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सामर्थ्यशाली समाज ही समस्याओं को हल करने में सक्षम
बालासाहब देवरस
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस जी का १९९० की विजयदशमी पर नागपुर में दिया गया उदबोधन सार रूप में यहाँ प्रस्तुत है |राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दू समाज को सामर्थ्य संपन बनाना चाहता है. उसकी इच्छा है की यह सामर्थ्य समाज में स्वाभाविक रीती से सदैव विद्यमान रहे. किसी बाह्य संघठन द्वारा समाज की रक्षा की जाती रहे, यह उचित नहीं. एक विशेष प्रकार का व्यवहार करने वाले व्यक्तियों का समूह ही समाज कहलाता है.
विशिष्ट व्यबहार करने वाले व्यक्तिओं के बीच एक स्वाभाविक व्यवस्था होती है. क्यों कि उस व्यवस्था में ही समाज का वास्तविक सामर्थ्य निहित है.जब समाज में इस प्रकार का सामर्थ्य जागृत होजाता है तो वह अपनी हर समस्या का हल निकलने के लिये स्वयमेव सदा तैयार रहता है. संघ इस प्रकार के स्वाभाविक सामर्थ्य के जागरण का कार्य कर रहा है.
अब प्रश्न उठता है कि यह होगा कैसे?
द्वितीय महायुद्ध के समय इंगलैंड का उदहारण इस प्रश्न का उत्तर देते हुए इसकी दिशा का निर्देश करता है. महायुद्ध की चपेट में आकर फ्रांस, पोलेंड आदि देश कुछ ही दिनों में समाप्त हो गए. इंग्लॅण्ड को भी एक बार अपने सश्त्राश्त्र समेट कर डन्कर्क से भागना पड़ा. लगता था कि अब इंग्लॅण्ड समाप्त हो गया. लेकिन इंग्लॅण्ड विजयी हुआ. उसे यह सफलता क्यों मिली?
इंग्लॅण्ड के समाज के स्वाभाव में जो सामर्थ्य छिपा है, सफलता का सारा श्रेय वास्तव में उसी को है. युद्ध काल में उन पर नित्य बम बारी होती थी. माकन नष्ट हो गए थे. जनता खाइयों में सोती थी. ६-७ वर्ष तक बहुत ही कठिन जीवन व्यतीत करना पड़ा था. किसी ने भी आत्मसमर्पण करने या शरणागत होने की आवाज तक नहीं उठाई. सम्पूर्ण समाज ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी.
उन्होंने संकटों पर विजय प्राप्त कर ली. अतः जो समाज स्वाभाविक रूप से शक्तिशाली एवं साहसी होता है वही अपने को सुरक्षित रख पता है. जब तक समाज की यह स्वाभाविक अवस्था नहीं बनती उसकी अंतर्बाह्य समस्याएं सुलझाई नहीं जा सकती. संघ कार्य की कल्पना भी ऐसी है.
किसी भी राष्ट्र का बड़प्पन इस बात पर निर्भर नहीं है कि उसके नेता कितने महान, बुद्धिमान और बड़े हैं. वरन इस बात पर निर्भर है कि उस राष्ट्र का सामान्य जन कितना बड़ा है, कितना धैर्यवान और सामर्थ्यशाली है. उसका आचार विचार व व्यवहार कैसा है? जिस समाज में लोग स्वार्थ ग्रस्त हों, सम्पूर्ण समाज और देश का कभी विचार ना करते हों, उस समाज का जीवन बहुत दिन नहीं चल सकता. अपने हिन्दू धर्म में इसीलिए कहा गया है कि स्वार्थ छोड़ कर परमार्थ का कार्य करना चाहिए. स्वार्थ में लीन व्यक्ति को राक्षस कहा गया है. जहाँ का सामान्य व्यक्ति स्वार्थ रहित हो जाता है उस समाज में सहज एवं स्वाभाविक सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता है.
इंग्लॅण्ड, जर्मनी, इस्रायल, जापान, भारत आदि देशो के पुर्नार्निर्मान का इतिहास द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद प्रारंभ हुआ है. जर्मनी ने इन वर्षों में पहले से भी अधिक आर्थिक उन्नति कर ली है. जापान और इस्रायल ने भी चमत्कार कर दिखाया है. इस्रायल निवासी यहूदियों का हाल पुराने ज़माने के लाला लोगों के सामान रहा है. इतिहास में उनको पैसे के लिए मरने वाले, लोभी, कायर, युद्ध कला से अनभिज्ञ आदि बताया गया है. परन्तु इन्ही यहूदियों ने लगातार संघर्ष कर अपनी जन्म भूमि इस्रायल को प्राप्त किया. १९४८ के बाद २५ वर्षों तक वे युद्ध करते रहे. इस्रायल कि आधी जनसँख्या घरों की छतों पर बैठी लडाई लड़ती रही और आधा समाज भूमिगत होकर कारखाने चलता रहा.
उन पर अरबो का भय सदैव बना रहता था. परन्तु आज अरबों पर उनकी धाक है. अल्पकाल में ही उन्होंने अपनी आन्तरिक व्यवस्था उन्नत एवं मजबूत कर ली. तथा बाह्य आक्रमण के लिए भी सामर्थ्य उत्पन्न कर लिया. यह कैसे संभव हुआ?
