कुरुक्षेत्र में संघ का मंथन आज
भास्कर न्यूज & कुर�गोरक्षा, कश्मीर मुद्दा व राष्टï्रीय सुरक्षा के मुख्य मुद्दों पर चर्चा करने के लिए शुक्रवार सुबह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक का आगाज गीता निकेतन आवासीय विद्यालय के सभागार में हुआ। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भारत माता के चित्र पर पुष्प अर्पित कर विधिवत रूप से इस कार्रवाई को अंजाम दिया। आने वाली 28 मार्च तक चलने वाली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व इससे संबंद्ध संगठनों की इस महत्वपूर्ण बैठक में 1400 प्रतिनिधि शिरकत कर रहे हैं। उदघाटन सत्र में संघ के सर कार्यवाहक सुरेश जोशी उर्फ भैय्या जी ने वार्षिक रिर्पोट पेश कर समाज के समक्ष अनुकरणीय उदाहरण पेश करने वाले नेताओं को नमन किया। उन्होंने श्रेष्ठ कर्मयोगी नानाजी देसमुख, संघ के अखिल भारतीय सह बौद्धिक प्रमुख रहे डा. श्रीपति शास्त्री, दक्षिण कर्नाटक के प्रांत संघ चालक डा. कृष्णमूर्ति, गुजरात प्रांत के नटवर सिंह , जम्मू कश्मीर के प्रांत संघ चालक ओमप्रकाश मैगी, वामपंथी नेता ज्योति बसु, छोटे लोहिया के रुप में विख्यात समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र, नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला, आंध्र के धर्मजागरण प्रमुख भीमसेन राव देशपांडे सहित देश के अन्य हिस्सों में देशसेवा को समर्पण करने वाले महापुरुषों को श्रद्धांजलि दी। सुरेश जोशी उर्फ भैय्या जी ने बताया कि इस वर्ष विश्वमंगल गो ग्राम यात्रा के रूप में कई प्रमुख संगठनों के सहयोग से देश को जागरूक करने वाला आंदोलन चलाया गया। बैठक 28 मार्च को संपन्न होगी।यात्रा के दौरान देशभर के आठ करोड़ 35 लाख से अधिक लोगों की ओर से हस्ताक्षरित ज्ञापन महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को सौंपा गया। सरकार्यवाहक सुरेश जोशी उर्फ भैय्या ने कहा कि आज देश की समस्याओं का समाधान केवल हिंदूत्व में है और हिंदू समाज में देशोत्मबोध, आत्मसम्मान की भावना प्रबल करना ही एकमात्र विकल्प है। यही कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ कर रहा है। संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक 28 मार्च को संपन्न होगी।
स्त्रोत : http://www.bhaskar.com/2010/03/27/402324.html
राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा कुरुक्षेत्र में प्रारंभ
राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा कुरुक्षेत्र में कल से प्रारंभ हुई . प. पु. सरसंघचालक डा. मोहन भागवत जी माँ भारती को पुष्प अर्पण कर तथा दीपक जलाकर सभा का शुभारम्भ किया.
त्रिदिवसीय इस प्रतिनिधि सभा का समापन रविवार २८ मार्च को होगा. इस प्रतिनिधि सभा में संघ के कार्यो का सिहांवलोकन, संपन्न हुए विभिन्न कार्यक्रमों की समीक्षा, देश के समक्ष वर्तमान चुनौतियां तथा परिस्थितियों पर गहनता से विचार विमर्श होगा . राष्ट्रीय हित के अनेक मुद्धो पर मंथन होकर प्रस्ताव पारित किये जायेंगे.
सोमवार, २२ मार्च २०१०
(गाँधीजी के नाम सुखदेव की यह ‘खुली चिट्ठी’ मार्च, 1931 में लिखी गई थी, जो गाँधी जी के उत्तर सहित हिन्दी ‘नवजीवन’, 30 अप्रैल, 1931 के अंक में प्रकाशित हुई थी. यहाँ सुखदेव के पत्र को प्रकाशित किया जा रहा है)
परम कृपालु महात्मा जी,
आजकल की ताज़ा ख़बरों से मालूम होता है कि समझौते की बातचीत की सफलता के बाद आपने क्रांतिकारी कार्यकर्त्ताओं को फिलहाल अपना आंदोलन बंद कर देने और आपको अपने अहिंसावाद को आजमा देखने का आखिरी मौक़ा देने के लिए कई प्रकट प्रार्थनाएँ की हैं.
वस्तुतः किसी आंदोलन को बंद करना केवल आदर्श या भावना से होनेवाला काम नहीं है. भिन्न-भिन्न अवसरों की आवश्यकताओं का विचार ही अगुआओं को उनकी युद्धनीति बदलने के लिए विवश करता है.
माना कि सुलह की बातचीत के दरम्यान, आपने इस ओर एक क्षण के लिए भी न तो दुर्लक्ष्य किया, न इसे छिपा ही रखा कि यह समझौता अंतिम समझौता न होगा.
मैं मानता हूँ कि सब बुद्धिमान लोग बिल्कुल आसानी के साथ यह समझ गए होंगे कि आपके द्वारा प्राप्त तमाम सुधारों का अमल होने लगने पर भी कोई यह न मानेगा कि हम मंजिले-मकसूद पर पहुँच गए हैं.
संपूर्ण स्वतंत्रता जब तक न मिले, तब तक बिना विराम के लड़ते रहने के लिए महासभा लाहौर के प्रस्ताव से बँधी हुई है.
