भारत, कल का आर्यावर्त, कल का भारतवर्ष, आज का हमारा
भारत. ऋषि-मुनियों, देवी-देवताओं से लेकर सैलानियों-व्यापारियों और
राजाओं-महाराजाओं-सम्राटों तक को इस भारत भूमि ने सहस्राब्दियों और युगों से
आकर्षित, सम्मोहित और
अचंभित किया है. धन-दौलत और हीरे-जवाहरात की कौन कहे, मसालों और
औषधियों तक के लिए, ज्ञान-विज्ञान-चिकित्सा की शिक्षा और अध्ययन के लिए, आध्यात्मिक
शान्ति और दिव्य दृष्टि के लिए धरती के कोने-कोने से लोग कभी दोस्त बन कर, कभी व्यापारी
बन कर तो कभी आक्रान्ता और लुटेरे बन कर भारत का रुख करते रहे हैं. भारत दमित हुआ, भारत दलित हुआ, भारत आहत हुआ, लेकिन भारत
कभी निहत नहीं हुआ. भारत की अन्तर्निहित शक्ति ने अपनी भूमि में फिर-फिर प्राण का
संचार किया और यह देश फिर-फिर उठ खड़ा हुआ. विश्व को फिर-फिर आकर्षित, सम्मोहित और
अचंभित करने के लिए. ऐसे अवसर कितनी बार आये, इसकी गिनती नहीं, किन्तु हम उस
पीढ़ी के सौभाग्यशाली लोग हैं जिसे एक बार वैसे अवसर को देखने का सुअवसर प्राप्त
हुआ है.
जिनके राज्य में सूरज अस्त नहीं होता था, उन्हें इसी
देश की मिट्टी ने उनके मिट्टी होने का अहसास कराया और इस अहसास की चोट इतनी गहरी
रही कि उसके तुरंत बाद से उनके उपनिवेशों की लगाम एक-एक करके उनके हाथ से छूटती
गयी और उनके भाग्य का सूरज उनसे रूठता गया. बीसवीं सदी के ठीक मध्य के करीब भारत
ने अपने आँगन में अपने हिस्से का सूरज उगाया और देश एक नए युग में, एक नए प्रारम्भ
के साथ एक नयी दिशा में चल पडा. भारत के जन-जीवन में बलात हस्तक्षेप के लगभग 150 वर्षों
के बाद 1855 में
ब्रिटेन की सरकार द्वारा भारत सरकार अधिनियम के अधिनियमन के साथ भारत का सम्पूर्ण
राजनैतिक और शासकीय संचालन अंग्रेजों ने अपने हाथ में ले लिया. ऐसे में स्वाभाविक
था भारत की समस्त समृद्ध सांस्कृतिक-सामाजिक मूलों, आस्थाओं, परम्पराओं और
प्रचलनों के विषय में देश के जन-मानस में अपमान और अवमानना की भावना भरने का
सिलसिला आरम्भ हुआ. अंग्रेजों से प्रभावित साधन-संपन्न लोगों के घर के कुमार
शिक्षा के लिए ब्रिटेन जाने लगे और इधर समाज में हैसियत और ओहदे की बराबरी से जो
सहमेल हुआ उसके फलस्वरूप एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हुआ जो पाश्चात्य परम्पराओं के
अन्धानुकरण की राह चल पड़ा. धीरे-धीरे देश के चिंतन में भारत की मौलिक एवं समृद्ध
विरासतों से विमुखता एक नयी संस्कृति-सी बन गयी और देश का नव-शिक्षित समाज यह मान
बैठा कि अंग्रेज हमसे उन्नत है और हम अभी तक अन्धकार में ही जी रहे थे.
