✍ अतुल कोठारी (सचिव, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास)
श्रीनिवास
रामानुजन गणित के क्षेत्र में ध्रुव तारे के समान आज भी चमक रहे हैं. 98 वर्षों के बाद भी उनके द्वारा 32 वर्ष 4 मास एवं 4 दिन के
छोटे से जीवनकाल में गणित के क्षेत्र में जो कार्य किया गया, उसे सिद्ध करने के लिए दुनिया के गणित के विद्वान आज भी
प्रयासरत हैं.
रामानुजन ने 13 वर्ष की
उम्र से ही अनुसंधान कार्य शुरु किया था एवं 15 वर्ष की
उम्र में स्वयं किये हुए कार्य को नोटबुक में लिखने की शुरुआत की थी. उन्होंने 16 वर्ष की आयु में विख्यात गणितज्ञ जी.एस. कार की पुस्तक में से
ज्यामिति एवं बीजगणित के प्रमेय एवं सूत्र हल कर लिए थे और 25 वर्ष की आयु में त्रिघात एवं चतुर्घात समीकरण हल करने के
तरीके खोज निकाले थे.
श्रीनिवास रामानुजन के शोध कार्यों का पार्टिकल फिजिक्स, कम्प्यूटर साइंस, क्रिप्टोग्राफ़ी, पोलिमर केमिस्ट्री, परमाणु
भट्टी, दूरसंचार, कम्युनिकेशन
नेटवर्क, घात, न्यूकिलयर
फिजिक्स, चिकित्सा विज्ञान आदि क्षेत्रों में अनुप्रयोग किया जा रहा
है. उनके तीन हस्तलिखित नोट बुक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फन्डामेन्टल रिसर्च द्वारा
प्रकाशित किया गया. उन्होंने अंतिम दिनों में जो कार्य किया था, वह अप्रैल 1976 में
अमेरिका की विस्कोन्सीन यूनिवर्सिटी के विजीटिंग प्रो. जॉर्ज एन्ड्रयुज को
ट्रिनिटी कॉलेज के पुस्तकालय में से अचानक 140 पृष्ठ
मिल गए. प्रो. एन्ड्रयूज ने यह सारे पेपर “द लॉस्ट
बुक ऑफ रामानुजन” के नाम
से प्रकाशित किये.
तमिलनाडु के इरोड में 22 दिसम्बर 1887 को जन्मे रामानुजन का परिवार बेहद साधारण था. ग्यारहवीं की
परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के बाद परिवार की आवश्यकता के कारण वह ट्यूशन करने
लगे, बाद में विवाह हो जाने के बाद उनको कई स्थानों पर नौकरी हेतु भटकना
पड़ा. इस कारण से उनका गणित का कार्य भी प्रभावित होता था. परन्तु 6 वर्ष के कठिन समय में उनकी डिप्टी कलेक्टर रामस्वामी अय्यर
प्रो. पी.वी. शेषु अय्यर, सी.वी
राजगोपालचारी, रामचन्द्र राव आदि विद्वानों से भेंट
हुई और उन सभी के सहयोग से नौकरी के साथ-2 गणित का
कार्य भी वह करते रहे.
रामानुजन के जीवन में जिसकी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही वह
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रो. हार्डी की थी. उन्होंने जब रामानुजन का गणितीय
शोध कार्य देखा, तब वह आश्चर्यचकित रह गए और उन्हें
इंग्लैंड बुला लिया. वहां पर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज के फेलो
के रूप में रामानुजन को प्रवेश कराने, छात्रवृति
दिलाने एवं अध्ययन तथा शोध कार्य में सब प्रकार से सहयोग किया. रामानुजन 1914 से 1919 के मध्य
इंग्लैंड में रहे. उस दौरान उनके जीवन में काफी उतार-चढ़ाव आए. प्रथम विश्वयुद्ध
के कारण गणित के कार्य में रुकावट, खान-पान
में कठिनाई (क्योंकि रामानुजन पूर्णतः शाकाहारी थे), अत्यधिक
ठंड के कारण बीमारी आदि समस्याओं के बीच भी उन्होंने 37 शोध-पत्र प्रस्तुत किये. रामानुजन को 19 मार्च 1916 को
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से स्नातक की उपाधि दी गई. 06 दिसम्बर 1917 को ‘फेलो ऑफ
लंदन मैथेमेटीकल सोसाइटी’ तथा
फरवरी 1918 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के सदस्य के रूप में नियुक्त हुए.
मई 1918 में ‘फैलो ऑफ
रॉयल सोसाइटी’ बनने का सम्मान प्रथम भारतीय के रूप
में प्राप्त हुआ.