उस प्रस्ताव को देखते हुए मौजूदा सुलह और समझौता सिर्फ कामचलाऊ युद्ध-विराम है, जिसका अर्थ यही होता है कि आने वाली लड़ाई के लिए अधिक बड़े पैमाने पर अधिक अच्छी सेना तैयार करने के लिए यह थोड़ा विश्राम है.
इस विचार के साथ ही समझौते और युद्ध-विराम की शक्यता की कल्पना की जा सकती और उसका औचित्य सिद्ध हो सकता है.
किसी भी प्रकार का युद्ध-विराम करने का उचित अवसर और उसकी शर्ते ठहराने का काम तो उस आंदोलन के अगुआओं का है.
लाहौर वाले प्रस्ताव के रहते हुए भी आपने फिलहाल सक्रिए आन्दोलन बन्द रखना उचित समझा है, तो भी वह प्रस्ताव तो कायम ही है.
इसी तरह हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के नाम से ही साफ पता चलता है कि क्रांतिवादियों का आदर्श समाज-सत्तावादी प्रजातंत्र की स्थापना करना है.
यह प्रजातंत्र मध्य का विश्राम नहीं है. उनका ध्येय प्राप्त न हो और आदर्श सिद्ध न हो, तब तक वे लड़ाई जारी रखने के लिए बँधे हुए हैं.
परंतु बदलती हुई परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार वे अपनी युद्ध-नीति बदलने को तैयार अवश्य होंगे. क्रांतिकारी युद्ध जुदा-जुदा मौकों पर जुदा-जुदा रूप धारण करता है.
कभी वह प्रकट होता है, कभी गुप्त, कभी केवल आंदोलन-रूप होता है, और कभी जीवन-मरण का भयानक संग्राम बन जाता है.
ऐसी दशा में क्रान्तिवादियों के सामने अपना आंदोलन बंद करने के लिए विशेष कारण होने चाहिए. परंतु आपने ऐसा कोई निश्चित विचार प्रकट नहीं किया. निरी भावपूर्ण अपीलों का क्रांतिवादी युद्ध में कोई विशेष महत्त्व नहीं होता, हो नहीं सकता.
आपके समझौते के बाद आपने अपना आंदोलन बंद किया है, और फलस्वरूप आपके सब कैदी रिहा हुए हैं.
पर क्रांतिकारी कैदियों का क्या? 1915 से जेलों में पड़े हुए गदर-पक्ष के बीसों कैदी सज़ा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं.
मार्शल लॉ के बीसों कैदी आज भी जिंदा कब्रों में दफनाये पड़े हैं. यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है. देवगढ़, काकोरी, मछुआ-बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र के कैदी अब तक जेल की चहारदीवारी में बंद पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं.
लाहौर, दिल्ली, चटगाँव, बम्बई, कलकत्ता और अन्य जगहों में कोई आधी दर्जन से ज़्यादा षड्यंत्र के मामले चल रहे हैं. बहुसंख्यक क्रांतिवादी भागते-फिरते हैं, और उनमें कई तो स्त्रियाँ हैं.
सचमुच आधे दर्जन से अधिक कैदी फाँसी पर लटकने की राह देख रहे हैं. इन सबका क्या?
यह पत्र हिंदी अख़बार 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ थालाहौर षड्यंत्र केस के सज़ायाफ्ता तीन कैदी, जो सौभाग्य से मशहूर हो गए हैं और जिन्होंने जनता की बहुत अधिक सहानुभूति प्राप्त की है, वे कुछ क्रांतिवादी दल का एक बड़ा हिस्सा नहीं हैं.
उनका भविष्य ही उस दल के सामने एकमात्र प्रश्न नहीं है. सच पूछा जाए तो उनकी सज़ा घटाने की अपेक्षा उनके फाँसी पर चढ़ जाने से ही अधिक लाभ होने की आशा है.
यह सब होते हुए भी आप इन्हें अपना आंदोलन बंद करने की सलाह देते हैं. वे ऐसा क्यों करें? आपने कोई निश्चित वस्तु की ओर निर्देश नहीं किया है.
ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि आप इस आंदोलन को कुचल देने में नौकरशाही की मदद कर रहे हैं, और आपकी विनती का अर्थ उनके दल को द्रोह, पलायन और विश्वासघात का उपदेश करना है.
यदि ऐसी बात नहीं है, तो आपके लिए उत्तम तो यह था कि आप कुछ अग्रगण्य क्रांतिकारियों के पास जाकर उनसे सारे मामले के बारे में बातचीत कर लेते.
अपना आंदोलन बंद करने के बारे में पहले आपको उनकी बुद्धी की प्रतीति करा लेने का प्रयत्न करना चाहिए था.
मैं नहीं मानता कि आप भी इस प्रचलित पुरानी कल्पना में विश्वास रखते हैं कि क्रांतिकारी बुद्धिहीन हैं, विनाश और संहार में आनंद मानने वाले हैं.
मैं आपको कहता हूँ कि वस्तुस्थिति ठीक उसकी उलटी है, वे सदैव कोई भी काम करने से पहले उसका खूब सूक्ष्म विचार कर लेते हैं, और इस प्रकार वे जो जिम्मेदारी अपने माथे लेते हैं, उसका उन्हें पूरा-पूरा ख्याल होता है.
और क्रांति के कार्य में दूसरे किसी भी अंग की अपेक्षा वे रचनात्मक अंग को अत्यंत महत्त्व का मानते हैं, हालाँकि मौजूदा हालत में अपने कार्यक्रम के संहारक अंग पर डटे रहने के सिवा और कोई चारा उनके लिए नहीं है.
