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Monday, November 30, 2020

कार्तिक पूर्णिमा पर विशेष : 15 लाख दीपों से जगमगायेंगे काशी के घाट, सजकर हुए तैयार

 काशी/ कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर काशी में मनायी जाने वाली देव दीपावली का दृश्य इस बार कुछ अद्भुत दिखाई देगा. अर्धचंद्राकार में स्थित काशी के 84 घाटों पर एक साथ 15 लाख दीपक जगमगायेंगे. काशी का कुम्भ के नाम से जाना जाने वाला देव दीपावली का यह महापर्व कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव लोक की अनुभूति कराता है. 

ज्योतिषाचार्य एवं विद्वानों के अनुसार इस बार देव दीपावली पर सर्वार्थसिद्धि एवं वर्धमान योग का शुभ संयोग बन रहा है. विश्व प्रसिद्द काशी की इस देव दीपावली का विहंगम दृश्य देखने के लिए हर बार लाखों लोगों की भीड़ होती है. इस बार देव दीपावली की अलौकिक छंटा को न सिर्फ काशीवासी ही निहारेंगे बल्कि देश के साथ-साथ विदेश के लोग भी घर बैठे इस उत्सव का आनंद ले सकेंगे. इस महापर्व का 135 देशों में सीधा प्रसारण किया जाएगा.  

मान्यता : दीपदान से प्रसन्न होती हैं मां लक्ष्मी

ऐसी मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन दीपदान करने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं. कार्तिक मास में भगवान् विष्णु और मां लक्ष्मी के पूजन से घर में व्याप्त दरिद्रता का नाश होता है. 

पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न – अहमदिया समुदाय पर लंबे समय से अत्याचार जारी

पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का सिलसिला लंबे समय से जारी है. और अहमदिया समुदाय भी कट्टरपंथियों के अत्याचारों का शिकार है. पाकिस्तान में धार्मिक भेदभाव के नाम पर समुदाय को सताया जाता है. इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पहले एक प्रोफेसरएक कारोबारी, एक फार्मासिस्ट, 82 वर्षीय एक वृद्धएक अमेरिकी नागरिक और कुछ दिन पहले 31 वर्षीय एक डॉक्टर की हत्या कर दी गई. यह सूची बहुत लंबी है. ननकाना साहिब के मुर्ह बलुचान क्षेत्र में डॉ. ताहिर महमूद और उसके स्वजनों पर एक किशोर ने जुमे की नमाज के समय गोलियां बरसा दीं. पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय पर बर्बर हमले आम बात है.

पिछले सप्ताह पेशावर के एक बाजार में एक अहमदी की दुकान को निशाना बनाया गया. इसी तरह ईशनिंदा के आरोपित एक अमेरिकी नागरिक की पेशावर की अदालत के कक्ष में हत्या कर दी गई. अगस्त में भी शहर में 61 वर्षीय अहमदी मुसलमान मीराज अहमद की मेडिकल स्टोर के पास हत्या कर दी गई. जबकि वह और उसका भाई पुलिस में लगातार शिकायत करता रहा कि उनके खिलाफ नफरत का ऑनलाइन अभियान चलाया जा रहा है.

पिछले माह पेशावर में एक सरकारी कॉलेज के प्राणीशास्त्र के प्रोफेसर नईमुद्दीन खट्टक की अंतरराष्ट्रीय शिक्षक दिवस के दिन हत्या कर दी गई. इसी महीने 82 वर्षीय महबूब अहमद खान की भी हत्या कर दी गईजो अपनी बेटी के यहां गए थे. ये सभी हत्याएं पीड़ितों की धार्मिक आस्था के कारण हुई हैं.

उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान में अहमदियों की जनसंख्या महज 0.22 फीसद है और इन्हें 1974 में इस वजह से गैर-मुसलमान घोषित कर दिया गया था कि वे अपने पंथ के संस्थापक मिर्जा गुलाम अहमद (1836-1906) को पैगंबर मानते हैं. पाकिस्तान में दशकों से सताए जा रहे अहमदी अब नेपाल जैसे देशों में पलायन कर रहे हैं.

