स्वामी तन्निष्ठानन्द, रामकृष्ण मठ, धन्तोली, नागपुर
विन्ध्याचल की विन्ध्यवासिनी देवी
विन्ध्याचल सिद्ध देवीपीठ अति प्राचीन काल से
ही महर्षि-योगी-तपस्वियों की श्रद्धा, आस्था
और मुक्तिप्रद मंगलमय क्षेत्र रहा है। इस पावन भूमि
पर अनेक सिद्ध तपस्वियों ने तपस्या की है, यहाँ
पर बने कई मन्दिर इसकी पुष्टि करते हैं। यह उत्तर
प्रदेश के मिर्जापुर जिले का एक प्रसिद्ध धार्मिक नगर
है। यह नगर गंगा-तट पर स्थित है। काशी से प्रयाग जाने
का एक मार्ग विन्ध्याचल के पास से जाता है। काशी से
विन्ध्याचल करीब ५७ किलोमीटर और प्रयाग से करीब ८४
किलोमीटर की दूरी पर है। यह स्थान सबसे पवित्र शक्तिपीठ
माना जाता है। यहाँ माँ विन्ध्यवासिनी देवी का मन्दिर
है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, माँ विन्ध्यवासिनी ने महिषासुर का वध करने के लिए अवतार लिया था। यहीं विन्ध्यवासिनी देवी का सुन्दर प्राचीन मन्दिर है, जो शहर के बीच में स्थित है।
इस मन्दिर में सिंह पर विराजमान देवी की मूर्ति
है । मूर्ति को काले पत्थर से तराशा गया है।
त्रिकोण
यंत्र पर स्थित विन्ध्यवासिनी देवी लोकहिताय, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का
रूप धारण करती हैं। विन्ध्यवासिनी, अष्टभुजा
और कालीखोह, इन तीनों मन्दिरों के दर्शन
करने के लिए भक्त देश के सुदूर क्षेत्रों से आते हैं।
यहाँ तीन किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रमुख देवियाँ
विराजमान हैं। तीनों देवियों के दर्शन किए बिना विन्ध्याचल
की यात्रा अधूरी मानी जाती है। तीनों के केन्द्र में
हैं माँ विन्ध्यवासिनी। यहाँ निकट ही कालीखोह पहाड़ी पर
महाकाली (यह प्राचीन मन्दिर देवी विन्ध्यवासिनी मन्दिर से
दो किलोमीटर दूर एक गुफा में स्थित है) तथा अष्टभुजा पहाड़ी
पर अष्टभुजा देवी (महासरस्वती) विराजमान हैं। देवी अष्टभुजा
को समर्पित यह मन्दिर देवी विन्ध्यवासिनी मन्दिर से तीन
किलोमीटर दूर पहाड़ी की एक गुफा में स्थित है। उसी पहाड़ी
पर तीन पवित्र जल निकाय हैं – सीता
कुण्ड, मोतिया तालाब और गेरुआ तालाब।
भगवती
विन्ध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं। विन्ध्याचल सदा से
उनका निवास-स्थान रहा है। जगदम्बा की नित्य उपस्थिति ने विन्ध्यगिरि को जाग्रत शक्तिपीठ बना दिया
है। महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी
की स्तुति करते हुए कहते हैं – हे माता ! पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचल पर आप
सदैव विराजमान रहती हैं। पद्मपुराण में
विन्ध्याचल-निवासिनी इन महाशक्ति को विन्ध्यवासिनी के
नाम से सम्बोधित किया गया है। देवीभागवत के दशम स्कन्ध
में कथा आती है, सृष्टिकर्ता
ब्रह्माजी ने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुव मनु और शतरूपा
को उत्पन्न किया, तब विवाहोपरान्त स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया । उनकी तपस्या से सन्तुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विन्ध्याचल पर्वत पर चली गईं। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारम्भ से ही माँ विन्ध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीष से हुआ। त्रेतायुग में भगवान श्रीरामचन्द्र सीताजी के साथ विन्ध्याचल आए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने यहाँ पर रामेश्वर महादेव की स्थापना की थी, जिससे
इस शक्तिपीठ का माहात्म्य और भी बढ गया है। द्वापर
युग में मथुरा के राजा कंस ने जब अपने बहन-बहनोई
देवकी-वसुदेव को कारागार में डाल दिया और वह उनकी
सन्तानों का वध करने लगा, तब
वसुदेवजी के कुल-पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस के वध एवं
श्रीकृष्णावतार हेतु विन्ध्याचल में लक्षचण्डी का
अनुष्ठान करके देवी को प्रसन्न किया, जिसके
फलस्वरूप वे नन्दरायजी के यहाँ अवतरित हुईं । मार्कण्डेयपुराण में वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं – देवताओं वैवस्वत मन्वन्तर के
अठाइसवें युग में शुम्भ और निशुम्भ नामक दो
महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोप के घर में उनकी
पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर
रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी। लक्ष्मीतन्त्र
नामक ग्रन्थ में भी देवी का यह उपर्युक्त वचन शब्दश:
मिलता है। व्रज में नन्द गोप के यहाँ उत्पन्न
महालक्ष्मी की अंशभूता कन्या को नन्दा नाम दिया गया।
मूर्तिरहस्य में ऋषि कहते हैं – नन्द
के यहाँ उत्पन्न होनेवाली नन्दा नामक देवी
की यदि भक्तिपूर्वक स्तुति-पूजा की जाए, तो
वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं। भागवतमहापुराण के
श्रीकृष्ण-जन्माख्यान में वर्णन है कि देवकी के आठवें
गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजी ने कंस के भय
से रातोंरात यमुनाजी के पार गोकुल में नन्दजी के घर
पहुँचा दिया तथा वहाँ यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में
जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले
आए। आठवीं सन्तान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार
में पहुँचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही
पटक कर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुँच गई और उसने अपना
दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया। कंस के वध की भविष्यवाणी
करके भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गईं।
बारहवीं
सदी में भारत पर हो रहे मुगलों के आक्रमण से रक्षा करने
के लिए काशी-नरेश हेमकर्ण ने माँ विन्ध्यवासिनी की घोर
तपस्या की । जब माँ प्रसन्न न हुईं, तो
हेमकर्ण ने अपनी गर्दन माँ को अर्पित करनी चाही, जिससे
रक्त की पाँच बूँदें माँ के चरणों में गिरी। माँ प्रकट हुईं और
बुन्देला कहकर माँ ने काशी-नरेश हेमकर्ण को सम्बोधित
किया। रक्त की पाँच बूँदें माँ के चरणों में गिरने के
कारण ‘वीर पंचम बुन्देला’ से
सम्बोधित किया और विन्ध्यवासिनी ने एक तलवार हेमकर्ण
बुन्देला को वरदान में दी। इस तलवार से बुन्देलों ने
मुगलों से कई युद्ध लड़े और मुगलों का विनाश किया। आज भी
यह तलवार चन्देरी बानपुर नरेश मर्दन सिंह जूदेव
बुन्देला के परिवार ने सुरक्षित रखी है। जिसकी मूठ पर २१
देवी देवताओं समेत माँ विन्ध्यवासिनी के चित्र बने हैं
। तब से ही विन्ध्यवासिनी बुन्देलों की कुलदेवी हैं ।
विन्ध्याचल के कुछ और स्थान : यह माना जाता है कि माता सीता ने सीताकुण्ड
तालाब में स्नान किया था । पास में ही भगवान राम, हनुमान, देवी
दुर्गा और माता सीता का मन्दिर है। भगवान रामेश्वर
महादेव मन्दिर देवी विन्ध्यवासिनी मन्दिर से १ किमी दूर
रामगया घाट पर स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान
राम ने अपने पूर्वजों की याद में यहाँ शिव लिंग की
स्थापना की थी। मन्दिर का सुन्दर श्वेत भवन आश्रम जैसा
दीखता है । एक विशाल शिवलिंग मध्य में स्थित है।
स्थानीय किंवदन्तियों के अनुसार जब वनवास के बाद भगवान
श्रीराम का राज्याभिषेक होने जा रहा था, तो वशिष्ठ मुनि ने उनसे पहले देवों की प्रार्थना करने और अपने पिता का अन्तिम संस्कार करने के लिए कहा था।
स्वामी ब्रह्मानन्द : एक दिव्य जीवन
स्वामी ब्रह्मानन्द (जन्म - २१ जनवरी, १८६३, महासमाधि – १० अप्रैल, १९२२)
रामकृष्ण संघ के प्रथम संघाध्यक्ष थे ।
उनका पूर्वाश्रम का नाम ‘राखाल
चन्द्र घोष' था। श्रीरामकृष्ण
भक्त-मण्डली में वे ‘राजा
महाराज' या ‘राखाल
महाराज’ या
केवल ‘महाराज’ नाम
से प्रसिद्ध हैं। वे श्रीरामकृष्ण देव के
मानसपुत्र थे। श्रीरामकृष्ण देव कहते थे, `राखाल मेरा पुत्र है – मानसपुत्र।' महाराज अमित ब्रह्मतेज-सम्पन्न थे। उनकी
बहुमुखी शक्ति स्त्रोतस्वती की भाँति शत-शत दिशाओं में प्रवाहित होती थी। किन्तु इतना तेज, इतनी
शक्ति किस तरह मृण्मय आधार में इतनी शान्त रहती
थी! कहते हैं कि ब्रह्मज्ञ पुरुष का शरीर मृण्मय नहीं, चिन्मय होता है। किन्तु इन
चिन्मय पुरुष के संस्पर्श में आने से यह
बात सहज ही समझ में नहीं आती थी। जो भी इन
पुरुषोत्तम के चरणों के निकट उपस्थित हुआ है, चाहे
वह निर्मलचित्त साधु हो, भक्त हो या ब्रह्मचारी, चाहे कोई जीवन के पापों से तप्त, दुखी, पतित
और कलंकित हो, उसने
देखा है और अपने हृदय में इस सत्य की अनुभूति की है कि जिसके साथ बात
करने में भी मन संकुचित होता है, ऐसे
उपेक्षित व्यक्ति को भी महाराज अपनी स्नेहधारा में निमग्न
कर ले रहे हैं !
