेंट मोर गवर्नेंस’ सदृश सूक्ति चरितार्थ होती प्रतीत होती है। जो राजसत्ता अपनी प्रजा की हर समस्या का समाधान करें उसे पुण्यश्लोक कहा गया। उक्त विचार लोकमाता अहिल्याबाई होलकर त्रिशताब्दी जयन्ती समारोह को सम्बोधित करते हुए मुख्य वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह श्री मुकुंद जी ने व्यक्त किया।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्वतंत्रता भवन सभागार में कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि लोकमाता अहिल्याबाई होलकर के जीवन से मातृत्व, नेतृत्व और कृतित्व धर्म की शिक्षा लेनी चाहिए। आज के समय में ’मातृत्व’ में होते क्षरण को देखते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि लोकमाता अहिल्याबाई को याद किया जाए। साथ ही अपने नेतृत्व में उन्होंने जो लोककल्याणकारी कार्य किए वे अभूतपूर्व हैं। भारतीय समाज में विश्वास और आत्मसम्मान जगाने का कार्य लोकमाता ने मंदिरों और घाटों के पुनरोद्धार के माध्यम से किया। उन्होंने आगे कहा कि यूरोपीय स्त्रियों और भारतीय स्त्रियों को तुलनात्मक रूप में देखने से पता चलता है कि भारतीय महिलाओं की स्थिति राजनीति, प्रशासन और धार्मिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अधिक उत्तम थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं अहिल्याबाई होलकर हैं। स्त्री और पुरुष की समानता की बात करते हुए मुकुंद जी ने कहा कि इस समाज को पुरुषत्व की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही मातृत्व की भी। आज अर्थशास्त्री बताते हैं कि राष्ट्र की जीडीपी में महिलाओं का भरपूर योगदान हैं। वर्तमान में सम्पूर्ण भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा सेवा के एक लाख तीस हजार से अधिक सेवा कार्य चल रहे हैं। जिनमें महिलाएं आगे हैं। इन कार्यों में निर्णय लेने की क्षमता पुरुषों की तुलना में मातृशक्ति में कहीं अधिक सुदृढ़ है। माताएं संवेदनशीलता, एकाग्रता में पुरुषों से कहीं आगे हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी जिस भी माध्यम से अहिल्याबाई के संदेशों को ग्रहण करती हो, हमें उसी माध्यम से ऐसे महापुरुषों के संदेश को जन-जन तक पहुंचाना चाहिए, यही हमारे इस कार्यक्रम का भी ध्येय है। कार्यक्रम के आयोजन तिथि पर मुख्य वक्ता ने बताया कि 11 दिसम्बर को ही देवी अहिल्याबाई होलकर मालवा राज्य का शासन सम्भाला। आज गीता जयन्ती पर श्रीमद्भगवत्गीता के एक श्लोक का उदाहरण देते हुए कहा कि अर्जुन को समझाते हुए श्री कृष्ण भगवान कहते है ‘‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते।। अर्थात श्रेष्ठ जन अपने जीवन में जो जो आचरण करते हैं समान्यजन उनके जीवन से प्रेरित होते हैं।

विशिष्ट अतिथि लोकमाता अहिल्याबाई होलकर के वंशज उदय सिंह राजे होलकर जी ने कहा कि पुण्यश्लोक अहिल्याबाई का जीवन साधारण नहीं रहा। अपने ही जीवन काल में उन्हें सास, श्वसुर, पति, पुत्र-पुत्री सभी की मृत्यु देखनी पड़ी। पति के साथ सती होने से श्वसुर मल्हार राव होलकर ने उन्हें रोका। घाट, धर्मशाला का निर्माण अथवा मन्दिरों का जीर्णोंद्धार लोकमाता ने अपने स्त्रीधन से किया था। देवी अहिल्याबाई होलकर कुशल प्रशासिका के साथ आध्यात्मिक महिला भी थी। उनके हाथ की लिखी श्रीमद्भागवत गीता भोपाल संग्रहालय में संरक्षित है। लोकमाता ने  धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किये जो 300 वर्ष बाद भी आज याद किए जा रहे हैं और किये जाते रहेंगे। महेश्वर में सभी छोटे बड़े लोगों के साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण करके समता और समभाव प्रदर्शित करना तथा सामान्य जन की जीविका हेतु  महेश्वर में हथकरघा उद्योग की स्थापना करना इत्यादि लोकमाता के कल्याणकारी कार्यों में प्रतिष्ठित है।

विशिष्ट अतिथि सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल डॉ. माधुरी कानिटकर जी ने कहा कि आज की युवा पीढ़ी को लोकमाता अहिल्याबाई के जीवन संघर्ष से प्रेरणा लेनी चाहिए। देश का भविष्य युवा पीढी के हाथों में ही होता है। लोकमाता के तीन विशिष्ट भूमिकाएं सैनिक, प्रजावत्सल ममतामयी अभिभावक और शिक्षिका जिनसे प्रेरित होकर मैंने अपने जीवन को संवारा।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं लोकमाता अहिल्याबाई होलकर त्रिशताब्दी जयन्ती समारोह समिति की अखिल भारतीय अध्यक्षा प्रो.चंद्रकला पाड़िया जी ने कहा कि भारतीय नारी उस पक्षी की तरह है जो दिन में तो आकाश में विचरण करती है, लेकिन शाम होते-होते वह अपने नीड़ में वापस आने की इच्छा भी रखती है। उन्होंने महादेवी वर्मा जी के ’श्रृंखला की कड़ियां’ निबंध-संग्रह का उल्लेख करते हुए  लोकमाता अहिल्याबाई के जीवन पर प्रकाश डाला।

कार्यक्रम का प्रारंभ मंचस्थ अतिथियों द्वारा देवी अहिल्या बाई के तैल चित्र और मालवीय जी की प्रतिमा पर पुष्पार्चन तथा दीप प्रज्वलन के साथ हुआ। मंगलाचरण वेंकटरमन घनपाठी तथा संगीत मंचकला संकाय की छात्राओं ने कुलगीत गायन किया। मंचस्थ अतिथियों का परिचय एवं स्वागत प्रान्त सम्पर्क प्रमुख दीनदयाल पाण्डेय ने किया। आयोजन समिति की सदस्या डॉ. नीरजा माधव जी ने विषय प्रस्तावना की।

वो अहिल्या है नृत्य नाटिका से जीवन्त हुआ लोकमाता का जीवन चरित -

निवेदिता शिक्षा सदन एवं संत अतुलानंद के छात्र- छात्राओं ने  देवी अहिल्याबाई होलकर के जीवन पर आधारित लघु नाटिकाओं का मंचन किया। छात्राओं के प्रस्तुति से लोकमाता का जीवन चरित की प्रस्तुति ने लोगों को प्रभावित किया। संत अतुलानन्द के विद्यार्थियों ने लघु नाटिका द्वारा काशी विश्वनाथ मन्दिर के स्थापना के प्रसंग को प्रदर्शित किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ काशी प्रान्त की जागरण पत्रिका ’चेतना प्रवाह’ के लोकमाता अहिल्याबाई होलकर पर केंद्रित विशेषांक का लोकार्पण किया गया। इसके साथ ही गुंजन नंदा जी की पुस्तक देवी अहिल्याबाई : महेश्वर से मोक्षदायिनी काशी तक का भी लोकार्पण हुआ। कार्यक्रम में स्वतंत्रता भवन की वीथिका में लोकमाता अहिल्याबाई होलकर से संबंधित चित्रकला प्रदर्शनी का आयोजन भी हुआ।

चेतना प्रवाह के रानी अहिल्यहोलकर विशेषांक का लोकार्पण

समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, काशी प्रान्त की जागरण पत्रिका चेतना प्रवाह के लोकमाता अहिल्याबाई होलकर विशेषांक का लोकार्पण सम्पन्न हुआ। लोकार्पण सह सरकार्यवाह मा0 मुकुन्द जी, उदय सिंह राजे होलकर जी, डॉ0 माधुरी कानिटकर जी, डॉ0चन्द्रकला पाडिया एवं काशी प्रान्त के प्रान्त प्रचारक मा0 रमेश जी, के द्वारा डॉ0 हेमन्त गुप्त, श्री नागेन्द्र जी (प्रबन्ध सम्पादक), एवं प्रो0 ओम प्रकाश सिंह (सम्पादक) के माध्यम से सम्पन्न हुआ।

इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय गौसेवा संयोजक अजित महापात्रा, अ.भा.सामाजिक समरसता संयोजक रवीन्द्र किलकोले, प्रज्ञा प्रवाह के अ.भा.कार्यकारिणी सदस्य रामाशीष जी, क्षेत्र सेवा प्रमुख यृद्धवीर जी, क्षेत्र पर्यावरण संयोजक अजय जी, प्रान्त संघचालक अंगराज जी, प्रान्त प्रचारक रमेश जी सहित बड़ी संख्या में काशी के गणमान्य नागरिक एवं मातृशक्ति की गरिमामयी उपस्थिति रही। कार्यक्रम का संयुक्त संचालन डॉ. भावना त्रिवेदी और गुंजन नंदा जी ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन प्रो. रामनारायण द्विवेदी जी ने किया।








