लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक – देश के स्वतंत्रता संग्राम का एक स्वर्णिम व्यक्तित्व. “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे ले कर ही रहूँगा.” इस अदम्य आशावाद के साथ तिलक जी ने देश के स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ
किया..! पुणे में अध्ययन करते समय उनका मन ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध असंतोष से उबल
रहा था. उन्होंने इसे लोगों तक पहुँचाया और वह ‘भारतीय
क्रांति के जनक’ बन गए. उन्होंने समाज के निचले तबके का पक्ष
लिया और इसलिए वह‘तेली तंबोलियों के नेता’ बन गए.
उनका स्वतंत्रता आंदोलन
भी योजनाबद्ध था. गोपाल गणेश आगरकर और विष्णुशास्त्री चिपलूनकर तथा कुछ अन्य
साथियों की सहायता से उन्होंने जनवरी 1881
में ‘केसरी’ (मराठी) और
मराठा (अंग्रेजी) समाचार पत्र आरंभ किए.
लोगों के प्रबोधन हेतु
आरंभ किए ‘केसरी’और ‘मराठा’ समाचार पत्रों का
मूल उद्देश्य लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए प्रेरित करना, सामाजिक परिवर्तन के लिए जागरूकता पैदा करना और सरकारी अन्याय का प्रतिकार
करना था. केसरी के पहले ही अंक में “रात में हर सड़क पर दिए
लगे होने से और पुलिस गश्त लगातार घूमते रहने से जो उपयोग होता हैं, वही उस स्थान पर समाचार पत्र कर्ताओं की लेखनी नियमित चलने से होता हैं”,
इन शब्दों में केसरी की नीति को समझाया गया था. 1982 के अंत तक केसरी भारत में सबसे अधिक खपत वाला क्षेत्रीय समाचार-पत्र बन
गया. 1884 में केसरी की सर्कुलेशन 4,200 थी, जुलाई 1897 में यह बढ़कर 6,900
तक हो गयी. 1902 में बर्मा (म्यांमार),
सीलोन (श्रीलंका), अफ्रीका और अफगानिस्तान को
भी केसरी का निर्यात किया जाता रहा था.आरंभ में केसरी के संपादक आगरकर थे और मराठा
के संपादक तिलक थे. 03 सितंबर, 1891 को
केसरी और मराठा दोनों समाचार पत्रों के संपादक के रूप में तिलक ने स्वयं के नाम का
‘डिक्लरेशन’ किया. इस बीच उन्होंने शराब पाबंदी,
बंगभंग बहिष्कार, प्लेग, सूखा राहत और विभिन्न विषय़ों पर आंदोलन चलाया. उसमें एक लड़ाई
समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता की भी थी. ‘केसरी’ और ‘मराठा’ आरंभ होने के कुछ
समय पश्चात ही कोल्हापुर संस्थान के दीवान माधवराव बर्वे के संबंध में प्रसिद्ध
हुए लेखन के लिए तिलक और आगरकर को चार महीने के कारावास का दंड सुनाया गया.
1896 के अकाल और उसके
तुरंत पश्चात प्लेग महामारी, दोनों समय केसरी ने महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई. केसरी में प्रकाशित ब्रिटिश विरोधी लेखों के लिए तिलक को तीन बार
राजद्रोह के अभियोगों का सामना करना पड़ा. 1897 और 1908
में तिलक का लेखन केसरी की प्रसिद्धि का कारण बने थे, जबकि 1916 का अभियोग उनके भाषणों के कारण प्रस्तुत
किया गया था.
प्लेग नियंत्रण के लिए
नियुक्त कमिशनर रॅन्ड के अधीन गोरे अधिकारियों ने पुणे में उत्पात मचाया था. इसलिए
22 जून, 1897 को
चाफेकर बंधुओं ने रॅन्ड का वध कर दिया. इस संदर्भ में तिलक ने ‘सरकार का दिमाग ठिकाने पर है या नहीं ?’ और ‘सरकार चलाने का तात्पर्य बदला लेना नहीं होता’ जैसे
शीर्षक से अग्रलेख लिखे. परिणामस्वरूप उन पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया. तिलक को 18
महीने की कड़ी सजा सुनाई गई थी. 4 जुलाई,
1899 को जेल से रिहा होने पर तिलक ने ‘पुनश्च
हरि:ओम!’ शीर्षक से अग्रलेख लिखकर नई स्फूर्ति से स्वराज्य
प्राप्ति का कार्य आरंभ किया. ‘देश का दुर्दैव’(12 मई 1908) और ‘यह उपाय टिकाऊ
नहीं हैं’ (9 जून 1908) शीर्षक से
प्रकाशित लेखों के कारण पुन: राजद्रोह का अभियोग चलाया गया. जिसमें तिलक को छह साल
के काले पानी और 1000 रुपये के अर्थदंड की सजा सुनाई गई.