इसका प्रभाव स्वतन्त्रता के तुरंत
बाद परिलक्षित होने लगा, जब देश की आत्मनिर्भरता और प्रगति के लिए सहायता और सहयोग
की आवश्यकता आयी. तब भारत पर शर्तें थोपी जाने लगीं और ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रथम
पदार्पण से लेकर स्वतन्त्रता प्राप्ति तक के लगभग साढ़े तीन सौ वर्षों में उत्पन्न
गुलामी की मानसिकता ने यह मान लिया कि दुनिया भारत से बहुत आगे है और देश की
तत्कालीन एवं अनेक परवर्ती सरकारें शर्तों पर शर्तें मानती गयीं. सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा, विज्ञान, अनुसंधान… यानि
राष्ट्रीय जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था. जहाँ दुनिया भारत को तुच्छ नज़रों से
नहीं देख रही थी. यही कारण था कि 1981 में इंदिरा गाँधी ने शर्तें मानने की
परम्परा में ऐसी-ऐसी शर्तों पर हामी भरी जो देश के गले की फांस बन गयी. ऐसे
पृष्ठभूमि में अटल बिहारी बाजपेयी का प्रधानमंत्रित्व इस देश को प्राप्त हुआ और
पहली बार देश की सबसे बुनियादी ज़रूरतों पर ध्यान देते हुए स्वर्णिम चतुर्भुज के
रूप में अटल जी का मौलिक चिंतन और परिकल्पना देश के सामने आयी. अनेक नयी चीजें एन
नया भारत बनाने के लिए सामने आने लगीं. किन्तु स्वर्णिम चतुर्भुज की एक संकल्पना
ने देश की तस्वीर में रंग भरना आरम्भ कर दिया. दुनिया ने भारत की इच्छा शक्ति का
एक नया प्रतिमान देखा और भारत के प्रति विदेशों में लोगों का दृष्टिकोण बदलने लगा.
स्वातंत्र्योत्तर भारत में लगातार तीस वर्षों तक भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस और बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इंदिरा) का शासन रहा और
आज़ादी के सारे सपने धीरे-धीरे धूमिल होने लगे, और 1977 में पहली
गैर-कांग्रेस सरकार केंद्र में बनी. वह जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में सम्पूर्ण
क्रांति की अवधारणा को लेकर चले. लगभग दो वर्षों के राष्ट्रव्यापी आन्दोलन के बाद
अनेक गैर-कांग्रेस और गैर-कम्युनिस्ट राजनैतिक दलों के विलय से बने जनता दल की
सरकार थी. पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ के लोगों को लेकर भीतर में विवाद था और अंततः
उन लोगों को जनता दल से निकल कर भारतीय जनसंघ का नया संस्करण भारतीय जनता पार्टी
के नाम से सामने आया और गिरते-उठते-बढ़ते हुए 1996 में 13 दिनों के लिए
पहली बार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार केंद्र में बनी. 1998 में
दोबारा सत्ता में आने के बाद फिर चुनाव हुए और 1999 से 2004 तक
भाजपा की सरकार चली. इन तीनों सरकारों का नेतृत्व अटल बिहार बाजपेयी ने किया और
अपने दूरदर्शी एवं कुशल नेतृत्व में देश के राजनैतिक जीवन को एक नयी दिशा दी, देश की घरेलू, विदेश एवं
रक्षा नीति में गुणात्मक बदलाव आये तथा विकास, जो कांग्रेस की सरकारों के दौर में
महज कारखानों के निर्माण तक सीमित था, वह विकास जमीन पर विभिन्न रूपों में
गाँव-गाँव तक पहुँचने लगा. भाजपा सरकार ने अटल जी के नेतृत्व में भारत के बारे में
विदेशों में जो प्रचलित मान्यताएं थीं, उन्हें भी नयी
दिशा देने का सिलसिला आरम्भ कर दिया.
2014 का
साल स्वातंत्र्योत्तर भारत के सबसे महत्वपूर्ण साल के रूप में इतिहास में लिखा
जाएगा. इसके अनेक कारण हैं, जिनमें से एक बहुत बड़ा कारण है विदेशों में भारत की छवि और
क्षमता के प्रति दृष्टिकोण में सम्पूर्ण परिवर्तन. प्रधानमंत्री, नरेन्द्र मोदी
ने शुरुआत की अपने प्रथम शपथ ग्रहण समारोह से, जब उन्होंने भारत से समस्त पड़ोसी
देशों को मित्रता और सद्भाव का सन्देश देते हुए समारोह में सम्मानित अतिथियों के
रूप में आमंत्रित किया. पूरे विश्व ने पड़ोसियों से गले मिलने के लिए भारत के इस
फैले हुए हाथों को बड़ी उत्सुकता के साथ देखा. वह समारोह अपने-आप में अनोखा और
अभूतपूर्व था. उसका तत्काल प्रभाव यह हुआ कि बंगलादेश, श्रीलंका, भूटान, नेपाल और
पाकिस्तान जैसे भारत के निकटतम पड़ोसी देशों की आम जनता के बीच सकारात्मक सन्देश
गया और भारत की छवि में काफी निखार आया. पाकिस्तान के प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी की अप्रत्याशित दोस्ताना पहल ने भारत का हाथ और सिर दोनों ऊपर किया. भारत
द्वारा पड़ोसी देशों की आकस्मिक परिस्थितियों में उनके काम आने के नए उदाहरण आने
लगे. चाहे नेपाल में भूकंप राहत की बात हो, मालदीव्स में पानी का संकट हो, ऐसे अनेक अवसरों
पर भारत ने एक अच्छे पड़ोसी के कुछ अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किये, जिससे इसकी
स्वीकृति बढ़ी.
