- सुखदेव
वशिष्ठ
स्वतंत्रता के समय भारत आर्थिक रूप से संपन्न देश नहीं था और
वित्तीय सहायता के लिए पाश्चात्य ईसाई देशों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों
निर्भर था, इसलिए भारत को मिशनरियों के आगे झुकना
पड़ा. इसके परिणामस्वरूप संविधान में अपने पंथ के प्रचार का अधिकार कुछ पाबंदियों
के साथ दिया गया, लेकिन एक
के बाद एक सरकार मिशनरी लॉबी के सामने मजबूर होती गई.
नए हथकंडों का प्रयोग किया गया शुरू
धर्म परिवर्तन कराने के लिए पैसे का इस्तेमाल तो स्वतंत्रता
से पहले से भी होता था, परंतु
स्वतंत्रता के बाद और भी बहुत तरह के प्रयोग किए जाने लगे. मिशनरियों ने अपने
अनुभवों से पाया कि भारतीय धर्मों के लोग अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं से भावनात्मक
तौर पर इतने गहरे जुड़े हैं कि समस्त प्रयासों के बावजूद करोड़ों की संख्या में धर्म
परिवर्तन संभव नहीं हो पा रहा है. इस कठिनाई से पार पाने के लिए नए हथकंडों का
प्रयोग शुरू किया गया, जैसे मदर
मैरी की गोद में ईसा मसीह की जगह गणेश या कृष्ण को चित्रांकित कर ईसाइयत का प्रचार
शुरू किया गया, ताकि आदिवासियों को लगे कि वे तो
हिन्दू धर्म के ही किसी संप्रदाय की सभा में जा रहे हैं. ईसाई मिशनरियों को आप
भगवा वस्त्र पहनकर हरिद्वार, ऋषिकेश
से लेकर तिरुपति बालाजी तक धर्म प्रचार करते पा सकते हैं. यही हाल पंजाब में है, जहां बड़े पैमाने पर सिक्खों को ईसाई बनाया जा रहा है. पंजाब
में चर्च का दावा है कि प्रदेश में ईसाइयों की संख्या सात से दस प्रतिशत हो चुकी
है.
ईसाई मिशनरी विदेशी पैसे का इस्तेमाल करते हुए पिछले सात
दशकों में उत्तर-पूर्व के आदिवासी समाज का बड़े पैमाने पर धर्मांतरण करा चुके हैं.
यही सब मध्यभारत के आदिवासी क्षेत्रों में भी चल रहा है, जहां इन गतिविधियों का फायदा नक्सली भी उठाते हैं. विदेशी
पैसे का धर्मांतरण के लिए इस्तेमाल देश की सुरक्षा और स्थिरता के लिए बड़ी
चुनौतियों को जन्म दे रहा है. विकसित पाश्चात्य ईसाई देशों की सरकारें ईसाई मिशनरी
तत्वों को धर्म परिवर्तन के नाम पर एशिया और अफ्रीका जैसे देशों को निर्यात करती
रहती हैं. इससे दो तरह के फायदे होते हैं. एक तो इन कट्टरपंथी तत्वों का ध्यान गैर
ईसाई देशों की तरफ लगा रहता है, जिस कारण
सरकारों के लिए कम दिक्कतें पैदा करते हैं और दूसरे, जब भारत
जैसे देशों में विदेशी चंदे से धर्मांतरण होता है, तो
धर्मांतरित लोगों के जरिये विभिन्न प्रकार की सूचनाएं इकट्ठा करने और साथ ही
सरकारी नीतियों पर प्रभाव डालने में आसानी होती है.
विदेशी चंदा प्राप्त कर रहे चार एनजीओ पर भी हुई थी कार्रवाई
उदाहरण के लिए भारत- रूस के सहयोग से स्थापित कुडनकुलम परमाणु
संयंत्र से नाखुश कुछ विदेशी ताकतों ने इस परियोजना को अटकाने के लिए वर्षों तक
मिशनरी संगठनों का इस्तेमाल कर धरने-प्रदर्शन करवाए. तत्कालीन संप्रग सरकार में
मंत्री वी नारायणस्वामी ने यह आरोप लगाया था कि कुछ विदेशी ताकतों ने इस परियोजना
को बंद कराने के लिए धरने-प्रदर्शन कराने के लिए तमिलनाडु के एक बिशप को 54 करोड़ रुपये दिए थे. इस मामले में विदेशी चंदा प्राप्त कर रहे
चार एनजीओ पर कार्रवाई भी की गयी थी.