स्वामी
विवेकानन्द ने उनके बारे में कहा था – ‘‘आध्यात्मिकता
में राखाल हम सब लोगों से बड़े हैं ।'' स्वामी ब्रह्मानन्द का जन्मस्थान बसिरहाट के निकट सिकरा ग्राम में था। उनके पिता आनन्दमोहन घोष एक सम्पन्न व्यक्ति थे। राखाल उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। प्रथम पत्नी का देहान्त होने के बाद आनन्दमोहन ने दूसरा विवाह किया था।
श्रीरामकृष्ण
कहते थे, ``राखाल नित्यसिद्ध है, जन्म-जन्म से ईश्वर का भक्त है। कई लोगों को तो कठोर साधना करने पर तब कहीं थोड़ी भक्ति होती है, पर
इसका तो जन्म से ही ईश्वर पर प्रेम है, यह
स्वयम्भू शिव, स्थापित शिव के समान
नहीं है !'' आनन्दमोहन
ने इस स्वयम्भू शिव को संसारी बनाने के लिए
किशोरावस्था में ही उसका विवाह कर दिया। कोन्नगर के
विख्यात मित्र-परिवार में राखालचन्द्र का विवाह हुआ।
पिता ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि जिस बन्धन-सूत्र
से मनुष्य का माया-बन्धन दृढ़तर होता है, उसी सूत्र को पकड़कर पुत्र अपने जीवन का महान् आदर्श प्राप्त कर लेगा और संसार-बन्धन को छिन्न कर देगा। जिस परिवार में राखालचन्द्र का विवाह हुआ था, वह
भक्तों का संसार था। उनकी सास पहले से ही
श्रीरामकृष्णपदाश्रिता थीं; अपने
पुत्र और कन्या के साथ वे प्राय: ही दक्षिणेश्वर में देव-दर्शन करने आया करती थीं। राखालचन्द्र के ज्येष्ठ साले मनोमोहन अपने बहनोई की भगवद्-भक्ति को देख बहुत ही आनन्दित हुए और एक दिन उन्हें श्रीरामकृष्ण के पास ले आये। सन् १८८१ ई. में श्रीरामकृष्ण के साथ राखालचन्द्र का प्रथम साक्षात्कार हुआ।
श्रीरामकृष्ण
कहते थे, ``मैं जगन्माता से कहता – `माँ! इच्छा होती है कि एक शुद्धसत्त्व, त्यागी
भक्तबालक मेरे पास सर्वदा रहे।' एक
दिन देखा, माँ
ने एक बालक लाकर मेरी गोद में बिठा दिया और कहा – `यह
रहा तुम्हारा पुत्र।' मैं तो काँप उठा। माँ ने मेरा मनोभाव भाँपकर हँसते हुए कहा –`साधारण
सांसारिक रूप से पुत्र नहीं, यह त्यागी मानसपुत्र है।' राखाल के आते ही मैं पहचान
गया कि यह वही है।'' राखालचन्द्र को देखकर
श्रीरामकृष्ण `गोविन्द' `गोविन्द' कहते-कहते महाभावसमाधि में लीन हो जाते थे। कभी अपार स्नेहमयी जननी का प्रेम प्रकट करते हुए उन्हें अपने हाथ से खिला देते। राखाल उस समय यौवन में पदार्पण कर चुके थे, तो भी स्वभाव में वे शिशु के
समान थे । उनके साथ श्रीरामकृष्ण शिशुवत्
क्रीड़ा करते। इस तरह दिन बीतने लगे। दिन-प्रतिदिन
राखालराज में अद्भुत परिवर्तन दिखायी देने लगा। भीतर
में भक्ति की लहरें उठ रही थीं, अनुराग का अविराम स्त्रोत बह रहा था। वे सर्वदा मानो नशे में डूबे रहते थे! जप करते-करते वे बड़बड़ाते रहते। गुरुसेवा की ओर लक्ष्य न रह गया। श्रीरामकृष्ण कहते,
``राखाल का ऐसा स्वभाव हो रहा है कि अब
मुझे ही उसे पानी देना पड़ता है!'' श्रीरामकृष्ण
जान गये थे कि राखाल अब संसार में आसक्त नहीं होगा। फिर भी
वे कहते, ``उसका भोग अभी पूरा
नहीं हुआ है, थोड़ा बाकी है।'' बीच-बीच
में वे जोर करके उससे घर जाने के लिए कहा करते।
राखाल कहते थे, ``संसार
मुझे फीका लगता है। कभी-कभी तुम भी मुझे अच्छे नहीं लगते।'' इस
तरह तीन वर्ष बीत गये। ससुराल से निमन्त्रण आता और दामाद
उसे अस्वीकार कर देते। आत्मीय-स्वजन एवं पड़ोसी लोग एक
दिन उनकी सास से दुखित हृदय से कहने लगे,
``दामाद क्या अन्त में संन्यासी हो जायेगा?'' भक्तिमती
सास ने बड़े उत्साह से उत्तर दिया ``मेरा
क्या ऐसा सौभाग्य होगा?''