Wednesday, December 4, 2024

काशीवासियों की हुंकार, बांग्लादेश में बन्द हो हिन्दुओं पर अत्याचार

 - हिन्दू जेनोसाइड के लिए डीप स्टेट का मोहरा बना मो0युनुस

- भारत सरकार से आह्वान है कि वह बांग्लादेश में हिन्दुओं तथा अन्य सभी अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के प्रयासों को हरसंभव जारी रखे

काशी। बांग्लादेश में पिछले 4 महीनों से जारी हिन्दुआें पर अत्याचार के विरोध में काशी के हिन्दू समाज ने आवाज बुलन्द की। मंगलवार को 102 सामाजिक/धार्मिक/आर्थिक संगठनों ने एक स्वर में विरोध करते हुए कहा कि बांग्लादेश में हिन्दू एवं अल्पसंख्यक समुदायों पर हो रहे अत्याचार बंद हो।

हिन्दू रक्षा समिति वाराणसी के तत्वाधान में भारत के महामहिम राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन देने एवं विरोध प्रदर्शन का आयोजन नदेसर स्थित मिंट हाउस तिराहा (स्वामी विवेकानन्द प्रतिमा स्थल) से आरम्भ किया गया। प्रदर्शन स्वामी विवेकानन्द प्रतिमा स्थल से निकलकर दूरदर्शन केन्द्र होते हुए वरुणापुल, कचहरी होते हुए जिला मुख्यालय पहुंचा। जहां जिलाधिकारी को ज्ञापन सौंपा गया।

ज्ञापन देते हुए अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जितेन्द्रानन्द सरस्वती ने कहा कि बांग्लादेश के अन्दर चुनी हुई सरकार को षड़यंत्र के तहत गिराकर हिन्दू जेनोसाइड का प्लान डीप स्टेट ने रचा और इस षड़यंत्र के तहत मो0युनुस को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया गया। इसी पुरस्कार के आधार पर मो0युनुस को बांग्लादेश की अन्तरिम सरकार चलाने की जिम्मेदारी दी गयी। जो कानून की दृष्टि से भी विधि सम्मत नहीं थी। उन्होंने कहा कि मो0 युनुस के नेतृत्व में हिन्दुआें के कत्ल का आगाज किया गया। मन्दिर तोड़े गये, हिन्दू बहन-बेटियों का मान मर्दन किया जा रहा। बांग्लादेश के ज्ञात तिहास में अब तक सबसे बड़ा हमला हिन्दुओं पर वर्तमान कार्यवाहक प्रधानमंत्री मो0युनुस के कार्यकाल में हो रहा। उन्होंने कहा कि अब हिन्दू समाज विश्व भर में उठ खड़ा हुआ है और ऐसी घटनाओं को सहन नहीं करेगा। स्वामी जितेन्द्रानन्द ने कहा कि ऐसे ही शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में हिन्दुओं का नेतृत्व कर रहे इस्कॉन के संन्यासी चिन्मय कृष्ण दास को बांग्लादेश सरकार द्वारा कारावास भेजना अन्यायपूर्ण है। काशी का हिन्दू समाज बांग्लादेश सरकार से यह आह्वान करता है कि वे यह सुनिश्चित करें कि बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार तत्काल बंद हों तथा श्री चिन्मय कृष्ण दास को कारावास से मुक्त करें। काशी का हिन्दू समाज भारत सरकार से भी यह आह्वान करता है कि वह बांग्लादेश में हिन्दुओं तथा अन्य सभी अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के प्रयासों को हरसंभव जारी रखे तथा इस के समर्थन में वैश्विक अभिमत बनाने हेतु यथाशीघ्र आवश्यक कदम उठायें।

 उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् एवं अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन की चुप्पी पर प्रश्न करते हुए कहा कि बांग्लादेश में हो रहे अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के सन्दर्भ में अभी तक उपरोक्त सभी ने क्या कार्यवाही की ? यह सम्पूर्ण हिन्दू समाज और भारत वर्ष जानना चाहता है।

दिव्यांगजनों ने की विरोध प्रदर्शन की अगुवाई

बात धर्म पर आयी तो दिव्यांगजन भी पीछे नहीं रहे। ‘‘शांति और सौहार्द चाहिए, जीने का अधिकार चाहिए। कल नहीं कुछ हल बचेगा, आज लड़े तो कल बचेगा।’’ जैसे उद्घोषों से लिखी तख्तियां लेकर अपने ट्राइसाइकल पर उन्होंने रैली की अगुवाई की। विरोध प्रदर्शन में उन्होंने बढ़चढ़कर अपनी सहभागिता दिखायी। प्रदर्शन में उपस्थित दिव्यांगजनों ने कहा कि जिस हिन्दू का खून न खौले, खून नहीं वो पानी है। कहा कि हिन्दू समाज में बहन-बेटियों को देवी का स्वरुप माना गया है। बांग्लादेश में हिन्दू बहन-बेटियों के पर हो रहे अत्याचार एवं हिन्दू के साथ अमानवीय व्यवहार हम बर्दाश्त नहीं करेंगे।

इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ काशी प्रान्त के प्रान्त प्रचारक रमेश कुमार,  वाराणसी के महापौर अशोक तिवारी, डा.राकेश तिवारी, सत्यप्रकाश सिंह, अरविन्द श्रीवास्तव, विद्यासागर राय, बिपिन सिंह, राजेश विश्वकर्मा, नितिन जी, कन्हैया सिंह, एमएलसी धर्मेन्द्र सिंह, एमएलसी हंसराज विश्वकर्मा, पूजा दीक्षित, राघवेन्द्र समेत 102 संगठनों के सक्रिय कार्यकर्ता एवं नागरिक उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संयोजन भारत विकास परिषद के प्रमोद राम त्रिपाठी एवं संचालन नवीन श्रीवास्तव ने किया।

इन संगठनों के लोगों ने निभाई सहभागिता

भारत विकास परिषद, अखिल भारतीय संत समिति, विश्व हिन्दू परिषद्, विश्व संवाद केन्द्र, काशी, बजरंग दल, क्रीड़ा भारती, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत, भाजपा, सेवा भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद्, महिला व्यापार मण्डल, जिला व्यापार मण्डल समेत काशी में संचालित अन्य धार्मिक/सामाजिक/आर्थिक संगठन के लोगों की सहभागिता रही।





Friday, November 15, 2024

काशी का प्रकाशोत्सव है देव दीपावली पर्व

काशी देव दीपावली, अर्थात् देवताओं की दीपावली, कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन भगवान विश्वनाथ की नगरी वाराणसी में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पौराणिक त्यौहार है, जिसे प्रतिवर्ष दिव्य और भव्य रूप में मनाया जाता है। यूँ तो काशी में प्रतिदिन माँ गंगा की भव्य संध्या आरती का आयोजन किया जाता है, परंतु देव दीपावली के दिन की गंगा आरती अपने आप में एक विशेष महत्व रखती है। तो आइए जानते हैं कि देव दीपावली का क्या महत्व है और कैसे इसका नाम देव दीपावली पड़ा?

क्या है देव दीपावली की कथा

सनातन संस्कृति में देव दीपावली की कथा अत्यंत पौराणिक है। कथा के अनुसार एक बार त्रिपुरासुर नाम के एक राक्षस ने स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था, और वह देवताओं पर अत्यंत अत्याचार करने लगा। देवताओं को उसके अत्याचारों से मुक्त होना था परंतु उन्हें मुक्ति का कोई मार्ग दिखाई नहीं दे रहा था। अंत में सभी देवतागण भगवान शिव के पास गए और उनसे त्रिपुरासुर का वध करने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने समस्त देवगणों की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन त्रिपुरासुर का वध किया और देवताओं को उसके आधिपत्य से मुक्त कराया। त्रिपुरासुर के वध के बाद देवताओं ने स्वर्गलोक में दीप जलाकर भगवान शिव का स्वागत किया और खुशी के इस अवसर को देव दीपावली का नाम दिया।

काशी में क्यों मनाते हैं देव दीपावली

जब भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध कर दिया तो देवताओं ने मिलकर उन्हें काशी में त्रिपुरारी के रूप में स्थापित किया और यहाँ भी दीप जलाए, तभी से लेकर आज तक प्रतिवर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन काशी में देव दीपावली हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है। माँ गंगा के किनारे लाखों की संख्या में दीप प्रज्ज्वलित किये जाते हैं, और दीपदान के साथ माँ गंगा की भव्य आरती की जाती है। यह दृश्य न केवल देखने में अत्यंत सुंदर होता हैबल्कि एक धार्मिक और आध्यात्मिक माहौल का भी निर्माण करता है।

