प्रख्यात समाजसेवी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक, पद्मविभूषण नानाजी देशमुख नहीं रहे। उनका चित्रकूट स्थित उनके निवास स्थान सियाराम कुटीर में निधन हो गया। वह 94 वर्ष के थे और पिछले काफी समय से आयुवार्धक्य के कारण अस्वस्थ चल रहे थे। सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, उन्होंने 27 फरवरी को सायंकाल लगभग 5 बजे अंतिम सांस ली।
नई दिल्ली में नानाजी के निधन का समाचार मिलते ही संघ एवं सहयोगी संगठनों के कार्यालयों में शोक छा गया। झण्डेवाला स्थित दीनदयाल उपाध्याय शोध संस्थान भवन में दिल्ली के कार्यकर्ताओं ने उनके चित्र के समक्ष पुष्पांजलि देकर श्रद्धांजलि समर्पित की। बड़ी संख्या में लोग चित्रकूट रवाना भी हुए हैं जहां 28 फरवरी को उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।
भारत में लोकतंत्र को सफल करने और उसे आम आदमी के प्रति उत्तरदायी बनाने वाले अग्रणी नायकों में नानाजी को शुमार किया जाता रहा है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए चले आपात विरोधी आंदोलन के अग्रणी नेताओं में नानाजी एक थे। उन्होंने लोकनायक जयप्रकाश नारायण को आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए राजी करने से लेकर उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संख के निकट लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। नानाजी को देखकर एक बार जेपी ने कहा था कि जिस संगठन ने देश को नानाजी जैसे रत्न दिए हैं वह संगठन कभी सांप्रदायिक और कट्टरवादी नहीं हो सकता।
वस्तुतः नानाजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उस पीढ़ी के कार्यकर्ता थे जिन्हें संघ संस्थापक एवं आद्य सरसंघचालक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने अपने हाथों से दीक्षित किया था। 11 अक्तूबर, सन् 1916 में उनका जन्म महाराष्ट्र के परभणी जिले के कदोली नामक एक छोटे से कस्बे के एक निर्धन परिवार में हुआ था। उनका बचपन घोर अभावों में बीता। यहां तक कि उनकी स्कूली शिक्षा भी ठीक से पूरी नहीं हो पाती थी। उन्होंने जीवन के प्रारंभिक दिनों में ट्यूशन पढ़ाने और ठेले पर फल-सब्जी बेचकर आजीविका कमाने का कार्य भी किया। देशभक्ति उनके जीवन में कूट-कूटकर भरी हुई थी। वे लोकमान्य तिलक के अनन्य भक्त थे। और बाद में डॉ. हेडगेवार ने उनके जीवन को नई दिशा दिखाई। सन् 1940 में जब डॉ. हेडगेवार का निधन हो गया, नानाजी ने अपना संपूर्ण जीवन संघ प्रचारक के रूप में देश को समर्पित करने का मन बना लिया।
वह प्रचारक बनकर कुछ दिन आगरा में रहे जहां उनकी मुलाकात पंडित दीनदयाल उपाध्याय से हुई। उसके बाद संघ कार्य के विस्तार के लिए उन्होंने पूर्वी उत्तरप्रदेश को चुना और गोरखपुर आए। यहां कई महीनों तक भटकने के बाद दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक विख्यात महानुभाव के घर घरेलु नौकर के रूप में उन्होंने काम शुरू किया। लेकिन चूंकि उनके मन और मिशन में संघ कार्य के विस्तार की ललक थी, अतएव वह खाली समय में संघ की शाखा का नियमित संचालन करने लगे। बच्चों में संस्कार निर्माण के इस अनूठे कार्य को देखकर लोग-बाग उनकी ओर खिंचे चले आए। धीरे-धीरे उन्होंने गोरखपुर समेत आस-पास के अनेक जनपदों में संघकार्य का विस्तार किया। शिक्षा के प्रति उनके मन में बचपन से ही तीव्र अनुराग था। यही कारण है कि उन्होंने गोरखपुर में नौनिहालों की शिक्षा के लिए देश के पहले सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना की।
सामाजिक सेवा एवं ग्रामीण विकास के क्षेत्र में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरूजी की प्रेरणा से दीनदयाल शोध संस्थान नामक एक अद्वितीय संगठन की नींव डाली। उनके जीवन पर भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक पंडित दीनदयाल उपाध्याय और संपूर्ण क्रांति के दिग्दर्शक नेता बाबू लोकनायक जयप्रकाश नारायण का अद्भुत प्रभाव था। संभवतः इन दोनों महानुभावों के वैचारिक और प्रेरक जीवन का प्रभाव था कि उन्होंने इनके विचारों के अनुरूप स्वावलंबी ग्राम और स्वराज को असली मायनों में जिन्दा करने के लिए राजनीतिक पथ से विरत हो अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। इसके माध्यम से उन्होंने गोण्डा में बाबू लोकनायक जयप्रकाश नारायण एवं उनकी धर्मपत्नी प्रभावती के नाम पर जयप्रभा ग्राम को विकास के आदर्श के रुप में स्थापित किया। उन्होंने पुणे के बीड़ और कालांतर में चित्रकूट में समग्र विकास के अनूठे प्रकल्प हाथ में लिए और एक दशक के भीतर ही उन्हें रोजगार, कृषि, स्वास्थ्य, पेयजल, अवस्थापना सुविधाओं से सुसज्जित कर ग्रामीण विकास को नवीन आयाम दिए।
सन् 1991 में उन्होंने चित्रकूट में ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की। सन् 1999 में देश को समर्पित सेवाओं के लिए उन्हें पद्म विभूषण के सम्मान से नवाजा गया। देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने राष्ट्रपति के रूप में नानाजी के चित्रकूट प्रकल्प को देखने के बाद सार्वजनिक रूप से उनके कार्य का चतुर्दिक बखान किया। नानाजी सन् 1999 में राज्यसभा में मनोनीत किए गए। सांसद पद का सदुपयोग करते हुए उन्होंने चित्रकूट में विकास कार्यों को नई बुलंदियों तक पहुंचाया। राज्यसभा के सदस्य के रूप में उन्होंने देश में फैले आकंठ भ्रष्टाचार और राजनीतिक अकर्मण्यता पर जमकर चोट की। वे सांसदों को मिलने वाले भत्तों और विशेष सुविधाओं के सख्त विरोधी थे और उनके कार्यकाल में जब सांसदो के वेतन-भत्तों में वृद्धि की गई, उन्होंने उसे लेने से इनकार कर उसे प्रधानमंत्री सहायता कोश में जमा करवाने का निर्देश दिया।
दिल्ली में दीनदयाल शोध संस्थान की छठवीं मंजिल पर ही उनका निवास स्थान था, जहां वह दिल्ली प्रवास के समय ठहरते थे।
चित्र विवरण- ऊपर से प्रथम- लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ नानाजी देशमुख, द्वितीय चित्र में-पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर, उद्योगपति रामनाथ गोयनका एवं डॉ. शांति पटेल के साथ 24 मार्च, 1979 को जेपी के स्वास्थ्य के लिए मुंबई में प्रार्थना करते हुए नानाजी देशमुख)
राकेश उपाध्याय, Panchjanya, New Delhi
No comments:
Post a Comment