१८८४
ई. में राखाल अस्वस्थ हो गये। वे वायुपरिवर्तन के लिए
वृन्दावन गये। वहाँ उनका स्वास्थ्य सुधरने लगा। वे विभोर
हो वृन्दावन के दृश्य देखने लगे। व्रज के माधुर्यमय सौन्दर्य
से मानो व्रज का राखाल आज पूर्वस्मृति की उद्दीपना से
मोहित हो गया हो। किन्तु पुन: वे बीमार हुए, वृन्दावन का बुखार था । श्रीरामकृष्ण बड़े चिन्तित हुए। कहने लगे, ``राखाल
सचमुच ही व्रज का राखाल है। जो जिस स्थान से आ शरीर धारण करता है, वहाँ
जाने से प्राय: उसका देहत्याग हो जाता है!'' अश्रुपूर्ण
लोचनों से श्रीरामकृष्ण ने श्रीचण्डी माँ से
प्रार्थना की, ``माँ ! अब क्या होगा? उसे अच्छा कर दो। वह तो घर-द्वार छोड़कर मुझ पर ही पूरा निर्भर है।'' अन्यान्य
भक्तों के पास राखाल की अस्वस्थता का उल्लेख कर उन्होंने कहा,
``मयूर-मयूरी अब किस तरह नाच दिखा रहे हैं, देखो
!'' कुछ
माह बाद राखालराज वृन्दावन से वापस आ गये।
सन्
१८८६ ई. में जीवन के आराध्यदेवता को खोकर राखालराज का
हृदय अत्यन्त व्याकुल हो उठा। विर्दीण हृदय ले वे फिर
वृन्दावन चले गये। वहाँ कुछ माह बिताकर जब वे वापस आये, तब
तक वराहनगर में श्रीरामकृष्ण मठ प्रतिष्ठित हो चुका था।
किन्तु मठ में आते-जाते उनका मन निर्जन नर्मदा-तट में
अकेला तपस्या करने के लिए व्याकुल हो उठा। राखालराज फिर
से बाहर चले गये। इसी समय सेकठोर तपस्या प्रारम्भ हुई। समय-स्त्रोत नि:शब्द बहा जा
रहा है; एकनिष्ठ
तपस्वी ध्यान में मग्न हैं। दिन आ रहा है, रात बीती जा रही है; ऋतु के परिवर्तन से पृथ्वी
कभी कुसुमित यौवन में हँस रही है, कभी
वह अश्रुधारा से प्लावित हुई जा रही है और कभी तुषारधवल
वैधव्यपरिधान से शोभित हो रही है। किन्तु हमारे तरुण
संन्यासी की उधर दृष्टि ही नहीं है। निरन्तर
जप-ध्यान-तपस्या में जीवन बिता रहे हैं। कभी मधुकरी
करते हैं, तो कभी आकाशवृत्ति का
अवलम्बन करते हैं। कुछ मिला, तो
खा लिया, नहीं
तो आत्मविभोर। कभी वृन्दावन, कभी
हरिद्वार, कभी
ज्वालामुखी । इस तरह अद्भुत तपस्या में वर्ष के
बाद वर्ष बीतने लगे। इसी समय आबू पहाड़ में अचानक उनके
साथ स्वामी विवेकानन्द जी की भेंट हुई । हरि महाराज
(स्वामी तुरीयानन्द) उस समय उनके साथ रहते थे। उनके साथ
भेंट होने के कुछ समय बाद ही १८९३ ई. में स्वामीजी
श्रीरामकृष्ण के धर्मसमन्वय का सन्देश ले शिकागो
धर्म-महासभा में गये और इधर राखालराज तपस्या में मग्न
रहे।
इसके
बाद सन् १८९७ ई. में अमेरिका से वापस आने पर स्वामी
विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। महाराज
उसका संचालन करने लगे। बाद में सन् १८९९ई. में स्वामीजी द्वारा बेलुड़ मठ
प्रतिष्ठित हुआ। महाराज कार्यकारिणी सभा के अध्यक्ष
हुए। श्रीरामकृष्ण कहते थे, ``राखाल
एक राज्य चला सकता है।'' स्वामीजी
ने मठ का सम्पूर्ण भार महाराज पर सौंपकर कहा, ``राखाल
! आज से यह सब तेरा है, मैं कुछ भी नहीं हूँ।'' महाराज
पर स्वामीजी का अटूट विश्वास था। महाराज भी स्वामीजी को बहुत अधिक प्रेम करते थे। स्वामीजी कहते थे,
``भले ही मेरे सभी गुरुभाई मुझे छोड़ दें, पर
राखाल और हरि भाई मुझे कभी नहीं छोड़ेंगे।'' अन्यान्य
गुरुभाई भी महाराज को किस श्रद्धा की दृष्टि से
देखते थे और प्रेम करते थे, यह
तो वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने वह सब अपनी आँखों
से देखा है ।