देव दीपावली का महत्व

देव दीपावली केवल काशी में ही नहीं बल्कि कई अन्य धार्मिक नगरों में भी मनाई जाती है। इस दिन के अवसर पर भगवान गणेश, माता लक्ष्मी समेत विभिन्न देवी देवताओं की पूजा की जाती है परंतु भगवान शिव की पूजा का विशेष महत्व माना जाता है। इस दिन घरों और मंदिरों में दीप जलाने के साथ-साथ मंत्रोच्चारण भी किया जाता है। यह त्यौहार विशेष रूप से बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है।

गुरु नानक देव जी की शिक्षा में सेवा और समानता का संदेश

- गुरुद्वारों और आसपास के क्षेत्रों को रोशनी और दीपों से सजाया गया

देश भर के साथ उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में गुरु नानक जयंती का पर्व बड़े श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस पावन अवसर पर गुरुद्वारों में प्रभात फेरी का आयोजन किया जाता है, जिसमें श्रद्धालु सुबह-सुबह एकत्र होकर गुरबानी का कीर्तन करते हुए गुरुद्वारों के आस-पास के क्षेत्रों में निकलते हैं। इस दौरान लोग गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का प्रचार करते हुए शबद-कीर्तन में लीन होते हैं।

शबद कीर्तन-

गुरुद्वारों में गुरु नानक देव जी के उपदेशों और उनके शबद कीर्तन का आयोजन किया जाता है। भक्तगण "सतगुरु नानक परगटया" और अन्य पवित्र शबद गाते हैं, जिससे पूरे वातावरण में भक्ति का माहौल बन जाता है। ये शबद कीर्तन सुबह से शाम तक चलते हैं और लोगों को आध्यात्मिकता से जोड़ने का काम करते हैं।

लंगर का आयोजन-

गुरु नानक जयंती के मौके पर गुरुद्वारों में लंगर का आयोजन भी होता है, जिसमें सभी जाति, धर्म और वर्ग के लोग एक साथ भोजन करते हैं। गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में सेवा और समानता का संदेश महत्वपूर्ण है, और लंगर इसी का प्रतीक है। इसमें निःशुल्क भोजन सभी को परोसा जाता है, और सेवादार पूरी श्रद्धा और प्रेम से लोगों की सेवा करते हैं।

शाम को आतिशबाजी का आयोजन-

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कई गुरुद्वारों में शाम को आतिशबाजी का भी आयोजन होता है, जो इस पर्व को और भव्य बना देता है। आतिशबाजी से आसमान रंग-बिरंगे प्रकाश से जगमगाने लगता है, और यह नज़ारा सभी के लिए आकर्षण का केंद्र बनता है। इस दौरान गुरुद्वारों और आसपास के इलाकों को रोशनी और दीयों से सजाया जाता है, जिससे माहौल और भी दिव्य हो जाता है।

इस तरह उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी गुरु नानक जयंती को पूरी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है, और इस पर्व पर सभी को गुरु नानक देव जी के संदेश को आत्मसात करने और मानवता की सेवा करने की प्रेरणा मिलती है।

राष्ट्र चेतना की हुंकार – जनजातीय गौरव दिवस

प्रशांत पोळ

आज बड़ा सुखद संयोग बन रहा है कि गुरु नानक देव जी की ५५५वीं जयंती, प्रकाश पर्व, के दिन ही, राष्ट्रीय जनचेतना के प्रतीक, बिरसा मुंडा जी की १४९वीं जयंती है. हम इसे ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मना रहे हैं. आज से उनका ‘सार्धशती वर्ष’ प्रारंभ हो रहा है.

बिरसा मुंडा अद्भुत व्यक्तित्व हैं. वर्ष १८७५ में जन्मे बिरसा जी को कुल जमा पच्चीस वर्ष का ही छोटा सा जीवन मिला. किन्तु इस अल्पकालीन जीवन में उन्होंने जो कर दिखाया, वह अतुलनीय है. अंग्रेज़ उनके नाम से कांपते थे, थर्राते थे. वनवासी समुदाय, बिरसा मुंडा जी को प्रति ईश्वर मानने लगा.

बिरसा मुंडा जी के पिताजी जागरूक और समझदार थे. बिरसा जी की होशियारी देखकर उन्होंने उनका दाखला, अंग्रेजी पढ़ाने वाली, रांची की, ‘जर्मन मिशनरी स्कूल’ में कर दिया. स्कूल में प्रवेश पाने के लिए ईसाई धर्म अपनाना आवश्यक होता था. इसलिए बिरसा जी को ईसाई बनना पड़ा. उनका नाम बिरसा डेविड रखा गया.

किन्तु, स्कूल में पढ़ने के साथ ही, बिरसा जी को समाज में चल रहे, अंग्रेजों के दमनकारी काम भी दिख रहे थे. अभी सारा देश १८५७ के क्रांति युद्ध से उबर ही रहा था. अंग्रेजों का पाश्विक दमनचक्र सारे देश में चल रहा था. ये सब देखकर बिरसा जी ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी. वे पुनः हिन्दू बने. और अपने वनवासी भाइयों को, इन ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण की कुटिल चालों के विरोध में जागृत करने लगे.

१८९४ में, छोटा नागपुर क्षेत्र में पड़े भीषण अकाल के समय बिरसा मुंडा जी की आयु थी मात्र १९ वर्ष. लेकिन उन्होंने अपने वनवासी भाइयों की अत्यंत समर्पित भाव से सेवा की. इस दौरान अंग्रेजों के शोषण के विरोध में जनमत जागृत करने लगे.

उन्हें, अंग्रेजों द्वारा चलाया धर्मांतरण का कुचक्र दिख रहा था. इसलिए, वनवासियों को हिन्दू बने रहने के लिए, उन्होंने एक अभियान छेड़ा. इसी बीच पुराने, अर्थात् वर्ष १८८२ में पारित कानून के तहत, अंग्रेजों ने झारखंड के वनवासियों की जमीन और उनके जंगल में रहने का हक छीनना प्रारंभ किया.

और इसके विरोध में बिरसा मुंडा जी ने एक अत्यंत प्रभावी आंदोलन चलाया, ‘अबुवा दिशुम – अबुवा राज’ (हमारा देश – हमारा राज). यह अंग्रेजों के विरोध में खुली लड़ाई थी, उलगुलान थी. अंग्रेज़ पराभूत होते रहे, हारते रहे. सन् १८९७ से १९०० के बीच, रांची और आसपास के वनांचल क्षेत्र में अंग्रेजों का शासन उखड़ चुका था. यह सभी अर्थों में एक ऐतिहासिक और अद्भुत घटना थी. १७५७ के प्लासी युद्ध के बाद से, (और सौ वर्षों के पश्चात, १८५७ के क्रांति युद्ध के बाद), यह माना जा रहा था, कि अंग्रेज अजेय हैं. उन्हें कोई नहीं हरा सकता. उनका विरोध करने की कोई हिम्मत भी नहीं कर सकता. किन्तु ‘धरती आबा बिरसा जी’ के नेतृत्व में, भोले-भाले जनजातीय समुदाय ने यह झुठला दिया. अंग्रेजों की सार्वभौम सत्ता को सीधे ललकारा और कुछ दिन नहीं, तो लगभग ३ वर्ष, रांची और आसपास के क्षेत्र से अंग्रेजी शासन – प्रशासन को उखाड़ फेंका. वहां जनजातीय समुदाय का शासन प्रस्थापित किया.

किन्तु जैसा होता आया है, गद्दारी के कारण, ५०० रुपयों की धनराशि के लालच में, उनके अपने ही व्यक्ति ने, उनकी जानकारी अंग्रेजों को दी. जनवरी १९०० में रांची जिले के उलीहातु के पास, डोमबाड़ी पहाड़ी पर, बिरसा मुंडा जब वनवासी साथियों को संबोधित कर रहे थे, तभी अंग्रेजी फौज ने उन्हें घेर लिया. बिरसा मुंडा के साथी और अंग्रेजों के बीच भयानक लड़ाई हुई. अनेक वनवासी भाई – बहन उसमें मारे गए. अंततः ३ फरवरी १९०० को, चक्रधरपुर में बिरसा मुंडा जी गिरफ्तार हुए.

अंग्रेजों ने जेल के अंदर बंद बिरसा मुंडा पर विष प्रयोग किया, जिसके कारण, ९ जून १९०० को रांची की जेल में, वनवासियों के प्यारे, ‘धरती आबा’, बिरसा मुंडा जी ने अंतिम सांस ली.

आज मात्र जनजातीय समुदाय ही नहीं, तो सारा देश, धरती आबा बिरसा मुंडा जी का जन्मदिवस, उनके सार्ध शताब्दी वर्ष के प्रारंभ के रूप में मना रहा है.

जनजातीय समुदाय की, हिन्दू अस्मिता की आवाज को बुलंद करने वाले, उनको धर्मांतरण के दुष्ट चक्र से सावधान करने वाले और राष्ट्र के लिए अपने प्राण देने वाले बिरसा मुंडा जी का स्मरण करना, यानि राष्ट्रीय चेतना के स्वर को बुलंद करना है.

