प. पू. सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत जी का बौद्धिक
16 फरवरी 2014
स्थान ः भाऊराव देवरस सभागार
निवेदिता शिक्षा सदन, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
माननीय क्षेत्र संघचालक जी और माननीय विभाग संघचालाक जी, उपस्थित अन्य अधिकारीगण एवं आत्मीय स्वयंसेवक बन्धुओं. ये मेरा भी सौभाग्य है कि प्रवास के निमित्त देश के विभिन्न स्थानों पर जाना होता है, और आप सब लोगों के दर्शन का अवसर मिले, लगभग दो तीन वर्षों में एकाध बार अवश्य प्राप्त होता ही है. यहाँ कार्यक्रम की प्रस्तावना में यह कहा गया कि, आपका सौभाग्य है कि सरसंघचालक जी के दर्शन हो गए, और मैं कह रहा हूँ कि मेरा सौभाग्य ये है कि आपके दर्शन हो गए. अब ८८ वर्षों से ये संघ चल रहा है, तो ये भाषा भी अपनी परिचित है. लेकिन हम सबलोग जानते हैं, और अगर नहीं जानते हैं तो हमको ये जानना चाहिए कि ये भाषा मात्र नहीं है, कोई कार्यकर्ता मिलता है, दीखता है, स्वयंसेवक को आनंद होता है. स्वयंसेवक को स्वयंसेवक मिलता है तो मिलने मात्र से आनंद है. ट्रेन में मिल जाए, बस में मिल जाए, नया अपरिचित मिल जाये, और पता चले कि वो स्वयंसेवक है तो एक आनंद की अनुभूति हम सब लोग करते हैं. अब आप विचार कीजिये कि अपने देश के आज के वातावरण में ये एक चमत्कार हीहै की नहीं? एक दुसरे को लोग देखते हैं, तो पहला विचार तो ये करते हैं की ये मेरे किस काम आएगा? दूसरा विचार ये करते हैं की ये मेरे काम आएगा कि मेरे काम के विरुद्ध जायेगा? और फिर उसके अनुसार उनका व्यवहार होता है. यहाँ पर देश में लाखों लोग ऐसे हैं की जो मिल जाये, और एक परिचय मिल जाये की हम संघ के स्वयंसेवक हैं, तो सब आनंदित हो जाते हैं, और एक दुसरे पर विश्वास रखकर आत्मीयता का व्यवहार करते हैं,और ऐसा उनका व्यवहार अनेक वर्षों से चल रहा है, जिसका अनुभव वो तो कर ही रहे हैं लेकिन समाज भी कर रहा है.
समाज का स्वयंसेवकों पर विश्वास:
समाज को भी और किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है, समाज को अगर पता चल गया कि ये स्वयंसेवक है, तो समाज भी एकदम आश्वस्त हो जाता है. अभी उत्तरान्चल में इतना बड़ा एक विभीषिका हो गयी, तो उस समय तो लोगों का वहाँ पहुँचना भी दूभर था, अन्दर वाले अन्दर फंसे थे बाहर वाले बाहर खड़े थे, सबसे पहले लोग वहां पर विमान लेकर पहुंचे और हमारे स्वयंसेवक पैदल पहुंचे. बद्रीनाथ के आस-पास कुछ चार-साढ़े चार हज़ार लोग फंस गए थे, और अपने स्वयंसेवक लोग वहां जाने के प्रयत्न में थे, साधन कुछ मिल नहीं रहा था, जल्दी जाना था, सेना के लोगों को भी सूचना हो गयी की वहां लोग फंसे हैं,तो उन्होंने झट अपना एक विमान बुला लिया, और उसमे वहां के लिए निकलने को तैयार हो गए, अपने स्वयंसेवकों को पता चला, स्वयंसेवक वहां गए, जैसे संघ का अनुशासन है, वैसे सेना का भी अनुशासन है. सेना के विमान में जाने वालों की तो सूचि होती है, औरउतने ही लोग जाते हैं, बाकि लोगों को जाने की अनुमति होती नहीं है. लेकिन लोग फंसे हैं, उनको मदद करनी है, ये व्याकुलता इतनी तीव्र थी की अपने दो स्वयंसेवक, उस विमान में जैसे तैसे घुस गए, विमान में जो लोग जा रहे थे, उनके जो प्रमुख थे उनको भी पता नहीं था. विमान के उड़ने के बाद सेना के लोगों ने गिना तो दो लोग ज्यादा थे, उन्होंने पूछा, “भाई आप लोग किस रेजिमेंट के हो?” स्वयंसेवकों ने उत्तर दिया, “हम रेजिमेंट- वेगिमेंट से नहीं, हम आर०एस०एस० के लोग हैं”, तो विमान प्रमुख बोले, “अच्छा बिना अनुमती तुम घुस गए, विमान नहीं होता तो बाहर फेंक देता तुम्हें, लेकिन अब चलो,वापसी में अपना रास्ता ढूंढ लेना”, उन्होंने (स्वयंसेवकों ने) कहा, “ठीक है हमको तो जाना ही है, वापसी का हमने सोचा ही नहीं”. विमान उतरा, वहाँ सारी भीड़ थी, वो आशावादी निगाहों से देख रही थी, विमान उतरा, एक ही विमान था, वह भी छोटा विमान, १०-१२ लोग जिसमे आते हैं. कुछ लोगों को निराशा भी लगी होगी, की जल्दी छुट्टी नहीं होगी, लेकिन जैसे ही वो दो निक्करधारी स्वयंसेवक उतरे, वो सारी चार साढ़े चार हज़ार की भीड़ में एक बात चली, “अरे वो निक्कर वाले आ गए, अब सब ठीक हो जाएगा”. ये निक्कर वालों के प्रति समाज का विश्वास है, क्यों है? क्योंकि हमारा एक आचरण ८८ वर्षों से चल रहा है, उस आचरण को बढ़ते हुए कार्य में भी संगठन के प्रत्येक घटक में उत्पन्न करने की सतत साधना, सतत तपस्या हम सब लोग कर रहे हैं. इसका बड़ा महत्व है और यही उपाय है.
