11 सितंबर 1893 में अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म संसद शुरू हुई, जिसमें दुनिया के अनेक राष्ट्रों से हजारों प्रतिनिधि आए थे। उनमे स्वामी
विवेकानंद सबसे युवा थे। जब उनके बोलने की बारी आई तो भारतीय संस्कृति के अनुसार
उन्होने सबसे पहले अपने गुरु स्वामी राम कृष्ण परमहंस और माँ शारदा को मन ही मन
नमन किया और कहा सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ अमेरिका यानि मेरे अमेरिकी भाईयों और
बहनों', यह सुनते ही वहाँ माजूद हजारों लोगों के लगभग
तीन मिनट तक स्वामी विवेकानंद के लिए खड़े होकर तालिया बजाईं थी। अभी तक कोई भी
वक्ता इतने अपनेपन से नहीं बोला था। अपने औजास्वी और ग्रीमामाई भाषण में स्वामी
विवेकानन्द ने दुनिया का भारत कि शक्ति से परिचय कराया।अपने विचारों से पूरी
दुनिया को नतमस्तक करने वाले स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म के महान विचारों पर
अदभुत भाषण दिया, जिसकी बदौलत भारत को विश्व में एक अलग
पहचान मिली थी।
भाषण का भाग –
मैं आपको अपने देश की प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से भी धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है
उस सभा में पूरे विश्व के
अलग-अलग धर्मों के धर्मावलंबी उपस्थित थे और पूरा हॉल श्रोताओं से खचाखच भरा
था। मंच पर उनके आने से पहले कई वक्ता आ कर जा चुके थे और कई अन्य को अभी आना शेष
था। तभी मंच पर एक युवा ओजस्वी सन्यासी आया और उसने अभी मात्र श्रोताओं का अभिनंदन
ही किया था की पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। वहां बैठा एक एक
व्यक्ति उनके केवल अभिवादन मात्र से ही सममोहक हो गया और यह सम्मोहन इतना तीक्ष्ण
था कि अगले 3 मिनट तक वहां केवल तालियों की
गड़गड़ाहट रही।
ऐसा क्या कह दिया था उस
व्यक्ति ने श्रोताओं के अभिवादन में...
11 सितंबर 1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में विश्व भर से हजारों
प्रतिनिधि आए थे जिनमें स्वामी विवेकानंद सबसे युवा थे। वहां उपस्थित श्रोताओं में
अधिकांश अमेरिका के निवासी और यूरोप के देशों से उस सभा को सुनने आए लोग थे। ये
सभी लोग अपने सम्मान में मिस्टर और मिसेज... और बहुत
अधिक हो तो फ्रेंड्स सुनने के आदी थे, लेकिन
जब इस तेजस्वी सन्यासी ने के मुंह से उन्होंने अपने लिए सुना - मेरे अमेरिकी बहनों और भाइयों - तो वे
अपने कानों पर सहसा विश्वास नहीं कर सके और एक सुखद अनुभूति के साथ रोमांचित हो
उठे, क्योंकि अपने लिए इस प्रकार के संबोधन की
उन्होंने कोई कल्पना ही नहीं थी।
अभी तक कोई भी वक्ता इतने
अपनेपन से नहीं बोला था। अपने औजास्वी और गरीमामाई भाषण में स्वामी विवेकानन्द ने
विश्व को भारत के आध्यात्म से परिचय कराया।
स्वामी विवेकानंद ने अपने
भाषण में कहा कि जिस तरह अलग अलग स्थानों से बहनें वाली नदियां अंत में समुद्र में
मिलती हैं, उसी प्रकार विभिन्न धर्मों में जन्मे मनुष्य
अंत में परमात्मा के पास पहुंचते हैं। कोई भी धर्म ऊंचा या नीचा नहीं है। उन्होने
कहा कि वे ऐसी भारत भूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सांस्कृतिक दृष्टि से सबसे
प्राचीन है। दुनिया में यही ऐसी इकलौती धरती है जिसने सभी धर्मों को संकट के समय
आश्रय दिया। दरअसल इसके माध्यस से स्वामी विवेकानंद ने भारत की सहिष्णुता और सनातन
संस्कृति की बात कही।
1893 में कई सदियों बाद
दुनियां ने भारत का यह रूप देखा। अगले ही दिन अनेक पत्र पत्रिकाओं में उनका भाषण
छपा। राजगोपाल चटोपाध्याय की पुस्तक स्वामी विवेकानन्द इन इंडिया में अमेरिका के
एक समाचार पत्र द न्यूयॉर्क टाइम्स कि एक टिप्पणी का उल्लेख है, भाषण
के बाद इस समाचार पत्र ने लिखा था कि "कई लोगों ने बहुत अच्छा भाषण दिया लेकिन
एक हिन्दू साधु ने विश्व धर्म संसद के विषय को जिस तरह लोगों के सामने रखा वैसा
कोई और नहीं कर सका। वो एक बहुत बड़े वक्ता हैं। हम यहाँ उनका पूरा भाषण छाप रहे हैं
लेकिन वहाँ मौजूद लोगों पर उनके भाषण का जो प्रभाव पड़ा, उसको
बता पाना बहुत कठिन है। उनका तेजस्वी चेहरा, उनकी
बुद्धिमानी, उनकी वेश भूषा के प्रभाव को बताने के लिए शब्द
कम पड़ रहे हैं।"
एक और अमेरिकी पत्र
न्यूयॉर्क हेराल्ड ने लिखा "इसमें कोई शक नहीं
कि विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानद सबसे महान वक्ता हैं। उनको सुनने के बाद
लगता है इतने विद्वान और बुद्धिमान देश में मिशनरीयों को भेजना कितना मूर्खतापूर्ण
है।"
अंग्रेजी भाषा पर भी स्वामी
विवेकानंद का प्रभुत्व असाधारण था। उनका तेजस्वी व्यक्तित्व, वेश, अपूर्व
वाक्पटुता , हिन्दू धर्म के सार को
प्रस्तुत करने की कुशाग्रता से उन्होनें पूरे अमेरिकावासियों का मन मोह लिया।
उन्हें एक युग पुरुष के रूप में देखा जाने लगा। इस सन्यासी का सभी जगह भव्य स्वागत
होने लगा। इस योद्धा सन्यासी की लंदन की पत्रिकाओं में खुलकर प्रशंसा की गई।
स्वामी विवेकानंद के भाषण से पहले भारतीयों को लेकर पश्चिमी देशों में यह धारणा थी कि भारत के लोग अनपढ़, अभद्र व मूढ़ विचारों के होते हैं। उस समय हमारे ही पूर्वज अंग्रेजों कि दमनकारी नीतियों से कुचले जा रहे थे। ऐसे समय में स्वामी विवेकानन्द के भाषण और इसके बाद दिये अनेकों वक्तव्यों से अमेरिका ही नहीं सभी प्रगतिशील देशों में भारत और भारतीयता को गौरव का स्थान प्राप्त हुआ और अनेक लोग उनके शिष्य बने।
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