श्रोत- विश्व संवाद केन्द्र, भारत

Saturday, November 28, 2020

समस्त बाधाओं को पार कर आगे बढ़ता आयुर्वेद

 डॉ. नितिन अग्रवाल

अक्तूबर माह के प्रथम सप्ताह में भारत सरकार ने कोरोना पीड़ितों के इलाज के लिए आयुर्वेदिक पद्धति को भी शामिल करने की अनुमति प्रदान कर दी थी. इससे संबंधित कुछ दिशा निर्देश भी जारी किए थे. केंद्र सरकार की ओर से यह अनुमति ऐसे ही नहीं मिली. महामारी के उपचार में आयुर्वेदिक दवाइयों ने शानदार परिणाम दिया है. हजारों कोरोना मरीज केवल और केवल आयुर्वेदिक दवा और योग के कारण ठीक हुए हैं.

उदाहरण के लिए नई दिल्ली के सरिता विहार स्थित अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान में पिछले कई महीने से कोरोना पीड़ित मरीजों का इलाज हो रहा है. संस्थान के डीन (पीएचडी) डॉ. महेश व्यास के अनुसार, ‘‘संस्थान के एक हिस्से में कोरोना हेल्थ सेंटर शुरू किया गया है. इसमें 45 शैय्या हैं. सभी भरी रहती हैं. अब तक यहां जो भी कोरोना पीड़ित आए हैं, वे सभी ठीक होकर घर लौटे हैं. इनमें एक साल के बच्चे से लेकर 70 साल तक के मरीज थे. कुछ गर्भवती महिलाएं भी थीं. इन सभी को आयुर्वेदिक दवा दी गई.’’

उन्होंने बताया, ‘‘संस्थान में कोरोना जांच की सभी सुविधाएं हैं. आईसीयू भी है, लेकिन कभी किसी मरीज को आईसीयू में भर्ती करने की जरूरत नहीं पड़ी. हां, भर्ती होते समय जिन मरीजों को ऑक्सीजन की जरूरत थी, उन्हें कुछ दिनों तक ऑक्सीजन दी गई. साथ ही दवाइयां दी गर्इं. इन दवाइयों से जैसे ही मरीज की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ी, वह ठीक होता गया और सकुशल घर लौट गया.’’

देश में जितने भी आयुर्वेदिक संस्थान हैं, उन सभी का ऐसा ही अनुभव रहा है. इन परिणामों को देखते हुए ही भारत सरकार ने दिशा-निर्देश दिए होंगे. लेकिन इसे लेकर एलोपैथिक चिकित्सकों में एक अजीब प्रतिक्रिया देखी गई. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन को एक पत्र लिखकर सरकार के कदम का विरोध किया. आईएमए ने व्यंग्यात्मक लहजे में सरकार से पूछा, ‘‘आयुर्वेदिक दवाइयों से कोरोना मरीज ठीक हुए, इसके क्या प्रमाण हैं? कितने कोरोना पीड़ित मंत्रियों ने आयुर्वेदिक इलाज कराया?’’

सवाल यह कि जो आईएमए आयुर्वेदिक दवाइयों से ठीक होने वाले मरीजों के बारे में सुबूत मांग रहा है, वह अपने चिकित्सकों को अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान जैसे अस्पतालों में क्यों नहीं भेज रहा?

आयुर्वेद विश्व की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति है. यूरोप, रूस, अमेरिका में बहुत सारे एलोपैथिक चिकित्सक हैं, जो भारत आकर आयुर्वेद की जानकारी ले चुके हैं. आयुर्वेदिक दवाइयों को समझ चुके हैं. भारत आने वाले ऐसे चिकित्सकों की संख्या हर साल बढ़ रही है. ये चिकित्सक अपने देश लौटकर अपने मरीजों को अंग्रेजी दवाइयों के साथ-साथ आयुर्वेदिक दवाइयां भी दे रहे हैं. गठिया जैसी बीमारियों में तो कुछ चिकित्सक केवल आयुर्वेदिक दवा ही देते हैं. अमेरिका और रूस के अनेक एलोपैथिक चिकित्सक आयुर्वेद और जड़ी-बूटियों पर शोध कर रहे हैं. वे आयुर्वेद के चमत्कारिक परिणाम से बहुत प्रभावित हैं. इसलिए वहां के चिकित्सक अपनी सरकारों से आयुर्वेद को वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में अपनाने के लिए कह रहे हैं.