समस्या नहीं, उपायों की चर्चा:
अपने संगठन में समस्याओं की चर्चा, केवल जानकारी रखने के लिए जितनी आवश्यक है, उतनी ही होती है. परिस्थिति का डर दिखाकर लोगों को खड़ा करना, ये हमारा उपाय नहीं है, ये हमारा प्रयास ऐसा नहीं रहता, बाकी लोग करते हैं, एक दुसरे के प्रति डराना, परिस्थिति के प्रति डराना, उसके आधार पर अपने छत्र के नीचे लाना. हमारे यहाँ ऐसा नहीं है, हम लोग उपायों की चर्चा करते हैं. डॉ० साहब के भी जो उपलब्ध हैं, दो तीन भाषण उपलब्ध हैं, वो आपने पढ़े, तो आपके ध्यान में आएगा, कि देश की परिस्थिति को इतनी बारीकी से समझने वाले डॉ० साहब, संघ स्थापना के बाद, स्वयंसेवकों के सामने जब-जब बोलते थे, तो बहुत ज्यादा परिस्थिति का वर्णन नहीं करते थे, उस परिस्थिति का उपाय करने के लिए जो करना चाहिए, उसके बारे में ही ज्यादा बोलते थे. हमारा भी स्वभाव वैसा ही बना है, और इसीलिए उसी की चर्चा हम ज्यादा करते हैं. क्योंकि हमें पता है की परिस्थिति क्या है, इसका महत्व नहीं है, परिस्थिति तो रहती ही है, और वो अपने हाँथ में नहीं रहती है, और वो नित्य बदलती रहती है. कल वर्षा थी, आज धूप है, और कल फिर से क्या होगा? कोई बता नहीं सकता. नित्य बदलने वाली परिस्थिति में हम हैं, उपाय करने वाले हम तब भी थे, आज भी हैं, और कल भी रहेंगे. और इसलिए हम जो उपाय करेंगे उसके आधार पर परिस्थिति को झेलना सबके लिए संभव हो जायेगा. परिस्थिति अनेक प्रकार की प्रतिकूल भी हैं, परिस्थिति का विचार करते हैं, जब लोग बोलने लगते हैं, तो लोगों का दिल जैसे बैठ जाता है, क्योंकि इतने संकट हैं, सीमायें सुरक्षित नहीं, आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी है, सामाजिक स्थिति कलहों से भरी है, लोगों में स्वार्थ प्रबल है, अब ऐसी सब बातें सामने आती हैं तो लोग कहते हैं, “इसका मतलब कुछ करना बेकार है”, तो परिस्थिति के डर से कुछ करने के लिए प्रवृत्त होने की बजाय लोग बैठ जाते हैं, जो करना चाहते हैं उनका हाल ऐसा हो जाता है की इधर दौडूँ या उधर दौडूँ, पहले चीन को रोकूँ की पाकिस्तान को रोकूँ, भ्रष्टाचार को समाप्त करूं की गरीबी को हटाऊँ, कई ऐसी बातें हैं जो करने लायक हैं और एक आदमी के मन में इतने सारे सवाल उठते हैं, ये करना की वो करना. लेकिन इधर जाओ उधर जाओ, ये करो वो करो से, इन सब बातों का मूल कहाँ है, उसको देखना और उसका उपाय करना, तो सारी बातें ठीक हो जाती हैं, ये अगर हम करते हैं, तो सब ठीक होता है. एक बार ऐसा हुआ, जंगल में एक खरगोश सो रहा था, छोटा सा खरगोश, कोमल उसका शरीर, सुन्दर भी बड़ा दिखने वाला. सोया था तो ताड़ का पेड़ था जंगल में उसका एक पत्ता सूखा था, टूट कर गिर गया, आवाज़ हुई ताड़ से, हडबडा के वो खरगोश जागा, और भागा क्योंकि आवाज़ हुई थी, दूर एक स्थान पर जाकर बैठता है, सोचता है क्या हुआ, तो कुछ नहीं, एक बडे पेड़ का बड़ा पत्ता, सुखा हुआ गिरा, तो उसको खुद पर बड़ी ग्लानी हुई. (खरगोश सोचता है) क्या मैं हूँ? भगवान, तूने मुझे कैसा बनाया है? कोई मैं प्रतिकार नहीं कर सकता, मेरे दांत नहीं, नाखून नहीं, सींह नहीं, कुछ नहीं, सुखा पत्ता खडका, तो मुझे अपनी नींद छोड़ कर भागना पड़ा, कैसा तूने बनाया? इतना सा छोटा सा जीव, क्या करेगा, डरेगा नहीं तो? कम से कम मुझे हाथी जैसा शरीर देता, तो मैं डरता नहीं बड़े पत्ते से. भगवान सबकी सुनता है, उसकी (खरगोश की) भी सुन रहा है, भगवान की क्या इच्छा हुई, सुनकर ज़रा हंसा, और तथास्तु कह दिया, तो खरगोश हाथी जैसा बन गया. खरगोश को बड़ा आनंद हुआ, सोचा अबतो डरने की बात नहीं है, हाथी जैसे बड़े बन गए, अब आराम से हम नहाएँगे, नींद लगभग हो गयी है, नहा धो कर फ्रेश हो जाएँगे, फिर घूमेंगे जंगल में. वो तालाब की ओर चला, तालाब के किनारे मेढकों के झुण्ड ने देखा कोई विचित्र प्राणी आया है, दीखता तो खरगोश जैसा है, लेकिन है तो हाथी जितना बड़ा, तो मेढक भागने और छिपने लगे, तो उसने आवाज़ दिया, “ए डरो मत भाई लोगों, मै रोज़ दिखने वाला वही खरगोश ही हूँ, ये भगवान की कृपा से इतना बड़ा बन गया हूँ, अब बिना डरे जंगल में घूमूँगा, घूमकर आकर फिर नहाऊंगा तालाब में, आपको मुझसे कोई डरने की ज़रुरत नहीं है”. मेढकों ने कहा, “लगते तो तुम वही हो आवाज़ से, हमको तो अब डर नहीं है, तुमने परिचय दिया तो हम समझ गए कि तुम हमारा कुछ नहीं बिगाडोगे, लेकिन तुमको बड़ा भय है इसमें”. खरगोश बोला, ”क्यों?”. मेढ़को ने बताया, “यहाँ एक मगरमच्छ आ गया है, और पानी के अन्दर वह हाथी पर भारी पड़ता है. इसलिए स्नान मत करो और वापस जाओ”. तो बेचारा खरगोश उलटे पाँव लौट गया, फिर से रोने लगा, क्या भगवान क्या फायदा हुआ, हाथी जितना बड़ा बनाया, क्या अच्छा होता, मगरमच्छ जैसी ताकत देता, मोटी खाल देता, शरीर पर कांटे देता, तो मैं डरता नहीं, आराम से स्नान कर लेता. भगवान तो सुन ही रहा था, क्या हश्र हुआ हाथी जैसा बनाने के बाद. भगवान फिर से हंस दिया, और कहा ‘तथास्तु’. तो तुरंत खरगोश की खाल मोती हो गयी, कांटे आ गए उस पर, ताकत आ गयी शरीर में. खरगोश को लगा की चलो अब तो डरने की ज़रुरत नहीं है. फिर से निकला छुपने की जगह से बाहर, जैसे ही बाहर कदम रखा, शेर की दहाड़ सुनी. अब शरीर तो दूसरा बन गया था लेकिन मन तो वही था, तो दहाड़ जैसे ही सुनी, फिर से दौड़ कर दूसरे झुरमुट में जाकर छुप गया. फिर उसके ध्यान में आया, हम तो बड़े बन गए हैं, मोटे भी बन गए हैं, और ताकत भी है, तो हमको डरने की क्या आवश्यकता? मगर फिर से रोने लगा, क्या भगवान क्या किया तुमने, ये सब दिया तुमने, मगर फिर भी शेर से डरता हूँ, उसके जैसे दांत नहीं है, नाखून नहीं है, तो भगवान ने कह दिया तथास्तु, वो भी उसको प्राप्त हो गया. फिर निकला की अब तो किसी से डरने की आवश्यकता नहीं है, तो देखा की जंगल में सारे पशु भाग रहे हैं, देखा सब भाग रहे हैं एक दिशा में, पीठ पर पैर रखकर भाग रहे हैं, कोई रुककर बोलने बताने की जगह सब भाग रहे हैं. तभी कूदते-फांदते बंदरों में से एक रूककर बोला, “अरे भैया, हुम भाग रहे हैं, तुम भी भागो जान प्यारी है तो, क्योंकि जंगली भैंसों का एक झुण्ड यहाँ आ रहा है, सबको रौंद रहा है, तो तुम बगल हट जाओ, छुप जाओ या यहाँ से भाग लो”. खरगोश फिर से जाकर रोने लगा क्या भैंसे जैसा तो तुमने नहीं बनाया, क्या मजाक कर रहे हो भगवान, मैं प्रार्थना करता हूँ, तुम वरदान भी देते हो, लेकिन समस्या तो सँभालते नहीं हो. तो फिर भगवान ने उसको कहा आकाश से कि, “अरे मुर्ख, तुम अगर डर भगाना है तो ये मोटी खाल, वो वजन और वो आकार, दांत, नाखून, ये सब मांगने की बजाए, पहले तू अपने छोटे से सुकोमल शरीर में ही, एक निडर ह्रदय मांग लेता तो सारा संकट समाप्त हो जाता, जो करना चाहिए वो तो तुम कर नहीं रहे हो, और इधर उधर की सब बातें कर रहे हो.”