उनके प्रति सरकार की मौजूदा नीति यह है कि लोगों की ओर से उन्हें अपने आंदोलन के लिए जो सहानुभूति और सहायता मिली है, उससे वंचित करके उन्हें कुचल डाला जाए. अकेले पड़ जाने पर उनका शिकार आसानी से किया जा सकता है.
ऐसी दशा में उनके दल में बुद्धि-भेद और शिथिलता पैदा करने वाली कोई भी भावपूर्ण अपील एकदम बुद्धिमानी से रहित और क्रांतिकारियों को कुचल डालने में सरकार की सीधी मदद करनेवाली होगी.
इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि या तो आप कुछ क्राँतिकारी नेताओं से बातचीत कीजिए-उनमें से कई जेलों में हैं- और उनके साथ सुलह कीजिए या ये सब प्रार्थनाएँ बंद रखिए.
कृपा कर हित की दृष्टि से इन दो में से एक कोई रास्ता चुन लीजिए और सच्चे दिल से उस पर चलिए.
अगर आप उनकी मदद न कर सकें, तो मेहरबानी करके उन पर रहम करें. उन्हें अलग रहने दें. वे अपनी हिफाजत आप अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं.
वे जानते हैं कि भावी राजनैतिक युद्ध में सर्वोपरि स्थान क्रांतिकारी पक्ष को ही मिलनेवाला है.
लोकसमूह उनके आसपास इकट्ठा हो रहे हैं, और वह दिन दूर नहीं है, जब ये जमसमूह को अपने झंडे तले, समाजसत्ता, प्रजातंत्र के उम्दा और भव्य आदर्श की ओर ले जाते होंगे.
अथवा अगर आप सचमुच ही उनकी सहायता करना चाहते हों, तो उनका दृष्टिकोण समझ लेने के लिए उनके साथ बातचीत करके इस सवाल की पूरी तफसीलवार चर्चा कर लीजिए.
आशा है, आप कृपा करके उक्त प्रार्थना पर विचार करेंगे और अपने विचार सर्वसाधारण के सामने प्रकट करेंगे।
परम कृपालु महात्मा जी,
आजकल की ताज़ा ख़बरों से मालूम होता है कि समझौते की बातचीत की सफलता के बाद आपने क्रांतिकारी कार्यकर्त्ताओं को फिलहाल अपना आंदोलन बंद कर देने और आपको अपने अहिंसावाद को आजमा देखने का आखिरी मौक़ा देने के लिए कई प्रकट प्रार्थनाएँ की हैं.
वस्तुतः किसी आंदोलन को बंद करना केवल आदर्श या भावना से होनेवाला काम नहीं है. भिन्न-भिन्न अवसरों की आवश्यकताओं का विचार ही अगुआओं को उनकी युद्धनीति बदलने के लिए विवश करता है.
माना कि सुलह की बातचीत के दरम्यान, आपने इस ओर एक क्षण के लिए भी न तो दुर्लक्ष्य किया, न इसे छिपा ही रखा कि यह समझौता अंतिम समझौता न होगा.
मैं मानता हूँ कि सब बुद्धिमान लोग बिल्कुल आसानी के साथ यह समझ गए होंगे कि आपके द्वारा प्राप्त तमाम सुधारों का अमल होने लगने पर भी कोई यह न मानेगा कि हम मंजिले-मकसूद पर पहुँच गए हैं.
संपूर्ण स्वतंत्रता जब तक न मिले, तब तक बिना विराम के लड़ते रहने के लिए महासभा लाहौर के प्रस्ताव से बँधी हुई है.
उस प्रस्ताव को देखते हुए मौजूदा सुलह और समझौता सिर्फ कामचलाऊ युद्ध-विराम है, जिसका अर्थ यही होता है कि आने वाली लड़ाई के लिए अधिक बड़े पैमाने पर अधिक अच्छी सेना तैयार करने के लिए यह थोड़ा विश्राम है.
इस विचार के साथ ही समझौते और युद्ध-विराम की शक्यता की कल्पना की जा सकती और उसका औचित्य सिद्ध हो सकता है.
किसी भी प्रकार का युद्ध-विराम करने का उचित अवसर और उसकी शर्ते ठहराने का काम तो उस आंदोलन के अगुआओं का है.
लाहौर वाले प्रस्ताव के रहते हुए भी आपने फिलहाल सक्रिए आन्दोलन बन्द रखना उचित समझा है, तो भी वह प्रस्ताव तो कायम ही है.
इसी तरह हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के नाम से ही साफ पता चलता है कि क्रांतिवादियों का आदर्श समाज-सत्तावादी प्रजातंत्र की स्थापना करना है.
यह प्रजातंत्र मध्य का विश्राम नहीं है. उनका ध्येय प्राप्त न हो और आदर्श सिद्ध न हो, तब तक वे लड़ाई जारी रखने के लिए बँधे हुए हैं.
परंतु बदलती हुई परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार वे अपनी युद्ध-नीति बदलने को तैयार अवश्य होंगे. क्रांतिकारी युद्ध जुदा-जुदा मौकों पर जुदा-जुदा रूप धारण करता है.
कभी वह प्रकट होता है, कभी गुप्त, कभी केवल आंदोलन-रूप होता है, और कभी जीवन-मरण का भयानक संग्राम बन जाता है.
ऐसी दशा में क्रान्तिवादियों के सामने अपना आंदोलन बंद करने के लिए विशेष कारण होने चाहिए. परंतु आपने ऐसा कोई निश्चित विचार प्रकट नहीं किया. निरी भावपूर्ण अपीलों का क्रांतिवादी युद्ध में कोई विशेष महत्त्व नहीं होता, हो नहीं सकता.
आपके समझौते के बाद आपने अपना आंदोलन बंद किया है, और फलस्वरूप आपके सब कैदी रिहा हुए हैं.