मजेदार बात यह है कि नॉर्वे के ट्रोम्सो जैसे शहर, जहां गर्मियों में मध्यरात्रि में सूरज निकलता है और रूस के साइबेरिया जैसे बेहद ठंडे क्षेत्र में भी आयुर्वेद पहुंच गया है. स्वीडन, फिनलैंड जैसे देशों में भी आयुर्वेदिक दवाइयों की मांग बढ़ी है.

भारत में अनेक आयुर्वेदिक चिकित्सक हैं, जो क्रोएशिया, लातविया और लिथुआनिया जैसे देशों में जाकर आयुर्वेद पर गोष्ठी करते हैं. इस कोरोना काल में अनेक वैश्विक सेमिनार हुए हैं, जिनमें आयुर्वेद की जानकारी दी गई. यह भी बताया गया कि आयुर्वेद किस तरह कोरोना से लड़ने में कारगर है. गोष्ठियों में बड़ी संख्या में आम लोग और चिकित्सक भी शामिल हुए. भारत की अनेक कंपनियां इन देशों में आयुर्वेदिक दवाइयां भेज रही हैं. कोरोना काल में इन देशों में आयुर्वेदिक दवाइयों की मांग कई गुना बढ़ी है. वहीं दूसरी ओर भारत की स्थिति बिल्कुल उलट है. ऐसा लगता है कि भारत के एलोपैथिक चिकित्सक आयुर्वेद को हेय की दृष्टि से देखते हैं. यही कारण है कि जैसे ही सरकार ने आयुर्वेद के लिए दिशा-निर्देश जारी किए आईएमए विरोध में आ गया.

इन संगठनों की लगी है शक्ति

भारत सरकार ने आयुर्वेद के लिए जो दिशा-निर्देश जारी किए हैं, उसके पीछे अनेक संगठनों के अनुभव और अध्ययन हैं. ये संगठन हैं अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान (दिल्ली), आयुर्वेद संस्थान (जामनगर), राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान (जयपुर), सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन आयुर्वेद (सीसीआरएएस), सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन योगा ऐंड नेचुरोपैथी (सीसीआरवाईएन). ये सभी संगठन लगातार आयुर्वेद पर शोध कर रहे हैं और इसे जन सामान्य तक पहुंचाने में लगे हैं.

आयुर्वेद विरोधी फेसबुक और ट्विटर

अनेक आयुर्वेद चिकित्सक और आयुर्वेद के प्रशंसक कोरोना काल में मरीजों की सेवा के दौरान आने वाले अपने अनुभवों को फेसबुक और ट्विटर पर डाल रहे हैं. देखा गया कि कई बार फेसबुक ने ऐसी पोस्टको हटा दिया. ग्रेटर नोएडा के अवधेश कुमार कर्ण के साथ ऐसा ही हुआ. उन्होंने 16 अगस्त को आयुर्वेद की प्रशंसा में फेसबुक पर एक पोस्टलिखी थी. इसके लिए उन्हें फेसबुक ने चेताया. इसके बावजूद उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा तो उनकी पोस्टको रोक दिया गया. फेसबुक का कहना था कि आयुर्वेद पर कोई शोध नहीं है, इसलिए ऐसी पोस्टन डालें’. ट्विटर ने भी कुछ ऐसा ही किया. इस सबसे यही निष्कर्ष निकलता है कि फेसबुक और ट्विटर भी आयुर्वेद विरोधियों के शिकंजे में हैं.

रूस के नोवोसिबिर्स्क विश्वविद्यालय में डॉ. ओलेग सोरोकिन के नेतृत्व में कुछ चिकित्सकों ने नाड़ी परीक्षण के लिए एक उपकरण बनाया है, जो रोगों के प्रारंभिक निदान के लिए एक प्राचीन आयुर्वेद अभ्यास है. महर्षि महेश योगी ने जीवन-पर्यन्त विदेशों में आयुर्वेद का प्रचार-प्रसार किया. अभी भी डॉ. वसंत लाड, दीपक चोपड़ा जैसे अनेक आयुर्वेदिक चिकित्सक हैं, जो दुनियाभर में आयुर्वेद को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं. इराक जैसे देश में भी डॉ. ईसा सलोमी आयुर्वेद के माध्यम से मनोविकारों का सफलतापूर्वक इलाज कर रहे हैं.