नरेन्द्र और राखाल का जन्म लोकशिक्षा हेतु
श्रीरामकृष्ण का संकेत था – `नरेन्द्र
और राखाल का जन्म लोकशिक्षा के लिए हुआ है।' श्रीगुरु
के निर्देश से `लोकहिताय' राखालचन्द्र
का हृदय छलक उठा। वे कभी हरिद्वार, कभी
वाराणसी, कभी
वृन्दावन, कभी
मद्रास, इलाहाबाद, ढाका इत्यादि श्रीरामकृष्ण
संघ के प्रमुख केन्द्रों में परिभ्रमण कर
लोक-कल्याण करने लगे। जब जहाँ जाते, लोगों
की भीड़ लग जाती। आनन्दघनमूर्ति ब्रह्मानन्द के आगमन से तम और जड़भाव
दूर हो जाते और वहाँ आनन्द और चैतन्य भरपूर हो जाते। वे
जहाँ रहते, लोगों को आनन्द-स्त्रोत में डुबाकर उनके प्राणों को विभोर कर देते। जिन लोगों ने महाराज को बेलूड़, हरिद्वार, मद्रास
इत्यादि स्थानों में दुर्गापूजा का अनुष्ठान करते या रामनाम और काली-कीर्तन में भाग लेते हुए देखा है, उन्होंने
चिरकाल के लिए उस पुण्यमय आनन्द-स्मृति को हृदय के गम्भीरतम प्रदेश में सँजोकर रखा है। साधु-भक्त, पापी-तापी
सभी लोग इस आनन्दमय पुरुष का संग प्राप्त कर नये भाव में, नये उत्साह से संजीवित हो उठते थे। जो लोग एक बार आते, वे राखालराज के पवित्र प्रेम और नि:स्वार्थ प्यार में अपने को भूल जाते थे। जो विश्वप्रेम राखालराज ने श्रीरामकृष्ण से उत्तराधिकार में पाया था, जो
प्रेम व्रज का मूलधन है, व्रज के राखाल ने आचाण्डाल
सभी को उस प्रेम का भागी
बनाया
है!१
स्वामी ब्रह्मानन्द की विन्ध्याचल यात्रा : सन् १९०३ के मध्य भाग में महाराज ने उत्तर भारत
के रामकृष्ण संघ के प्रमुख सेवा-केन्द्रों के परिदर्शन के लिए कलकत्ता से यात्रा
की। साथ गए स्वामी सुबोधानन्द तथा ब्रह्मचारी ज्ञान। महाराज ने काशीधाम में एक माह
तक वास किया। काशीधाम से कनखल जाकर महाराज वहाँ एक माह रहे। इसके बाद वृन्दावन
जाकर तपस्यारत स्वामी तुरीयानन्द के साथ दो माह साधन-भजन किया। नवम्बर के प्रथम
सप्ताह में वृन्दावन से प्रस्थान कर प्रयाग में स्वामी विज्ञानानन्द के पास एक दिन
रहे। वहाँ से विन्ध्याचल जाकर प्राय: तीन सप्ताह वहाँ वास किया। विन्ध्याचल से
दिसम्बर में बेलुड़ मठ लौटे।२ महाराज
कलकत्ता लौटते समय प्रयाग में रेलवे स्टेशन मार्ग पर स्थित ब्रह्मवादिन क्लब में
स्वामी विज्ञानानन्द जी के पास एक दिन रूके। दूसरे दिन नीरद (बाद में स्वामी
अम्बिकानन्द) को लेकर विन्ध्यवासिनी देवी के दर्शन हेतु विन्ध्याचल गये। वहाँ वे
ठाकुर के समय के भक्त श्री योगीन्द्रनाथ सेन के घर ठहरे। योगीन्द्र का जन्मस्थान
था बंगाल के नदीया जिले का कृष्णनगर। वे सरकारी छापाखाना में सह-कोषाध्यक्ष थे। जब
वे श्रीरामकृष्ण के चरणों में उपस्थित हुए, तब
ठाकुर ने उन्हें बड़े प्रेम से अपने पास बिठाकर पूछा, ‘तुम्हें
भगवान का कौन-सा रूप आनन्द देता है?’ इसपर
योगीन्द्र बोले, ‘मै ठीक-ठीक कुछ नही जानता, पर सामूहिक पूजा करते समय चतुर्भुज नारायण रूप देखते ही थोड़ी देर के लिए
बाह्यसंज्ञाशून्य हो जाता हूँ और आज आपको उसी रूप में देख रहा हूँ।’ योगीन्द्र
गृहस्थ होते हुए भी सरल स्वभाव के, अनासक्त, ध्याननिष्ठ
और राखाल महाराज के बड़े ही अनुरागी थे। इसीलिये जब महाराज विन्ध्याचल गये, तो
योगीन्द्र के घर ही निवास किये।३
तीन
दिन रहेंगे, ऐसा सोचकर महाराज विन्ध्याचल
गये थे, किन्तु वे वहाँ तीन सप्ताह
क्यों रुके? इस प्रश्न का उत्तर
हमें स्वामी अम्बिकानन्द (नीरद) जो महाराज के साथ थे, उनके