पर क्रांतिकारी कैदियों का क्या? 1915 से जेलों में पड़े हुए गदर-पक्ष के बीसों कैदी सज़ा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं.
मार्शल लॉ के बीसों कैदी आज भी जिंदा कब्रों में दफनाये पड़े हैं. यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है. देवगढ़, काकोरी, मछुआ-बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र के कैदी अब तक जेल की चहारदीवारी में बंद पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं.
लाहौर, दिल्ली, चटगाँव, बम्बई, कलकत्ता और अन्य जगहों में कोई आधी दर्जन से ज़्यादा षड्यंत्र के मामले चल रहे हैं. बहुसंख्यक क्रांतिवादी भागते-फिरते हैं, और उनमें कई तो स्त्रियाँ हैं.
सचमुच आधे दर्जन से अधिक कैदी फाँसी पर लटकने की राह देख रहे हैं. इन सबका क्या?
यह पत्र हिंदी अख़बार 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ थालाहौर षड्यंत्र केस के सज़ायाफ्ता तीन कैदी, जो सौभाग्य से मशहूर हो गए हैं और जिन्होंने जनता की बहुत अधिक सहानुभूति प्राप्त की है, वे कुछ क्रांतिवादी दल का एक बड़ा हिस्सा नहीं हैं.
उनका भविष्य ही उस दल के सामने एकमात्र प्रश्न नहीं है. सच पूछा जाए तो उनकी सज़ा घटाने की अपेक्षा उनके फाँसी पर चढ़ जाने से ही अधिक लाभ होने की आशा है.
यह सब होते हुए भी आप इन्हें अपना आंदोलन बंद करने की सलाह देते हैं. वे ऐसा क्यों करें? आपने कोई निश्चित वस्तु की ओर निर्देश नहीं किया है.
ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि आप इस आंदोलन को कुचल देने में नौकरशाही की मदद कर रहे हैं, और आपकी विनती का अर्थ उनके दल को द्रोह, पलायन और विश्वासघात का उपदेश करना है.
यदि ऐसी बात नहीं है, तो आपके लिए उत्तम तो यह था कि आप कुछ अग्रगण्य क्रांतिकारियों के पास जाकर उनसे सारे मामले के बारे में बातचीत कर लेते.
अपना आंदोलन बंद करने के बारे में पहले आपको उनकी बुद्धी की प्रतीति करा लेने का प्रयत्न करना चाहिए था.
मैं नहीं मानता कि आप भी इस प्रचलित पुरानी कल्पना में विश्वास रखते हैं कि क्रांतिकारी बुद्धिहीन हैं, विनाश और संहार में आनंद मानने वाले हैं.
मैं आपको कहता हूँ कि वस्तुस्थिति ठीक उसकी उलटी है, वे सदैव कोई भी काम करने से पहले उसका खूब सूक्ष्म विचार कर लेते हैं, और इस प्रकार वे जो जिम्मेदारी अपने माथे लेते हैं, उसका उन्हें पूरा-पूरा ख्याल होता है.
और क्रांति के कार्य में दूसरे किसी भी अंग की अपेक्षा वे रचनात्मक अंग को अत्यंत महत्त्व का मानते हैं, हालाँकि मौजूदा हालत में अपने कार्यक्रम के संहारक अंग पर डटे रहने के सिवा और कोई चारा उनके लिए नहीं है.
उनके प्रति सरकार की मौजूदा नीति यह है कि लोगों की ओर से उन्हें अपने आंदोलन के लिए जो सहानुभूति और सहायता मिली है, उससे वंचित करके उन्हें कुचल डाला जाए. अकेले पड़ जाने पर उनका शिकार आसानी से किया जा सकता है.
ऐसी दशा में उनके दल में बुद्धि-भेद और शिथिलता पैदा करने वाली कोई भी भावपूर्ण अपील एकदम बुद्धिमानी से रहित और क्रांतिकारियों को कुचल डालने में सरकार की सीधी मदद करनेवाली होगी.
इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि या तो आप कुछ क्राँतिकारी नेताओं से बातचीत कीजिए-उनमें से कई जेलों में हैं- और उनके साथ सुलह कीजिए या ये सब प्रार्थनाएँ बंद रखिए.
कृपा कर हित की दृष्टि से इन दो में से एक कोई रास्ता चुन लीजिए और सच्चे दिल से उस पर चलिए.
अगर आप उनकी मदद न कर सकें, तो मेहरबानी करके उन पर रहम करें. उन्हें अलग रहने दें. वे अपनी हिफाजत आप अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं.
वे जानते हैं कि भावी राजनैतिक युद्ध में सर्वोपरि स्थान क्रांतिकारी पक्ष को ही मिलनेवाला है.
लोकसमूह उनके आसपास इकट्ठा हो रहे हैं, और वह दिन दूर नहीं है, जब ये जमसमूह को अपने झंडे तले, समाजसत्ता, प्रजातंत्र के उम्दा और भव्य आदर्श की ओर ले जाते होंगे.
अथवा अगर आप सचमुच ही उनकी सहायता करना चाहते हों, तो उनका दृष्टिकोण समझ लेने के लिए उनके साथ बातचीत करके इस सवाल की पूरी तफसीलवार चर्चा कर लीजिए.
