- लोकेन्द्र सिंह
‘द केरल स्टोरी’ के
बाद सुदीप्तो सेन ने फिल्म ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’ के माध्यम से आतंकवाद को,
उसके वास्तविक रूप में, सबके सामने रखने का
साहसिक प्रयास किया है. भारत में कम्युनिस्ट, नक्सल और
माओवाद (संपूर्ण कम्युनिस्ट परिवार) के खून से सने हाथों एवं चेहरे को छिपाने का
प्रयास किया जाता रहा है. लेफ्ट लिबरल का चोला ओढ़कर अकादमिक, साहित्यिक, कला-सिनेमा एवं मीडिया क्षेत्र में बैठे
अर्बन नक्सलियों ने कहानियां बनाकर हमेशा लाल आतंक का बचाव किया और उसकी
क्रांतिकारी छवि प्रस्तुत की. जबकि सत्य क्या है, यही दिखाने
का काम ‘बस्तर : द नक्सल स्टोरी’ ने किया है. फिल्म संवेदनाओं को जगाने के साथ ही
आँखों को भिगो देती है. फिल्म जिस दृश्य के साथ शुरू होती है, वह दर्शकों को हिला देता है. जब मैं ‘बस्तर’ की विशेष स्क्रीनिंग देख रहा
था, तब मैंने देखा कि अनेक महिलाएं एवं युवक भी पहले ही
दृश्य को देखकर रोते हुए सिनेमा हॉल से बाहर निकल गए. जरा सोचिए, हम जिस दृश्य को पर्दे पर देख नहीं पा रहे हैं, उसे
एक महिला और उसकी बेटी ने भोगा है. फिल्म में कुछ दृश्य विचलित कर सकते हैं. यदि
उन दृश्यों को दिखाया नहीं जाता, तो दर्शक कम्युनिस्टों की
हिंसक मानसिकता का अंदाजा नहीं लगा सकते थे. 76 जवानों को
जलाकर मारने की घटना का चित्रांकन, कुल्हाड़ी से निर्दोष
वनवासियों की हत्या करने के दृश्य, मासूम बच्चों को उठाकर आग
में फेंक देने की घटना, यह सब देखने के लिए दम चाहिए.
सुदीप्तो सेन को सैल्यूट
है कि उन्होंने बेबाकी से लाल आतंक के सच को दिखाया है. हालांकि, कम्युनिस्ट हिंसा की और भी क्रूर कहानियां हैं,
जिन्हें दिखाया जाना चाहिए था. लेकिन फिल्म में समय की एक मर्यादा
है. अपेक्षा है कि सुदीप्तो इस पर एक वेब-सीरीज़ लेकर आएं.
‘बस्तर: द नक्सल
स्टोरी’ जिस दृश्य से शुरू होती है, फिल्म वहीं से दर्शकों
को बाँध लेती है. भारत का राष्ट्र ध्वज तिरंगा फहराने के ‘अपराध’ में नक्सलियों ने
एक महिला की आँखों के सामने ही उसके पति के 36 टुकड़े कर दिए
और एक पोटली में उसके शव को बाँधकर उसे सौंप दिया. जब वह महिला अपने पति के शव (36
टुकड़े) सिर पर रखकर घने जंगल से अपने घर की ओर जा रही होगी, तब कैसे चल पा रही थी, कल्पना नहीं की जा सकती. उसके
सिर पर वह बोझ, दुनिया के किसी भी बोझ से अधिक भारी था. इस
केंद्रीय कहानी के इर्द-गिर्द अन्य कहानियां भी साथ-साथ चलती हैं, जो लाल आतंक के सभी शेड्स को दिखाती है. फिल्म समाज के सामने उस नेटवर्क
को भी उजागर करती है, जो जंगल से लेकर शहरों तक और नक्सली
कैम्प से लेकर एजुकेशन कैम्पस तक फैला हुआ है. मीडिया से लेकर कोर्ट रूम तक की
बहसों में किस प्रकार नक्सलियों एवं उनके समर्थकों के पक्ष में माहौल बनाया जाता
है, यह भी फिल्म में देखने को मिलता है. हम फिल्म को गौर से
देखेंगे तो यह भी भली प्रकार समझ पाएंगे कि नक्सल विचारधारा केवल जंगल तक सीमित
नहीं है, वह हमारे आस-पास भी पनप रही है. इस संदर्भ में उस
घटनाक्रम को भी दिखाया गया है, जिसमें नक्सलियों ने सोते हुए
सीआरपीएफ के 76 जवानों की नृशंस हत्या की और उसका जश्न
दिल्ली के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जेएनयू में मनाया गया. भारत विरोधी इस
विचारधारा को समझने और उसे फैलने से रोकने में प्रत्येक देशभक्त नागरिक को अपनी
भूमिका निभानी होगी.