संस्मरणों में मिलता है। वे लिखते हैं –
स्वामीजी
के देहत्याग के बाद सबका मन बहुत ही खराब था। महाराज और
हरि महाराज वृन्दावन में कालाबाबू के कुंज में तपस्यारत
थे। मेरे पिता (ठाकुर के भक्त नवगोपालघोष) मुझे लेकर
वृन्दावन गये। मुझे बहुत ही आनन्द हुआ। हमलोग भी उनके
साथ कालाबाबू के कुंज में वास करने लगे। हमलोग पायस
(खीर) खरीद कर खाते थे। उन दोनों के सेवक कृष्णलाल
महाराज खाना बनाते थे। आलमबाजार मठ के समय से ही मैं
हरि महाराज का प्रिय था। बचपन में मैं उनके पास जाया
करता था। महाराज का कमरा छोटा था और उनके कमरे से ही
हरि महाराज के कमरे में जाना पड़ता था। महाराज का गम्भीर
स्वभाव देख उनसे डर लगता था। हरि महाराज मुझे महाराज को
प्रणाम करने के लिए कहते, तो मैं डर के मारे दरवाजे
से ही किसी तरह महाराज को प्रणाम कर चला आता था। हरि
महाराज के आदेश से मैं एक दिन डरते-डरते महाराज के कमरे
में गया और उनकी चरणवन्दना करते ही मेरे ऊपर स्निग्ध
दृष्टिपात कर वे कह उठे, `डर
काहे का बच्चा !' उन्होंने प्रेम से मेरा
स्वागत किया। मेरा मन प्रेम से ओतप्रोत हो गया। महाराज ने मुझे पूछा, ‘क्या तुम पैर दबा सकते हो?’ मैं
उनकी सेवा कर रहा था, तब
महाराज ने मेरे पीठ और सिर पर हाथ फेरा। मुझे इतना आनन्द हुआ कि
उसके मारे मैं शक्तिहीन होकर उनके ऊपर गिर पड़ा। लगा
जैसे मैं माँ की गोद मे सोया हूँ। उस स्थिति में बहुत
देर तक रहा । महाराज ने कहा, ‘क्यों
रे तूने तो मुझे ही तकिया बना लिया। उठ, सेवा
नही करेगा क्या?’ मैने
कहा, ‘महाराज
मुझ में अभी बिलकुल भी शक्ति नही है। कुछ अलग-सा लग रहा
है।’ महाराज हँसने लगे और मैं भी हँसने लगा। हँसते-हँसते महाराज ने हरि महाराज से कहा, ``आपका चेला तो बिगड़ गया।'' हरि
महाराज सहास्य बोले,
``अच्छा हुआ, मैं भी यही चाहता था।''
बेलूड़
मठ से बाबुराम महाराज बार-बार महाराज को पत्र लिखकर मठ
बुला रहे थे। लौटने का निर्णय हुआ। मैं और मेरे पिताजी
भी उनके साथ निकले। मथुरा आकर बड़ी गाड़ी में सवार हुए।
टुण्डला जंक्सन पर महाराज ने मेरे पिताजी से गुलाबी
रेवड़ी खरीदने के लिए कहा। रेवड़ी खरीदने पर महाराज ने
बड़े आनन्द से रेवड़ी अपने आचल में ले लिया । मार्ग में
एक दिन के लिए हम प्रयाग में उतरे, गुरुभ्राता विज्ञानानन्द के साथ महाराज की भेंट हुई। वहाँ जाने पर महाराज की विन्ध्याचल जाने की इच्छा हुई। विन्ध्याचल निवासी योगीन्द्रनाथ सेन महाशय को तीन दिन निवास के लिए चिठ्ठी लिखी गयी। उत्तर में उन्होंने उनका आतिथ्य ग्रहण करने की विनती की। एक दिन सुबह हम उनके घर पहुँचे। महाराज तब तपस्यारत थे इसलिए हमारे साथ भोजन नही करते थे। पूरे दिन में केवल एक बार दूध-भात खाते थे ।४
हम
सब एक हॉल में पास-पास सोते थे। महाराज ने मुझे कहा, ‘देखो, तुम
मेरे पास सोना। उसके बाद तेरे पिताजी आदि लोग सोयेंगे।
रात के ग्यारह बजे होंगे। उस दिन अमावस्या थी। वे मुझे
स्पर्श कर जगाकर बोले, ‘अरे! चलो जल्दी तैयार हो जाओ। तुम जाड़े के लिए स्वेटर, टोपी, मफलर, जूता
सब कुछ पहन लो।’ वह जाड़े का मौसम था। मैं तुरन्त तैयार
हुआ, किन्तु जानता नही था कि जाना कहाँ है। महाराज ने एक कम्बल ओढ़ा था, पैर में चप्पल, एक हाथ में लाठी और दूसरे
में लालटेन लिया था। हमलोग चुपचाप बाहर