हिन्दू समाज ही पूरी दुनिया की समस्याओं का निवारणकर्ता:
अपने देश की समस्याओं को आज की तारिख में देखते हैं, तो यही बात ध्यान में आती है. समस्याएँ आज की हैं नहीं, बहुत पुरानी हैं, शतकों पुरानी समस्याओं से हम जूझ रहे हैं. ऐसा नहीं की हम चुपचाप पड़े समस्याओं की मार खाते रहे, कितने महापुरुष हुए, कितने पराक्रमी वीर हुए, सबने अपना-अपना काम किया बलिदान दिया. सब प्रकार की समस्याओं से लड़ने वाले लोग हमें मिले, पिछले २०० वर्ष के इतिहास में हमारे देश में जितने महापुरुष हुए, और जितने प्रयोग हुए, उतने दुनिया के गत २००० वर्ष के इतिहास में नहीं हुए. लेकिन ऐसा होने के बाद भी समस्याएँ ज्यों की त्यों कायम हैं. अब समस्याएँ हैं तो बड़ी विकराल बड़ी भयंकर. ये समस्याएँ ऐसी हैं, जहाँ से चलीं वहां से भारत आते-आते, रास्ते में जितने देश थे, कोई ५० साल में, कोई १०० साल में, उन्होंने बदल ही दिया पूरा, समाप्त ही हो गए वो, देश के देश. इस्लाम की आंधी अरबिस्तान के बाहर निकली तो ७७ साल में स्पेन से साइबेरिया तक, पूरा आधिपत्य उनका हो गया. पारसियों का देश ईरान, वो ईरान भी रहा नहीं, पारसी भी रहा नहीं, आर्यों का भी रहा नहीं, पारसियों का भी रहा नहीं, वो तो आज शिया मुस्लिमों का देश माना जाता है, बचे-खुचे लोग उसके भारत में आकर पनाह लेकर, सदियों से रह रहे हैं. ऐसी समस्या है, लेकिन विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि ऐसी भयंकर इस्लाम की आंधी को, भारत वर्ष की सीमा पर दो छोटे राज्य थे काबुल और जाबुल, उसको जीतने में १०० साल लग गए, सिन्धु नदी के किनारे आते-आते पौने तीन सौ साल लग गए, अन्दर घुस गए और २०० साल में भारत पदाक्रांत करना चाहा लेकिन आसाम को छू नहीं सके, आसाम पर कभी मुगलों का सुल्तानों का बादशाहों का तुर्कों का अफगानों का राज्य रहा ही नहीं, हिन्दुओं का ही राज्य रहा, बहुत आक्रमण किये, चार बार आक्रमण हुए, आखिर चौथी बार तो ब्रम्हपुत्र के पानी में उस आक्रामक सेना को बहा दिया आसाम के वीरों ने, तब जाके समाप्त हो गयी आक्रमण की बातें. और ५०० साल यहाँ पांच सल्तनतें और एक बादशाही राज करती रही, लेकिन आज अपना देश हिंदुस्तान है, अभी भी अस्सी प्रतिशत हिन्दू हैं, हिन्दुओं के प्राचीन जीवन को आज भी ज्यों का त्यों यहाँ देखा जा सकता है. तो इन समस्याओं की तो अपने को (हम को) समाप्त करने की ताकत ही नहीं है, क्योंकि ५०-१०० साल में उन्होंने जो अन्यत्र कर दिया, और यहाँ १००० साल माथा पटक रहे कुछ नहीं हो रहा है. तो समस्याओं की तो हमको समाप्त करने की ताकत ही नहीं, और हम १००० साल से प्रयत्न कर रहे वो समाप्त नहीं हो रहे. तो गड़बड़ कहाँ है, वो भी नहीं मिटते हम भी नहीं मिटते, कोई परिणाम ही नहीं, ऐसा क्यों हो रहा है? इसको सोचते हैं तो ध्यान में आता है, संघ के चिंतन के मूल में परिस्थिति का ये आकलन है. हिन्दू समाज के पास सबकुछ है, आज की अपनी स्थिति में भी हिन्दू समाज सारी दुनिया पर भारी है, हिन्दू समाज की एक ही बात है (समस्या है) की वह भूल ही गया है कि वह कौन है, और भूल गया है इसलिए बंट गया है. अगर हम हिन्दू नहीं हैं, तो किसी जाति के हो जाते हैं. अगर हम हिन्दू नहीं हैं, तो किसी एक पंथ, सम्प्रदाय के हो जाते हैं. अगर हम हिन्दू नहीं हैं, तो किसी एक प्रान्त के रहने वाले हो जाते हैं, तो किसी एक भाषा के बोलने वाले हो जाते हैं. और बाकी लोगों को पराया मान लेते हैं. इसमें और स्वार्थ आ जाता है, तब हम अपनों के प्रति अपनत्व को भूलकर अपनों के ही गले पर अपना पैर रखते हैं, और स्वार्थ के लिए विदेशियों को भी सर पर बैठा लेते हैं. पूरा इतिहास देखेंगे अभी तक का, इस क्षण तक का, तो यही हो रहा है. इस स्वभाव के दोष को हिन्दू समाज से निकालना, उसको आत्मगौरव संपन्न बनाना, गुणसम्पन्न बनाना, और संगठित रूप में चलना सिखाना, ये अगर करते हैं, तो इस समाज की शक्ति इतनी प्रचण्ड है, कि अपनी समस्याओं का समाधान तो ढूंढ ही लेगा, सारी दुनिया की समस्याओं का निवारणकर्ता भी वही बनेगा, उसी के पथ प्रदर्शन में सब देश चलेंगे, और सुखी हो जायेंगे. नहीं तो इन समस्याओं का कोई पार नहीं है, सारी दुनिया में ये समस्याएँ हैं, दुनिया को भी उपाय नहीं पता. आजकल दुनिया चिंतन कर रही, कि भारत के पास इसका उपाय होगा, क्योंकि उनके पास उनका प्राचीन विचार है. और विचार तो बिलकुल ठीक है, लेकिन दुनिया राह देख रही कि अपने विचार के आधार पर चलने वाला समाज ये लोग खड़ा करेंगे, तो उसके चलने से हमको भी रास्ता मिलेगा, हम भी उसके पीछे- पीछे चलेंगे, ये (हिन्दू समाज) एक उपाय करते तो बाकी सारा ठीक हो जाता.
अंग्रेज थे, तो हम उनको दोष देते हैं कि उन्हीं के कारण हमारी सब दुर्गति है, अब अंग्रेज चले गए, ६७ साल हो गए, अब क्या है? अब कौन है जिम्मेवार? अपने ही लोग हैं, बिगाड़ने वाले भी अपने ही लोग हैं. तो हम तो अपने ही दोषों के चलते दुस्थिति में हैं. जैसे गरिष्ठ अन्न खाकर आदमी सो गया, और हाजमा ठीक नहीं है, तो उसको स्वप्न आयेगा, दुस्वप्न भी आयेगा. अब स्वप्न में कोई बड़ा राक्षक पीछा करता है, तो वो भागता है, भागता है, भागना होता नहीं है, राक्षक पास आरहा है, भाग रहे, लेकिन राक्षक पीछा नहीं छोड़ रहा है. अब वो सपने में कितना भी चिल्लाए कुछ भी करे, राक्षक उसे सपने में पकड़ेगा ही नहीं, क्योंकि सपने में मार ही नहीं सकता, सपना तो सपना ही है, लेकिन डर तो लगता है. सपने में दौड़ रहे हैं, सोते-सोते ह्रदय गति तेज़ हो जाती है. उपाय? उपाय क्या है? नींद छोड़ कर जागो, एक मिनट में समस्या समाप्त, जाग गए तो सपने रहते ही नहीं, ऐसा ही हो रहा है. और इसलिए हम लोगों ने सोचा, कि ठीक है, तात्कालिक समस्याओं से लड़ने वाले अनेक लोग हैं, उस समय तो थे ही, अच्छे-अच्छे लोग थे, उन सबका अनुभव भी यही बताता है, कि कुछ मूलभूत बातें हिन्दू समाज की कमियां हैं, उनको जब तक दूर नहीं करते तब तक हमारा काम भी पूरा नहीं होगा, सफल नहीं होगा, ऐसा सब लोग सोचते थे, और मानते थे, और डॉ० साहब को पता था, क्योंकि डॉ० साहब सबके साथ सम्बन्ध रखते थे, सबके कामों में कार्यकर्ता बनकर के काम करते थे. तो उनको (डॉ० साहब को) उनके (अन्य सभी के) चिंतन के निष्कर्षों का भी पता था. अब मालूम सबको था, लेकिन करना कैसे पता नहीं था. जिनको कैसे करना, इसको हम खोज लेंगे ऐसी उम्मीद थी, उनको फुर्सत नहीं थी. तो डॉ० साहब ने सोचा, सब छोड़कर, इसी के पीछे मैं लगता हूँ, ८-१० साल उन्होंने प्रयोग किये, और अपना संघ अस्तित्व में आया, उस काम को हम कर रहे हैं. जब शुरू किया तब तो लोगों का बिलकुल ही ध्यान नहीं था और लोग तो डॉ० साहब को पागल समझते थे. छोटे बच्चों को लेकर मैदान में कुछ खेल खेल रहे और कह रहे हैं देश का इससे कुछ भला होगा, ऐसा नहीं होगा, “डॉ० हेडगेवार बड़ा अच्छा आदमी था, लेकिन आजकल लगता है की पागल हो गया, नाँक साफ़ नहीं कर सकते ऐसे बच्चों के आधार पर, कह रहा है की देश को परम वैभव संपन्न बनायेंगे”. आज ऐसा कोई नहीं कहता. आज सब लोग संघ की ओर टकटकी लगाए देख रहे, संघ क्या करता है? क्या नहीं करता है, अनुमान भी करते हैं, और अनुमान हमेशा उनका गलत होता है. मैं चार दिन से यहाँ हूँ, और खबरें छप रही हैं बाहर पेपर में, अन्दर क्या हुआ किसी को पता नहीं है, अपने-अपने अनुमान चला रहे हैं. अरे भाई जिन बातों का आप लोग (पत्रकार) खूब मन से विचार करते हो और मानते हो कि इसी के आधार पर देश का भाग्य बदलने वाला है, वो बातें तो हमारी गिनती में भी नहीं हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि, नेता, नारा, नीति, पार्टी, सरकार, अवतार इसके आधार पर भाग्य नहीं बदलता, हाँ वो सहायक होते हैं, इसलिए उनका अच्छा होना आवश्यक है, उस सम्बन्ध में अपना जो कर्तव्य है उतना तो हमको करना ही है, और हम करते भी हैं, परन्तु वो उपाय नहीं हैं. ये सब जहाँ से आते हैं उस समाज को बनाना, और समाज प्रबोधन से नहीं बनता, प्रबोधन से समाज की जानकारी बनती है. प्रबोधन से समाज को बदलना होता, तो हमारे यहाँ प्रबोधन कुछ कम है क्या? राम हुए, कृष्ण हुए, बुद्ध हुए, महावीर हुए, १०-१० सिख गुरु हुए, वहीँ इतने सारे नेता हुए, दुनिया में जिनका नाम चमकता है, और लोग जिनके विचारों की दुहाई देकर काम कर रहे हैं सारी दुनिया में, ऐसे लोग हमारे यहाँ हुए, और हमलोग कहाँ हैं? हम लोग किस स्थिति में हैं? हमारे यहाँ कौन से दृष्य दिखते हैं? तो उपदेशों से होता, महापुरुषों से होता, तत्वज्ञान से होता, तो हमारा देश तो अबतक स्वर्ग बन जाना चाहिए था. लेकिन उसपर चलना पड़ता है. जो उपदेश हैं, जो आदर्श हैं, जो महापुरुष हैं, उनके बनाए रास्तों पर चलना पड़ता है, तब काम होता है. और चलने की हिम्मत अकेले को नहीं रहती, और कोई एक दौड़ पड़ा महापुरुष उस रास्ते से चला गया, देखा तो अपनी हिम्मत नहीं बनती, क्योंकि फिर हम लोग क्या करते हैं? हमलोग उस महापुरुष की पूजा करते हैं. आप बड़े महान हैं, देश के लिए बलि गए, बस ये तो वही कर सकते हैं हम तो नहीं कर सकते हैं. इसलिए हम उनकी जयंती, पुण्यतिथि, पूजा सब करेंगे. वो जैसा करते हैं, वैसा नहीं करेंगे. डॉ० साहब को एक सज्जन मिले और पूछा कि, “आप राम की पूजा तो रोज़ करते नहीं हो, और धर्म का काम करते हो, ऐसा कहते हो, तो ये सब ठीक नहीं है”. तो डॉ० साहब ने उनसे पूछा कि, “ठीक है रामायण मैंने पढ़ी है, आपने पढ़ी है, तो भगवन राम के जो आदर्श हैं उसको अपने जीवन में कितना उतारा?” तो वो सज्जन गुस्सा हो गए, बोले, “भगवान राम, भगवान हैं, और न देव चरितं चरेत, देवों के जैसा नहीं चलना, ऐसा अपनी संस्कृति का आदेश है”. अब ये उलटी गंगा कब से बही, क्योंकि अपने यहाँ तो, शिवो भूत्वा, शिवो ...........है. शिव की पूजा करना है, तो शिव बनकर करो. ये विचित्र स्थिति अपने समाज की उसको बदलना ज़रूरी है. और इसलिए हमने सोचा कि सामान्य लोगों में परस्पर आत्मीयता, भेद और स्वार्थ का पूर्ण तिरोहन. और उसकी गुणवत्ता ऐसी बनायेंगे कि वो देश के लिए जियेगा-मरेगा और अकेले नहीं, सबको साथ लेकर चलेगा, सबके साथ चलेगा. समाज बोलेगा, समाज चलेगा, समाज करेगा, तो एक दिशा में करेगा, एक जैसा करेगा, एक ही समय में उसी समय में करेगा.