आयुर्वेद वायरस जनित बीमारियों से लड़ने के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता को ही नहीं बढ़ाता, बल्कि शरीर की कोशिकाओं को भी मजबूत करता है. जैसा कि हम जानते हैं कि कोरोना वायरस हमारी सिर्फ रोग प्रतिरोधक क्षमता पर ही हमला नहीं करता, बल्कि श्वसन प्रणाली पर भी हमला करता है. इससे हमारे शरीर की करोड़ों रोग प्रतिरोधक कोशिकाएं वायरस से लड़ती हैं. इसके परिणामस्वरूप हमारे फेफड़ों की स्वस्थ कोशिकाओं को भारी नुकसान पहुंचता है. इस वजह से सांस लेने में तकलीफ, सूखी खांसी और कभी-कभी हमारे फेफड़े तक भी नष्ट हो जाते हैं, जो प्राणघातक भी हो सकता है. आयुर्वेदिक औषधियां ऐसी परिस्थिति में हमारे फेफड़ों की कोशिकाओं को मजबूती प्रदान करने की क्षमता रखती हैं तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी मजबूत करती हैं.

शोध पर आधारित दवाइयां

10 अक्तूबर, 2020 तक भारतीय नैदानिक परीक्षण (इंडियन क्लिनिकल ट्रायल) में पंजीकृत 67 विभिन्न पारंपरिक परीक्षणों में से 46 दवाइयां आयुष पर आधारित हैं. इससे साबित होता है कि ये दवाइयां शोध पर आधारित हैं. इसलिए आईएमए का यह कहना कि आयुर्वेद पर शोध नहीं होता, बिल्कुल गलत है.

वर्तमान केंद्र सरकार से पहले जितनी भी सरकारें थीं, सबने आयुर्वेद के साथ सौतेला व्यवहार किया है. इस समय अकेले दिल्ली के एम्स का सालाना बजट 3,000 करोड़ रु. है, वहीं पूरे भारत में आयुष के लिए केवल 2,100 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया है. वर्ष 2014 से पहले तो और भी बुरा हाल था. इसके बावजूद आयुर्वेद ने देश-विदेश तक अपनी पहचान बना ली है. यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है.

आयुर्वेद की कुछ औषधियां, जैसे संशमनी वटी, दशमूल क्वाथ, शिरीषअमृतादी क्वाथ, अश्वगंधा, हल्दी आदि कोरोना विषाणु को परास्त करने में सक्षम साबित हुई हैं. इन दिनों एक और अच्छी बात यह हुई है कि अमेरिका, जर्मनी, इटली, रूस आदि देशों में हल्दी, अश्वगंधा, आमला (आमलकी) ओजस पुष्टि, च्यवनप्राश जैसे योगों की मांग बहुत बढ़ गई है. ऐसा कोरोना के कारण हुआ है. इन देशों के लोगों को यह बात समझ में आ गई है कि आयुर्वेद किसी भी विषाणु को नष्ट करने में सक्षम है. उम्मीद है कि आने वाले समय में भारत के लोग भी इस बात को समझेंगे और आयुर्वेद की ओर लौटेंगे.

(लेखक विश्व आयुर्वेद परिषद के राष्ट्रीय सचिव हैं.)

श्रोत- विश्व संवाद केन्द्र, भारत

27 नवम्बर / इतिहास स्मृति – कोटली के अमर बलिदानी स्वयंसेवक

नई दिल्ली. हंस के लिया है पाकिस्तान, लड़ के लेंगे हिन्दुस्तानकी पूर्ति के लिए नवनिर्मित पाकिस्तान ने वर्ष 1947 में ही कश्मीर पर हमला कर दिया था. देश रक्षा के दीवाने संघ के स्वयंसेवकों ने उनका प्रबल प्रतिकार किया. उन्होंने भारतीय सेना, शासन तथा जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह को इन षड्यन्त्रों की समय पर सूचना दी. इस गाथा का एक अमर अध्याय 27 नवम्बर, 1948 को कोटली में लिखा गया, जो इस समय पाक अधिकृत कश्मीर में है.

