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Saturday, November 21, 2020

आतंकवाद तथा लोकतांत्रिक मूल्यों का मखौल उड़ाने वालों के खिलाफ एकजुट लड़ाई छेड़ने की दरकार

- ए. सूर्यप्रकाश

फ्रांस में जिहादी तत्वों द्वारा एक स्कूली शिक्षक के अलावा कुछ अन्य लोगों की बर्बरतापूर्ण हत्या के बाद फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने अपने देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की जो मुखर पैरवी की, उसके खिलाफ कई इस्लामिक देशों में हिंसक प्रदर्शन देखने को मिले. जहां मुस्लिम देशों में ऐसे प्रदर्शनों का सिलसिला जारी रहा, वहीं ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में जिहादी तत्व हत्याओं को अंजाम देते रहे. फ्रांस में हुए हमले के पीछे हजरत मुहम्मद साहब के कार्टून को वजह बताया गया. ऐसे में यह उस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम ईशनिंदा का मामला बन गया, जिसकी आधारशिला ही स्वतंत्रता, समानता और बंधुता पर टिकी है. इस्लामिक देशों में अधिकांश प्रदर्शनकारियों ने जहां सिर कलम करने को जायज ठहराया, वहीं फ्रांसीसी राष्ट्रपति के खून के प्यासे भी दिखे. इसमें सबसे बड़े अपराधी तो मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मुहम्मद रहे, जिन्होंने न केवल फ्रांस में हुई घटना को उचित करार दिया, बल्कि उनका बयान लोगों को खुलेआम रक्तपात के लिए उकसाने वाला था.

यह बेहद गैर-जिम्मेदाराना बयान था, फिर भी ट्विटर ने महातिर पर कोई कड़ी कार्रवाई करने के बजाय महज उस ट्वीट को हटाकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली. इस्लामिक देशों में चल रहे इस घटनाक्रम के बीच आखिर भारतीय नागरिकों को फ्रांस के घटनाक्रम पर कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए? कई भारतीय शहरों में भी मुहम्मद साहब के कार्टून को लेकर मुसलमानों ने विरोध-प्रदर्शन कर अपने गुस्से का इजहार किया. जब तक ये विरोध-प्रदर्शन शांतिपूर्ण ढंग से होते हैं और सामान्य जन-जीवन में गतिरोध उत्पन्न नहीं करते, तब तक कोई आपत्ति नहीं. हालांकि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र नेता फरहान जुबेरी जैसों की कड़ी निंदा की जानी चाहिए, जो न केवल सिर कलम करने जैसे अपराधों को वाजिब बताता है, बल्कि इस्लाम के खिलाफ बोलने वाले हर किसी का सिर धड़ से जुदा करने की खुली धमकी देता है.

अपने लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप भारत ने एकदम उचित रुख अपनाया और फ्रांसीसी राष्ट्रपति पर निजी हमलों की कड़ी भर्त्सना करते हुए कहा कि इसमें अंतरराष्ट्रीय विमर्श के सामान्य शिष्टाचार का उल्लंघन किया जा रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ कहा कि आतंक के खिलाफ फ्रांस की लड़ाई में भारत उसके साथ खड़ा है. असल में सभी भारतीयों को यही रेखा खींचनी होगी. वे इस्लामिक देशों के नागरिकों सरीखा व्यवहार नहीं कर सकते, जहां सब कुछ धर्म के इर्द-गिर्द ही घूमता है और सार्वजनिक विमर्श की राह बहुत संकीर्ण होती है. एकबारगी यह कहा जा सकता है कि एएमयू छात्र नेता जैसी टिप्पणियां अपवाद हैं और लोकतंत्र का सम्मान करने वालों की बोली अलग है. एक सौ भारतीय हस्तियों ने फ्रांस में धर्म के नाम पर हुई हत्याओं की एक सुर में और बिना किसी किंतु-परंतु के निंदा की है. इस बयान पर नसीरुद्दीन शाह, पूर्व आइपीएस जूलियो रिबेरो और गीतकार हुसैन हैदरी सहित कई बड़े नामों के हस्ताक्षर हैं. इस बयान के अनुसार, ‘भारतीय मुसलमानों के कुछ स्वयंभू रहनुमाओं द्वारा हत्याओं को तार्किक बताने और कुछ राष्ट्र प्रमुखों के हिंसक एवं घृणित बयानों से हम क्षुब्ध हुए हैं.

भारत दुनिया का सबसे बड़ा, सेक्युलर, उदार लोकतांत्रिक गणराज्य है और जिसे भी इन मूल्यों और उस खुली हवा की परवाह है, जिसमें हम सांस लेते हैं तो उसे ऐसे हिंसक कृत्यों का समर्थन करने वालों के खिलाफ एकजुट होना ही होगा. दुनिया के सबसे लोकतांत्रिक एवं विविधतापूर्ण राष्ट्र के नागरिक होने के नाते हमारा भविष्य संविधान और लोकतांत्रिक जीवन शैली के संरक्षण में ही निहित है. ऐसे में यदि कोई तबका किसी किस्म की हिंसा का समर्थन करने लगे तो सेक्युलर और उदार लोकतंत्र का आगे बढ़ना तो छोड़िए, उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है. यह सभी भारतीयों पर लागू होता है. भारत का कोई नागरिक इस्लामी मुल्क से सीख नहीं ले सकता, जो समानता और बहुलतावाद का कोई सम्मान नहीं करते. हम उनसे अलग हैं. हमारे संविधान निर्माताओं ने इसे मान्यता दी और इसी कारण हमारी संवैधानिक व्यवस्था फ्रांस से थोड़ी अलग है. हमारे यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त निर्बंधन लगे हुए हैं. हम इसकी आड़ में सामान्य जन-जीवन, गरिमा और नैतिकता पर आघात करने या किसी की मानहानि या उकसाने की अनुमति नहीं दे सकते. भारतीय दंड संहिता की धारा 153, 295 और 295 ए के प्रावधानों से इसकी पुष्टि होती है. ये धाराएं दो समूहों के बीच शत्रुता बढ़ाने या किसी एक धार्मिक वर्ग की मान्यताओं को भड़काकर माहौल खराब करने की आशंकाओं को रोकती हैं.

आजादी की लड़ाई के दौरान जब अलग मुस्लिम देश के लिए मुहिम छिड़ी तो पूरे परिदृश्य पर गहन विचार के बाद डॉ. आंबेडकर इसी नतीजे पर पहुंचे कि पाकिस्तान का गठन अपरिहार्य हो गया है. अपनी पुस्तक थॉट्स ऑन पाकिस्तान में उन्होंने कहा कि किसी मुस्लिम की राज्य निष्ठा इस पर निर्भर नहीं कि वह किस देश में रहता है, बल्कि उसके धर्म पर निर्भर होती है. मुसलमानों के लिए जहां रोटी, वहां देश वाली कहावत सटीक नहीं बैठती, बल्कि जहां इस्लाम, वहीं उनका देश वाली बात माकूल लगती है. डॉ. आंबेडकर ने ये बातें 75 साल पहले और उस खास संदर्भ में कही थीं, जब देश में मुस्लिम एक अलग राष्ट्र बनाने की मुहिम में जुटे थे और पाकिस्तान बना. तब पाकिस्तान बनने के बावजूद करीब 3.5 करोड़ मुसलमानों ने भारत में ही रहने को वरीयता दी, क्योंकि उन्हें यही विश्वास था कि किसी इस्लामिक देश में रहने के बजाय उदार, लोकतांत्रिक परिवेश में जीवन गुजारना कहीं बेहतर होगा. भारतीय संविधान के संरक्षण में उन मुस्लिम परिवारों की अब तीसरी पीढ़ी बड़ी हो रही है. अन्य नागरिकों की तरह एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक छत्रछाया में पले बढ़े ये मुस्लिम नागरिक देख सकते हैं कि पाकिस्तान एकदम नाकाम मुल्क है, जिसका भारत के खिलाफ आतंकवाद का इस्तेमाल ही एकमात्र एजेंडा है. जिस मुद्दे के दम पर पाकिस्तान का गठन हुआ, वह अब बेमानी हो गया है. अब वक्त बदल गया है और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व हम सभी को बेहतरीन अवसर प्रदान करता है. एक भारतीय के नाते हमें फ्रांस और सभी लोकतंत्रों के साथ खड़ा होने और आतंकवाद तथा लोकतांत्रिक मूल्यों का मखौल उड़ाने वालों के खिलाफ एकजुट लड़ाई छेड़ने की दरकार है.

श्रोत- विश्व संवाद केन्द्र, भारत

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