#धरती_आबा_बिरसा    #राष्ट्रीय_जनजाति_गौरव_दिवस 

Saturday, October 12, 2024

प. पू. सरसंघचालक डॉ. श्री मोहन जी भागवत द्वारा विजयादशमी उत्सव (शनिवार 12 अक्तूबर, 2024) के अवसर पर दिये उद्बोधन का सारांश


।।ॐ।।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

प. पू. सरसंघचालक डॉ. श्री मोहन जी भागवत द्वारा

विजयादशमी उत्सव के अवसर पर दिये उद्बोधन का सारांश

(आश्विन शुद्ध दशमी, शनिवार दि. 12 अक्तूबर 2024)

श्री विजयादशमी युगाब्द 5126

 

आज के कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि आदरणीय डॉ. कोपिल्लिल राधाकृष्णन जी, मंच पर उपस्थित विदर्भ प्रांत के मा. संघचालक, मा. सह संघचालक, नागपुर महानगर के मा. संघचालक, अन्य अधिकारी गण, नागरिक सज्जन, माता भगिनी तथा आत्मीय स्वयंसेवक बन्धु ।

श्री विजयादशमी युगाब्द 5126 के पुण्यपर्व पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने कार्य के 100वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है।

पुण्य स्मरण

पिछले वर्ष इसी पर्व पर हमने महारानी दुर्गावती के तेजस्वी जीवन यज्ञ का उनकी जन्मजयंती के 500वें वर्ष के निमित्त स्मरण किया था। इस वर्ष पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होलकर जी की 300वीं जन्मशती का वर्ष मनाया जा रहा है। देवी अहिल्याबाई एक कुशल राज्य प्रशासक, प्रजाहितदक्ष कर्तव्यपरायण शासक, धर्म संस्कृति व देश की अभिमानी, शीलसंपन्नता का उत्तम आदर्श तथा रण - नीति की उत्कृष्ट समझ रखने वाली राज्यकर्ता थी। अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी अद्भुत क्षमता का परिचय देते हुए घर को, राज्य को; स्वयं की अखिल भारतीय दृष्टि के कारण अपनी राज्य सीमा के बाहर भी, तीर्थ क्षेत्रों के जीर्णोद्धार व देवस्थानों के निर्माण द्वारा समाज के सामरस्य को तथा समाज में संस्कृति को उन्होंने जिस तरह सम्भाला वह आज के समय में भी मातृशक्ति सहित हम सब के लिए अनुकरणीय उदाहरण है। साथ ही यह भारत की मातृशक्ति के कर्तृत्व व नेतृत्व की दैदीप्यमान परंपरा का उज्ज्वल प्रतीक भी है।

आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 200वीं जन्म जयन्ती का भी यही वर्ष है। पराधीनता से मुक्त होकर काल के प्रवाह में आचार धर्म व सामाजिक रीति-रिवाजों में आयी विकृतियों को दूर कर, समाज को अपने मूल के शाश्वत मूल्यों पर खड़ा करने का प्रचंड उद्यम उन्होंने किया। भारत वर्ष के नवोत्थान की प्रेरक शक्तियों में उनका नाम प्रमुख है।

रामराज्य सदृश ऐसा वातावरण निर्माण होने के लिए प्रजा की गुणवत्ता व चारित्र्य तथा स्वधर्म पर दृढ़ता जैसी होना अनिवार्य है, वैसा संस्कार व दायित्वबोध सब में उत्पन्न करने वाला "सत्संग" अभियान परमपूज्य श्री श्री अनुकूलचन्द्र ठाकुर के द्वारा प्रवर्तित किया गया था। आज के बांग्लादेश तथा उस समय के उत्तर बंगाल के पाबना में जन्मे श्री श्री अनुकूलचन्द्र ठाकुर जी होमियोपैथी चिकित्सक थे तथा स्वयं की माता जी के द्वारा ही अध्यात्म साधना में दीक्षित थे। व्यक्तिगत समस्याओं को लेकर उनके सम्पर्क में आने वाले लोगों में सहज रूप से चरित्र विकास तथा सेवा भावना के विकास की प्रक्रिया ही 'सत्संग' बनी, जिसे ईस्वी सन् 1925 में धर्मार्थ संस्था के रूप में पंजीकृत किया गया। 2024 से 2025 ‘सत्संग’ के मुख्यालय देवघर (झारखंड) में उस कर्मधारा की भी शताब्दी मनने वाली है। सेवा, संस्कार तथा विकास के अनेक उपक्रमों को लेकर यह अभियान आगे बढ़ रहा है।

आगामी 15 नवम्बर से भगवान बिरसा मुंडा की जन्मजयंती का 150वां वर्ष प्रारंभ होगा। यह सार्धशती हमें, जनजातीय बंधुओं की गुलामी तथा शोषण से, स्वदेश पर विदेशी वर्चस्व से मुक्ति, अस्तित्व व अस्मिता की रक्षा एवं स्वधर्म रक्षा के लिए भगवान बिरसा मुंडा के द्वारा प्रवर्तित उलगुलान की प्रेरणा का स्मरण करा देगी। भगवान बिरसा मुंडा के तेजस्वी जीवनयज्ञ के कारण ही अपने जनजातीय बंधुओं के स्वाभिमान, विकास तथा राष्ट्रीय जीवन में योगदान के लिए एक सुदृढ़ आधार मिल गया है।

व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चारित्र्य

प्रामाणिकता से, नि:स्वार्थ भावना से देश, धर्म, संस्कृति व समाज के हित में जीवन लगा देने वाले ऐसी विभूतियों को हम इसलिए स्मरण करते हैं कि उन्होंने हम सब के हित में कार्य तो किया है ही, अपितु अपने स्वयं के जीवन से हमारे लिए अनुकरणीय जीवन व्यवहार का‌ उत्तम उदाहरण उपस्थित किया है। अलग-अलग कालखंडों में, अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में कार्य करने वाले इन सबके जीवन व्यवहार की कुछ समान बातें थीं। निस्पृहता, निर्वैरता व निर्भयता उनका स्वभाव था। संघर्ष का कर्तव्य जब-जब उपस्थित हुआ, तब-तब पूर्ण शक्ति के साथ, आवश्यक कठोरता बरतते हुए उन्होंने उसे निभाया। परंतु वे कभी भी द्वेष या शत्रुता पालने वाले नहीं बने। उज्ज्वल शीलसंपन्नता उनके जीवन की पहचान थी। इस लिए उनकी उपस्थिति दुर्जनों के लिए धाक‌ व सज्जनों को आश्वस्त करने वाली थी। हम सभी से आज इसी प्रकार के जीवन व्यवहार की अपेक्षा परिस्थिति कर रही है। परिस्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल, व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चारित्र्य की ऐसी दृढ़ता ही मांगल्य व सज्जनता की विजय के लिए शक्ति का आधार बनती है।


देश की आगे कूच (देश के बढ़ते कदम)

आज का युग मानव जाति की द्रुतगति से भौतिक प्रगति का युग है। विज्ञान व तकनीकी के सहारे जीवन को हमने सुविधाओं से परिपूर्ण बनाया है। परन्तु दूसरी ओर हमारे अपने स्वार्थों के कलह हमें विनाश की ओर धकेल रहे हैं। मध्यपूर्व में इस्राएल के साथ हमास का छिड़ा हुआ संघर्ष अब कहां तक फैलेगा यह चिंता सबके सामने उपस्थित है। अपने देश में भी परिस्थितियों में आशा आकांक्षाओं के साथ चुनौतियां व समस्याएं भी विद्यमान हैं। परम्परा से संघ के इस विजयादशमी भाषण में इन दोनों की यथासंभव विस्तृत चर्चा की जाती है। परन्तु आज मैं केवल कुछ चुनौतियों की चर्चा करुंगा। क्योंकि आशा आकांक्षाओं की पूर्ति की ओर जो गति देश ने पकड़ी है, वह जारी रहेगी। यह सभी अनुभव करते हैं कि गत वर्षों में भारत एक राष्ट्र के तौर पर विश्व में सशक्त और प्रतिष्ठित हुआ है। विश्व में उसकी साख बढ़ी है। स्वाभाविक ही कई क्षेत्रों में हमारी परम्परा तथा भावना में अन्तर्निहित विचारों का सम्मान बढ़ा है। हमारी विश्वबंधुत्व की भावना पर्यावरण के प्रति हमारी दृष्टि की स्वीकृति, योग इत्यादि को विश्व नि:संकोच स्वीकार कर रहा है। समाज में विशेषकर युवा पीढ़ी में स्व का गौरव बोध बढ़ते जा रहा है। कई‌ क्षेत्रों में हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहे हैं। जम्मू कश्मीर सहित सब चुनाव भी शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो गए हैं। देश की युवा शक्ति, मातृशक्ति, उद्यमी, किसान, श्रमिक, जवान, प्रशासन, शासन सभी, प्रतिबद्धता पूर्वक अपने अपने कार्य में डटे रहेंगे, यह विश्वास है। गत वर्षों में देशहित की प्रेरणा से इन सबके द्वारा किए गए पुरुषार्थ से ही विश्वपटल पर भारत की छवि, शक्ति, कीर्ति व स्थान निरन्तर उन्नत हो रहा है। परन्तु हम सबके इस कृतनिश्चय की मानो परीक्षा लेने कुछ मायावी षड्यंत्र हमारे सामने उपस्थित हुए हैं, जिन्हें ठीक से समझना आवश्यक है। अपने देश के वर्तमान परिदृश्य पर एक नजर डालते हैं तो ऐसी चुनौतियां स्पष्ट रूप से हमारे सामने दिखाई देती हैं। देश के चारों तरफ के क्षेत्रों को अशांत व अस्थिर करने के प्रयास गति पकड़ते हुए दिखाई देते हैं।