आशा है, आप कृपा करके उक्त प्रार्थना पर विचार करेंगे और अपने विचार सर्वसाधारण के सामने प्रकट करेंगे।
आपका
अनेकों में से ऐक
शत शत नमन - शहीदों के चरणों में (२३ मार्च विशेष दिवस )
भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु
नाम चुना गया । निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनो ने एक निर्जन स्थान पर बम फेंक दिया । पूरा हॉल धुएँ से भर गया । वे चाहते तो भाग सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें फ़ाँसी कबूल है । अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया । उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने थे । बम फटने के बाद उन्होंने इन्कलाब-जिंदाबाद का नारा लगाना चालू कर दिया । इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गई और इनको ग़िरफ़्तार कर लिया गया ।
जेल के दिन
जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल गुजारे । इस दौरान वे कई क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे । उनका अध्ययन भी जारी रहा । उनके उस दौरान लिखे ख़त आज भी उनके विचारों का दर्पण हैं । इस दौरान उन्होंने कई तरह से पूंजीपतियों को अपना शत्रु बताया है । उन्होंने लिखा कि मजदूरों के उपर शोषण करने वाला एक भारतीय ही क्यों न हो वह उसका शत्रु है । उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ। जेल मे भगत सिंह और बाकि साथियो ने ६४ दिनो तक भूख हद्ताल कि। ६४वे दि
फ़ाँसी
२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर इनको तथा इनके दो साथियों सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे । कहा जाता है कि जब जेल के अधिकारियों ने उन्हें सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा - 'रुको एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल रहा है' । फिर एक मिनट के बाद किताब छत की ओर उछालकर उन्होंने कहा - 'चलो' फांसी पर जाते समय वे तीनों गा रहे थे -
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़तमेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी ।
फांसी के बाद कोई आन्दोलन ना भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहां घी के बदले किरासन तेल में ही इनको जलाया जाने लगा । गांव के लोगो ने आग देखी तो करीब आए । इससे भी डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ो को सतलुज नदी में फेंक कर भागने लगे । जब गांव वाले पास आए तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो को एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । ओर भागत सिन्घ हमेशा के लिये अमर हो गये इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ साथ गांधी जी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इसकारण जब गांधीजी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झंडे के साथ गांधीजी का स्वागत किया । किसी जग़ह पर गांधीजी पर हमला भी हुआ । इसके कारण गांधीजी को अपनी यात्रा छुपकर करनी पड़ी ।
गांधीजी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने कि वजह से उन्मे एक रोश ने जन्म लिय और् अंततः उन्होंने 'इंकलाब और देश् कि आजादि के लिए हिंसा' को अपनाना अनुचित नहीं समझा । उन्होंने कई जुलूसों में भाग लेना चालू किया तथा कई क्रांतिकारी दलों के सदस्य बन बैठे । बाद मे चल्कर वो अप्ने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियो के प्रतिनिधि बने। उन्के दल मे प्रमुख क्रन्तिकरियो मे आजाद, सुख्देव्, राज्गुरु इत्यदि थे।
लाला लाजपत राय
१९२५ में साईमन कमीशन के बहिष्कार के लिए भयानक प्रदर्शन हुए । इन प्रदर्शनों मे भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठीचार्ज भी किया । इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई । अब इनसे रहा न गया । एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिंटेंडेंट सैंडर्स को मारने की सोची । सोची गई योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु सैंडर्स के घर के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे । उधर बटुकेश्वर दत्त अपनी साईकल को लेकर ऐसे बैठ गए जैसे कि वो ख़राब हो गई हो । दत्त के इशारे पर दोनो सचेत हो गए । उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डीएवी स्कूल की चाहरीदीवारी के पास छिपे इनके घटना के अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे । सैंडर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधा उसके सर में मारी जिसके तुरत बाद वह होश खो बैठा । इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इंतज़ाम कर दिया । ये दोनो जैसे ही भाग रहे थे उसके एक सिपाही ने, जो एक हिंदुस्तानी ही था, इनका पीछा करना चालू कर दिया । चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया -'आगे बढ़े तो गोली मार दूंगा' । नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी । इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय के मरने का बदला ले लिया ।
असेंबली में बम फेंकना
भगत सिंह मूलतः खूनखराबे के जोरदार पक्षधर नहीं थे । पर वे मार्क्स के सिद्धांतो से प्रभावित थे तथा समाजवाद के पक्षधर । इसकारण से उन्हें पूंजीपतियों क मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी । उस समय अंग्रेज सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति ही प्रकाश में आ पाए थे । अतः अंग्रेजों की मजदूरों के प्रति रूख़ से ख़फ़ा होना लाज़िमी था । एसी नीतियों के पारित होने को निशाना बनाना उनके दल का निर्णय था । सभी चाहते थे कि अंग्रेजों को पता चले कि हिंदुस्तानी जगे हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के खिलाफ़ क्षोभ है । ऐसा करने के लिए उन लोगों ने लाहौर की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची ।
भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा ना हो तथा अंग्रेजो तक उनकी 'आवाज़' पहुंचे । हंलांकि उनके दल के सब लोग एसा ही नहीं सोचते थे पर अंत में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का
नाम चुना गया । निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनो ने एक निर्जन स्थान पर बम फेंक दिया । पूरा हॉल धुएँ से भर गया । वे चाहते तो भाग सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें फ़ाँसी कबूल है । अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया । उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने थे । बम फटने के बाद उन्होंने इन्कलाब-जिंदाबाद का नारा लगाना चालू कर दिया । इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गई और इनको ग़िरफ़्तार कर लिया गया ।