13 अक्तूबर 1918 को वह ट्रिनिटी कॉलेज के फेलो चुने गए. इन घटनाओं से रामानुजन
ने स्वयं को धन्यता का अनुभव किया क्योंकि उनके
गुरू के समान, प्रो. हार्डी भी इसी पद पर ट्रिनिटी कॉलेज में कार्यरत थे. असाध्य बीमारी की अवस्था में भारत वापस लौटने के बाद भी
उनकी गणित की साधना चलती रही. उनकी पत्नी जानकी देवी के शब्दों में कहें तो ‘‘पूरे समय पथारी में रहने के कारण उनकी पीठ एवं पैर में दर्द
होता था. परन्तु उसकी परवाह किये बिना रामानुजन कहते थे कि मुझे तकीया लगाकर बिठा
दो और बाद में स्लेट और पेन मांगकर गणित के अनुसंधान कार्य करने में मग्न हो जाते
थे. मृत्यु के दो मास पूर्व 12 जनवरी 1920 को प्रो. हार्डी को अंतिम पत्र लिखा. उसमें भी उन्होंने ‘मॉक थीटा फंक्शन’ पर मिले
परिणामों को भेजा था. श्रीनिवास रामानुजन ने 32 वर्ष की
छोटी आयु में जीवनभर संघर्षरत रहकर गणित के क्षेत्र में सारी ऊंचाईयां प्राप्त कीं.
1921 में प्रसिद्ध हंगेरीयन गणितज्ञ ज्योर्ज
पोल्या ने प्रो. हार्डी से रामानुजन की नोट बुक कार्य करने हेतु ली थी. कुछ दिनों
के बाद वह प्रो. हार्डी से मिलने आए और उन्होंने नोटबुक जल्दी में वापस कर दिया.
जब प्रो. हार्डी ने कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि अगर मैं इसके परिणामों को
सिद्ध करने की मायाजाल में फंस गया तो मेरा समग्र जीवन इसी में व्यस्त हो जाएगा और
मेरे लिए स्वतंत्र शोध कार्य करना संभव ही नहीं होगा. प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं
दार्शनिक बट्रेंड रसेल ने कहा कि प्रो. हार्डी एवं प्रो. लिटिलवुड ने ‘एक हिन्दू क्लर्क’ में
दूसरे न्यूटन को खोज निकाला’’. ए.पी.जे.
अब्दुल कलाम ने कहा था – भारत ही
नहीं पूरे विश्व के गणितज्ञों के लिए रामानुजन निरंतर प्ररेणास्रोत बने हुए हैं.
प्रो. हार्डी ने कहा –उन्होंने
मेरे जीवन को समृद्ध बनाया है, मैं उनको
कभी भूलना नहीं चाहता. प्रो. हार्डी ने तत्कालीन गणित के विद्वानों को 100 में से अंक दिये थे. जिसमें स्वयं को 25, लिटिलवुड को 30, जर्मन गणितज्ञ हिलवर्ड को 80 और
रामानुजन को 100 अंक दिये थे.
रामानुजन ने इंग्लैण्ड के पांच वर्ष के कार्यकाल में अनेक सम्मान प्राप्त किये, परन्तु
अपने जीवन की सरलता, सादगी और
भारतीयता को उन्होंने जीवन में यथावत बनाए रखा था. प्रो. के. आनन्दराव तो रामानुजन
के समय में ही किंग्स कॉलेज में थे. उनके
अनुसार इतनी प्रसिद्धि मिलने के बाद भी वे स्वभाव से विनम्र थे, रहन-सहन में सादगी थी.
रामानुजन विदेश में भी अपने लिए स्वयं ही भोजन बनाते थे. वे कहते थे, यदि कोई गणितीय समीकरण अथवा सूत्र
किसी भागवत विचार से मुझे नहीं भर देता, तो वह
मेरे लिए निरर्थक है.
जब उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, लिखते समय कागज खत्म हो जाते थे, तब लिखे हुए कागज पर लाल स्याही की सहायता से सूत्र लिखने लग
थे. नौकरी के समय में पोर्ट ट्रस्ट के रास्ते में पड़े हुए कागज इकट्ठे करके
उपयोग करते थे. चैन्नई विश्वविद्यालय से जब उनको 250 रुपये की
छात्रवृति स्वीकार हुई, तब
उन्होंने रजिस्ट्रार को पत्र लिखकर कहा कि इसमें
से मेरे घर का खर्च निकलने के बाद जो बच जाए वह गरीब विद्यार्थियों के सहायता कोष
में जमा करा दें. ऐसा मूल्य आधारित जीवन रामानुजन का था.
वर्ष 2011 में भारत
के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने श्रीनिवास रामानुजन के 125वें वर्ष निमित्त राष्ट्रीय गणित वर्ष घोषित किया था. तबसे
भारत में 22 दिसम्बर को गणित दिवस मनाया जाता है, परन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि भारत में श्रीनिवास रामानुजन के कार्य पर विशेष अनुसंधान
नहीं किया जा रहा. केन्द्र एवं राज्यों की सरकारों तथा देश में गणित पर कार्य करने
वाले विद्वानों एवं विश्वविद्यालयों को इस पर चिंतन करके कुछ ठोस कार्य करने के
बारे में विचार करना चाहिए.
श्रीनिवास रामानुजन का जीवन एवं कार्य मात्र भारत के ही नहीं विश्व के गणितज्ञों, शिक्षकों एवं छात्रों के लिए प्रेरणादायी है.
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