चीन, जो परम्परागत रूप से लगभग 55-60 वर्षों से
भारत के प्रति अविश्वास का प्रतीक बना रहा है, उसके सर्वशक्तिमान नेता, शी जिनपिंग के
साथ जिस बराबरी का धरातल 2014 के बाद भारत ने निर्मित किया है, उसके फलस्वरूप
चीन के साथ न केवल व्यापार में वृद्धि हुई, वरन चीन के एक भूखंड-एक मार्ग की
परियोजना में शामिल नहीं होने के भारत के फैसले पर चीन ने प्रतिक्रिया नहीं करना
बेहतर समझा. आर्थिक-सामरिक रूप से शक्तिशाली देशों में यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य
अमेरिका, फ्रांस, जापान, इजराइल आदि
देशों के साथ रिश्तों ने न केवल कूटनीतिक स्तर पर बल्कि सामाजिक और दिली स्तर पर
भी एक नया आयाम ग्रहण किया. इतना ही नहीं, नये भारत ने दुनिया के छोटे, गरीब और कमजोर
देशों को भी अभूतपूर्व सम्मान दिया और विशेषकर अफ्रीका और खाड़ी में भारत की पहचान
को आसमान में पहुंचाया. सब कुछ अचानक-से पिछले पाँच-छः वर्षों में नहीं हुआ है, लेकिन उभरते
नए वैश्विक संगठनों और संघों में भारत की उपस्थिति इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि
पिछले पाँच-छः वर्षों में भारत ने अपनी प्रतिष्ठा को स्थापित करने और इसे
सर्वस्वीकार्य बनाने के लिए जो प्रयास किया, वह अभूतपूर्व है. म्यांमार में
सीमापार आतंकी संगठनों को निःशस्त्र और अशक्त करने के लिए सैन्य कारवाई हो, या पश्चिम में
पाकिस्तान-प्रायोजित सीमा पार से आतंक का भारत में निर्यात पर चोट करने के लिए सफल
और सटीक सैन्य कार्रवाई हो, उत्तर में चीन के साथ सीमा-विवाद के मसले पर अड़ने और लड़ने
और परिस्थितियों को सफलतापूर्वक भारत के पक्ष में मोड़ने की घटना हो, ऐसे अनेक
उदाहरण हैं, जो आज भारत का एक नया चेहरा प्रदर्शित करतीं हैं. भारत ने
विश्व को साफ़ सन्देश दे दिया है कि अपनी ज़रूरतों और अपनी शर्तों पर ही चलेगा.
द्वितीय विश्व युद्ध में अधिकाँश भौतिक क्षति एशिया और
यूरोप के देशों में हुई और मित्र-राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण सदस्य संयुक्त राज्य
अमेरिका ऐसी क्षति से अधिकांशतः बचा रहा. युद्धोत्तर काल में जीर्णोद्धार, पुनर्निर्माण
और नवनिर्माण की आवश्यकता आयी, तब युद्ध से थके-हारे अधिकाँश एशियाई और यूरोपीय देशों के
सामने आर्थिक संकट की बाधा खड़ी थी. दुनिया स्पष्टतः तत्कालीन सोवियत संघ और
संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में दो खेमों में बँट चुकी थी. युद्ध में चीन का
नेतृत्व करने वाली सत्ता का रूपांतरण कम्युनिस्ट शासन में हो चुका था, ब्रिटेन के
उपनिवेश धीरे-धीरे हाथ से निकलते जा रहे थे. ऐसे में संयुक्त राज्य अमेरिका का
आर्थिक वर्चस्व स्थापित हुआ और डॉलर विश्व की मुद्राओं का बादशाह बन गया. 1980-85 के आस-पास दुनिया ने नयी करवट लेनी आरम्भ की और एक ओर
सोवियत संघ तथा उसके गुट के देशों में आर्थिक-राजनैतिक उथल-पुथल हुए तो दूसरी ओर
चीन ने भविष्य की अपनी संभावनाओं को दर्शाना आरम्भ कर दिया था. इस बीच भारत के
सामने जो असीम संभावनाएं थीं, उसका आंकलन करने में परवर्ती कांग्रेसी सरकारों ने
अदूरदर्शिता के कारण हो, या अनजाने में हो, या जान-बूझ कर हो, भारी चूक की
और यह देश अपने पैरों पर खड़ा होने के बजाय अमेरिका और सोवियत संघ के खेमे के बीच
झूलता रहा. ऐसे में 2014 में देश की जनता ने नया राजनैतिक निर्णय किया और उस
परिप्रेक्ष्य में हम भारत की मौजूदा हैसियत के आलोक में इसके भविष्य को समझ सकते
हैं.