जेल के दिन
जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल गुजारे । इस दौरान वे कई क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे । उनका अध्ययन भी जारी रहा । उनके उस दौरान लिखे ख़त आज भी उनके विचारों का दर्पण हैं । इस दौरान उन्होंने कई तरह से पूंजीपतियों को अपना शत्रु बताया है । उन्होंने लिखा कि मजदूरों के उपर शोषण करने वाला एक भारतीय ही क्यों न हो वह उसका शत्रु है । उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ। जेल मे भगत सिंह और बाकि साथियो ने ६४ दिनो तक भूख हद्ताल कि। ६४वे दि
फ़ाँसी
२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर इनको तथा इनके दो साथियों सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे । कहा जाता है कि जब जेल के अधिकारियों ने उन्हें सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा - 'रुको एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल रहा है' । फिर एक मिनट के बाद किताब छत की ओर उछालकर उन्होंने कहा - 'चलो' फांसी पर जाते समय वे तीनों गा रहे थे -
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़तमेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी ।
फांसी के बाद कोई आन्दोलन ना भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहां घी के बदले किरासन तेल में ही इनको जलाया जाने लगा । गांव के लोगो ने आग देखी तो करीब आए । इससे भी डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ो को सतलुज नदी में फेंक कर भागने लगे । जब गांव वाले पास आए तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो को एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । ओर भागत सिन्घ हमेशा के लिये अमर हो गये इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ साथ गांधी जी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इसकारण जब गांधीजी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झंडे के साथ गांधीजी का स्वागत किया । किसी जग़ह पर गांधीजी पर हमला भी हुआ । इसके कारण गांधीजी को अपनी यात्रा छुपकर करनी पड़ी ।
जेल के दिनों में उनके लिखे खतों तथा लेखों से उनके विचारों का अंदाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी के गुरुमुखी तथा शाहमुखी तथा हिंदी और उर्दू के संदर्भ में), जाति और धर्म के कारण आई दूरी से दुःख व्यक्त किया था । उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किए गए अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिंदी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो कि उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जाएगी और ऐसा उनके जिंदा रहने से शायद ही हो पाए । इसी कारण उन्होंने सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से मना कर दिया । उन्होंने अंग्रेजी सरकार को एक पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का युद्धबंदी समझा जाए तथा फ़ासी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाए ।
फ़ासी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा था -
उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा (अन्याय) क्या हैहमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या हैदहर (दुनिया) से क्यों ख़फ़ा रहें,चर्ख (आसमान) से क्यों ग़िला करेंसारा जहां अदु (दुश्मन) सही, आओ मुक़ाबला करें ।
इससे उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है ।
ख्याति और सम्मान
उनकी मृत्यु की ख़बर को लाहौर के दैनिक ट्रिब्यून तथा न्यूयॉर्क के एक पत्र डेली वर्कर ने छापा । इसके बाद में भी मार्क्सवादी पत्रों में उनपर लेख छपे, पर भारत में उन दिनों मार्क्सवादी पत्रों के आने पर प्रतिबंध लगा था इसलिए भारतीय बुद्धिजीवियों को इसकी ख़बर नहीं थी । देशभर में उनकी शहादत को याद किया गया ।
दक्षिण भारत में पेरियार ने उनके लेख मैं नास्तिक क्यों हूँ पर अपने साप्ताहिक पत्र कुडई आरसुमें के २२-२९ मार्च, १९३१ के अंक में तमिल में संपादकीय लिखा । इसमें भगतसिंह की प्रशंसा की गई थी तथा उनकी शहादत को गांधीवाद के उपर विजय के रूप में देखा गया था ।
आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता उनको आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिंदगानी देश के लिए समर्पित कर दिया
राजगुरु
शिवराम हरि राजगुरु (१९०८-१९३१) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी थे । इन्हें भगत सिंह औरसुखदेव के साथ २३ मार्च १९३१ को फाँसी पर लटका दिया गया था । भारतीय स्वतंत्राता संग्राम में ये शहादत एक महत्वपूर्ण घटना थी ।
जन्म इनका जन्म १९०८ में पुणे जिला मे हुआ था । बहुत छोटी उम्र में ही ये वाराणसी आ गए थे । यहाँ वे संस्कृतसीखने आए थे । इन्होंने धर्मग्रंथों तथा वेदो का अध्ययन किया तथा सिद्धांत कौमुदी इन्हें कंठस्थ हो गई थी । इन्हें कसरत का शौक था और ये शिवाजी तथा उनकी छापामार शैली के प्रशंसक थे । वाराणसी में इनका सम्पर्क क्रंतिकारियों से हुआ । ये हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए और पार्टी के अन्दर इन्हें 'रघुनाथ' के छद्म नाम से जाना जाने लगा । चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और जतिन दास इनके मित्र थे । वे एक अच्छे निशानेबाज भी थे । । सांडर्स हत्या कांड में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का साथ दिया था ।
२३ मार्च १९३१ को इन्होंने भगत सिंह तथा सुखदेव के साथ फांसी के तख्ते पर झूल कर अपने नाम को हिन्दुस्तान के अमर शहीदों की सूची में अहमियत के साथ दर्ज करा दिया ।
सुखदेव
सुखदेव थापर (या थापड़) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी थे । इन्हें भगत सिंह और राजगुरु के साथ २३ मार्च १९३१ को फाँसी पर लटका दिया गया था । इनकी शहादत को अब भी भारत में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है ।
जन्म इनका जन्म १५ मई १९०७ को हुआ था । भगत सिंह, कॉमरेड रामचन्द्र एवम् भगवती चरण बोहरा के साथ लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन किया था । सांडर्स हत्या कांड में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का साथ दिया था । १९२९ में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में व्यापक हड़ताल में भाग लिया था । भगतसिंह तथा राजगुरु के साथ ये भी १९३१ को शहीद हो गए ।