इसी प्रकार का दूसरा उदाहरण वेदांता द्वारा तूतीकोरीन में
लगाए गए स्टरलाइट कॉपर प्लांट का है. इस प्लांट को बंद कराने में भी चर्च का हाथ
माना जाता है. आठ लाख टन सालाना तांबे का उत्पादन करने में सक्षम यह प्लांट अगर
बंद न होता, तो भारत तांबे के मामले में पूरी तरह
आत्मनिर्भर हो गया होता. यह कुछ देशों को पसंद नहीं आ रहा था और इसलिए उन्होंने
मिशनरी संगठनों का इस्तेमाल कर यह दुष्प्रचार कराया कि यह प्लांट पूरे शहर की हर
चीज को जहरीला बना देगा. इस दुष्प्रचार के बाद हिंसा भड़की और पुलिस फायरिंग में 13 लोगों की मौत हो गई. नतीजा यह हुआ कि प्लांट बंद कर दिया गया.
यह अभी भी बंद है और 18 साल बाद
भारत को एक बार फिर तांबे का आयात करना पड़ रहा है.
गांधी जी ईसाई मिशनरियों के क्रियाकलापों से खिन्न थे
महात्मा गांधी ब्रिटिश शासन के दौरान ईसाई मिशनरियों के
क्रियाकलापों से खिन्न थे. उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है कि किस प्रकार
राजकोट में उनके स्कूल के बाहर एक मिशनरी हिन्दू देवी-देवताओं के लिए बेहद
अपमानजनक शब्दों का उपयोग करता था. गांधी जी जीवनभर ईसाई मिशनरियों द्वारा सेवा
कार्यों के नाम पर किए जाने वाले धर्म परिवर्तन के विरुद्ध रहे. जब अंग्रेज भारत
से जाने लगे तो ईसाई मिशनरी लॉबी ने प्रश्न उठाया कि स्वतंत्र भारत में क्या
उन्हें धर्म परिवर्तन करते रहने दिया जाएगा, तो गांधी
जी ने इसका जवाब न में दिया. उनके अनुसार लोभ-लालच के बल पर धर्म परिवर्तन करना
घोर अनैतिक है. इस पर मिशनरी लॉबी ने बहुत हंगामा किया.
भारत, ईसाई और सनातन धर्म
ईसा मसीह ने दुनिया को शांति का संदेश दिया था. लेकिन गरीब
ईसाइयों के जीवन में अंधेरा कम नहीं हो रहा. अगर समुदाय में शांति होती तो आज
दलित-आदिवासी ईसाई की स्थिति इतनी दयनीय नहीं होती. विशाल संसाधनों से लैस चर्च
अपने अनुयायियों की स्थिति से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोड़ना
चाहता है. दरअसल, चर्च का
इरादा एक तीर से दो शिकार करने का है.
कुल ईसाइयों की आबादी का आधे से ज्यादा अपने अनुयायियों को
अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखवा कर वह इनके विकास की जिम्मेदारी सरकार पर
डालते हुए देश की कुल आबादी के पाचवें हिस्से हिन्दू दलितों को ईसाइयत का जाम
पिलाने का ताना-बाना बुनने में लगा है. यीशु के सिद्धांत कहीं पीछे छूट गए हैं.
चर्च आज साम्राज्यवादी मानसिकता का प्रतीक बन गया है.
पश्चिमी देशों के मुकाबले एशिया में ईसाइयत को बड़ी सफलता
नहीं मिली है. जहां एशिया में ईसाइयत में दीक्षित होने वालों की संख्या कम है.
वहीं यूरोप, अमेरिका एवं अफ्रीकी देशों में ईसाइयत
का बोलबाला है. राजसत्ता के विस्तार के साथ ही ईसाइयत का भी विस्तार हुआ है. हमारे
अपने देश भारत में ईसा मसीह के शिष्य संत थोमस ईसा की मृत्यु के दो दशक बाद ही
प्रचार के लिए आ गये थे. लेकिन डेढ़ हजार सालों में भी ईसाइयत यहां अपनी जड़ें
जमाने में कामयाब नहीं हो पायी. पुर्तगालियों एवं अंग्रेजों के आवागमन के साथ ही
भारत में ईसाइयत का विस्तार होने लगा.
हजारों शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों, सामाजिक सेवा केन्द्रों का विस्तार पूरे भारत में किया गया.