निकल पड़े । महाराज ने मुझे उनके पीछे-पीछे चलने को कहा।
वह अमावस की रात थी और राह में घना अन्धेरा था। रास्ता
उबड़-खाबड़ था। चलने में मुझे असुविधा होते देखकर
उन्होंने मेरे हाथ में लालटेन दी और मेरा दूसरा हाथ
पकड़कर वे चलने लगे। तब मैने उनसे पूछा, ‘हमलोग
कहाँ जा रहे हैं?’ इस
पर महाराज ने कहा, ‘चलो
महामाया के दर्शन करने जाएँ।’
कालीखोह मन्दिर विन्ध्याचल देवी मन्दिर अष्टभुजा मन्दिर
जब
विन्ध्येश्वरी के मन्दिर पहुँचे, तब
वहाँ भक्तों की बहुत भीड़ थी। तब देवी का शृंगार हो रहा
था। सौम्यमूर्ति महाराज को देख सभी ने उन्हें मार्ग दे
दिया। मन्दिर का द्वार बन्द था। विशेष उत्सव के
उपलक्ष्य में पुजारी माँ को वेश-भूषा से सुसज्जित कर
अलंकारों से शृंगार कर रहे थे। सब लोग बाहर खड़े थे। रात
के बारह बजे पुजारी ने जब मन्दिर के द्वार खोले और
महाराज का माधुर्यमण्डित मुख तथा उज्ज्वल व्यक्तित्व
देखा, तो कहा ‘महाराज
अन्दर आइये।’ ऐसा कहकर पुजारी महाराज को
मन्दिर के भीतर ले गये। देवी के दर्शन करते ही महाराज
विस्मय से बोल उठे, ‘अहा!
अति सुन्दर! अति सुन्दर!’ दूसरे ही क्षण वे भावाविष्ट हो गये। मन्दिर में तब अद्भुत नीरवता छाई थी। भक्तों ने और पुजारी ने महाराज की वह भावविह्वल अवस्था देखी। महाराज ने माँ के सामने खड़े होकर मुझसे कहा, ‘अरे ! यह भजन गाओ तो –
काल कामिनी मराल-गामिनी नीरदबरणी दामिनी बिहरे।
अरुण किरण चमके चरणे दश सुधाकर जड़ित नखरे।।
भावार्थ : जल से भरे हुए मेघ में जैसे
बिजली चमकती है, वैसे
ही कृष्णवर्णा देवी हंस की तरह प्रमोद करती हैं। देवी के
चरणों की दस अँगुलियों की नख, जो
सुधा से जड़ित है, उस पर सूर्य की किरणें चमक
रही हैं ।
मैं
गाने लगा । बचपन में मेरा कण्ठ अवरुद्ध था। आलाप देते
ही सारे लोग दौड़कर द्वार के पास आए। मैं भजन गा रहा था।
महाराज भावावेश में फूट-फूटकर क्रन्दन करने लगे। उनकी
आँखों से प्रेमाश्रु बह रहे थे। यह देख पण्डे अवाक् रह
गये। ऐसा दृश्य उन्होंने कभी भी नही देखा था। रोते-रोते
वे रुक गये और भजन समाप्त होने पर मैं भी शान्त खड़ा
रहा। महाराज ने माँ को साष्टांग प्रणाम किया और फिर
मन्दिर की परिक्रमा कर हम नाटमन्दिर में आकर बैठे । फिर
महाराज ने मुझे कहा, ‘अरे, यहा
थोड़ी देर बैठकर माँ का ध्यान करो। मैने पूछा, ‘ध्यान
वैâसे
करूँ?’ महाराज बोले, ‘माँ मानो यहाँ साक्षात् हैं, ऐसा ध्यान करो।’ बाद
में हमलोग अपने निवास-स्थान पर वापस आ गये और कपड़े बदलकर चुपचाप सो गये। किसी को कुछ पता नही चला। महाराज मुझे हाथ पकड़कर ले गये और वापस ले भी आये।
विन्ध्याचल
के पास पहाड़ी के ऊपर एक कालीखोह नामक मन्दिर है। एक दिन हम सब लोग योगीन्द्रबाबू के साथ वहाँ वन-भोज के लिए गये थे। भजन गाने के लिए संगीत वाद्य साथ ले गये थे। भक्तलोग कोई सब्जी काट रहे थे, तो
कोई भोजन पका रहे थे। ऐसे समय महाराज ने मुझे कहा, ‘चल
मेरे साथ।’ मैं तो तैयार ही था। पर
पता नहीं था कि कहाँ जाना है। महाराज मुझे अष्टभुजा
देवी की गुफा मन्दिर में ले गये। गुफा के अन्दर बहुत ही
अन्धकार था। भीतर इतना नि:शब्द वातावरण था कि पक्षी की
आवाज तक सुनाई नही दे रही थी। महाराज देवी के सामने
जाकर बैठे, मैने भी वैसे ही किया। महाराज मुझे बोले, ‘ओरे, तु
भजन गा ना!’ मैं भजन गाने लगा। थोड़ी ही देर में
महाराज भावावेग में सिसककर क्रन्दन करने लगे। वह देख