फिल्म
में एक संवाद है – “बस्तर की सड़कें डामर से नहीं, जवानों के खून से बनी हैं”. बस्तर की 55 किलोमीटर
लंबी एक सड़क को बनाने के लिए 41 जवानों का बलिदान हुआ है.
नक्सली अपने प्रभाव के क्षेत्रों में न तो स्कूल बनने देते हैं और न ही अस्पताल.
फिल्म यह भी बताती है कि वनवासी बंधुओं को हिंसा में धकेलकर कम्युनिस्ट धन उगाही
का धंधा कर रहे हैं. भारत विरोधी ताकतों से करोड़ों का फंड ले रहे हैं और अपना घर
बना रहे हैं. लाल गलियारे के खनिज संपदा की लूट भी कम्युनिस्टों का एजेंडा है. याद
रहे कि दुनिया में जहाँ कहीं कम्युनिस्ट सत्ता में रहे, वहाँ
उन्होंने लाखों निर्दोष लोगों की हत्याएं की हैं. कम्युनिस्ट आतंक ने सोवियत संघ
में दो करोड़ लोगों की हत्या की, चीन में साढ़े छह करोड़,
वियतनाम में 10 लाख, उत्तर
कोरिया में 20 लाख, कंबोडिया में 20
लाख, पूर्वी यूरोप में 10 लाख, लैटिन अमेरिका में डेढ़ लाख, अफ्रीका में 17 लाख, अफगानिस्तान
में 15 लाख लोगों की हत्या की गई है. पिछले 70-75 वर्षों में साम्यवादी प्रयोगों से लगभग 10 करोड़ लोग
मारे जा चुके हैं. बोको हरम और आईएसआईएस के बाद दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकी
नक्सली हैं.
वर्तमान समय में भारतीय
सिनेमा ने एक नयी करवट ली है. सिनेमा अपनी महत्वपूर्ण और आवश्यक भूमिका का निर्वहन
कर रहा है. यही कारण है कि ‘द कश्मीर फाइल’ से लेकर ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’ जैसी
फिल्में बनाने की हिम्मत निर्माता-निर्देशक कर पा रहे हैं. भारतीय सिनेमा अब उस सच
को सामने लाने का साहस दिखा रहा है, जिसे वर्षों से छिपाया जाता रहा या फिर उसका महिमामंडन किया गया. ‘बस्तर’
में निर्देशक सुदीप्तो सेन ने बहुत शानदार काम किया है. यह फिल्म दर्शकों को अंत
तक बांधे रखने में सफल होती है. फिल्म के माध्यम से जिस सच को निर्देशक समाज तक ले
जाना चाहते हैं, उसमें भी वे सफल रहे हैं. अदा शर्मा ने अपनी
भूमिका में एक बार फिर प्रभाव छोड़ा है. उन्होंने एक साहसी और जिम्मेदार पुलिस
अधिकारी की भूमिका का निर्वहन किया है. अदा शर्मा के साथ ही इंदिरा तिवारी,
शिल्पा शुक्ला, यशपाल शर्मा, राइमा सेन और अनंगशा विस्वास जैसे कलाकारों ने भी अपना प्रभाव छोड़ा है.
‘द केरल स्टोरी’ के
प्रोड्यूसर विपुल अमृतलाल शाह ‘बस्तर’ के भी प्रोड्यूसर एवं क्रिएटिव डायरेक्टर
हैं. भारत जिस अघोषित युद्ध का सामना कर रहा है, उसका
संपूर्ण सच बताने के लिए 15 मार्च, 2024 को सिनेमाघरों में ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’ आ रही है. सच देखना चाहते हैं
तो हिम्मत बटोरकर यह फिल्म अवश्य देखें.
2 comments:
ऐसी फिल्मों से सत्य सामने आता है।फिल्म से जुड़े पूरी टीम का अभिनंदन है।वंदेमातरम।
"समाज का सत्य" फिल्मों के माध्यम से सामने आता है।
Post a Comment