- रमेश शर्मा
भारत पर मध्यकाल के आक्रमण साधारण नहीं थे. हमलावरों का उद्देश्य धन
संपत्ति के साथ स्त्री और बच्चों का हरण भी रहा. जिन्हें वे भारी अत्याचार के साथ
गुलामों के बाजार में बेचते थे. इससे बचने के लिये भारत की हजारों वीरांगनाओं ने
अपने बच्चों के साथ जल और अग्नि में कूदकर अपने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा की.
ऐसा ही एक जौहर रणथम्भोर में 9 जुलाई, 1301 से
आरंभ हुआ और 11 जुलाई तक चला. इस जौहर में राणा हमीरदेव की
रानी रंगादेवी ने अपनी पुत्री पद्मा के साथ जौहर किया था. उनके साथ बारह हजार
क्षत्राणियों ने जल और अग्नि में कूदकर अपने प्राणों का बलिदान दे दिया.
रानी रंगादेवी चित्तौड़ की राजकुमारी थीं और रणथम्भोर के इतिहास
प्रसिद्ध राजा हमीरदेव को ब्याही थीं. रणथम्भोर का यह राजपरिवार पृथ्वीराज चौहान
का वंशज माना जाता है. मोहम्मद गौरी के हमले से दिल्ली के पतन के बाद उनके एक पुत्र
ने रणथम्भोर में राज स्थापित कर लिया था. इसी वंश में आगे चलकर 7 जुलाई,
1272 को हमीरदेव चौहान का जन्म हुआ था. उनके पिता राजा जेत्रसिंह
चौहान ने भी दिल्ली सल्तनत के अनेक आक्रमण झेले थे. लेकिन रणथम्भोर किले की रचना
ऐसी थी कि हमलावर सफल न हो पाए. लगातार हमलों से राजपूताने की महिलाएं भी
आत्मरक्षा के लिये शस्त्र संचालन सीखती थीं. हमीरदेव की माता हीरादेवी भी युद्ध
कला में प्रवीण थीं. परिवार की पृष्ठभूमि ही कुछ ऐसी थी कि हमीरदेव ने कभी
स्वाभिमान से समझौता नहीं किया. उन्होंने अपने जीवन में कुल 17 युद्ध लड़े और 16 युद्ध जीते. जिस अंतिम युद्ध में
उनकी पराजय हुई, उसी में उनका बलिदान हुआ. उन्होंने 16
दिसंबर, 1282 को रणथम्भोर की सत्ता संभाली थी,
परंतु उनका पूरा कार्यकाल युद्ध में बीता. दिल्ली के शासक
जलालुद्दीन ने 1290 से 1296 के बीच
रणथम्भोर पर तीन बड़े हमले किये, पर सफलता नहीं मिली.
अलाउद्दीन उसका भतीजा था, जो 1296 में
चाचा की हत्या करके गद्दी पर बैठा. गद्दी संभालते ही अलाउद्दीन ने राजस्थान और
गुजरात पर अनेक धावे बोले, परंतु रणथम्भोर अजेय किला था. वह
अपने चाचा के साथ रणथम्भोर में पराजय का स्वाद चख चुका था, इसलिए
उसने यह किला छोड़ रखा था. तभी 1299 में एक घटना घटी.
अलाउद्दीन की सेना गुजरात से लौट रही थी. उसके दो मंगोल सरदार मोहम्मद खान और
कुबलू खान रास्ते में रुक गए और रणथम्भोर में राजा हमीरदेव के पास पहुँचे.
दोनों ने अलाउद्दीन के विरुद्ध शरण माँगी. हमीरदेव ने विश्वास करके
दोनों को न केवल शरण दी, अपितु जगाना की जागीर भी दे दी. इस घटना
के लगभग दो वर्ष बाद अलाउद्दीन ने रणथम्भोर पर धावा बोला. यह कहा जाता है कि
अलाउद्दीन इन दोनों को शरण देने से नाराज था, इसलिए धावा
बोला, परंतु कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह अलाउद्दीन
खिलजी की रणनीति थी. इन दोनों ने न केवल किले के कई भेद दिये, अपितु हमीरदेव की सेना में भेद पैदा कर दिए. इससे हमीरदेव के दो अति
विश्वस्त सेनापति रणमत और रतिपाल अलाउद्दीन से मिल गए.