मेरी आवाज भी काँप रही थी। क्रन्दन करते-करते वे
चित्रवत् स्थिर हो गये, उनकी आखों से प्रेमाश्रु बह रहे थे। मुझे लगा कि उन्हें समाधि लगी है। मैं डर गया, यदि यहाँ कोई जंगली जानवर आ
जाये, तो मैं क्या करूँगा! महाराज ने फिर भावावेग में माँ से प्रार्थना की। मुझे भी रोना आ रहा था।
बाहर
आकर वन-भोज की जगह न जाकर महाराज ने पहाड़ी पर चलना
प्रारम्भ किया। मैं उनके पीछे-पीछे गया। शिखर पर
पहुँचने पर महाराज एक अखण्ड शिला पर योगासन में बैठ
गये। मुझे भी उन्होंने वैसे ही करने को कहा। किस पर
ध्यान करूँ, ऐसा पूछने पर वे बोले, ‘भगवान
का जो भी रूप अच्छा लगता हो, उस
पर ध्यान करो।’
मैंने
आनन्द से एक शिला पर बैठकर थोड़ी देर तक ध्यान करने की कोशिश
की। तब मैं छोटा था। पाँच मिनट में ही चंचल हो उठा और
पास के झरने के पास गया। वहाँ तरह-तरह के सुन्दर पहाड़ी
फूल थे। वे मैं तोड़ने लगा। फूलों की गन्ध बहुत अच्छी थी, इसीलिए
मैं सूँघने लगा। महाराज वहाँ से देखकर
चिल्ला उठे, ‘इन जंगली फूलों को मत सूँघो, बीमार पड़ जाओगे।’ मैने
बहुत से फूल तोड़कर उन्हें दिखाये। वे बोले, ‘माँ
की पूजा के लिए कुछ फूल ले लो।’ मैंने
वैसा ही किया और हम लोग वन-भोज के स्थान पर लौट आये। योगीन्द्र
बाबू हमारी राह देख रहे थे। भोजन तैयार था। हम सब लोग
भोजन करने बैठे । गाना-बजाना फिर हुआ नहीं। महाराज बोले, ‘आज
शाम को भजन होंगे।’ वैसा ही हुआ था। और एक दिन हमलोग उसी पहाड़ी पर दूसरे रास्ते से चढ़े
थे। मेरे पिताजी वयस्क थे, इसीलिए वे नीचे ही रुके। वहाँ से हमने मनोरम सूर्यास्त का दृश्य देखा। महाराज ने तब मुझे यह भजन गाने को कहा –
दिबा अवसान हलो की कर बसिया मन
उत्तरिते भबनदि करेछो की आयोजन?
आयु-सूर्य अस्त जाय, देखिये
ना देबताय
भुलिये रयेछे मोह-मायाय, हारायेछो
तत्त्वज्ञान।।
(भावार्थ – दिन
शेष हुआ, मन
तुम बैठ के क्या कर रहे हो ।
भवनदी पार करने के लिए तुमने क्या आयोजन किया है?
तुम्हारा आयु रूपी सूर्य का अभी अस्त होनेवाला है,
तुमने अब तक भगवान की प्राप्ति नही की ।
मोहमाया में डुबकर तुम तत्त्वज्ञान को ही भुल गये हो।।)
भजन
सुनते-सुनते महाराज भावाविष्ट हो गये। भजन समाप्त होने
पर भी वे कुछ देर उसी स्थिति में रहे। अन्धकार होने पर
हमलोग अपने निवास स्थान पर लौट आये। विन्ध्याचल केवल
तीन दिन रहने की बात थी, पर महाराज वहाँ करीब-करीब तीन सप्ताह तक रहे।
विन्ध्याचल
में महाराज ने दो सप्ताह से अधिक रहकर विन्ध्यवासिनी
देवी का स्मरण-मनन कर परम आनन्द लाभ किया। १९०३ ई. के
दिसम्बर में वे बेलूड़ मठ आ पहुँचे।५
सन्दर्भ ग्रन्थ – १. स्वामी ब्रह्मानन्दजी के उपदेश: ध्यान, धर्म तथा साधना, पृष्ठ-१-१४, २. स्वामी ब्रह्मानन्द चरित (हिन्दी) लेखक- स्वामी प्रभानन्द पृष्ठ-१७७
प्राचीन साधुदेर कथा (बंगाली) खण्ड-२ लेखक - स्वामी
चेतनानन्द पृष्ठ-९९-१००, ३. स्वामी ब्रह्मानन्द अॅज वि सॉ हिम (अंग्रेजी)
सम्पादक - स्वामी आत्मश्रद्धानन्द पृष्ठ-७६, ४. श्रीरामकृष्ण-परिक्रमा (बंगाली) खण्ड-१ लेखक- कालीजीवन देबशर्मा पृष्ठ-३५६, ५. स्वामी ब्रह्मानन्द (बंगाली), उद्बोधन
कार्यालय, कलकत्ता पृष्ठ-२२१-२२४, श्रीरामकृष्ण-लीलामृत
(बंगाली) लेखक - बैकुण्ठनाथ सन्न्याल पृष्ठ-३३६-३३७.
साभार - विवेक ज्योति
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