इतने विदेशी आक्रामक आये, और जिस दिन उन्होंने अपनी देश की सीमा के अन्दर पैर रखा, उसी दिन से उनके खिलाफ संघर्ष शुरू हुआ, यही अपना इतिहास है. अपना इतिहास पराजय का नहीं है, अपना इतिहास संघर्ष का इतिहास है. जिस कोई विदेशी आक्रामक अपने यहाँ प्रवेश कर गया, उस दिन से उसके खिलाफ संघर्ष हुआ. लेकिन पूरे इतिहास में, पुरे देश में, एक समय सबलोग उठे ऐसा दुर्भाग्य से नहीं हुआ, और ये पहेली बुझाने में उनको देर नहीं लगी. एक होकर सब उठ जाते, तो भारत वर्ष का इतिहास बदल गया होता. एकसाथ मिलकर, एक समय में, एक काम जैसा तय है वैसा करना, अपने मन और मत सबको बाजु रखना, सबने मिलकर तय किया है, वो करना. तय करने के पहले जो चर्चा होती है उसमे सबको स्वतंत्रता है, मत रखने की चर्चा करने की सब, लेकिन एक बार निर्णय हो गया तो उसके अनुसार काम करना. ये आदत नहीं रही, आज भी नहीं है. आज भी देश के अच्छे प्रामाणिक लोगों में भी इस मतभेद के कारण मनभेद है, तो सज्जन शक्ति में कभी एकता आती ही नहीं, दुर्जन लोगों के खिलाफ. एक तो सब एकसाथ सक्रीय नहीं होते, और सक्रियता में छोटे-मोटे विचार को लेकर भेद हो जाता है, तो अलग चल देते हैं. ये संगठन का स्वभाव हिन्दू समाज का बनाना, ये काम लेकर अपना संघ शुरू हुआ, और जहाँ तक आया है, जहाँ पर हम तो इन सब बातों का अनुभव अपने मन में करते ही हैं, जो मैं बोल रहा हूँ कोई नई बात नहीं, हमारे नित्य अनुभव की बात है, जो स्वयंसेवक हैं उसके लिए, लेकिन समाज भी उसका अनुभव आज कर रहा है, इसलिए हमारे सामने कर्तव्य कौन सा है? ऐसा विचार करते हैं तो स्पष्ट बात है, संघ को बढाओ. गाँव-गाँव तक, प्रत्येक बस्ती में, संघ के ऐसे लोगों को निर्माण करने वाली शाखा होती है, उसके बिना दूसरा चारा नहीं है. देश में आपत्ति आती है आसमानी हो या सुल्तानी हो, सेना-पुलिस के पहले कभी-कभी संघ के स्वयंसेवक पहुँच जाते हैं, अपना काम बिलकुल ठीक करते हैं, पाई-पाई का हिसाब रखते हैं, जितने समय में काम होना है, उतने समय में काम पूरा करते हैं, और करते समय अपना स्वार्थ देखते नहीं, अपना घर देखते नहीं, अपनी गृहस्थी देखते नहीं, समाज का काम पहले. तो लोगों को आश्चर्य होता है की आपलोग क्या सिखाते हैं? हमलोग क्या सिखाते हैं, हमको पता है, हमलोग कुछ नहीं, शाखा पर कबड्डी सिखाते हैं. बड़े-बड़े भाषण अपने यहाँ होते नहीं, एक-एक समस्या का गहन और व्यापक विचार करके अपने स्वयंसेवक को प्रशिक्षित करना, ऐसे तो हम नहीं करते. जानकारी बताते हैं, लेकिन बहुत ज्यादा हम इन लोगों को मैदान पर लाते हैं, शारीरिक कार्यक्रम, बौधिक कार्यक्रम, छोटे सरल कार्यक्रम करते हैं, और उसके आधार पर हमारा जो स्वयंसेवक तैयार होता है, वो सब करता है, उसका ट्रेनिंग हम नहीं देते हैं. गोला-बारी चल रही है, और सेना को अन्न पहुँचाना है, कैसे पहुँचाना है, ट्रेनिंग नहीं है हमारी, लेकिन जब ये काम पड़ता तो हमारा स्वयंसेवक सबसे आगे होता है और ठीक करता है. सेना के लोग कहते हैं, सामान्य आदमी मिले, तो उसको बॉर्डर पर भेजना है तो तैयार करने के लिए उन्हें ६ महीने लग जायेगा, संघ का स्वयंसेवक मिले तो ३-४ दिन काफी हैं. यहाँ क्या पढ़ाते हैं हमलोग? यहाँ कुछ नहीं पढ़ाते हैं, यहाँ शाखा है. यह इस शाखा की महत्ता है, क्योकि सब काम करने के लिए, जो आवश्यक मन है मनुष्य का, स्वभाव है, प्रत्यक्ष आचरण है, और समर्पण है, वो यहाँ निर्माण होता है. हम संघ के स्वयंसेवकों को स्वयंसेवक कहते हैं, उसका अर्थ क्या है? वो स्वयं होकर सेवा करने आया है, स्वयं होकर आया है, वो किसी की आज्ञा की राह नहीं देखता, उसको पता है ये अपना समाज है, और उसका दुःख है तो मुझे क्यों किसी का आदेश चाहिए. मेरा समाज है और वहां दुःख है तो मै जाऊंगा, करूंगा. कोई घर को आग लग गयी, अन्दर एक छोटा बच्चा रह गया, और परिवार खड़ा है, तो बैठक करते हैं क्या? की बच्चा अपना अन्दर फंसा है, उसको छुड़ाना की नहीं छुड़ाना, कैसे छुड़ाना, कौन छुड़ाएगा, कौन पहले जायेगा, ऐसे कुछ करते हैं क्या? जिसको पहले ध्यान में आता है कि एक बच्चा फंस गया, वो दौड़ पड़ता है, माता दौड़ पड़ती है, उसको पता है की वो घर जल रहा है, हम अन्दर जायेंगे तो बच्चा तो नहीं बचेगा मैं भी जल जाऊँगी, लेकिन रहा नहीं जाता है. ये अन्दर की आत्मीयता काम करती है. एक बहुत बड़े सज्जन आये, कुछ दिन पहले मिलने के लिए, बहुत बड़े, दुनिया में उनको बहुत बड़ा धनपति माना जाता है, दुनिया के पहले सौ धनपतियों में उनका नाम है, वो आये और मुझे कहने लगे कि, “हमारे पिताजी ने सोचा था, और हमको भी बताया कि देखो भाई, दुनिया में भला करना चाहिए, बात तो ठीक है, लेकिन भला करने के लिए पहले खुद कुछ बनो, तो उन्होंने और हमने मिलकर अब इतना बड़ा धन खड़ा कर लिया है कि अब किसी बात की कमी नहीं है, तो अब हमने सोचा है की भारत वर्ष में खूब सेवा करेंगे, तो बजट की कोई कमी नहीं, ५०० करोड़ हो १००० करोड़ हो, चाहे जितना लगा देंगे, आप लोगों के बहुत सारे सेवा कार्य, सुनते हैं की एक लाख तीस हज़ार से ऊपर है, मैं जानने के लिए आया हूँ कि इंफ्रास्ट्रक्चर आपने कैसे खड़ा किया, तो हम भी उसका लाभ लेकर हम भी ऐसा जाल खड़ा करेंगे.” तो मैंने उनको कहा कि “ये आपसे होगा नहीं, आप स्वतंत्र विचार कीजिये, आप कर सकेंगे, लेकिन हमारे तरीके से आप नहीं कर सकेंगे, वो क्यों? थोड़ा हमारा-आपका तरीका बिलकुल अलग है.” “आपको समाज का दुःख दिखा, आपने सोचा कि पहले मैं कमा लूँ, बाद में समाज को दूँ. हमारे यहाँ, हमारा स्वयंसेवक है, मुख्यशिक्षक है, कार्यवाह है, मंडलकार्यवाह है, खंडकार्यवाह है, वो तो बिलकुल सामान्य व्यक्ति है, उसका अपना घर भी बड़ी मुश्किल से चलता है, लेकिन वो समाज का दुःख देखता है तो दौड़ पड़ता है, वो विचार नहीं करता की मैं सेवा कार्य करने जा रहा हूँ, तो धन कहाँ से आएगा? वो शुरू कर देता है. जब शुरू कर देता है, और अन्दर की आत्मीयता से करता है, लोग देखते हैं तो पैसा आता है.”