देश विरोधी कुप्रयास

विश्व में भारत के प्रमुखत्व पाने से, जिनके निहित स्वार्थ मार खाते हैं, ऐसी शक्तियां भारत को एक मर्यादा के अंदर ही बढ़ने देना चाहेंगी, यह अपेक्षाकृत ही हो रहा है। अपने आप को उदार, जनतांत्रिक स्वभाव के तथा विश्वशांति के लिए कटिबद्ध बताने वाले देशों की यह कटिबद्धता उनकी सुरक्षा व स्वार्थों का प्रश्न आते ही अंतर्धान हो जाती है। तब दूसरे देशों पर आक्रमण करने में अथवा जनतांत्रिक पद्धति से चुनी गई वहां की सरकारों को अवैध अथवा हिंसक तरीकों से उलट देने से वे चूकते नहीं हैं। भारत के अंदर व बाहर विश्व में जो घटनाक्रम चलता है, उस पर गौर करने से यह बातें सभी समझ सकते हैं। भारत की छवि को मलिन करने का हेतु पुरस्सर प्रयास, असत्य अथवा अर्धसत्य के आधार पर चलता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है।

अभी-अभी बांग्लादेश में जो हिंसक तख्तापलट हुआ, उसके तात्कालिक व स्थानीय कारण उस घटनाक्रम का एक पहलू है। परन्तु तद्देशीय हिन्दू समाज पर अकारण नृशंस अत्याचारों की परंपरा‌ को फिर से दोहराया गया। उन अत्याचारों के विरोध में वहां का हिन्दू समाज इस बार संगठित होकर स्वयं के बचाव में घर के बाहर आया, इसलिए थोड़ा बचाव हुआ। परन्तु यह अत्याचारी कट्टरपंथी स्वभाव जब तक वहां विद्यमान है, तब तक वहां के हिन्दुओं सहित सभी अल्पसंख्यक समुदायों के सिर पर खतरे की तलवार लटकी रहेगी। इसीलिए उस देश से भारत में होने वाली अवैध घुसपैठ व उसके कारण उत्पन्न जनसंख्या असंतुलन देश में सामान्य जनों में भी गंभीर चिंता का विषय बना है। देश में आपसी सद्भाव व देश की सुरक्षा पर भी इस अवैध घुसपैठ के कारण प्रश्न चिन्ह लगते हैं। उदारता, मानवता, तथा सद्भावना के पक्षधर सभी के, विशेष कर भारत सरकार तथा विश्वभर के हिन्दुओं की सहायता की बांग्लादेश में अल्पसंख्यक बने हिन्दू समाज को आवश्यकता रहेगी। असंगठित रहना व दुर्बल रहना यह दुष्टों के द्वारा अत्याचारों को निमंत्रण देना है, यह पाठ भी विश्व भर के हिन्दू समाज को ग्रहण करना चाहिए। परन्तु बात यहां रुकती नहीं। अब वहां भारत से बचने के लिए पाकिस्तान से मिलने की बात हो रही है। ऐसे विमर्श खड़े कर व स्थापित कर कौन से देश भारत पर दबाव बनाना चाहते हैं, इसको बताने की आवश्यकता नहीं है। इसके उपाय यह शासन का विषय है। परंतु समाज के लिए सर्वाधिक चिन्ता की बात यह है कि समाज में विद्यमान भद्रता व संस्कार को नष्ट-भ्रष्ट करने के, विविधता को अलगाव में बदलने के, समस्याओं से पीड़ित समूहों में व्यवस्था के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करने के तथा असन्तोष को अराजकता में रूपांतरित करने के प्रयास बढ़े हैं।

'डीप स्टेट', 'वोकिज़म', 'कल्चरल मार्क्सिस्ट', ऐसे शब्द आजकल चर्चा में हैं। वास्तव में ये सभी सांस्कृतिक परम्पराओं के घोषित शत्रु हैं। सांस्कृतिक मूल्यों, परम्पराओं तथा जहां जहां जो भी भद्र, मंगल माना जाता है, उसका समूल उच्छेद इस समूह की कार्यप्रणाली का ही अंग है। समाज मन बनाने वाले तंत्र व संस्थानों को - उदा. शिक्षा तंत्र व शिक्षा संस्थान, संवाद माध्यम, बौद्धिक संवाद आदि - अपने प्रभाव में लाना, उनके द्वारा समाज का विचार, संस्कार, तथा आस्था को नष्ट करना, यह इस कार्यप्रणाली का प्रथम चरण होता है। एक-साथ रहने वाले समाज में किसी घटक को उसकी कोई वास्तविक या कृत्रिम रीति से उत्पन्न की गई विशिष्टता, मांग, आवश्यकता अथवा समस्या के आधार पर अलगाव के लिए प्रेरित किया जाता है। उनमें अन्यायग्रस्तता की भावना उत्पन्न की जाती है। असंतोष को हवा देकर उस घटक को शेष समाज से अलग, व्यवस्था के विरुद्ध, उग्र बनाया जाता है। समाज में टकराव की सम्भावनाओं को (fault lines) ढूंढ कर प्रत्यक्ष टकराव खड़े किए जाते हैं। व्यवस्था, कानून, शासन, प्रशासन आदि के प्रति अश्रद्धा व द्वेष को उग्र बना कर अराजकता व भय का वातावरण खड़ा किया जाता है। इससे उस देश पर अपना वर्चस्व स्थापित करना सरल हो जाता है।

बहुदलीय प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में सत्ता प्राप्त करने हेतु दलों की स्पर्धा चलती है। अगर समाज में विद्यमान छोटे स्वार्थ, परस्पर सद्भावना अथवा राष्ट्र की एकता व अखंडता से अधिक महत्वपूर्ण हो गए; अथवा दलों की स्पर्धा में समाज की सद्भावना व राष्ट्र का गौरव व एकात्मता गौण माने गए, तो ऐसी दलीय राजनीति में एक पक्ष की सहायता में खड़े होकर पर्यायी राजनीति के नाम पर अपनी उच्छेदक कार्यसूची को आगे बढ़ाना इनकी कार्यपद्धति है। यह कपोल-कल्पित कहानी नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों पर बीती हुई वास्तविकता है। पाश्चात्य जगत के प्रगत देशों में इस मंत्रविप्लव के परिणाम स्वरूप जीवन की स्थिरता, शांति व मांगल्य संकट में पड़ा हुआ प्रत्यक्ष दिखाई देता है। तथाकथित "अरब स्प्रिंग" से लेकर अभी-अभी पड़ोस के बांग्लादेश में जो घटित हुआ, वहां तक इस पद्धति को काम करते हुए हमने देखा है। भारत के चारों ओर के - विशेषतः सीमावर्ती तथा जनजातीय जनसंख्या वाले प्रदेशों में इसी प्रकार के कुप्रयासों को हम देख रहे हैं।

सांस्कृतिक एकात्मता एवं श्रेष्ठ सभ्यता की सुदृढ़ आधारशिला पर अपना राष्ट्र जीवन खड़ा है। अपना सामाजिक जीवन उदात्त जीवन मूल्यों से प्रेरित एवं पोषित है। अपने ऐसे राष्ट्र जीवन को क्षति पहुँचाने के अथवा नष्ट करने के उपरोक्त कुप्रयासों को समय पूर्व ही रोकना आवश्यक है। इस हेतु जागरूक समाज को ही प्रयत्न करना पड़ेगा। इसके लिए अपने संस्कृतिजन्य जीवन दर्शन तथा संविधान प्रदत्त मार्ग से लोकतंत्रीय योजना बनानी चाहिए। एक सशक्त विमर्श खड़ा करते हुए, वैचारिक एवं सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने वाले इन षड्यंत्रों से समाज को सुरक्षित रखना समय की आवश्यकता है।

संस्कार क्षरण के दुष्परिणाम

विभिन्न तंत्रों तथा संस्थानों के द्वारा कराए गए विकृत प्रचार व कुसंस्कार भारत में, विशेषतः नयी पीढ़ी के मन- वचन-कर्मों को बहुत बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। बड़ों के साथ बच्चों के हाथों में भी चल दूरभाष पहुंच गया है, वहां क्या दिखा रहे हैं और बच्चे क्या देख रहे हैं, इस पर नियंत्रण नहीं के बराबर है। उस सामग्री का उल्लेख करना भी भद्रता का उल्लंघन होगा, इतनी वह वीभत्स है। अपने-अपने घर - परिवारों में हमारे तथा समाज में विज्ञापनों तथा विकृत दृक्श्राव्य सामग्री पर कानून के नियंत्रण की त्वरित आवश्यकता प्रतीत होती है। युवा पीढ़ी में जंगल में आग की तरह फैलने वाली नशीले पदार्थों की आदत भी समाज को अंदर से खोखला कर रही है। अच्छाई की ओर ले जाने वाले संस्कार पुनर्जीवित करने होंगे।