आज दुनिया एक अप्रत्याशित और
अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रही है. कोरोनावायरस के प्रकोप ने विश्व में एक नया
शक्ति-संतुलन का सूत्रपात कर दिया है. डोनाल्ड ट्रम्प की गलतियों के कारण विश्व की
सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे बड़ी ताकत, संयुक्त राज्य अमेरिका हिलता हुआ नजर
आ रहा है तो कुछ ख़ास दक्षिण एशियाई देश बीजिंग और वाशिंगटन के बीच की दुविधा से
निकल कर अपनी रणनीतिक सहयोगों में विविधता की तलाश कर रहे हैं. इस विविधता की तलाश
का एक प्रमुख अवयव है भारत के साथ काम करने की इच्छा, क्योंकि भारत
उन्हें चीन के दबाव और लड़खड़ाते संयुक्त राज्य के सामने संतुलन के एक शक्तिशाली
दोस्त के रूप में दिखाई दे रहा है. दक्षिण-पूर्ण के एक-दो देशों में चीनी निधियन
के कारण चीन से विरोध नहीं है, लेकिन वियतनाम सहित कुछ दूसरे देश इस क्षेत्र में चीन के
आचरण के खिलाफ खुल कर सामने आये हैं. पहले वे देश नेतृत्व के लिए वाशिंगटन का मुँह
जोहते थे, पर जैसा कि
रणनीतिकारों का मत है, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा विदेशी एल्युमीनियम और
इस्पात के आयातों पर शुल्क से लेकर गृह सचिव रेक्स टिलर्सन की बर्खास्तगी जैसे
विवादास्पद कदमों ने संयुक्त राज्य के एशियाई मित्रों का भरोसा हिला कर रख दिया
है. इधर, भारत दक्षिण
एशिया में प्रभुत्वकारी प्रमुख शक्ति की हैसियत पाने के उद्देश्य से चीन के
मुकाबले अपनी आर्थिक शक्ति बढ़ाने का प्रयास कर रहा है. कोई देश जब आर्थिक और
सामरिक विकास करता है, तब उसकी शक्ति भी बढ़ जाती है.
भारत ने विगत वर्षों में अपने आर्थिक और सामरिक विकास का
प्रमाण प्रस्तुत किया है. अभी कोरोना के खिलाफ लड़ाई में भी विदेशों में फँसे लोगों
को लाने और विभिन्न देशों को आर्थिक, औषधीय एवं चिकित्सीय सहायता के जो
उदाहरण आये हैं, वे विश्व पटल पर भारत की साख, पहचान, प्रतिष्ठा और
शक्ति को बढ़ाने वाले हैं. कोरोना वायरस जनित कोविड-19 के
विश्वव्यापी महामारी ने भारी उथल-पुथल मचाया है और वैश्विक शक्ति-संतुलन में
गुणात्मक परिवर्तन के संकेत मिल रहे हैं. इस परिस्थिति में एशिया का महत्व बढ़ गया
है. चीन के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कतिपय यूरोपीय देशों की बढ़ती कटुता और
कूटनीतिक संबंधों में बढ़ती दरार से ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में एक तरफ चीन
तो दूसरी तरफ अमेरिका और यूरोप के देशों की टकराहट बढ़ेगी और विदेश नीति में
भरोसेमंद संतुलन बनाते हुए भारत अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है. मुझे भरोसा है कि
एक सशक्त नेतृत्व और सरकार के अधीन भारत अपना यह लक्ष्य अवश्य प्राप्त करेगा.
- रवि प्रकाश
(लेखक भारत
विकास परिषद के मुंबई प्रांत की कार्यकारिणी के सदस्य हैं)
श्रोत - विश्व संवाद केन्द्र, भारत
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