युद्ध के समय भारतीय वायुयानों द्वारा फेंकी गयी गोला-बारूद की कुछ पेटियां शत्रु सेना क्षेत्र में जा गिरीं थीं. उन्हें उठाकर लाने में बहुत जोखिम था. वहां नियुक्त कमांडर अपने सैनिकों को गंवाना नहीं चाहते थे, अतः उन्होंने संघ कार्यालय में सम्पर्क किया. उन दिनों स्थानीय पंजाब नेशनल बैंक के प्रबंधक चंद्रप्रकाश जी कोटली में नगर कार्यवाह थे. उन्होंने कमांडर से पूछा कि कितने जवान चाहिए ? कमांडर ने कहा आठ से काम चल जाएगा. चंद्रप्रकाश जी ने कहा – एक तो मैं हूं, बाकी सात को लेकर आधे घंटे में आता हूं.

चंद्रप्रकाश जी ने जब स्वयंसेवकों को यह बताया, तो एक-दो नहीं, 30 युवक इसके लिए प्रस्तुत हो गये. कोई भी देश के लिए बलिदान होने के इस सुअवसर को गंवाना नहीं चाहता था, चंद्रप्रकाश जी ने बड़ी कठिनाई से सात को छांटा, पर बाकी भी जिद पर अड़े थे. अतः उन्हें आज्ञादेकर वापस किया गया. सबने अपने आठों साथियों को सजल नेत्रों से विदा किया. सैनिक कमांडर ने उन आठों को पूरी बात समझाई. भारतीय और शत्रु सेना के बीच में एक नाला था, जिसके पार वे पेटियां पड़ी थीं. शाम का समय था. सर्दी के बावजूद स्वयंसेवकों ने तैरकर नाले को पार किया तथा पेटियां अपनी पीठ पर बांध लीं. इसके बाद वे रेंगते हुए अपने क्षेत्र की ओर बढ़ने लगे, पर पानी में हुई हलचल और शोर से शत्रु सैनिक सजग हो गये और गोली चलाने लगे. इस गोलीवर्षा के बीच स्वयंसेवक आगे बढ़ते रहे.

इसी बीच चंद्रप्रकाश जी और वेदप्रकाश जी को गोली लग गयी. उस ओर ध्यान दिये बिना बाकी छह स्वयंसेवक नाला पारकर सकुशल अपनी सीमा में आ गये और कमांडर को पेटियां सौंप दीं. अब अपने घायल साथियों को वापस लाने के लिए वे फिर नाले को पार कर शत्रु सीमा में पहुंच गये. उनके पहुंचने तक उन दोनों वीर स्वयंसेवकों के प्राण पखेरू उड़ चुके थे. स्वयंसेवकों ने उनकी लाश को अपनी पीठ पर बांधा और लौट चले. यह देख शत्रुओं ने गोलीवर्षा तेज कर दी. इससे एक स्वयंसेवक और मारा गया. उसकी लाश को भी पीठ पर बांध लिया गया. तब तक एक अन्य गोली ने चौथे स्वयंसेवक की कनपटी को बींध दिया. वह भी मातृभूमि की रक्षा हित बलिदान हो गया. इस दल के वापस लौटने का दृश्य बड़ा कारुणिक था. चार बलिदानी स्वयंसेवक अपने चार घायल साथियों की पीठ पर बंधे थे. जब उन्हें चिता पर रखा गया, तो भारत माता की जयके निनाद से आकाश गूंज उठा. नगरवासियों ने फूलों की वर्षा की.

इन स्वयंसेवकों का बलिदान रंग लाया. उन पेटियों से प्राप्त सामग्री से सैनिकों का उत्साह बढ़ गया. वे भूखे शेर की तरह शत्रु पर टूट पड़े. कुछ ही देर में शत्रुओं के पैर उखड़ गये और चिता की राख ठंडी होने से पहले ही पहाड़ी पर तिरंगा फहराने लगा. सेना के साथ प्रातःकालीन सूर्य ने भी अपनी पहली किरण चिता पर डालकर उन स्वयंसेवकों को श्रद्धांजलि अर्पित की.