संस्कार क्षय का ही यह परिणाम है कि "मातृवत् परदारेषु" के आचरण की मान्यता वाले हमारे देश में बलात्कार जैसी घटनाओं का मातृशक्ति को कई जगह सामना करना पड़ रहा है। कोलकाता के आर.जी. कर अस्पताल में घटी घटना सारे समाज को कलंकित करने वाली लज्जाजनक घटनाओं में एक है। उसके निषेध तथा त्वरित व संवेदनशील कार्यवाही की मांग को लेकर चिकित्सक बंधुओं के साथ सारा समाज तो खड़ा हुआ। परन्तु ऐसा जघन्य पाप घटने पर भी, कुछ लोगों के द्वारा जिस प्रकार अपराधियों को संरक्षण देने के घृणास्पद प्रयास हुए, यह सब अपराध, राजनीति तथा अपसंस्कृति का गठबंधन हमें किस तरह बिगाड़ रहा है, यह दिखाता है।

महिलाओं की ओर देखने की हमारी दृष्टि - “मातृवत् परदारेषु” - हमारी सांस्कृतिक देन है जो हमें हमारी संस्कार परम्परा से प्राप्त होती है। परिवारों में, तथा समाज जिन से मनोरंजन के साथ ही जाने-अनजाने प्रबोधन भी प्राप्त कर रहा है, उन माध्यमों में इस का‌ भान न रहना, इन मूल्यों की उपेक्षा या तिरस्कार होना बहुत महंगा पड़ रहा है। हमें परिवार, समाज तथा संवाद माध्यमों के द्वारा इन सांस्कृतिक मूल्यों के प्रबोधन की व्यवस्था को फिर से जागृत करना होगा।

शक्ति का महत्व

आज भारत में सर्वत्र संस्कारों के क्षरण व विभेदकारी तत्वों के समाज को तोड़ने के खेलों की परिस्थिति दिखाई देती है। सामान्य समाज को जाति, भाषा, प्रान्त आदि छोटी विशेषताओं के आधार पर अलग कर टकराव उत्पन्न करने का प्रयास चला है। छोटे स्वार्थ व छोटी पहचानों में उलझकर सर पर मंडराते सबको खाने वाले संकट को बहुत देर होते तक समाज समझ न सके, यह व्यवस्था की जा रही है। इसके चलते आज देश की वायव्य सीमा से लगे पंजाब, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख; समुद्री सीमा पर स्थित केरल, तमिलनाडु; तथा बिहार से मणिपुर तक का सम्पूर्ण पूर्वांचल अस्वस्थ है। इस भाषण में पूर्व में उल्लेखित सारी परिस्थिति इन सब प्रदेशों में भी उपस्थित है।

देश में बिना कारण कट्टरपन को उकसाने वाली घटनाओं में भी अचानक वृद्धि हुई दिख रही है। परिस्थिति या नीतियों को लेकर मन में असंतुष्टि हो सकती है, परन्तु उसको व्यक्त करने के और उनका विरोध करने के प्रजातांत्रिक मार्ग होते हैं। उनका अवलंबन न करते हुए हिंसा पर उतर आना, समाज के एकाध विशिष्ट वर्ग पर आक्रमण करना, बिना कारण हिंसा पर उतारू होना, भय पैदा करने का प्रयास करना, यह तो गुंडागर्दी है। इसको उकसाने के प्रयास होते हैं अथवा योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है, ऐसे आचरण को पूज्य डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर जी ने अराजकता का व्याकरण (‘Grammar of Anarchy’) कहा है।

अभी बीत गए गणेशोत्सवों के समय श्री गणपति विसर्जन की शोभायात्राओं पर अकारण पथराव की तथा तदोपरान्त बनी तनावपूर्ण परिस्थिति की घटनाएं उसी व्याकरण का उदाहरण हैं। ऐसी घटनाओं को होने नहीं देना, वो होती हैं तो तुरंत नियंत्रित करना, उपद्रवियों को त्वरित दण्डित करना, यह प्रशासन का काम है। परन्तु उनके पहुँचने तक तो समाज को ही अपने तथा अपनों के प्राणों की व सम्पत्ति की रक्षा करनी पड़ती है। इसलिए समाज में भी सदैव पूर्ण सतर्क व सन्नद्ध रहने की तथा इन कुप्रवृत्तियों को, उन्हें प्रश्रय देने वालों को पहचानने की आवश्यकता उत्पन्न हो गयी है।

परिस्थिति का उपरोक्त वर्णन यह डरने, डराने या लड़ाने के लिए नहीं है। ऐसी परिस्थिति विद्यमान है, यह हम सब अनुभव कर रहे हैं। साथ में इस देश को एकात्म, सुख शान्तिमय, समृद्ध व बल संपन्न बनाना यह सबकी इच्छा है, सबका कर्तव्य भी है। इसमें हिन्दू समाज की जिम्मेवारी अधिक है। इसलिए समाज की एक विशिष्ठ प्रकार की स्थिति, सजगता तथा एक विशिष्ट दिशा में मिलकर प्रयासों की आवश्यकता है। समाज स्वयं जगता है, अपने भाग्य को अपने पुरुषार्थ से लिखता है तब महापुरुष, संगठन, संस्थाएं, प्रशासन, शासन आदि सब सहायक होते हैं। शरीर की स्वस्थ अवस्था में क्षरण पहले आता है, बाद में रोग उसको घेरते हैं। दुर्बलों की परवाह देव भी नहीं करते, ऐसा एक सुभाषित प्रसिद्ध है।

अश्वं नैव गजं नैव, व्याघ्रं नैव च नैव च।

अजापुत्रं बलिं दद्यात्, देवो दुर्बल घातक:।।

इसीलिए शताब्दी वर्ष के पूरे होने के पश्चात समाज में कुछ विषय लेकर सभी सज्जनों को सक्रिय करने का विचार संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं।

समरसता व सद्भावना

समाज की स्वस्थ व सबल स्थिति की पहली शर्त है सामाजिक समरसता तथा समाज के विभिन्न वर्गों में परस्पर सद्भाव। कुछ संकेतात्मक कार्यक्रम मात्र करने से यह कार्य संपन्न नहीं होता है। समाज के सभी वर्गों व स्तरों में व्यक्ति की व कुटुम्बों की मित्रता होनी चाहिए। यह पहल हम सभी को व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर से करनी होगी। परस्परों के पर्व प्रसंगों में सभी की सहभागिता होकर वे पूरे समाज के पर्व प्रसंग बनने चाहिए। सार्वजनिक उपयोग व श्रद्धा के स्थल यथा मंदिर, पानी, श्मशान आदि में समाज के सभी वर्गों को सहभागी होने का वातावरण चाहिए। परिस्थिति के कारण समाज के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताएं सभी वर्गों को समझ में आनी चाहिए। जैसे कुटुंब में समर्थ घटक दुर्बल घटकों के लिए अधिक प्रावधान, कभी कभी अपना नुकसान सहन करके भी करते हैं, वैसे अपनेपन की दृष्टि रखकर ऐसी आवश्यकताओं का विचार होना चाहिए।

समाज में अनेक जाति वर्गों का संचालन करने वाली उनकी अपनी-अपनी रचनाएँ, संस्थाएं भी हैं। अपने अपने जाति वर्ग की उन्नति का, सुधार का तथा उनके हित प्रबोधन का विचार इन रचनाओं के नेतृत्व के द्वारा किया जाता है। जाति बिरादरी के नेतृत्व करने वाले लोग मिल बैठ कर और दो विषयों का विचार नित्य करेंगे तो समाज में सर्वत्र सद्भावनापूर्ण व्यवहार का वातावरण बनेगा। समाज को बांटने का कोई कुचक्र सफल हो नहीं सकेगा। पहला विषय है कि हम सब अलग अलग जाति वर्ग मिलकर देश हित की, अपने कार्यक्षेत्र के सम्पूर्ण समाज के हित की कौन-कौन सी बातें करा सकते हैं, योजना बनाकर उनको परिणाम तक ले जा सकते हैं। ऐसे ही दूसरा विषय है कि हम सब मिलकर, हममें जो दुर्बल जाति अथवा वर्ग है, उनके हित साधन के लिए क्या कर सकते हैं? नियमित क्रम से ऐसा विचार एवं कृति होती रही तो समाज स्वस्थ भी बनेगा व सद्भाव का वातावरण भी बनेगा।