उसी का नतीजा है कि आज देश की तीस प्रतिशत शिक्षा एवं बाईस प्रतिशत स्वास्थ्य
सेवाओं पर चर्च का अधिकार है. भारत सरकार के बाद चर्च के पास भूमि है और वह भी देश
के पॉश इलाकों में. सरकार के बाद चर्च रोजगार उपलब्ध करवाने वाला सबसे बड़ा
संस्थान है, इसके बावजूद उसके अनुयायियों की स्थिति
दयनीय बनी हुई है.
आज भारत में कैथोलिक चर्च के 6 कार्डिनल
हैं, पर कोई दलित नहीं. 30 आर्चबिशप
में कोई दलित नहीं, 175 बिशप में
केवल 9 दलित हैं, 822 मेजर
सुपिरियर में 12 दलित हैं, 25000 कैथोलिक पादरियों में 1130 दलित
ईसाई हैं. इतिहास में पहली बार भारत के कैथोलिक चर्च ने यह स्वीकार किया है कि जिस
छुआछूत और जातिभेद के दंश से बचने को दलितों ने हिन्दू धर्म को त्यागा था, वे आज भी उसके शिकार हैं. वह भी उस धर्म में जहां कथित तौर पर
उनको वैश्विक ईसाईयत में समानता के दर्जे और सम्मान के वादे के साथ शामिल कराया
गया था.
कैथलिक चर्च ने 2016 में अपने
‘पॉलिसी ऑफ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में यह माना है कि चर्च में दलितों से छुआछूत और
भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है, इसे जल्द
से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है. हालांकि इसकी यह स्वीकारोक्ति नई बोतल में
पुरानी शराब भरने जैसी ही है. फिर भी दलित ईसाइयों को उम्मीद है कि भारत के कैथलिक
चर्च की स्वीकारोक्ति के बाद वेटिकन और संयुक्त राष्ट्र में उनकी आवाज़ सुनी जाएगी.
कुछ साल पहले दलित ईसाइयों के एक प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त
राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून के नाम एक ज्ञापन देकर आरोप लगाया था कि
कैथलिक चर्च और वेटिकन दलित ईसाइयों का उत्पीड़न कर रहे हैं. जातिवाद के नाम पर
चर्च संस्थानों में दलित ईसाइयों के साथ लगातार भेदभाव किया जा रहा है. कैथोलिक
बिशप कांफ्रेंस ऑफ इंडिया और वेटिकन को बार बार दुहाई देने के बाद भी चर्च उनके
अधिकार देने को तैयार नहीं है. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून को दिए
ज्ञापन में मांग की गई कि वह चर्च को अपने ढांचे में जातिवाद के नाम पर उनका
उत्पीड़न करने से रोके और अगर चर्च ऐसा नहीं करता है तो संयुक्त राष्ट्र में वेटिकन
को मिले स्थाई ऑब्जर्वर के दर्जे को समाप्त कर दिया जाना चाहिए.
पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट के अध्यक्ष आर.एल. फ्रांसिस
के शब्दों में, “यही समय है, जब ईसाई समुदाय को स्वयं का सामाजिक लेखा-परीक्षण करना चाहिए, ताकि पता चले कि ईसाई समुदाय अपनी मुक्ति से वंचित क्यों है.
शांति के पर्व क्रिसमस पर ईसाइयों को अब इस बात पर आत्ममंथन करने की जरुरत है कि
उनके रिश्ते दूसरे धर्मों से सहज कैसे बने रह सकते हैं और भारत में वे अपने
अनुयायियों के जीवन स्तर को कैसे सुधार सकते है.”
भारत सरकार, ईसाई
मिशनरी और धर्मांतरण विरोधी बिल
हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 13 बड़े ईसाई मिशनरी संगठनों को विदेशी अनुदान विनियमन अधिनियम के
तहत मिली चंदा लेने की अनुमति रद् कर दी. इनमें से अधिकतर संगठन झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर पूर्व के राज्यों में सक्रिय थे और विदेशी
चंदे का दुरुपयोग धर्मांतरण कराने के लिए कर रहे थे. हमेशा की तरह इंटरनेशनल
क्रिश्चियन कंसर्न जैसे संगठनों ने फैसले पर हाय-तौबा मचानी शुरू कर दी. अब इसके
आसार हैं कि धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर ईसाई मिशनरियों के काम को सुगम बनाने
वाले विदेशी संगठन भारत में कथित रूप से घटती धार्मिक स्वतंत्रता पर कोई रिपोर्ट
जारी कर दें.
भारत सरकार पर दबाव बनाने के लिए वे ऐसा करते रहते हैं. यह
सही है कि भारतीय संविधान धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, जिसमें अपने पंथ के प्रचार का भी अधिकार शामिल है, लेकिन हर अधिकार की तरह इस अधिकार की भी कुछ सीमाएं हैं. यह
जानना भी जरूरी है कि यह अधिकार किन परिस्थितियों में दिया गया था. भारत की
स्वतंत्रता के बाद संसद ने कई धर्मांतरण विरोधी बिल पेश किए, लेकिन कोई भी प्रभाव में नहीं आया. सबसे पहले 1954 में इंडियन कनवर्जन (रेग्यूलेशन एंड रजिस्ट्रेशन) बिल पेश
किया गया था, जिसमें “मिशनरियों
के लाइसेंस और धर्मांतरण को सरकारी अधिकारियों के पास रजिस्टर कराने की बात कही गई
थी. इस बिल को लोकसभा में बहुमत नहीं मिला. इसके बाद 1960 में पिछड़ा समुदाय (धार्मिक संरक्षण) विधेयक लाया गया, जिसका मकसद था कि हिन्दुओं को ‘गैर-भारतीय
धर्मों’ में परिवर्तित होने से रोका जाए. विधेयक की परिभाषा के अनुसार, इसमें इस्लाम, ईसाई, यहूदी और पारसी धर्म शामिल थे. इसके बाद 1979 में फ्रीडम ऑफ रिलीजन बिल आया, जिसमें “धर्मांतरण पर आधिकारिक प्रतिबंध” की बात कही गई थी. राजनीतिक समर्थन न मिलने की वजह से ये बिल
संसद में पास नहीं हो सके. 2015 में, कानून मंत्रालय ने राय दी थी कि जबरन और धोखाधड़ी वाले
धर्मांतरण के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर कानून नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है.
पिछले कुछ वर्षों में कई राज्यों ने जबरन, धोखाधड़ी से या प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन को प्रतिबंधित
करने के लिए “फ्रीडम ऑफ रिलीजन” कानून लागू किया है. रिसर्च करने वाले संगठन पीआरएस
लेजिस्लेटिव रिसर्च ने हाल ही में कई राज्यों में मौजूदा धर्मांतरण विरोधी कानूनों
की तुलना करते हुए एक रिपोर्ट जारी की है.”धार्मिक
स्वतंत्रता” से जुड़े कानून वर्तमान में 8 राज्यों में लागू हैं – ओडिशा (1967), मध्यप्रदेश (1968), अरुणाचल
प्रदेश (1978), छत्तीसगढ़ (2000 और 2006), गुजरात (2003), हिमाचल
प्रदेश (2006 और 2019), झारखंड (2017) और उत्तराखंड (2018). हिमाचल
प्रदेश (2019) और उत्तराखंड के कानून ऐसे विवाह को अमान्य घोषित करते हैं, जिसमें अवैध धर्म परिवर्तन किया गया हो या फिर धर्म परिवर्तन
सिर्फ विवाह के उद्देश्य से किया गया हो. इसके अलावा, तमिलनाडु ने 2002 में और
राजस्थान ने 2006 और 2008 में इसी
तरह का कानून पारित किया था. हालांकि, 2006 में ईसाई
अल्पसंख्यकों के विरोध के बाद तमिलनाडु के कानून को निरस्त कर दिया गया था, जबकि राजस्थान के विधेयकों को राज्यपाल और राष्ट्रपति की
मंजूरी नहीं मिली. नवंबर 2019 में जबरन
या कपटपूर्ण धर्मांतरण की बढ़ती घटनाओं का हवाला देते हुए उत्तर प्रदेश विधि आयोग
ने धर्मांतरण को रेग्यूलेट करने के लिए एक नया कानून बनाने की सिफारिश की थी. इसी
के आधार पर राज्य सरकार ने हाल ही में अध्यादेश पारित किया.
देश को गहरे नुकसान से बचाने के लिए विदेशी चंदे पर पूरी तरह
रोक के साथ- साथ मिशनरी संगठनों की गतिविधियों पर सख्त पाबंदी आवश्यक है. क्योंकि
धर्मांतरण सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करने के साथ देश की सुरक्षा के लिए चुनौती
बन रहा है.
स्रोत - विश्व संवाद केन्द्र, भारत