प्रो. राजेंद्र सिंह (29 जनवरी 1922 – 14 जुलाई 2003), उपाख्य रज्जू भैया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक थे. वह 1994 से 2000 तक सरसंघचालक रहे. उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग में प्रोफेसर और विभाग प्रमुख के रूप में काम किया था. 1960 के दशक के मध्य में पद छोड़कर अपना जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समर्पित कर दिया. व्यक्ति अपने कार्य और कार्यशीलता से व्यक्तित्व बन जाता है और प्रोफेसर राजेंद्र सिंह ने यह साबित कर दिया. उनका व्यक्तित्व वर्तमान पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत है. उनकी विचारधारा राष्ट्रीय समृद्धि और खुशी के मूल मूल्यों को विकसित करने के लिए सही दिशा देती है.
भौतिकविद् और नोबेल पुरस्कार-विजेता, सर सीवी रमन, जब एमएससी में उनके परीक्षक थे तो प्रोफेसर राजेंद्र सिंह प्रतिभाशाली छात्र के रूप में हर विषय में सर्वोतम रहे. उन्होंने राजेंद्र सिंह को परमाणु भौतिकी में उन्नत अनुसंधान के लिए फेलोशिप की पेशकश की. भौतिकी में पढ़ाई करने के बाद, स्पेक्ट्रोस्कोपी पढ़ाने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पदभार ग्रहण किया. विज्ञान उनके दिल का मूल था और इसीलिए प्रोफेसर राजेंद्र सिंह को परमाणु भौतिकी का विशेषज्ञ भी माना जाता था जो कि भारत में उन दिनों बहुत कम थे. वह सादगी और स्पष्ट अवधारणाओं का उपयोग करते हुए इस विषय के लोकप्रिय शिक्षक थे. जहां तक उनके नेक और सामाजिक जीवन की बात है, राजेंद्र सिंह 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय थे और इसी दौरान वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए. तभी से संघ ने उनके जीवन को प्रभावित किया. उन्होंने 1966 में विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र के विभागाध्यक्ष पद से त्याग पत्र दिया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में कार्य शुरू किया.
किसी भी व्यक्ति के जीवन में विचारधारा बहुत महत्वपूर्ण होती है. अन्य सरसंघचालकों की तरह उनका स्वदेशी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने की अवधारणा में दृढ़ विश्वास था. ग्रामीण विकासात्मक गतिविधियों की शुरुआत करते हुए, उन्होंने 1995 में घोषणा की थी कि गांवों को भूख मुक्त, रोग मुक्त और शिक्षित बनाने में पूरी प्राथमिकता दी जानी चाहिए. आज 100 से अधिक गांव हैं, जहां स्वयंसेवकों द्वारा किए गए ग्रामीण विकास कार्य ने आसपास के गांवों के लोगों को प्रेरित किया है और उन लोगों द्वारा उनके प्रयोगों का अनुकरण किया जा रहा है. उनका जीवन बहुत शुद्ध और सरल था, हर दिन नियमित योग और व्यायाम के कारण, शरीर मजबूत था और गर्व से भरा हुआ था, और उनके तेज की छाप जीवन भर उन पर बनी रही.
भारत के सामाजिक बंधन और संस्कृति पर उन्होंने कहा कि हर किसी को उत्तेजक भाषा में बात करने या उत्तेजक कार्यों में लिप्त होने से दूर रहना चाहिए. तथाकथित नेता-जो एक विशिष्ट समुदाय के हितों की वकालत करने के नाम पर हमारे समाज के दो समुदायों के बीच टकराव पैदा करते हैं और उन्होंने स्व-अभिनंदन के लिए अपने प्रयासों से एक उद्योग बनाया है, उनको संरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए. ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए देश में पर्याप्त कानून मौजूद हैं. उन्हें ईमानदारी से और सख्ती से लागू किया जाना चाहिए.
वे मानते थे कि जीवन में आने वाली समस्याओं से निपटने के लिए अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए, उन्हें शांत मन और आत्मविश्वास के साथ संभालना चाहिए. इसी तरह से उन्होंने आपातकाल की अवधि में कार्य किया,; जो उनके जीवन में, और देश के जीवन में सबसे कठिन समय था.
रज्जू भैया ने भारत की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के माध्यम से राष्ट्र की भलाई के बारे में सोचा. भारत के सच्चे नागरिक होने के नाते, यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत की रक्षा करें ताकि मूल मूल्यों को अक्षुण्ण रखा जा सके.