पर्यावरण

चारों ओर के वातावरण में एक विश्वव्यापी समस्या, जिसका अनुभव हाल के वर्षों में अपने देश में भी हो रहा है, वह है पर्यावरण की दु:स्थिति। ऋतुचक्र अनियमित व उग्र बन गया है। उपभोगवादी तथा जड़वादी अधूरे वैचारिक आधार पर चली मानव की तथाकथित विकास यात्रा मानवों सहित सम्पूर्ण सृष्टि की विनाश यात्रा लगभग बन गयी है। अपने भारतवर्ष की परम्परा से प्राप्त सम्पूर्ण, समग्र व एकात्म दृष्टि के आधार पर हमने अपने विकास पथ को बनाना चाहिए था, परन्तु हमने ऐसा नहीं किया। अभी इस प्रकार का विचार थोड़ा थोड़ा सुनाई दे रहा है, परन्तु ऊपरी तौर पर कुछ बातें स्वीकार हुईं हैं, कुछ बातों का परिवर्तन हुआ है। इससे अधिक काम नहीं हुआ है। विकास के बहाने विनाश की ओर ले जाने वाले अधूरे विकास पथ के अन्धानुसरण के परिणाम हम भी भुगत रहे हैं। गर्मी की ऋतु झुलसा देती है, वर्षा बहा कर ले जाती है और शीत ऋतु जीवन को जड़वत् जमा देती है। ऋतुओं की यह विक्षिप्त तीव्रता हम अनुभव कर रहे हैं। जंगल काटने से हरियाली नष्ट हो गयी, नदियाँ सूख गयीं, रसायनों ने हमारे अन्न, जल, वायु व धरती तक को विषाक्त कर दिया, पर्वत ढहने लगे, भूमि फटने लगी, यह सारे अनुभव पिछले कुछ वर्षों में देश भर में हम अनुभव कर रहे हैं। अपने वैचारिक आधार पर, इस सारे नुकसान को पूरा कर हमको धारणाक्षम, समग्र व एकात्म विकास देने वाला हमारा पथ हम निर्माण करें, इसका कोई पर्याय नहीं है। सम्पूर्ण देश में इसकी समान वैचारिक भूमिका बने व देश की विविधता को ध्यान में रखते हुए क्रियान्वयन का विकेन्द्रित विचार हो, तब यह संभव है। परन्तु हम सामान्य लोग अपने घर से तीन छोटी छोटी सरल बातों का आचरण करते हुए प्रारम्भ कर सकते हैं। पहली बात है - जल का न्यूनतम आवश्यक उपयोग तथा वर्षा जल का संधारण। दूसरी बात है - प्लास्टिक वस्तुओं का उपयोग नहीं करना। जिसको अंग्रेजी में single use plastic कहते हैं, उसका उपयोग पूर्णत: वर्जित करना। तीसरी बात अपने घर से लेकर बाहर भी हरियाली बढ़े, वृक्ष लगें, अपने जंगलों के और परम्परा से लगाए जाने वाले वृक्ष सर्वत्र खड़े हों, इसकी चिंता करना। पर्यावरण के सम्बन्ध में नीतिगत प्रश्नों का समाधान होने के लिए समय लगेगा, परन्तु यह सहज कृति अपने घर से हम त्वरित प्रारम्भ कर सकते हैं।

संस्कार जागरण

जहां तक संस्कारों के क्षरण का प्रश्न है, तीन स्थानों पर - जहां से संस्कार मिलते हैं, - संस्कार प्रदान की व्यवस्था को पुनर्स्थापित व समर्थ, सक्षम करना पड़ेगा। शिक्षा पद्धति पेट भरने की शिक्षा देने के साथ साथ छात्रों के व्यक्तित्व विकास का भी काम करती है। अपने देश के सांस्कृतिक मूल्य सारांश में बताने वाला एक सुभाषित है –

मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् ।

आत्मवत् सर्व भूतेषु य: पश्यति स: पंडित: ।।

महिलाओं को माता समान देखने की दृष्टि, पराया धन मिट्टी समान मानते हुए स्वयं के परिश्रम से व सन्मार्ग से ही धनार्जन करना और दूसरों को दु:ख कष्ट हो ऐसे आचरण, कार्य नहीं करना, यह जिसका व्यवहार है उसको अपने यहाँ शिक्षित मानते हैं। नई शिक्षा नीति में इस प्रकार के मूल्य शिक्षा की व्यवस्था व तदनुरूप पाठ्यक्रम का प्रयास चला है। परन्तु प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक शिक्षकों के उदाहरण छात्रों के सामने उपस्थित हुए बिना यह शिक्षा प्रभावी नहीं होगी। इसलिए शिक्षकों के प्रशिक्षण की नई व्यवस्था निर्माण करनी पड़ेगी। दूसरा स्थान है - समाज का वातावरण। समाज के जो प्रमुख लोग हैं, जिनकी लोकप्रियता के कारण अनेक लोग उनका अनुकरण करते हैं, उनके आचरण में ये सारी बातें दिखनी चाहिए। इन बातों का मंडन भी उन प्रमुख लोगों को करना चाहिए और उनके प्रभाव से समाज में चलने वाले विभिन्न प्रबोधन कार्यों से यह मूल्य प्रबोधन किया जाना चाहिए। समाज संवाद माध्यमों का (social media) उपयोग करने वाले सभी सज्जनों को माध्यमों का उपयोग समाज को जोड़ने के लिए है, तोड़ने के लिए न हो, सुसंस्कृत करने के लिए है, अपसंस्कृति फैलाने के लिए नहीं, इस बात की सावधानी बरतनी होगी।

परन्तु शिक्षा का मूलारम्भ व उसके कारण बनने वाली स्वभाव प्रवृत्ति, 3 से 12 साल तक की आयु में घर में ही बनती है। घर के बड़ों का व्यवहार, घर का वातावरण और घर में होने वाला आत्मीयता युक्त संवाद इनसे यह शिक्षा संपन्न होती है। हममें से प्रत्येक को अपने घर की चिंता करते हुए, अगर सहज यह संवाद नहीं है तो साप्ताहिक आयोजन से, इस संवाद का प्रारम्भ करना पड़ेगा। स्व गौरव, देश प्रेम, नीतिमत्ता, श्रेयबोध, कर्तव्यबोध आदि कई गुणों का निर्माण इसी कालावधि में होता है। यह समझकर हमको इस कार्य को स्वयं के घर से प्रारम्भ करना पड़ेगा।

नागरिक अनुशासन

संस्कारों की अभिव्यक्ति का दूसरा पहलू है, हमारा सामाजिक व्यवहार। समाज में हम एक साथ रहते हैं। साथ में सुखपूर्वक रह सकें इसलिए कुछ नियम बने होते हैं। देश काल परिस्थितिनुसार उनमें परिवर्तन भी होते रहता है। परन्तु हम सुखपूर्वक एकत्र रह सकें इसलिए उन नियमों के श्रद्धापूर्वक पालन की अनिवार्यता रहती है। एकत्र रहते हैं तो हमारे परस्परों के प्रति व्यवहार के भी कुछ कर्तव्य और उनके अनुशासन बन जाते हैं। कानून व संविधान भी ऐसा ही, एक सामाजिक अनुशासन है। समाज में सब लोग सुखपूर्वक, एकत्र रहें, उन्नति करते रहें, बिखरें नहीं, इसलिए बना हुआ अधिष्ठान व नियम है। हम भारत के लोगों ने अपने आप को यह संविधान से प्रतिबद्धता दी है। संविधान की प्रस्तावना के इस वाक्य के इस भाव को ध्यान में रखकर संविधान प्रदत्त कर्तव्यों का और कानून का योग्य निर्वहन सभी को करना होता है। छोटी बड़ी सभी बातों में इस नियम व्यवस्था का पालन हमें करना चाहिए। रहदारी के नियम होते हैं, विभिन्न प्रकार के कर समय पर भरने पड़ते हैं, स्वयं के व्यक्तिगत तथा सामाजिक अर्थायाम की शुद्धता व पारदर्शिता का अनुशासन भी होता है। ऐसे अनेक प्रकार के नियमों का कर्त्तव्य बुद्धि से पूर्ण निर्वहन होना चाहिए। नियम व व्यवस्था का पालन शब्दशः व भाव ध्यान में रखते हुए, (in letter and spirit) दोनों प्रकार से करना चाहिए। यह ठीक प्रकार से हो सके इसलिए विशेष कर अपने संविधान के चार प्रकरणों की जानकारी, यथा - संविधान की प्रस्तावना, मार्गदर्शक तत्व, नागरिक कर्तव्य व नागरिक अधिकार - का प्रबोधन सर्वत्र होते रहना चाहिए। परिवार से प्राप्त पारस्परिक व्यवहार का अनुशासन, परस्पर व्यवहार में मांगल्य, सद्भावना और भद्रता तथा सामाजिक व्यवहार में देशभक्ति व समाज के प्रति आत्मीयता के साथ कानून संविधान का निर्दोष पालन इन सबको मिलाकर व्यक्ति का व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चारित्र्य बनता है। देश की सुरक्षा, एकात्मता, अखण्डता व विकास साधने के लिए चारित्र्य के इन दो पहलुओं का त्रुटिविहीन व सम्पूर्ण होना अत्यंत महत्वपूर्ण बात है। हम सभी को व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चारित्र्य की इस साधना में सजगता व सातत्य के साथ लगे रहना पड़ेगा।