और एक ऐसे ही सज्जन मिले, भारतवर्ष के बहुत से लोग हैं उस पहले १०० की सूचि में. क्योंकि मैं गया था मिलने उनसे मिलने के लिए, वो तो पहले से ही मान कर चले थे कि धन मांगने आया है. क्योंकि उनके पास सबलोग इसी के लिए जाते हैं. वो बहुत अच्छा सेवा कार्य करते हैं. सादगी से रहते हैं, अपने ऊपर कम से कम व्यय करते हैं, बहुत धन समाज में लगाते हैं. उनको ऐसा लगा, ये भी आये हैं कुछ न कुछ मांगेंगे. हम लोगों की बात हुई, लगभग एक घंटा गप-शप हुई, कोई विषय ही नहीं निकला पैसे का. वो अस्वस्थ हो गए, कब मांगेगा? क्या मांगेगा? राह देख रहे थे. फिर उन्होंने ही विषय निकाला कि, “आपने अभी बताया कि लाखों सेवा कार्य आपके चलते हैं, तो इसके फण्ड की व्यवस्था आप कैसे करते हैं?” उनको लगा की अब मैंने दी है जगह बोलने की तो अब ये मांगेगा. मगर मैंने कहा, “उसकी हमारी योजना कोई होती नहीं. हम काम शुरू कर देते हैं. हाँ पैसा जो आता है उसकी योजना हम व्यवस्थित रखते हैं, उसके हिसाब-किताब पर कोई ऊँगली नहीं रख सकता. लेकिन काम हमारा पहले शुरू हो जाता है, बाद में फिर जो पासा आता है उसपर आगे कार्य चलाते हैं”. तो फिर उनको रहा नहीं गया, कि अभी भी नहीं मांग रहा है. उन्होंने सीधा पुछा, “तो फिर आप आये क्यों हैं मेरे पास?” मैंने कहा, “मैं इसलिए आया हूँ, आप भी बहुत अच्छा काम कर रहे हो समाज में, शिक्षा में. हमारे पास भी चार-चार शिक्षा संगठन हैं, जिनका बहुत अनुभव है, अगर आपको काम करने में हमारी कोई मदद चाहिए, तो हम हमारे तग्य और अनुभवी लोगों को आपके पास भेज सकते हैं, जिससे आपको मदद हो सकती है. यही बताने के लिए आया था.” तो उनको बहुत आश्चर्य लगा. अब विद्या भारती के लोग उनके साथ जाते हैं और अपना सहयोग देते हैं. तो हमारा स्वयंसेवक काम करता है वो स्वयं प्रेरणा से करता है, कोई उस पर दबाव नहीं है. संघ में नियम नहीं है जो सेवा कार्य नहीं करेगा, उसको स्वयंसेवक नहीं माना जायेगा. इतने सारे स्वयंसेवक आते हैं, सब थोड़े ही सेवा में जाते हैं, लेकिन स्वयंसेवक हैं. कोई दबाव नहीं है, दबाव के कारण सेवा नहीं करता, अपनत्व के कारण करता है. स्वयंसेवक मजबूरी में काम नहीं करता, मजबूरी में बहुत से अन्य लोग काम करते हैं. बच्चा था पानी में गिर गया, गाँव के तालाब में, डूबने लगा तो चिल्लाया जोर से, वहां पे खड़ा एक लड़का कूद गया, और बच्चे को निकाल कर ले आया किनारे पर, तो लोगों ने उसको कंधे पर उठाकर जूलूस निकला. पत्रकार आये तो उन्होंने पूछा, “आपको कैसे प्रेरणा आयी, उस बच्चे को बचाने के लिए?” उसने कहा, “प्रेरणा-व्रेरणा छोड़ो, पहले ये पता करो मुझे गिराया किसने पानी में?” किसी ने धक्का मार के गिरा दिया, सीधा बच्चे के पास गिरा, बच्चे ने हडबडा कर उसका गला पकड़ लिया. अब मरना है तो दोनो को, बचना है तो दोनों को, तो मजबूरी में बच्चे को को भी बचा लिया. अपना स्वयंसेवक ऐसा नहीं है, उसकी कोई मजबूरी नहीं है, संघ का काम अपनी मर्ज़ी का काम, कोई स्वार्थ भी नहीं, हो भी तो पूरा तो होता ही नहीं है. स्वार्थी लोगों के स्वार्थ यहाँ पुरे नहीं होते. कल ही पूछा किसी ने बैठक में कि, “संघ में कोई आई-कार्ड नहीं मिलता, सर्टिफिकेट नहीं मिलता फिर हम संघ में क्यों आयें? ऐसा लोग हमसे पूछते हैं, तो क्या जवाब दें?” तो मैंने कहा, “आप जवाब दो, संघ में कोई सर्टिफिकेट या आई-कार्ड मिलेगा नहीं, तो आप संघ से दूर रहो, बिलकुल मत आना. ये तो बिलकुल पागल लोगों का काम है, जो बर्बाद कर लेते हैं अपने आप को, मिलता कुछ नहीं. कोई इनसेनटिव भी नहीं मिलता. इसलिए जब तुम पागल हो जाओगे तब आना. जब तक तुम पागल नहीं हो और संघ में नहीं हो, तब तक संघ भी ठीक है, तुम भी ठीक हो.” तो अपने यहाँ तो केवल देने के लिए ही आना होता है. हम सूचियाँ बनाते हैं हर काम की. मराठी में सूचि के लिए शब्द है ‘यादि’, इसका बहुवचन है ‘याद्या’. अपने प्रान्त संघचालकजी हैं महाराष्ट्र के, अपने बौधिक वर्ग में कहते हैं, “संघ में याद्या काम है” यानि सूचि बनाने का काम है, चार लोगों की बैठक है, सब एक दूसरे से परिचित हैं, फिर भी कागज़ पर लिखते हैं, ऐसी हमारी नीति है. वो कहते थे इसी का काम है, और कुछ काम नहीं है, और मतलब समझाते थे, मराठी में ‘या’ यानि आइये, और ‘द्या’ यानि दीजिये, अर्थात इसी का काम है, आइये और दीजिये, लीजिये वाला शब्द ही नहीं आता है. तो स्वयंसेवक को स्वार्थ की तो कोई आशा ही नहीं है, न मजबूरी है, न भय है, वो अपने आत्म प्रेरणा से काम करता है. मेरा समाज है, उसका दुःख मुझे निवारण करना ही है, उसके लिए योग्य बनना है. रोज़ आऊंगा, तपस्या करूंगा, और सेवा करूंगा. और