श्रोत- विश्व संवाद केन्द्र

Friday, November 27, 2020

न्यूज़ीलैंड में गौरव शर्मा ने माउरी और संस्कृत में शपथ लेकर दोनों देशों की पंरपराओं को दिया सम्मान

न्यूज़ीलैंड में हेमिल्टन वेस्ट से नवनिर्वाचित सांसद डॉ. गौरव शर्मा ने संस्कृत में शपथ लेकर हर भारतीय के साथ-साथ हिमाचल को गौरवान्वित किया है. गौरव शर्मा हिमाचल के हमीरपुर जिले के गलोड़ हड़ेटा के रहने वाले हैं. गौरव शर्मा लेबर पार्टी से सांसद चुने गए हैं. उन्होंने न्यूजीलैंड की परम्परा को सम्मान देते हुए पहले माउरी भाषा में शपथ ली, साथ ही भारतीय संस्कार, संस्कृति और भाषा का सम्मान करना नहीं भूले.

एक ट्वीटर यूजर ने उनसे पूछा कि उन्होंने हिन्दी में शपथ क्यों नहीं ली? इसका उतर देते हुए गौरव ने कहा कि यह सवाल मेरे मन में भी आया कि हिन्दी में शपथ ग्रहण करूं या अपनी पहाड़ी मातृभाषा में. लेकिन अंततः सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत को शपथ लेने की भाषा के रूप में चुना. इस कारण उन्होंने देश की मूल भाषा संस्कृत में शपथ ली. ऐसे करने वाले एकमात्र व्यक्ति सूरीनाम के राष्ट्रपति चंद्रिका प्रसाद थे, जिन्होंने इस वर्ष की शुरूआत में संस्कृत भाषा में शपथ ली थी. डॉ गौरव ने न्यूजीलैंड के हेमिल्टन सीट पर लेबर पार्टी के टिकट पर जीत दर्ज की थी. शर्मा को 15873 मत मिले थे, जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी को 11487 मत मिले थे.

हमीरपुर से सम्बन्ध रखते हैं गौरव शर्मा

गौरव शर्मा 12 साल की उम्र में अपने पिता गिरधर शर्मा के साथ न्यूजीलैंड चले गए थे. इनके पिता प्रदेश बिजली बोर्ड में इंजीनियर रहे हैं और उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली थी. सेवानिवृति के बाद पूरा परिवार न्यूजीलैंड चला गया था. वे 1996 में न्यूजीलैंड चले गए थे. उनका सांसद बनने का सफर संघर्षों से भरा रहा है. उनके पिता को छह साल तक यहां नौकरी नहीं मिली. सामाजिक सुरक्षा के रूप में भी उनके परिवार को सरकारी सहायता नहीं मिली. परिवार ने मुश्किल से वक्त गुजारा. लेकिन विषम परिस्थितियों के सामने हार नहीं मानी और सफलता अर्जित कर प्रेरणा पुंज बनने का काम किया है. गौरव सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहते थे. अपनी आजीविका के लिए टैक्सी चलाकर गुजारा करते थे.

गौरव शर्मा ने हमीरपुर, धर्मशाला, शिमला और न्यूजीलैंड से शिक्षा ग्रहण की है. डॉ. गौरव सर्मा ने ऑकलैंड से एमबीबीएस किया है. इसके बाद वाशिंगटन से उन्होंने एमबीए किया है. वे इस वक्त न्यूजीलैंड के हैमिल्टन में प्रैक्टिस करते हैं. इन्होंने जलवायु परिवर्तन का न्यूजीलैंड पर प्रभाव विषय पर विशेष प्रस्तुति दी, जिसके बाद उनको यूनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड में पहला पुरस्कार मिला. इसके साथ ही बाद इनको वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गेनाईजेशन जनेवा के साथ काम करने का भी मौका मिला. इस दौरान इन्होंने पब्लिक हैल्थ से जुड़े कई प्रोजैक्ट्स में काम किया. उन्होंने न्यूजीलैंड, स्पेन, अमेरिका, नेपाल, वियतनाम, मंगोलिया, स्विट्जरलैंड और भारत में लोक स्वास्थ्य एवं नीति निर्धारण के क्षेत्र में काम किया है.

Wednesday, November 25, 2020

गौ केबिनेट के गठन की आवश्यकता और उद्देश्य…..

 

मध्यप्रदेश सरकार ने गौ केबिनेट बनाने का ऐतिहासिक फैसला लिया है. शिवराज सरकार का यह फैसला इसलिए और विशेष हो जाता है क्योंकि मध्यप्रदेश गौ केबिनेट बनाने वाला पहला राज्य होगा. राज्य में गौ संरक्षण व संवर्धन के उद्देश्य से गौ केबिनेट बनाई गई है, जिसकी पहली बैठक गोपाष्टमी के दिन राजधानी भोपाल में आयोजित हुई. बैठक में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आगर में गायों को लेकर रिसर्च सेंटर बनाने की घोषणा की.

