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Wednesday, July 12, 2023

सामाजिक समरसता के लिए समर्पित श्रीगुरुजी का जीवन

- लोकेन्द्र सिंह


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रद्धेय माधव सदाशिवराव गोलवलकर जी का जीवन हिन्दू समाज के संगठन, उसके प्रबोधन एवं सामाजिक-जातिगत विषमताओं को समाप्त करके एकरस समाज के निर्माण के लिए समर्पित रहा. जातिगत ऊँच-नीच एवं अस्पृश्यता को समाप्त करने की दिशा में श्रीगुरुजी के प्रयासों से एक बड़ा और उल्लेखनीय कार्य हुआ, जब 13-14 दिसंबर, 1969 को उडुपी में आयोजित धर्म संसद में देश के प्रमुख संत-महात्माओं ने एकसुर में समरसता मंत्र का उद्घोष किया

हिन्दव: सोदरा: सर्वे, न हिन्दू: पतितो भवेत्.

मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र: समानता..

अर्थात् सभी हिन्दू सहोदर (एक ही माँ के उदर से जन्मे) हैं, कोई हिन्दू नीच या पतित नहीं हो सकता. हिन्दुओं की रक्षा मेरी दीक्षा है, समानता यही मेरा मंत्र है. श्रीगुरुजी को विश्वास था कि देश के प्रमुख धर्माचार्य यदि समाज से आह्वान करेंगे कि अस्पृश्यता के लिए हिन्दू धर्म में कोई स्थान नहीं है, इसलिए हमें सबके साथ समानता का व्यवहार रखना चाहिए, तब जनसामान्य इस बात को सहजता के साथ स्वीकार कर लेगा और सामाजिक समरसता की दिशा में बड़ा कार्य सिद्ध हो जाएगा. इस धर्म संसद में श्रीगुरुजी के आग्रह पर सभी संतों ने सर्वसम्मति से सामाजिक समरसता का ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया. श्रीगुरुजी ने अपनी भूमिका को यहीं तक सीमित नहीं रखा, अपितु अब उन्होंने विचार किया कि यह शुभ संदेश लोगों तक कैसे पहुँचे. क्योंकि उस समय आज की भाँति मीडिया की पहुँच जन-जन तक नहीं थी. सामाजिक समरसता के इस अमृत को जनसामान्य तक पहुँचाने के लिए श्रीगुरुजी ने 14 जनवरी, 1970 को संघ के स्वयंसेवकों के नाम एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा कि कर्नाटक में कार्यकर्ताओं की अपेक्षा से कई गुना अधिक सफल आयोजन हुआ. मानो हिन्दू समाज की एकता एवं परिवर्तन के लिए शंख फूंक दिया गया हो. परंतु हमें इससे आत्मसंतुष्ट होकर बैठना नहीं है. अस्पृश्यता के अभिशाप को मिटाने में हमारे सभी पंथों के आचार्य, धर्मगुरु और मठाधिपतियों ने अपना समर्थन दिया है. परंतु प्रस्ताव को प्रत्यक्ष आचरण में उतारने के लिए केवल पवित्र शब्द काफी नहीं हैं. सदियों की कुरीतियां केवल शब्द और सद्भावना से नहीं मिटती. इसके लिए अथक परिश्रम और योग्य प्रचार करना पड़ेगा. नगर-नगर, गाँव-गाँव, घर-घर में जाकर लोगों को बताना पड़ेगा कि अस्पृश्यता को नष्ट करने का निर्णय हो चुका है. और यह केवल आधुनिकता के दबाव में नहीं, बल्कि हृदय से हुआ परिवर्तन है. भूतकाल में हमने जो गलतियां की हैं, उसे सुधारने के लिए अंत:करण से इस परिवर्तन को स्वीकार कीजिए. श्रीगुरुजी के इस पत्र से हम समझ सकते हैं कि अस्पृश्यता को समाप्त करने और हिन्दू समाज में एकात्मता का वातावरण बनाने के लिए उनका संकल्प कैसा था? धर्माचार्यों से जो घोषणा उन्होंने करायी, वह समाज तक पहुँचे, इसकी भी चिंता उन्होंने की. संघ की शाखा पर सामाजिक समरसता को जीने वाले लाखों स्वयंसेवक सरसंघचालक के आह्वान पर हिन्दव: सोदरा: सर्वेके मंत्र को लेकर समाज के सब लोगों के बीच गए.

इसी धर्म संसद का एक और मार्मिक एवं प्रेरक संस्मरण है. तथाकथित अस्पृश्य जाति से आने वाले सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी आर. भरनैय्या की अध्यक्षता में ही हिन्दव: सोदरा: सर्वेका प्रस्ताव पारित हुआ. प्रस्ताव को लेकर कई प्रतिभागियों ने अपने विचार भी व्यक्त किए. जैसे ही कार्यक्रम समाप्त हुआ, मंच से उतरते ही भरनैय्या भाव-विभोर होकर श्रीगुरुजी के गले लग गए. उनकी आँखों से आँसू निकल रहे थे. वे गदगद होकर बोले – आप हमारी सहायता के लिए दौड़ पड़े. इस उदात्त कार्य को आपने हाथ में लिया हैआप हमारे पीछे खड़े हो गए यह आपका श्रेष्ठ भाव है.