इतना करने के बाद 1301 में अलाउद्दीन ने रणथम्भोर पर धावा
बोला. तब हमीरदेव एक धार्मिक आयोजन में व्यस्त थे और उन्होंने अपने इन्हीं दोनों
सेनापतियों को युद्ध में भेजा. लेकिन दोनों के मन में विश्वासघात आ गया था. इनके
अलाउद्दीन से मिल जाने से रणथम्भोर की सेना कमजोर हुई. तब किले के दरवाजे बंद कर
लिये गए. लेकिन किले के भीतर गद्दार थे. रसद सामग्री में विष मिला दिया गया. किले
के भीतर भोजन की विकराल समस्या उत्पन्न हो गई. इस विष मिलाने के संदर्भ में
अलग-अलग इतिहासकारों के अलग अलग मत हैं. कुछ का मानना है कि मोहम्मद खान और कुबलू
खान की कारस्तानी थी, जबकि कुछ रणमत और रतिपाल का विश्वासघात
मानते हैं. विवश होकर हमीरदेव ने केसरिया बाना पहन कर साका करने का निर्णय लिया और
किले के भीतर सभी महिलाओं ने रानी रंगादेवी के नेतृत्व में जौहर करने का. यह जौहर 9
जुलाई से आरंभ हुआ जो तीन दिन चला. यह जौहर दोनों प्रकार का हुआ
अग्नि जौहर भी और जल जौहर भी. तीसरे दिन 11 जुलाई, 1301
को रानी रंगादेवी ने अपनी बेटी पद्मा के साथ जल समाधि ली. राजा
हमीरदेव 11 जुलाई को केसरिया बाना पहनकर निकले और बलिदान
हुए. इस जौहर में कुल बारह हजार वीरांगनाओं ने अपने स्वत्व की रक्षा के लिये प्राण
न्यौछावर कर दिये. यह राजस्थान का पहला बड़ा जौहर माना जाता है.
इतिहास के विवरण के अनुसार रणमत और रतिपाल अलाउद्दीन
खिलजी के हाथों मारे गए, जबकि मोहम्मद खान और कुबलू खान का विवरण
नहीं मिलता. इसी से यह अनुमान लगाया जाता है कि इन दोनों सरदारों को हमीरदेव के
पास भेजने की रणनीति अलाउद्दीन की ही रही होगी ताकि किले के गुप्त भेद पता लग सकें
और भीतर से विश्वासघाती पैदा किये जा सकें. चूँकि युद्ध के पहले का घटनाक्रम
साधारण नहीं है. अलाउद्दीन की धमकियों के बीच युद्ध की तैयारी करने की बजाय एक
विशाल पूजन यज्ञ की तैयारी करना आश्चर्यजनक है. किसने युद्ध के घिरते बादलों से
ध्यान हटाकर यज्ञ में लगाया? अब सत्य जो हो पर रंगादेवी के
जौहर का वर्णन सभी इतिहासकारों के लेखन में है, जो तीन दिन
चला.
इतिहास के जिन ग्रंथों में इस जौहर का विवरण है, उनमें “हम्मीर ऑफ रणथम्भोर” लेखक हरविलास सारस्वत, जोधराकृत हम्मीररासो संपादक – श्यामसुंदर दास,
जिला गजेटियर सवाई माधोपुर तथा सवाईमाधोपुर दिग्दर्शन संपादक गजानंद
डेरोलिया प्रमुख हैं. इधर हम्मीर रासो में लिखा है कि जौहर के समय रणथम्भोर में
रानियों ने शीश फूल, दामिनी, आड़,
तांटक, हार, बाजूबंद,
जोसन पौंची, पायजेब आदि आभूषण धारण किए थे.
हम्मीर विषयक काव्य ग्रंथों में अलाउद्दीन द्वारा हमीर की पुत्री देवलदेह, नर्तकियों तथा सेविकाओं की मांग करने पर देवलदेह के उत्सर्ग की गाथा मिलती
है, किन्तु इसका ऐतिहासिक संदर्भ नहीं मिलता. इतिहासकार ताऊ
शोखावटी ने लिखा है कि हमीरदेव की पत्नी रंगादेवी ने अपनी सेविकाओं और अन्य रानियों
के साथ जौहर किया था.
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