सेवा करने के बदले क्या मिलेगा? कुछ नहीं मिलेगा, सेवा ही अधिकार है, इसलिए और-और सेवा करूँगा. तन समर्पित, मन समर्पित, और यह जीवन समर्पित. अब जीवन भी दे दिया तो क्या बचा? बची है एक चीज़ बची है, ‘चाह’ बची है. चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ. और इसीलिए संघ का स्वयंसेवक, हम स्वयंसेवक कहते हैं सभी को, लेकिन सबको यह विचार करना चाहिए, संघ जो हमें स्वयंसेवक कह रहा है, मैं स्वयंसेवक हूँ क्या? आज उसी का प्रश्न है. आज समस्या निवारण की लालच देकर समाज से अपना काम निकलने वाले बहुत लोग हैं. और भोला समाज उस लालच में कभी-कभी गलत लोगों के पीछे भी जाता है, उनको बड़ा भी कर देता है, फिर अपना माथा ठोकते रहता है. फिर हमारे पास आता है, कुछ करो. अब इस परिस्थिति को अगर पाटना है तो हर स्वयंसेवक को ऐसा बनना पड़ेगा. स्वयंसेवक तो हमको संघ ने कह दिया, जिस दिन पहला ध्वज प्रणाम किया, उस दिन संघ ने कहा ये हमारा स्वयंसेवक है. लेकिन स्वयंसेवक क्यों है? स्वयंसेवक बनने के लिए है. स्वयं प्रेरणा से माता की सेवा का व्रत धारा है, सत्य स्वयंसेवक बनने का सतत प्रयत्न हमारा है. सतत प्रयत्न है, खूब किया स्वयंसेवक के नाते, स्वयंसेवक जैसा जीवन जिए, और फिर लगने लगा की मैंने बहुत किया तो फिर गलत है, बहुत नहीं किया, और भी कर सकते हो और भी करने लायक है, गर्व मत करो. युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया और इतना दान दिया कि स्वर्ग में घंटा बजने लगा, सुना सब ने. सभी गर्व से फूल गए, इसके पहले कभी ऐसा नहीं हुआ, इंद्रदेव ने स्वर्ग में घंटा बजाने की आज्ञा दी, इतना दान दिया हमने (पांडवों ने). इतने में एक नेवला आया वहां पर, वो नेवला विचित्र था, था नेवले जैसा लेकिन आधा शरीर उसका सोने (स्वर्ण) का था. वो नेवला यज्ञकुंड के पास आया और वहां की भूमि की धूलि में लोटपोट हो गया, फिर अपने शरीर को देखा उसने इधर-उधर से ध्यान से, और फिर वापस जाने लगा. तो युधिष्ठिर महाराज ने पूछा कि, “आप कौन हैं? यहाँ क्यों आये हैं? और वापस क्यों जा रहे हैं बिना कुछ लिए हुए? हम तो देने के लिए बैठे हुए हैं, हमने इतना दान किया है कि स्वर्ग में घंटे बजने लगे, इतना श्रेष्ठ दान अभी तक नहीं हुआ है. आपको कुछ चाहिए तो बताइए.” तो नेवले ने उत्तर दिया कि, “मै यह देखने आया था कि क्या इतना कोई श्रेष्ठ यज्ञ है कि मेरा बाकी का शरीर सोने का कर दे, मगर मुझे बड़ी निराशा हुई, स्वर्ग में तो घंटे बज गए मगर मेरा बाकी का शरीर तो सोने का नहीं हुआ.” तो युधिष्ठिर को लगा, ऐसा कैसे हुआ? तो सुनो (नेवले ने सुनाया) “एक गरीब बेचारा, वानप्रस्थी ब्राम्हण था, वो इतनी खराब स्थिति में था कि भोजन भी बड़ी मुश्किल से कर पाता था. वो भोजन कैसे कमाता था, तो खेत जब लहलहाते हैं, पंछी कुछ दाना चुग लेते हैं, और भी प्राणी कुछ न कुछ दाने खा लेते हैं, बाद में किसान आकर काट लेते हैं, फिर वो दाना झाड़ते हैं, और घर पर ले जाते हैं, लेकिन कुछ दाने मिट्टी में गिर जाते हैं, वह उन दानों को बिनकर, उनसे अपना पेट भरता था, ऐसा तपस्वी था वह. लेकिन एक बार भयंकर अकाल पड़ा, किसी के पास कुछ नहीं बचा, मुझे भी दो-तीन दिन से कुछ नहीं मिला, और बहुत भूख लगी थी. तो उसके (ब्राह्मण के) के घर में कुछ मिलता है क्या? ऐसा देखने के लिए गया. फिर जो भूखा होता है वो बेशरम भी हो जाता है और निडर भी हो जाता है. तो जहाँ बैठे थे भोजन के लिए, वहीँ गया मैं, और देखने लगा उनके पात्रों पर आशा से. कई दिनों में, लगभग १५ दिनों में, बिन-बिन कर तकरीबन मुट्ठी भर दाने जमा हुए थे, उसको पीस कर, उसमे पानी मिलाकर, चार भाग करके, वो, उसका लड़का, उसकी लड़की और उसकी पत्नी, चारों बैठे थे भोजन करने. मैं गया उनके यहाँ. और कहा, महाराज मेरे लिए क्या? तो उसने अपना हिस्सा दिया, मेरा पेट नहीं भरा तो पत्नी ने दिया, फिर लड़के ने दिया, और आखिरी में लड़की ने भी अपना भोजन मुझे दे दिया. और क्योंकि १५ दिन से भूखे थे, और आया हुआ अन्न मेरे पेट में चला गया, तो थोड़ी देर के बाद पूरा परिवार मर गया. मैंने तो भूख के मारे विचार नहीं किया, और वहीँ सो गया, लेकिन उठ के देखता हूँ तो वहां की धुल से मेरा आधा शरीर सोने का हो गया. मुझे लगा कि स्वर्ग की घंटियाँ बजती हैं तो तुम्हारा भी यज्ञ इतना ही शक्तिशाली होगा, लेकिन ऐसा तो है नहीं तुम्हारा.” गर्व नहीं करना, कितना भी किया हो, कितना भी कर रहे हो. सतत प्रयत्न हमारा, और भी कर सकते हैं. इतना आगे इतना आगे, जिसका कोई छोर नहीं, जहाँ पूर्णता भी मर्यादा हो, सीमाओं की डोर नहीं. समाज में भी हम ऐसे ही कहते हैं, स्वयंसेवक