स्व गौरव

इन सारी बातों का आचरण सतत होता रहे इसलिए जो प्रेरणा आवश्यक है, वह ‘स्व गौरव’ की प्रेरणा है। हम कौन हैं? हमारी परम्परा और हमारा गंतव्य क्या है? भारतवासियों के नाते हमारी सब विविधताओं के बावजूद हमें जो एक बड़ी, सर्व समावेशक, प्राचीन काल से चलती आयी हुई मानवीय पहचान मिली है, उसका स्पष्ट स्वरूप क्या है? इन सब बातों का ज्ञान होना, सबके लिए आवश्यक है। उस पहचान के उज्ज्वल गुणों को धारण करके, उसका गौरव मन और बुद्धि में स्थापित होता है, तो उसके आधार पर स्वाभिमान प्राप्त होता है। स्व-गौरव की प्रेरणा का बल ही जगत में हमारी उन्नति व स्वावलंबन का कारण बनने वाला व्यवहार उत्पन्न करता है। उसी को हम स्वदेशी का आचरण कहते हैं। राष्ट्रीय नीति में उसकी अभिव्यक्ति बहुत बड़ी मात्रा में, समाज में दैनंदिन जीवन में व्यक्तियों द्वारा होने वाले स्वदेशी व्यवहार पर निर्भर करती है। इसी को स्वदेशी का आचरण कहते हैं। जो घर में बनता है वो बाहर से नहीं लाना, देश का रोजगार चले, बढ़े इतना अपने देश में घर के बाहर से लाना। जो देश में बनता है वो बाहर से नहीं लाना। जो देश में बनता नहीं, उसके बिना काम चलाना। कोई जीवनावश्यक वस्तु है, जिसके बिना काम चलता नहीं वही केवल विदेश से लेना। घर के अन्दर भाषा, भूषा, भजन, भवन, भ्रमण और भोजन ये अपना हो, अपनी परम्परा का हो यह ध्यान रखना, यह सारांश में स्वदेशी व्यवहार है। सब क्षेत्रों में देश के स्वावलंबी बनने से स्वदेशी व्यवहार करना सरल होता है। इसलिए स्वतन्त्र देश की नीति में देश के स्वावलंबी बनने का परिणाम साध सकने वाली नीति जुड़नी चाहिए, साथ ही समाज ने प्रयत्न पूर्वक स्वदेशी व्यवहार को जीवन तथा स्वभाव का अंग बनाना चाहिए।

मन - वचन - कर्म का विवेक

राष्ट्रीय चारित्र्य के व्यवहार का एक और महत्वपूर्ण पहलू है, किसी भी प्रकार की अतिवादिता तथा अवैध पद्धति से अपने आप को दूर रखना। अपना देश विविधताओं से भरा हुआ देश है। उनको हम भेद नहीं मानते, न ही मानना चाहिए। हमारी विविधताएं सृष्टि की स्वाभाविक विशिष्टताएं है। इतने प्राचीन इतिहास वाले, विस्तीर्ण क्षेत्रफल वाले तथा विशाल जनसंख्या वाले देश में यह सभी विशिष्टताएं स्वाभाविक हैं। अपनी-अपनी विशिष्टता का गौरव तथा उनके प्रति अपनी-अपनी संवेदनशीलता भी स्वाभाविक है। इस विविधता के चलते समाज जीवन में व देश के संचालन में होने वाली सब बातें सदा सर्वदा सबके अनुकूल अथवा सबको प्रसन्न करने वाली होंगी ही, ऐसा नहीं होता। ये सारी बातें किसी एक समाज के द्वारा होती हैं, ऐसा नहीं है। इनकी प्रतिक्रिया में कानून और व्यवस्था को धत्ता बता कर अवैध या हिंसात्मक मार्ग से उपद्रव खड़े करना, समाज के किसी एक सम्पूर्ण वर्ग को उनका जिम्मेवार मानना, मन-वचन और कर्म से मर्यादा का उल्लंघन करते हुए चलना, यह देश के लिए - देश में किसी के लिए - न विहित है, न हितकारी। सहिष्णुता व सद्भावना भारत की परंपरा है। असहिष्णुता व दुर्भावना भारत विरोधी व मानव विरोधी दुर्गुण है। इसलिए क्षोभ कितना भी हो, ऐसे असंयम से बचना चाहिए तथा अपने लोगों को बचाना चाहिए। अपने मन, वाणी अथवा कृति से किसी की श्रद्धा का, श्रद्धास्पद स्थान, महापुरुष, ग्रंथ, अवतार, संत आदि का अपमान न हो, इस का ध्यान स्वयं के व्यवहार में रखना चाहिए। दुर्भाग्यवश अन्य किसी से ऐसा कुछ होने पर भी स्वयं पर नियंत्रण रखकर ही चलना चाहिए। सब बातों के परे, सब बातों के ऊपर महत्त्व समाज की एकात्मता, सद्भाव व सद्व्यवहार का है। यह किसी भी काल में, किसी भी राष्ट्र के लिए परम सत्य है, तथा मनुष्यों के सुखी अस्तित्व तथा सहजीवन का एकमात्र उपाय है।

संहत शक्ति तथा शुद्ध शील ही शान्ति व उन्नति का आधार

परन्तु, जैसे आधुनिक जगत की रीति है, सत्य को सत्य के अपने मूल्य पर जगत स्वीकार नहीं करता। जगत शक्ति को स्वीकार करता है। भारत वर्ष बड़ा होने से दुनिया में अंतरराष्ट्रीय व्यवहार में सद्भावना व संतुलन उत्पन्न होकर शान्ति और बंधुता की ओर विश्व बढ़ेगा, यह विश्व में सब राष्ट्र जानते हैं। फिर भी अपने संकुचित स्वार्थ और अहंकार या द्वेष को लेकर भारत वर्ष को एक मर्यादा में बांधकर रखने की शक्तिशाली देशों की चेष्टा को हम सब अनुभव करते हैं। भारत वर्ष की शक्ति जितनी बढ़ेगी उतनी ही भारत वर्ष की स्वीकार्यता रहेगी।

बलहीनों को नहीं पूछता, बलवानों को विश्व पूजता’

यह आज के जगत की रीति है। इसलिए उपरोक्त सद्भाव व संयमपूर्ण वातावरण की स्थापना के लिए सज्जनों को शक्ति संपन्न होना ही पड़ेगा। शक्ति जब शीलसंपन्न होकर आती है, तब वह शान्ति का आधार बनाती है। दुर्जन स्वार्थ के लिए एकत्र रहते हैं और सजग रहते हैं। उनका नियंत्रण सशक्त ही कर सकते हैं। सज्जन सबके प्रति सद्भाव रखते हैं, परन्तु एकत्र होना नहीं जानते। इसीलिए दुर्बल दिखाई देते हैं। उनको यह संगठित सामर्थ्य के निर्माण की कला सीखनी पड़ेगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दू समाज की इसी शीलसंपन्न शक्ति साधना का नाम है। इस भाषण में इसके पूर्व वर्णित सद्व्यवहार के पांच बिंदु लेकर समाज में सज्जनों को जोड़ने का विचार संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं। भारत को बढ़ने देना न चाहने वाले, अपने स्वार्थ के लिए ऐसे भारत विरोधियों के साथ आने वाले तथा स्वभाव से जो बैर और द्वेष में ही आनंद मानते हैं, ऐसी शक्तियों से सुरक्षित रहकर देश को आगे बढ़ना है। इसलिए शील संपन्न व्यवहार के साथ शक्ति साधना भी महत्त्वपूर्ण है। इसलिए संघ की प्रार्थना में, कोई परास्त न कर सके ऐसी शक्ति और विश्व विनम्र हो ऐसा शील भगवान से मांगा गया है। विश्व के, मानवता के कल्याण का कोई काम अनुकूल परिस्थिति में भी इन दो गुणों के बिना संपन्न नहीं होता। नौ अहोरात्रि जागरण करते हुए सभी देवताओं ने अपनी अपनी शक्तियों को एक में संगठित किया, तब उस शील संपन्न संहत शक्ति से चिन्मयी जगदम्बा जागी, दुष्टों का निर्दलन हुआ, सज्जनों का परित्राण हुआ, विश्व का कल्याण हुआ। इसी विश्व मंगल साधना में मौन पुजारी के नाते संघ लगा है। हम सबको यही साधना अपनी पवित्र मातृभूमि को परमवैभवसंपन्न बनाने की शक्ति व सफलता प्रदान करेगी। इसी साधना से विश्व के सभी राष्ट्र अपना- अपना उत्कर्ष साधकर नए, सुख- शान्ति व सद्भावना युक्त विश्व को बनाने में अपना योगदान प्रदान करेंगे। उस साधना में आप सभी सादर निमंत्रित है।

हिन्दू भूमि का कण कण हो अब, शक्ति का अवतार उठे,

जल थल से अम्बर से फिर, हिन्दू की जय जय कार उठे

जग जननी का जयकार उठे 

|| भारत माता की जय ||