रज्जू भैया एक प्रभावशाली शिक्षक रहे और पढ़ाना उनका शौक था. प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ाने के दौरान, उन्होंने संघ के कार्यों में अपना योगदान जारी रखा. भौतिक विज्ञान जैसे रहस्यमय विषयों पर असामान्य शक्तियों के साथ-साथ, रज्जू भैया अपने शिष्यों के लिए सरल और दिलचस्प शिक्षण शैली और स्नेह के कारण प्रयाग विश्वविद्यालय के सबसे लोकप्रिय और सफल प्राध्यापक थे. वरिष्ठता और योग्यता के कारण, उन्हें प्राध्यापक के साथ कई वर्षों तक विभाग के अध्यक्ष के पद की जिम्मेदारी लेनी पड़ी. लेकिन यह सब करते हुए भी वे संघ कार्य में अपनी जिम्मेदारियों को निभाते रहे. सह प्राध्यापक या प्राध्यापक बनने की कोई इच्छा उनके मन में कभी नहीं जगी. प्रयाग विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग में सह प्राध्यापक के पद के लिए आवेदन मांगा गया, लेकिन उन्होंने आवेदन पत्र नहीं दिया. सह कर्मियों ने पूछा कि भाई तुमने ऐसा क्यों किया? तब उन्होंने बड़े ही सहज भाव से उत्तर दिया – “अरे, मेरा जीवन-कार्य एक संघ कार्य है, विश्वविद्यालय का प्राध्यापक नहीं है. मुझे कक्षा में सप्ताह में चार दिन लगते हैं. मैं संघ कार्य के लिए तीन दिनों का दौरा करता हूँ. बहुत कोशिश करने के बाद भी विवि समय पर नहीं पहुंच पाता. अब विभाग के सभी शिक्षक मेरा समर्थन करते हैं, लेकिन अगर मैं सह प्राध्यापक पद के लिए उम्मीदवार बन जाता हूं, तो वो मुझे एक प्रतिद्वंदी मानेंगे. इसलिए, इस मुकदमे में क्यों फंसे?” रज्जू भैया का पूरा जीवन इस बात का साक्षी है कि वह कभी आकांक्षी नहीं रहे. विश्वविद्यालय में शिक्षक होने के बावजूद, उन्होंने अपने लिए पैसा नहीं कमाया. वे अपने वेतन का एक-एक पैसा संघ के काम में खर्च करते थे. एक सम्पन्न परिवार में पैदा होने के बाद भी, पब्लिक स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने, संगीत और क्रिकेट जैसे खेलों में रुचि रखने के बाद भी, वे अपने लिए कम से कम राशि खर्च करते थे. वे मितव्ययता का एक उत्कृष्ट उदाहरण थे. वर्ष के अंत में, उनके वेतन में से जो कुछ बचता था, वह उसे गुरु-दक्षिणा के रूप में समाज को दे देते थे.
निःस्वार्थ स्नेह और अथक परिश्रम के कारण, रज्जू भैया को सभी प्यार करते थे. संघ के भीतर भी और बाहर भी. उन्होंने पुरुषोत्तम दास टंडन और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं के साथ-साथ, प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जैसे संतों का विश्वास और स्नेह अर्जित किया. रज्जू भैया बहुत यथार्थवादी होने के साथ-साथ बहुत ही संवेदनशील थे. वे किसी से कुछ नहीं कहते थे, और उनकी बात को टालना मुश्किल होता था. आपातकाल के बाद, जब जनता पार्टी सरकार में नानाजी देशमुख को औद्योगिक मंत्री का पद दिया गया, तो रज्जू भैया ने उनसे कहा कि अगर आप, अटलजी और आडवाणी जी, तीनों सरकार में जाएं तो संगठन से बाहर कौन बचेगा? उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए, नानाजी ने अपना पद ठुकरा दिया और जनता पार्टी का महासचिव बनना स्वीकार कर लिया.
प्रो राजेंद्र सिह एक उत्कृष्ट शिक्षक, और महान व्यक्तित्व थे. जिन्होंने राष्ट्र की रुचि और सांस्कृतिक विरासत के विकास के लिए काम किया. उनकी विचारधारा और राष्ट्र प्रेम लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया. वे स्वयं में विचारधारा, दृढ़ संकल्प और आत्म-त्याग आदर्श की छवि थे. इसलिए रज्जू भैया हमेशा सभी के दिलों में जिंदा रहेंगे.
साभार- विश्व संवाद केंद्र, भारत
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