को कहते हैं, राष्ट्रभक्ति मेरा नाम आर०एस०एस०-आर०एस०एस०, बिलकुल मत कहना, ये गलत है. हमने ठेका नहीं लिया है, सारा समाज राष्ट्रभक्त है. पथसंचलन में ये कभी मत कहना, कौन चले, भाई कौन चले? भारत माँ के लाल चले. हम अकेले भारत माँ के लाल नहीं हैं, पूरा समाज भारत माँ का लाल है. करने के बाद भी अपना अहंकार नहीं होना चाहिए, संगठन का भी अहंकार नहीं होना चाहिए. ऐसी पूर्ण मनोवृत्ति के, केवल सेवा का अधिकार मान कर, अधिकाधिक सेवा की इच्छा रखकर, स्वयं प्रेरणा से समाज के लिए काम करने वाला, काम करने के लिए योग्य बनने की शाखा पर साधना करने वाला, वो स्वयंसेवक होता है. अब आप सोचिये अपने-अपने बारे में कि हम स्वयंसेवक कितने हैं? टोपी-निकर पहन कर यहाँ बैठे हैं तो कुछ तो स्वयंसेवक जरूर हैं सब, मेरे सहित. लेकिन स्वयंसेवकत्व के इस स्तर तक हमको जाना है, कदम बढ़ा रहे है की नहीं? पहुंचे नहीं हैं तो कोई बात नहीं, कभी न कभी तो पहुँच जायेंगे. लेकिन कदम बढ़ाते हों तभी पहूँचेंगे. रस्ते में रुक गए हों, बैठ गए हों तो कैसे पहुंचेंगे?
हम लोग राष्ट्रीय हैं, यानी हमलोग पुरे राष्ट्र का विचार करते हैं. आज हिन्दू समाज की जो दृष्टि है उसमे हम भी किसी जाति में जन्मे हैं, किसी कुल में जन्मे हैं, किसी भाषा को बोलने वाले हैं, किसी मत-सम्प्रदाय को मानने वाले हैं, किसी प्रान्त के रहने वाले हैं. थोड़ा बहुत इसका अभिमान अपने मन में भी रहता है, लेकिन अपने जीवन में कोई भी कृत्य करेंगे, किसी भी कृत्य में अपना बल लगायेंगे, तो ये सोच कर लगायेंगे की सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए ये ठीक है की नहीं. अगर राष्ट्र के लिए ठीक नहीं, और मेरे लिए ठीक होगा तो भी नहीं करेंगे. क्योंकि हम राष्ट्र के हैं, हम जाति के नहीं हैं, हम कुल के नहीं हैं, हम पंथ-सम्प्रदाय के नहीं हैं, हम भाषा के नहीं हैं, हम प्रान्त के नहीं हैं, हम पार्टी के नहीं हैं. हम राष्ट्र के हैं. उस राष्ट्र का छोटा स्वरुप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है. वो विस्तारित होते-होते एकदिन राष्ट्र के साथ समव्याप्त हो जायेगा, उसके हम घटक हैं, हम राष्ट्रीय हैं.
और ये राष्ट्र कौन सा है? कैसा है? इसके बारे में बोलने में हमको कोई संकोच नहीं. उस बोलने से हमारे साथ लोग आते हों, या हमको लोग छोड़ जाते हों, हमको इसकी परवाह नहीं. हम डंके की चोट पर कहते हैं हिन्दुस्थान, हिन्दू राष्ट्र है, हिन्दुओं का है. हिन्दू धर्म संस्कृति के अनुसार चलेगा, हिन्दू समाज की इच्छा के अनुसार चलेगा. इससे सर्वांगीण उन्नति होगी हमारी, और हम बताते हैं इसकी सर्वांगीण उन्नति हम करने वाले हैं. एक सज्जन मिले, और उन्होंने कहा कि, “भाईसाहब ये तो बहुत अच्छा काम है और जल्दी बढ़ने की आवश्यकता है, बहुत ज्यादा समय नहीं है, और जल्दी बढ़ाइए, एक बात है, आप अगर ये हिन्दू-हिन्दू कहना बंद कर देते न, भारतीय कहते या सनातन ऐसा कुछ कहते, तो बहुत लोग जुड़ेंगे आपसे.” तो मैंने कहा, “बहुत लोग जुड़ेंगे, ये बात तो सही है, लेकिन हम नहीं छोड़ेंगे इस हिन्दू शब्द को, हम हिन्दू हैं, हमारा हिन्दू राष्ट्र है. हम इसी भाषा में बोलेंगे, इन्हीं शब्दों का उपयोग करेंगे. संघ तो हिन्दू और हिन्दुस्थान, इसको छोड़ेगा नहीं. हिन्दूराष्ट्र को छोड़ेगा नहीं.” तो उन्होंने कहा कि, “भाईसाहब विचार करना चाहिए, नहीं तो डूब जायेगा सब.” हमने बोला, “अगर हिन्दू, हिन्दुस्थान, और हिन्दुराष्ट्र डूबने वाला हो, तो हम उसके साथ डूबेंगे. बिना हिन्दुराष्ट्र के जीने की इच्छा हमको है ही नहीं, हम भी उसके साथ डूबेंगे, लेकिन उसको छोड़ेंगे नहीं.” क्योंकि वो सत्य है, हम सत्य पर चल रहे हैं, सत्य डूबने वाला हो, तो सत्य के साथ हम डूबेंगे. हमको बिना सत्य के रहना ही नहीं, हमको कोई पॉपुलैरिटी चाहिए ही नहीं, हमको खूब भीड़ चाहिए अपने पीछे, ऐसा भी कुछ नहीं है. सत्य है, सत्य के लिए जीना है, सत्य के साथ जीना है. हिन्दुस्थान, हिन्दुराष्ट्र है, यह सत्य है, हम सारी दुनिया को बताते हैं. जब लोग कहते थे गधा कहो, लेकिन हिन्दू मत कहो, तब भी हम यही कहते थे, और आज जब लोग कह रहे हैं, गर्व से कहो हम हिन्दू हैं, तब भी हम वही बात कह रहे हैं, क्योंकि सत्य परिस्थितियों के साथ नहीं बदलता. स्वामी विवेकानंद ने कहा है, “सत्य किसी को आदर वन्दना नहीं देता. सत्य के सामने, सब संस्कृतियों को, सब राष्ट्रों को आदर वन्दना करनी पड़ती है.” हम उस सत्य के साथ हैं. हमको बाकी किसी बात की चाह नहीं, उसी में रहना है, उसी में जीना है, उसी में मरना है. और अगर वो डूबने वाला है, तो उसी के साथ डूबना है.