क्या है गौ केबिनेट?

मध्यप्रदेश में गौ माता के संरक्षण के उद्देश्य से प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बीते दिनों गौ केबिनेट बनाने की घोषणा की थी. केबिनेट में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री स्वयं अध्यक्ष के रूप में रहेंगे तो वहीं प्रदेश के 5 मंत्रियों को केबिनेट का सदस्य बनाया गया है. केबिनेट में राज्य सरकार के पशु पालनवनपंचायत एवं ग्रामीण विकासराजस्वगृह और किसान कल्याण को मिला कर कुल 6 विभागों को शामिल किया गया है. यह सभी विभाग गायों के संरक्षण के लिए मिलकर सामूहिक फैसला लेंगे. पशु पालन विभाग राज्य में गायों के प्रजनन और गौशालाओं की देखभाल पहले से ही करता आ रहा है. अब वन विभाग भी गायों के संरक्षण पर काम करेगा तो वहीं गृह विभाग गायों की रक्षा के लिए मुखर रहेगा.

गौशालाओं को बनाया जाएगा आत्मनिर्भर बनाया जाएगा

गौ केबिनेट बनाने वाला मध्यप्रदेश देश का पहला राज्य है. केबिनेट बनाने की घोषणा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने ट्विटर के माध्यम से की थी. इस केबिनेट की पहली बैठक राजधानी भोपाल में आयोजित की गई, जिसमें प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान ने आगर जिले में गायों को लेकर रिसर्च सेंटर बनाने की घोषणा की, साथ ही राज्य को आत्मनिर्भर बनाने के लिए गौ धन के प्रयोग करने की बात भी कही गई है.

मुख्यमंत्री ने कहा कि इस प्रकार प्रदेश में गौशालाओं को आत्मनिर्भर बनाया जाएगा और बड़ी संख्या में गौशालाओं को निर्माण किया जाएगा, जिसके लिए आम जन से सहायता ली जाएगी.

इसलिए जरूरी है गौ केबिनेट

विश्व हिन्दू परिषद का दावा है कि देश में प्रतिदिन 20 से 25 हजार गाय या गौवंश पकड़ा जा रहा है, सैकड़ों गायों की रोजाना हत्या की जा रही है. दूध उत्पादन पर इसका विपरीत असर दिख रहा है. नेशनल कॉपरेटिव डेयरी फेडरेशन ऑफ इंडिया के आंकड़े बताते हैं कि देश में वर्ष 2013-14 में 13.75 करोड़ टन दूध का उत्पादन हुआइसे आधार मानकर वर्ष 2021-22 तक इसे 20 करोड़ टन प्रतिवर्ष पहुंचाना है. दुधारू पशुओं की हत्या के कारण यह लक्ष्य हासिल करना कठिन हो रहा है. दुधारू पशुओं की हत्या से देश में प्रतिदिन 40 से 45 लाख लीटर दूध की क्षति हो रही है. इसमें 30 से 35 प्रतिशत हिस्सेदारी गाय के दूध की होती है. इसलिए गौ हत्या पर रोक लगाने और गायों के संरक्षण के लिए मध्यप्रदेश सरकार द्वारा बनाया गया गौ केबिनेट सराहनीय है.

संविधान में भी गौ संरक्षण के लिए विशेष प्रावधान

ऐसा नहीं है कि मध्यप्रदेश में बनाई गई गौ केबिनेट में पहली बार गायों के संरक्षण की बात की जा रही हो. गायों के संरक्षण के लिए हमारे देश के संविधान में भी विशेष प्रावधान किए गए हैं. भारत के संविधान के अनुच्छेद 48 में राज्यों को गायों और बछड़ों और अन्य मसौदे के मवेशियों की हत्या को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया गया है. इसी प्रकार संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची का प्रवेश 15 है, जिसका अर्थ है कि राज्य की विधायिकाओं में गायों के वध और संरक्षण के लिए कानून बनाने की विशेष शक्तियाँ प्रदान करती है.

श्रोत- विश्व संवाद केन्द्र, भारत