नाम चुना गया । निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनो ने एक निर्जन स्थान पर बम फेंक दिया । पूरा हॉल धुएँ से भर गया । वे चाहते तो भाग सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें फ़ाँसी कबूल है । अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया । उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने थे । बम फटने के बाद उन्होंने इन्कलाब-जिंदाबाद का नारा लगाना चालू कर दिया । इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गई और इनको ग़िरफ़्तार कर लिया गया ।
जेल के दिन
जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल गुजारे । इस दौरान वे कई क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे । उनका अध्ययन भी जारी रहा । उनके उस दौरान लिखे ख़त आज भी उनके विचारों का दर्पण हैं । इस दौरान उन्होंने कई तरह से पूंजीपतियों को अपना शत्रु बताया है । उन्होंने लिखा कि मजदूरों के उपर शोषण करने वाला एक भारतीय ही क्यों न हो वह उसका शत्रु है । उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ। जेल मे भगत सिंह और बाकि साथियो ने ६४ दिनो तक भूख हद्ताल कि। ६४वे दि
फ़ाँसी
२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर इनको तथा इनके दो साथियों सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे । कहा जाता है कि जब जेल के अधिकारियों ने उन्हें सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा - 'रुको एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल रहा है' । फिर एक मिनट के बाद किताब छत की ओर उछालकर उन्होंने कहा - 'चलो' फांसी पर जाते समय वे तीनों गा रहे थे -
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़तमेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी ।
फांसी के बाद कोई आन्दोलन ना भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहां घी के बदले किरासन तेल में ही इनको जलाया जाने लगा । गांव के लोगो ने आग देखी तो करीब आए । इससे भी डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ो को सतलुज नदी में फेंक कर भागने लगे । जब गांव वाले पास आए तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो को एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । ओर भागत सिन्घ हमेशा के लिये अमर हो गये इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ साथ गांधी जी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इसकारण जब गांधीजी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झंडे के साथ गांधीजी का स्वागत किया । किसी जग़ह पर गांधीजी पर हमला भी हुआ । इसके कारण गांधीजी को अपनी यात्रा छुपकर करनी पड़ी ।
गांधीजी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने कि वजह से उन्मे एक रोश ने जन्म लिय और् अंततः उन्होंने 'इंकलाब और देश् कि आजादि के लिए हिंसा' को अपनाना अनुचित नहीं समझा । उन्होंने कई जुलूसों में भाग लेना चालू किया तथा कई क्रांतिकारी दलों के सदस्य बन बैठे । बाद मे चल्कर वो अप्ने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियो के प्रतिनिधि बने। उन्के दल मे प्रमुख क्रन्तिकरियो मे आजाद, सुख्देव्, राज्गुरु इत्यदि थे।
लाला लाजपत राय
१९२५ में साईमन कमीशन के बहिष्कार के लिए भयानक प्रदर्शन हुए । इन प्रदर्शनों मे भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठीचार्ज भी किया । इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई । अब इनसे रहा न गया । एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिंटेंडेंट सैंडर्स को मारने की सोची । सोची गई योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु सैंडर्स के घर के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे । उधर बटुकेश्वर दत्त अपनी साईकल को लेकर ऐसे बैठ गए जैसे कि वो ख़राब हो गई हो । दत्त के इशारे पर दोनो सचेत हो गए । उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डीएवी स्कूल की चाहरीदीवारी के पास छिपे इनके घटना के अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे । सैंडर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधा उसके सर में मारी जिसके तुरत बाद वह होश खो बैठा । इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इंतज़ाम कर दिया । ये दोनो जैसे ही भाग रहे थे उसके एक सिपाही ने, जो एक हिंदुस्तानी ही था, इनका पीछा करना चालू कर दिया । चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया -'आगे बढ़े तो गोली मार दूंगा' । नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी । इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय के मरने का बदला ले लिया ।
असेंबली में बम फेंकना
भगत सिंह मूलतः खूनखराबे के जोरदार पक्षधर नहीं थे । पर वे मार्क्स के सिद्धांतो से प्रभावित थे तथा समाजवाद के पक्षधर । इसकारण से उन्हें पूंजीपतियों क मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी । उस समय अंग्रेज सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति ही प्रकाश में आ पाए थे । अतः अंग्रेजों की मजदूरों के प्रति रूख़ से ख़फ़ा होना लाज़िमी था । एसी नीतियों के पारित होने को निशाना बनाना उनके दल का निर्णय था । सभी चाहते थे कि अंग्रेजों को पता चले कि हिंदुस्तानी जगे हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के खिलाफ़ क्षोभ है । ऐसा करने के लिए उन लोगों ने लाहौर की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची ।
भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा ना हो तथा अंग्रेजो तक उनकी 'आवाज़' पहुंचे । हंलांकि उनके दल के सब लोग एसा ही नहीं सोचते थे पर अंत में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का
नाम चुना गया । निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनो ने एक निर्जन स्थान पर बम फेंक दिया । पूरा हॉल धुएँ से भर गया । वे चाहते तो भाग सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें फ़ाँसी कबूल है । अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया । उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने थे । बम फटने के बाद उन्होंने इन्कलाब-जिंदाबाद का नारा लगाना चालू कर दिया । इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गई और इनको ग़िरफ़्तार कर लिया गया ।
