- बद्री
नारायण
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा की बैठक में
दत्तात्रेय होसबाले को सरकार्यवाह (संघ में नंबर 2 की
पोजिशन) चुना गया. होसबाले बहुत मिलनसार हैं और उनकी यह नियुक्ति संघ में हो रहे
बदलावों की दिशा का अंदाजा दे रही है. यह दिशा है संघ को लगातार समाज के सभी
वर्गों से जोड़ना और जटिल सामाजिक मुद्दों पर लोगों से बातचीत का दायरा बढ़ाना.
महात्मा बुद्ध के दौर में और उसके बाद बौद्ध धर्म में एक
सूत्र वाक्य गूंजा – ‘संघम्
शरणम गच्छामि’. वहीं, राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ ‘संघ तेरे द्वारे आया’ का संदेश देने का प्रयास करता है. यानी संघ बातचीत करने के
लिए खुद आपके दरवाजे पर पहुंचता है, आपकी बात
समझने के लिए और अपनी बात समझाने के लिए.
इसे सुनील आंबेकर के नजरिए से समझा जा सकता है. वह आरएसएस के
प्रचार प्रमुख हैं और उन्होंने एक किताब लिखी है. उसमें आंबेकर कहते हैं, संघ आपके जीवन में उसी तरह घुल-मिल जाना चाहता है, जैसे दूध में चीनी. चीनी जैसे दूध में मिल कर उसे मीठा बनाती
है, उसी तरह संघ आपके जीवन में घुल-मिल कर उसे मिठास देना चाहता
है.
आरएसएस की जो भाषा है, वह है तो
आजकल की, लेकिन उसमें जो भाव है, जो
अनुगूंज है, वह हजारों वर्षों की भारतीय सामाजिक
परंपरा से जुड़ी है. चाहें तो आप इसे हिन्दू परंपरा भी कह सकते हैं. यह जो बात
मैंने कही है, ठीक वही है, जो कांग्रेस के एक बड़े विचारक ने कही थी. तो जो हजारों
वर्षों की परंपरा के भाव और तत्व हैं, उनके
चलते आरएसएस की भाषा ऐसी हो जाती है, जिससे
लोगों के मन में पुरानी यादें उभर आती हैं. यही भाषा लोगों के बीच आरएसएस के
संदेशों के प्रचार और प्रसार की जगह बनाती है. इस भाषा में शामिल हो जाता है
हिन्दू सामाजिक संस्कारों का पूरा दायरा.
आरएसएस के लोगों से मिले हों तो आपको पता ही होगा कि अभिवादन
करने से लेकर पूरी बात समाप्त करने तक उनकी भाषा में भारतीय समाज की आम बोलचाल के
ही तत्व दिखते हैं. कॉमरेड के बजाय भाई साहब, प्रणाम, नमस्कार, राम-राम
जैसे शब्दों की लोकप्रियता का कारण आप समझ ही सकते हैं. एक जानेमाने लेखक हुए हैं, राहुल सांकृत्यायन. बौद्ध ग्रंथों की तलाश में तिब्बत से लेकर
चीन तक कहां-कहां नहीं गए. उनकी नजर भी आमफहम शैली में लोगों से संबंध बनाने की
जरूरत पर थी. इसलिए उन्होंने मार्क्स को बाबा मार्क्स के रूप में पेश करना चाहा, लेकिन कई वजहों से इस पहल को लोग आगे नहीं बढ़ा सके.
अधिक से अधिक लोगों तक आरएसएस की बातों के आसानी से पहुंचने
की जो दूसरी वजह मुझे समझ में आती है, वह है
उसकी शैली यानी बातचीत करने का तरीका. संघ के प्रचारक जब किसी आयोजन में अपनी बात
कह रहे होते हैं, तो लगता
है कि कथा सुनाई जा रही है. ठीक उसी तरह के वाक्य, वही शैली
और किस्सागोई. इससे जो कुछ वे कहते हैं, लोग उससे
ज्यादा आसानी से कनेक्ट होते हैं. यह शैली काफी हद तक प्रवचन करने वालों और भागवत
पुराण बांचने वालों जैसी है. वही टोन, जो व्रत
की कथाओं और रामायण-महाभारत के संवादों में झलकता है. भारतीय कथा परंपरा का मधुर
उतार-चढ़ाव तो दिखता ही है इन प्रचारकों की शैली में, कहीं-कहीं लहजा आक्रामक भी हो जाता है. भारतीय जनमानस का मन
कथा-कहानी से प्रभावित रहता है. गांवों में तो बात-बात पर रामायण, महाभारत, गीता, कबीर, रविदास
के जीवन से जुड़ी बातें लोग आम बातचीत में इस्तेमाल करते दिख जाएंगे. आरएसएस के कार्यकर्ताओं
ने दरअसल धार्मिक कथाओं की वही दमदार शैली अपनाई है और उसे विकसित किया है.
