WELCOME

VSK KASHI
63 MADHAV MARKET
LANKA VARANASI
(U.P.)

Total Pageviews

Wednesday, April 15, 2020

मीडिया से विज्ञापन छीनने का सुझाव आपातकालीन मानसिकता का परिचायक ..?

भारत में पत्रकारिता लोकतंत्र का महज चौथा स्तंभ ही नहीं, बल्कि जनमत निर्माण का माध्यम भी है. सरकार और मीडिया का संबंध अंतर्विरोधों से भरा है, लेकिन तमाम विसंगतियों के बाद भी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. यही भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की खूबसूरती है कि जिस सरकारी व्यवस्था के माध्यम से जारी विज्ञापन मीडिया के लिए आय का अहम साधन हैं, उसी सरकार की किसी खामी को उजागर करने में मीडिया कोताही नहीं बरतता. फिर भी सरकार उन्हें विज्ञापनों के जरिए पोषित करती है और उस पोषण के बदले मीडिया लोकतंत्र के हित साधन में जुटा रहता है.
स्वतंत्रता के बाद से अब तक मीडिया, सरकार और जनता का यही संबंध रहा है. किंतु आपातकाल में यह ढांचा छिन्न-भिन्न हो गया था. 26 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने अपने निर्वाचन को गलत ठहराए जाने पर आपातकाल लगा दिया था. इस दौरान विपक्षी नेताओं या नागरिकों के अधिकार तो छीने ही, मीडिया पर भी प्रहार किए गए. सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों को जेलों में ठूंसा गया, अखबारों को जब्त कर लिया गया था.
आज इन बातों को याद करने का यूं तो कोई औचित्य नहीं था, लेकिन उन्हीं इंदिरा गांधी की बहू सोनिया गांधी ने उसी आपातकालीन मानसिकता का प्रदर्शन किया है, उससे 45 वर्ष पूर्व की यादें ताजा हो गईं. सोनिया गांधी ने कोरोना वायरस के संकट के चलते खर्च में कटौती का सुझाव देते हुए सरकार से कहा कि वह प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया को दिए जाने वाले विज्ञापनों को पूरी तरह से बंद कर दे. सोनिया का यह सुझाव उस ढांचे को ही नष्ट करने का है, जिसकी हमने बात की. इसके साथ ही मीडिया के साथ उनके परिवार के बैर की विरासत को भी दिखाता है. प्रथम प्रधानमंत्री ने प्रथम संविधान संशोधन के माध्यम से मीडिया पर अंकुश लगाने की शुरूआत की थी, तो इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते मीडिया को प्रतिबंधों, ज्यादतियों और गिरफ्तारियों से मूक करने की कोशिश की थी और अब सोनिया गांधी चाहती हैं कि उसके अर्थतंत्र पर हमला कर उसे गूंगा कर दिया जाए.
वह यह जानती हैं कि भारतीय मीडिया स्वतंत्रता आंदोलन के प्रवाह के साथ आगे बढ़ा है. लोकमान्य तिलक से लेकर महात्मा गांधी, महर्षि अरविंद और अंबेडकर तक तमाम नेताओं ने स्वतंत्रता और समाज सुधार के लिए पत्रकारिता को माध्यम बनाकर कार्य किया था. उस गौरवशाली विरासत के साथ आगे बढ़ने वाले मीडिया ने आजादी के बाद भी नेहरू के दौर के जीप घोटाले, राजीव के दौर के बोफोर्स और सोनिया काल के 2जी घोटालों तक को उजागर करने में तत्परता दिखाई है. शायद यही वजह है कि मीडिया कभी गांधी परिवार को नहीं सुहाया. कोरोना वायरस के संकट के बीच सोनिया गांधी शायद मीडिया से उस पुरानी दुश्मनी का बदला लेना चाहती हैं.
वहीं, सोनिया गांधी के सुझाव पर इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी के अध्यक्ष शैलेष गुप्ता ने आपत्ति जताते हुए भारतीय मीडिया क्षेत्र के हित में उनसे इस सुझाव को वापिस लेने का आग्रह किया.
जब रॉबर्ट वाड्रा ने पटका था पत्रकार का माइक: गांधी परिवार और उनके परिजनों की मीडिया से रंजिश को आप एक और वाकये से समझ सकते हैं. नवंबर, 2014 की बात है. सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा से दिल्ली के एक होटल में न्यूज एजेंसी एएनआई के पत्रकार ने हरियाणा में उनसे विवादित भूमि सौदे के बारे में सवाल कर लिया था. फिर क्या था? गांधी परिवार के दामाद ने पत्रकार के हाथ में मौजूद माइक्रोफोन को गिरा दिया और कैमरा बंद करने की धमकी दी.
प्रियंका से पूछा सवाल तो मिली ठोकने की धमकी: सोनिया गांधी की बेटी प्रियंका गांधी का जिक्र करना भी यहां जरूरी है. 2019 के आम चुनावों में सक्रियता से जुटी रहीं और कांग्रेस की महासचिव की जिम्मेदारी संभालने वाली प्रियंका से जब एक पत्रकार ने आर्टिकल 370 पर राय पूछी तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. इसके उलट उनके सहयोगी पत्रकार को ठोकने बजाने की धमकी देने लगे. खुद प्रियंका की मौजूदगी में जेएनयू में पढ़े और वामपंथी संगठनों से जुड़े रहे उनके सहयोगी संदीप सिंह ने रिपोर्टर को धमकाते हुए कहा, ‘सुनो सुनो, ठोक के यहीं बजा दूंगा. मारूंगा तो गिर जाओगे.’
सूर्य प्रकाश -[लेखक डिजिटल मीडिया पत्रकार हैं.]
श्रोत  - विश्व संवाद केन्द्र, भारत 

No comments: