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Saturday, July 4, 2020

लक्ष्मीबाई केलकर : नारी को जिन्होंने बनाया नारायणी (भाग -1)

- सुनीता शर्मा 

नारी जागरण की अग्रदूत : लक्ष्मीबाई ...
महिलाएं न केवल अपने परिवार की धूरी होती हैं बल्कि वे समाज और राष्ट्र की भी धूरी होती हैं, जैसे वे एक सुखी, सुसंस्कृत परिवार बनाने में दक्ष होती है, वैसे ही वे एक अच्छे समाज और राष्ट्र के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। तीस के दशक में ऐसी ही सोच रखने वाली एक साधारण सी महिला ने अपने मन में जब ये संकल्प लिया तो कौन जानता था कि उनका संकल्प मूर्त रूप ले लेगा और उनके विचारों का एक छोटा सा बीज विशाल वटवृक्ष बनकर देश दुनिया में विस्तार कर लेगा। एक साधारण सी गृहणी ने अपने दृढ़ संकल्प, अटल लक्ष्य, समर्पण और त्याग से एक ऐसा संगठन खड़ा कर दिया। जो आज दुनिया का एक सबसे बड़ा महिला संगठन हैं और जिसकी जड़ें भारत के बड़े महानगरों से लेकर दूर दराज के दुर्गम इलाकों और गांवों तक पहुंच चुकी हैं। विदेशों में भी इस संगठन का नाम, काम और ख्याति है। आज इस संगठन में लाखों महिलाएं समाज और राष्ट्र निर्माण में चुपचाप अपना योगदान दे रही हैं।
कौन जानता था सांसारिक परिभाषा में एक साधारण महिला, जो दसवीं तक की पढ़ाई भी नहीं कर पाई और जो मात्र 27 वर्ष की आयु में ही विधवा हो गई, वह एक ऐसा अनुपम कार्य कर जाएगी, जिससे भारत की आने वाली पीढ़ियां उन्हें सदा-सदा के लिए याद रखेंगी और वह महान महिला के नाम से इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाएंगी। आने वाली पीढ़ियां उनका अनुसरण करेेंगी और अपना आदर्श मानेगी। ऐसी असाधारण महिला थीं श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर, जिन्होंने 1936 में एक ऐसे महिला संगठन की नींव रखी, जो नारी शक्ति का प्रतीक बन गया। राष्ट्र सेविका समिति भले ही नारी विमर्श के पश्चिमी पैमाने पर खरी न उतरती हो, पर ये नारी शक्ति की प्राचीन भारतीय परम्परा को सुदृढ़ करती है जो नारी को पुरुष का प्रतिस्पर्धक नहीं, बल्कि मानती है। जिस तरह परिवार में पत्नी और पति एक-दूसरे के पूरक हैं, उसी तरह स्त्री-पुरुष समाज में एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों परस्पर सहयोग से समाज और राष्ट्र का निर्माण करते हैं। लक्ष्मीबाई केलकर को महिलाओं का संगठन बनाने की प्रेरणा अपने ही पुत्र से मिली, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाने के बाद उनके पुत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। वे ज्यादा अनुशासित, आज्ञाकारी और राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत हो गए। घर में राष्ट्रभक्ति के गीत गूंजने लगे और हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दुस्तान जैसे शब्द बहुतायत में प्रयोग होने लगे। लक्ष्मीबाई सोचने लगीं कि संघ शाखाओं को पुरुषों तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। जरूरी है कि सभी महिलाओं के हृदय में भी राष्ट्र, हिन्दू संस्कृति और संस्कारों के प्रति प्रेम उमड़ना चाहिए। महिलाएं भी समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इसलिए उन्हें एक बैनर के तले लाने की जरूरत है। उन्हें लगा यदि ऐसा ही कोई संगठन महिलाओं के लिए भी बने तो समाज को नई दिशा दी जा सकती है।
(शेष आगे....)
 (लेखिका सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं)

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