काशी. शनिवार
को सार्वजनिक गणेश उत्सव समिति के तत्वाधान में आर्य महिला डिग्री कॉलेज के सभागार
में “राष्ट्र निर्माण में
युवा शक्ति : गणेश उत्सव और लोकमान्य तिलक” विषयक संगोष्ठी
का आयोजन किया गया. संगोष्ठी में मुख्य वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अ. भा.
कार्यकारिणी सदस्य भय्याजी जोशी ने कार्यक्रम को सम्बोधित किया.
उन्होंने कहा कि वर्तमान में राष्ट्र का निर्माण नहीं करना है. राष्ट्र तो हजारों वर्षों से है. वास्तव में राष्ट्र का पुनर्जागरण या राष्ट्र का विकास करना है. वर्तमान में युवकों में यह चर्चा रहती है कि भारत अमेरिका या जापान जैसा बने, परंतु वर्तमान चुनौती यह है कि क्या भारत भविष्य में भी भारत बना रहेगा? उन्होंने कहा कि जब हम कहते हैं कि भारत शक्तिशाली बनेगा, सामर्थ्य संपन्न बनेगा…तब हमारा अर्थ होता है कि भारत अपनी सुरक्षा में सक्षम होगा. भारत सदैव दानदाता रहा है, लेने वाला कभी नहीं रहा. भारत से लोग दुनिया के कोने-कोने में गए और वहां सिर्फ ज्ञान, संस्कृति, जीवन मूल्य, जीवन की श्रेष्ठ परंपराओं को दिया. साम्राज्य विस्तार की आकांक्षा लेकर भारत से कभी कोई बाहर नहीं गया. शस्त्र नहीं, शास्त्र लेकर निकलने वाला भारत दुनिया ने देखा है.
अन्य विषय है
कि 1200 वर्षों के निरंतर
आक्रमण के बाद भी आज हम भारतीय हिन्दू जीवित हैं, इसका क्या
कारण है? महर्षि अरविंद इसका उत्तर देते हुए कहते हैं –
यह मृत्युंजयी भारत है, स्वामी विवेकानंद ने
कहा था, यहां पर जन्म लेने वाले लोग अमृत पुत्र हैं. यहां के
निवासियों के विश्वास और पुरुषार्थ ने भारत को जीवित रखा.
विश्व
में तीन तरह के विचार चलते हैं – प्रथम विचार यह है कि जिसके पास संपदा है, अर्थ शक्ति है, वह विश्व पर राज्य करेगा. आर्थिक संपन्न
होने की होड़ लग गई. अगर अपने पास से ना हो पाए तो दूसरे देशों की संपदा को लिया
जाने लगा. दूसरा चिंतन था कि जिसके पास संख्या बल है, वह
राज्य करेगा. वर्तमान में धर्मांतरण इसका उदाहरण है. तीसरा चिंतन भारत का चिंतन है,
इसके अनुसार विश्व पर उसी का प्रभाव रहेगा जो सबको साथ लेकर चलेगा
और नेतृत्व क्षमता युक्त रहेगा. राष्ट्र का संपन्न होना आवश्यक है, पर केवल पेट भरना पशुता का लक्षण है. भारत को विश्व गुरु बनाने का कार्य
केवल राजा-महाराजा, संत-महर्षि का नहीं है. 1857 का स्वतंत्रता संग्राम इस बात का उदाहरण है कि देश को स्वतंत्र कराना यहां
के निवासियों की जिम्मेदारी थी. क्रांतिकारी सामान्य परिवारों से ही आए थे.
सामान्य जन का आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए शक्ति का भी प्रदर्शन आवश्यक होता है.
अतः गणेश उत्सव का पर्व परिवारों के मध्य से निकाल कर पेशवा ने प्रथम बार
सार्वजनिक पूजन किया. बाद में लोकमान्य तिलक जी ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया. समाज
जागरण के लिए सामूहिकता का यह प्रथम प्रयास था, पूजन के साथ
देश का प्रबोधन भी आवश्यक विषय रहा. वर्तमान में बंगाल में शक्ति पूजा, सरस्वती पूजा, भारत के अन्य हिस्सों में विश्वकर्मा
पूजा सबके मूल में समाज जागरण का ही भाव है.
वर्तमान संकट है कि क्या इस प्रकार के उत्सव गरिमा, प्रतिष्ठा के साथ चलेंगे या मात्र मृदंग बजाने का माध्यम बनेंगे. उत्सव में कुछ अनियमितता आ गई है, उसे दूर करना आवश्यक है. यह कार्य युवा शक्ति द्वारा ही संभव है. सत्ता के बल पर परिवर्तन नहीं आता, भारत के संदर्भ में यह बात बिल्कुल सत्य है. सार्वजनिक एवं सांस्कृतिक कार्यों से ही समाज परिवर्तन संभव होगा. इस प्रकार के उत्सव शक्ति का केंद्र हैं, मार्गदर्शन का केंद्र हैं.
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