संघ के कार्यकर्ताओं की यह शैली किस तरह विकसित हुई है, अगर इसका इतिहास देखें तो पता चलेगा कि आरएसएस ने कथा शैली
मदन मोहन मालवीय से प्रेरित होकर हासिल की. मालवीय अपने एक श्लोक में ऐसे भारत की
कामना करते हैं, जहां हर गांव में कथा हो, हर गांव में पाठशाला हो, हर गांव
में मल्लशाला यानी अखाड़ा हो.
मालवीय का मानना था कि ग्रामीण जीवन के मूल्यों को मजबूत करने के लिए कथा एक अहम माध्यम है. बताते हैं कि आरएसएस
प्रमुख रहे एम एस गोलवलकर भी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से जुड़े थे और मालवीय से
प्रभावित थे. मालवीय ने जो बात कही, उससे
गोलवलकर ने प्रेरणा ली. उन्होंने लोगों से संवाद करने की संघ की जो शैली है, उसमें धीरे-धीरे भारतीय कथा परंपरा का अंदाज शामिल किया. और
जो तरीका बना, उसने लोगों के मन में आरएसएस की जगह
बनाने का रास्ता बना दिया.
अब आते हैं उस तीसरे कारण पर, जिसके
चलते आरएसएस का लगातार प्रसार हो रहा है. यह पहलू है सेवा कार्य का. यानी अकाल, भूकंप, बाढ़
जैसी विपदाओं में आरएसएस अपने लोगों के साथ सेवा कार्य में जुटा दिखता है. इससे
समाज में उसकी गुडविल बनती है. संघ के सेवा कार्य का दूसरा स्तर है, समाज के वंचित और उपेक्षित तबके के बीच कई तरह के सहयोग और
सहायता कार्यक्रम. दलित और वनवासी समुदायों के बीच स्वच्छता कार्यक्रम के अलावा
स्कूल बनाने और धर्म-कर्म से जुड़े दूसरे काम इसी पहलू से जुड़े हैं. इससे इन
तबकों को संघ से जोड़ने में मदद मिली है. आरएसएस का सेवा प्रकल्प करता है ऐसे
कार्यक्रम.
संघ की सेवा परियोजना का तीसरा स्तर है, रोगों के इलाज के लिए मेलों-ठेलों में निःशुल्क सेवा कैंप
लगाना. इलाहाबाद में पिछले दिनों हुए महाकुंभ में आंख के रोगियों के लिए विशाल
सेवा कैंप ‘नेत्र कुंभ’ लगाया था.
संघ इस तरह के सेवा कार्यों को चुनाव और प्रचार से जोड़कर
नहीं देखता. ऐसे काम वह लगातार करता रहता है, कई जगहों
पर तो बिना किसी प्रचार के. संघ के एक प्रचारक ने मुझसे कहा, ‘ये य़ज्ञ की तरह हैं हमारे लिए. हम लगातार ऐसे कार्य करते रहते
हैं. ये तो तबसे चल रहे हैं, जब न
इनकी वेबसाइट थी और न अखबारों में इनकी खबरें छपती थीं.’
एक और कारण है संघ की बढ़ती लोकप्रियता का. जिन समुदायों और
समूहों से संघ जुड़ना चाहता है, उनके
सुख-दुख से भी अपनी निकटता बनाने पर जोर रहता है. संघ कार्यकर्ता एक बार आपसे जुड़
जाने के बाद आपके जीवन की गतिविधियों में बार-बार शामिल होते रहते हैं. मरनी-हरनी, शादी-ब्याह, तीज-त्योहार, व्रत कथाओं का आयोजन आपके परिवार में हो रहा हो तो उनमें
शामिल होकर एक बड़ा परिवार बनाने की अकूत क्षमता होती है इनमें. ये आपसे जुड़ने के
कई अवसर खुद भी बनाते रहते हैं.
इस तरह देखें तो आरएसएस ने बातचीत की ऐसी भाषा और शैली तैयार
की है, जो लोगों को याद दिला देती है भारतीय संस्कृति के कई पहलुओं
और बोलचाल की आदतों की. दूसरी बात यह है कि कामकाज का ऐसा तरीका उसने बनाया है, जिसके जरिए उसे लोगों से मजबूत संबंध बनाने में मदद मिलती है.
इनके चलते लगातार बढ़ता जा रहा है संघ का प्रभाव.
स्रोत- विश्व संवाद केन्द्र, भारत