जेल के दिन
जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल गुजारे । इस दौरान वे कई क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे । उनका अध्ययन भी जारी रहा । उनके उस दौरान लिखे ख़त आज भी उनके विचारों का दर्पण हैं । इस दौरान उन्होंने कई तरह से पूंजीपतियों को अपना शत्रु बताया है । उन्होंने लिखा कि मजदूरों के उपर शोषण करने वाला एक भारतीय ही क्यों न हो वह उसका शत्रु है । उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ। जेल मे भगत सिंह और बाकि साथियो ने ६४ दिनो तक भूख हद्ताल कि। ६४वे दि
फ़ाँसी
२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर इनको तथा इनके दो साथियों सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे । कहा जाता है कि जब जेल के अधिकारियों ने उन्हें सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा - 'रुको एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल रहा है' । फिर एक मिनट के बाद किताब छत की ओर उछालकर उन्होंने कहा - 'चलो' फांसी पर जाते समय वे तीनों गा रहे थे -
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़तमेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी ।
फांसी के बाद कोई आन्दोलन ना भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहां घी के बदले किरासन तेल में ही इनको जलाया जाने लगा । गांव के लोगो ने आग देखी तो करीब आए । इससे भी डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ो को सतलुज नदी में फेंक कर भागने लगे । जब गांव वाले पास आए तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो को एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । ओर भागत सिन्घ हमेशा के लिये अमर हो गये इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ साथ गांधी जी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इसकारण जब गांधीजी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झंडे के साथ गांधीजी का स्वागत किया । किसी जग़ह पर गांधीजी पर हमला भी हुआ । इसके कारण गांधीजी को अपनी यात्रा छुपकर करनी पड़ी ।
जेल के दिनों में उनके लिखे खतों तथा लेखों से उनके विचारों का अंदाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी के गुरुमुखी तथा शाहमुखी तथा हिंदी और उर्दू के संदर्भ में), जाति और धर्म के कारण आई दूरी से दुःख व्यक्त किया था । उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किए गए अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिंदी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो कि उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जाएगी और ऐसा उनके जिंदा रहने से शायद ही हो पाए । इसी कारण उन्होंने सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से मना कर दिया । उन्होंने अंग्रेजी सरकार को एक पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का युद्धबंदी समझा जाए तथा फ़ासी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाए ।
फ़ासी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा था -
उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा (अन्याय) क्या हैहमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या हैदहर (दुनिया) से क्यों ख़फ़ा रहें,चर्ख (आसमान) से क्यों ग़िला करेंसारा जहां अदु (दुश्मन) सही, आओ मुक़ाबला करें ।
इससे उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है ।
ख्याति और सम्मान
उनकी मृत्यु की ख़बर को लाहौर के दैनिक ट्रिब्यून तथा न्यूयॉर्क के एक पत्र डेली वर्कर ने छापा । इसके बाद में भी मार्क्सवादी पत्रों में उनपर लेख छपे, पर भारत में उन दिनों मार्क्सवादी पत्रों के आने पर प्रतिबंध लगा था इसलिए भारतीय बुद्धिजीवियों को इसकी ख़बर नहीं थी । देशभर में उनकी शहादत को याद किया गया ।
दक्षिण भारत में पेरियार ने उनके लेख मैं नास्तिक क्यों हूँ पर अपने साप्ताहिक पत्र कुडई आरसुमें के २२-२९ मार्च, १९३१ के अंक में तमिल में संपादकीय लिखा । इसमें भगतसिंह की प्रशंसा की गई थी तथा उनकी शहादत को गांधीवाद के उपर विजय के रूप में देखा गया था ।
आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता उनको आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिंदगानी देश के लिए समर्पित कर दिया
राजगुरु
शिवराम हरि राजगुरु (१९०८-१९३१) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी थे । इन्हें भगत सिंह औरसुखदेव के साथ २३ मार्च १९३१ को फाँसी पर लटका दिया गया था । भारतीय स्वतंत्राता संग्राम में ये शहादत एक महत्वपूर्ण घटना थी ।
जन्म इनका जन्म १९०८ में पुणे जिला मे हुआ था । बहुत छोटी उम्र में ही ये वाराणसी आ गए थे । यहाँ वे संस्कृतसीखने आए थे । इन्होंने धर्मग्रंथों तथा वेदो का अध्ययन किया तथा सिद्धांत कौमुदी इन्हें कंठस्थ हो गई थी । इन्हें कसरत का शौक था और ये शिवाजी तथा उनकी छापामार शैली के प्रशंसक थे । वाराणसी में इनका सम्पर्क क्रंतिकारियों से हुआ । ये हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए और पार्टी के अन्दर इन्हें 'रघुनाथ' के छद्म नाम से जाना जाने लगा । चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और जतिन दास इनके मित्र थे । वे एक अच्छे निशानेबाज भी थे । । सांडर्स हत्या कांड में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का साथ दिया था ।
२३ मार्च १९३१ को इन्होंने भगत सिंह तथा सुखदेव के साथ फांसी के तख्ते पर झूल कर अपने नाम को हिन्दुस्तान के अमर शहीदों की सूची में अहमियत के साथ दर्ज करा दिया ।
सुखदेव
सुखदेव थापर (या थापड़) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी थे । इन्हें भगत सिंह और राजगुरु के साथ २३ मार्च १९३१ को फाँसी पर लटका दिया गया था । इनकी शहादत को अब भी भारत में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है ।
जन्म इनका जन्म १५ मई १९०७ को हुआ था । भगत सिंह, कॉमरेड रामचन्द्र एवम् भगवती चरण बोहरा के साथ लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन किया था । सांडर्स हत्या कांड में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का साथ दिया था । १९२९ में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में व्यापक हड़ताल में भाग लिया था । भगतसिंह तथा राजगुरु के साथ ये भी १९३१ को शहीद हो गए ।
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