हिन्दुओं को जातीय भेदभाव के आधार पर एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बदनाम करने के प्रयास भारत विरोधी विचारधाराएं प्रारंभ से करती आई हैं. श्रीगुरुजी ने 1 जनवरी, 1969 को दैनिक समाचारपत्र नवाकालके संपादक को एक साक्षात्कार दिया, जिसमें जाति-व्यवस्था को लेकर दिए गए उनके उत्तरों को तोड़-मरोड़ कर प्रकाशित किया गया. जिन शब्दों का उपयोग श्रीगुरुजी ने किया नहीं, ऐसे भ्रम पैदा करने वाले शब्दों को संपादक ने गुरुजी के उत्तरों में शामिल कर लिया. उसके आधार पर कुछ राजनेताओं ने संघ की छवि खराब करने और समाज में जातीय वैमनस्यता को बढ़ावा देने का प्रयास किया. तब श्रीगुरुजी ने इस संबंध में एर्नाकुलम से ही 4 फरवरी, 1969 को स्पष्ट किया – “शहरों से लेकर ग्रामीण भागों तक और गिरि-कंदराओं से लेकर मैदानों तक फैले हुए हिन्दू समाज के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति जाति-पाति, गरीबी, अमीरी, साक्षर, निरक्षर, विद्वान आदि का विचार न करते हुए सबको एकत्र लाना, यही संघ का कार्य है. इस उद्देश्य को व्याघात पहुँचाने वाली कोई भी बात मुझे कभी पसंद नहीं आ सकती. प्रगतिशीलपन की भाषा बोलने वाले राजनीतिज्ञ केवल अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए समाज में भय पैदा करने वाले कार्य कर रहे हैं”.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर इस प्रकार का दुष्प्रचार क्यों किया जाता है, इसका उत्तर श्रीगुरुजी ने 8 मार्च, 1969 को ऑर्गेनाइजर को दिए साक्षात्कार में दिया है. उनसे पूछा गया कि जातिगत व्यवस्था विषयक आपके कथित मत के विषय में विगत कुछ दिनों से काफी हंगामा हो रहा है. लगता है, उस विषय में कुछ भ्रांति है. श्रीगुरुजी ने स्पष्टता के साथ कहा – “भ्रांति जैसी कोई बात नहीं है. कुछ लोग ऐसे हैं, जो मेरे प्रत्येक कथन को तोड़-मरोड़कर रखते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि देश को मटियामेट करने के उनके षड्यंत्रों में एकमेव संघ ही बाधक है”. श्रीगुरुजी का यह कथन शत-प्रतिशत सत्य है. आज भी भारत एवं हिन्दू विरोधी ताकतों के निशाने पर संघ ही रहता है, क्योंकि उन्हें पता है कि संघ हिन्दुओं का प्रमुख संगठन है, संघ को कमजोर या बदनाम किए बिना वे अपनी साजिशों में सफल नहीं हो सकते. इसलिए तथ्यहीन बातों को आधार बनाकर संघ के बारे में दुष्प्रचार फैलाना कई नेताओं एवं तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने अपना एकमेव लक्ष्य बना लिया है.

अपने उद्बोधनों एवं कार्यकर्ताओं से व्यक्तिगत संवाद में भी श्रीगुरुजी का यही कहना होता था कि संघ विभिन्न वर्ण एवं उपजातियों में बँटे हिन्दू समाज के अंदर हम सब एक हैं, एक भारत माता के पुत्र हिन्दू हैं, सब समान हैं कोई ऊँचा नहीं, यह भाव उत्पन्न कर एकरस, एकजीव हिन्दू समाज बनाने के काम में लगा है. यह एकरस, एकजीव हिन्दू समाज का निर्माण कर पाए तो हमने इस जीवन में सफलता पायी, ऐसा कह सकेंगे”. श्रीगुरुजी का यह विचार एवं आह्वान आरएसएस के सभी स्वयंसेवकों का ध्येय है.

2 comments:

Pradeep Kumar Chourasia said...

गुरुजी का जीवन हम सब के लिए आदर्श है।

Anonymous said...

परम पूज्य गुरु जी ने हिन्दू समाज को संगठित करने का भगीरथ प्रयास किया आज संघ को बदनाम करने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपना रहे हैं जो निन्दनीय है ।अति पिछड़े व दलित के लिए भेदभाव मिटाने का भागीरथ प्रयास किया ।हम गुरु जी के योगदान का भुला नहीं सकते ।