अपने समाचार पत्र में
कौन-सा शब्द किस प्रकार छपकर आना चाहिए, इस संबंध में उन्होंने एक विशेष पुस्तिका तैयार की थी. उस पुस्तिका में
लगभग साढ़े तीन हजार शब्द थे. मराठी भाषा की लेखन पद्धति पर उन्होंने चार अग्रलेख
लिखे. प्रत्येक समाचार पत्र की भाषा उस संपादक की भाषा से निर्धारित होती है. तिलक
की भाषा उनके जैसी ही उग्र, तथा लोगों के मन में जगह निर्माण
करने वाली थी. उनके अग्रलेखों के शीर्षक पर दृष्टिपात करने से इस तथ्य की प्रतीति
होती हैं. सन् 1881 से 1920 के कालखंड
में तिलक जी ने लगभग 513 अग्रलेख लिखे. पत्रकार, पंडित, राजनीतिज्ञ और भविष्यदृष्टा नेता जैसी
विभिन्न भूमिकाओं में लोकमान्य ने लेखन किया.
राष्ट्रीय अभ्युदय और
मानव जाति का कल्याण उनके राजनीतिक जीवन की मुख्य प्रेरणाएं थीं. अकाल हो या प्लेग, विपत्तियों का सामना करने के लिए
उन्होंने अपने लेखों के माध्यम से जनता में साहस निर्माण किया. उनके द्वारा आरंभ
किए त्यौहार अथवा आन्दोलन किसी जाति विशेष के लिए नहीं थे. यह उन्होंने अपने लेखों
में प्रस्तुत किया और अधिक सशक्त रूप से अपनी कृति द्वारा दर्शाया.
किसानों की स्थिति, कृषि सुधार, कृषिकर
प्रणाली आदि विषयों पर उन्होंने ‘भूमि का स्वामित्व डूबा’,
‘महाजन मरा किसान भी मरा !’, पुनर्निरिक्षण का
जुल्म’, जैसे कई अग्रलेख लिखे. उन्होंने कहा, “हिन्दुस्थान का किसान राष्ट्र की आत्मा है. उस पर पड़ा दरिद्रता का पर्दा
हटा दिया जाए, तब ही हिंदुस्तान का उद्धार होगा. इसके लिए ‘किसान आपका और आप किसान के’ ऐसा प्रतीत होना आवश्यक
है.
“देश सधन हो या निर्धन,
जित हो या अजित हो, जनसंख्या के संबंध में
निम्न स्तर के अर्थात मेहनत मजदूरी करके निर्वाह करने वाले लोगों की संख्या अधिक
रहेगी ही. इसलिए जब तक कि इस समाज की स्थिति में सुधार नहीं होगा, तब तक यह कभी भी नहीं कहा जा सकता है कि देश में सुधार हुआ है. देश का
तात्पर्य क्या है? लोग कौन हैं? यह
लोकमान्य जी ने अपने मन से निश्चित किया था. देश का अर्थ है – किसान, देश का अर्थ है – कड़ी
मेहनत मजदूरी करने वाली जनता. सच्चा हिंदुस्तान गाँवों में है और वहाँ राष्ट्र का
निर्माण करने का अर्थ इन गाँवों में जागरूकता निर्माण करना है. नि:संकोच
मिल-कारखानों में काम करने वाला मजदूर वर्ग भी उन्हें उतना ही महत्वपूर्ण लगता था.
1902-03 से तिलक जी ने उस वर्ग में भी राष्ट्रीय चेतना
निर्माण करने हेतु प्रयास आरंभ किए. इसलिए 1908 में तिलक की
सजा के विरोध में मजदूर हड़ताल पर चले गए और सरकारी अत्याचारों से न डरते हुए यह
हड़ताल छह दिनों तक चलती रही.
जो हिंदी राजनीति पहले
सरकार सम्मुख थी और बौद्धिक स्तर पर चल रही थी. वह लोकमान्य जी ने लोगों की भाषा
में बोलकर उसे लोकाभिमुख बनाया था और उसे कृति से जोड़ा, इसलिए उनकी वाणी को मंत्र की शक्ति
प्राप्त हुई. इसी कारण से संपूर्ण राष्ट्र का समर्थन उन्हें प्राप्त हुआ और वह ‘लोक युग’ के निर्माता बन गए.
लेखक केसरी (पुणे) के
पूर्व कार्यकारी संपादक हैं और विभिन्न विषयों के ज्ञाता हैं.
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