इसका एक ही कारण है की वहां के सामान्य व्यक्ति के व्यवहार sइ समाज में स्वाभाविक सामर्थ्य जाग्रत हो गया. अपने समाज के सामान्य लोगो में जो शक्ति का वास्तविक स्रोत है उसी स्वाभाविक सामर्थ्य को जागृत करने के लिए संघ कार्य चल रहा है
गोरक्षा एवं गोसंवर्धन
अति प्राचीन काल से भारत में गोवंश की महिमा गायी गयी है. वेदों में अनेक स्थानों पर गो पूजा, गो संबर्धन इत्यादि विषयक आदेश पाए जाते हैं. गोरक्षा एवं पूजा में मानव का सम्पूर्ण हित सन्निहित है. ऐसा गोवंश का गौरव पूर्ण उल्लेख किया गया है. इन बातों को सब विद्वान जानते हैं. इस कारण यहाँ उपर्युक्त वचन उद्धृत करने की आवशकता नहीं है. पौराणिक एवं ऐतिहासिक काल में गो विषयक श्रृद्धा प्रस्फुटित होती हुई स्पष्ट दिखती है. भारतीय जीवन के सर्वव्यापी आदर्श पूर्णावतार भगवान श्री कृष्ण तो स्वयं गोपाल, गोविन्द आदि नामो से पुकारे जाते हैं.
अनेक राजा, सम्राट, चक्रवर्ती अपने को गो-ब्राह्मण प्रतिपालक के ब्रीदवाक्य से गौरवान्वित करने में धन्यता का अनुभव करते थे. भारतीय राष्ट्र जीवन में से पराभूतता का पराभव कर आक्रमणकारियों का दमन करने वाले स्वराज्य संस्थापक श्री छत्रपति शिवाजी महाराज अपने निकटतम अतीत के तेजस्वी, सर्वगुण संपन्न युग पुरुष इसी ब्रीदवाक्य से उदघोषित किये जाते थे. बाल्यकाल से ही गोवध के प्रति उनकी उग्रता हुई, यह सर्व विदित ही है.
भारतीय सांस्कृतिक आधार पर पुनरुत्थान के कार्य में संलग्न अपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जन्मदाता के जीवन में आये ऐसे रोम हर्षक प्रसंगों से सब परिचित हैं. उन्होंने अपने धन या प्राणों को सहर्ष संकट में डाल कर वधिको से गोरक्षा की थी. आज की अन्यान्य संस्थाओं में जो अग्रगण्य रहे, उन सबने गोरक्षा एवं गो संवर्धन को अपने जीवन का सर्वश्रेष्ट भूषन माना.
अनादिकाल से इस प्रकार पूज्य एवं अवध्य होने पर भी भारत में गोवध कैसे चल पड़ा? इस प्रश्न का उत्तर भी इतिहास देता है. जब कोई असंस्कृत आक्रमणकारी समाज किसी देश में विजेता के उन्माद से रहने लगता है, तब मानो अपने विजय का रस लेने के लिए पराजित जाति को अपमानित करना, उसके श्रृद्धा स्थानों को नष्ट भ्रष्ट करना, उसका धन मान लूटना इत्यादि न्रिशंश अत्याचार करने के लिए वह प्रयत्न पूर्वक प्रस्तुत होता है.
साथ ही अपनी विजय तथा नवस्थापित सत्ता को बनाये रखने के लिए विजितो के सब मान विन्दुओं को ठेस लगा कर नष्ट भ्रष्ट कर उनकी चित्तवृत्तियाँ इतनी आहत एवं स्वाभिमान शुन्य बनाना कि उनके मन् में कभी पुनरोत्थान का विचार ही उत्पन्न ना हो और प्राप्तदासता में ही सुखानुभव हो.
इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप भारत में स्थित मुसलमानों ने गो हत्या को मानो धार्मिक कृत्य माना. ईद आदि त्योहारों पर गोहत्या मानो अनिवार्य विधि मान कर प्रकट रूप में अतात्देशिया जनता की भावनाओ को चोट पहुचाने में अपने को धन्य माना. अन्यथा कुरान शरीफ में गो वध का आदेश या विधि कही भी ना होते हुए और गोपालन पुण्य कारक है, ऐसा उल्लेख होते हुए भी गोहत्या का उनके द्वारा यह विपरीत आग्रह क्यों?
यह ठीक है कि गोमांस भक्षण उस पंथ में निषिद्ध नहीं है, परन्तु आग्रह पूर्वक गो हत्या करने का आदेश भी नहीं है. बाद में परकीय शासन के रूप में आये हुए अंग्रेजों ने भी श्रृद्धा भंग के रूप में इस कार्य को अधिक कुशलता से कैसे चालू रखा यह बात किसी से छिपी नहीं. अंग्रेज शासकों की इस नीति व गोमांस भक्षक होने के कारण और साथ ही मुसलमानों के स्वभाव को देख कर गो वध बहुत परिमाण में चलता ही रहा.
अब तो अंग्रजो का शासन नहीं है। मुसलमान भी यहाँ विजेता के रूप में नहीं है. किन्तु इसी देश में एत्त्देशीय हिन्दू समाज के साथ रहेने के लिए विवश है. हिन्दू समाज ने सदा ही सब मतों - पंथो का सत्कार कर अपना कर्त्तव्य पूरा किया है. अब मुसलमान, इसाई आदि समाजो को अपने कर्तव्य को समझ कर चलने की, भारतीय राष्ट्र जीवन की श्रद्धाओं को अपनाने की, उन्हें जीवन में उतने की आवश्कताहै.