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Tuesday, August 23, 2022

स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती के हत्यारों की गिरफ्तारी कर जांच आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक करे सरकार – मिलिंद परांडे

कटक. विश्व हिन्दू परिषद के षष्ठिपूर्ति दिवस तक संगठन एक लाख गांवों तक कार्य विस्तार कर लेगा. तब तक विहिप के हितचिंतकों की संख्या भी एक करोड़ तक पहुंचाने का लक्ष्य है. विहिप के केंद्रीय महामंत्री मिलिंद परांडे ने यह जानकरी दी. उन्होंने हिन्दू समुदाय से विश्व हिन्दू परिषद के स्थापना दिवस तथा स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में सम्मिलित होने का आह्वान किया.

कटक के विहिप कार्यालय में प्रेस वार्ता में परांडे ने जनजातीय समुदाय के बीच हिन्दुत्व के प्रचार प्रसार में जुटे पूज्य स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती को श्रद्धांजलि देते हुए उनके हत्यारों की अविलंब गिरफ्तारी की मांग की.

वर्ष 2008 में 23 अगस्त को लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या कर दी गई थी. किंतु उनके हत्यारों की अभी तक पहचान नहीं हुई है. इस मामले में जो जांच आयोग बनाए गए, उनकी रिपोर्ट भी अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई है.

उन्होंने ओडिशा सरकार से मांग की कि जल्द से जल्द रिपोर्ट सार्वजनिक करे. पूज्य लक्ष्मणानंद सरस्वती का बलिदान व्यर्थ नहीं होगा और विश्व हिन्दू परिषद उनके संकल्प की सिद्धि में जुटी है. उन्होंने पूज्य पुरी शंकराचार्य श्री निश्चलानंद सरस्वती जी का पुतला दहन करने तथा उनका अपमान करने वाले कम्युनिस्ट विचार से प्रेरित हिन्दू द्रोहियों की गिरफ्तारी की मांग भी की.

उन्होंने कहा कि 09 अगस्त को भारत में मूल निवासी दिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं है. भारत का जनजातीय समाज देश, धर्म, संस्कृति की रक्षा का व्रत लिए सदा शेष हिन्दू समाज के साथ मिलकर प्रयास करता रहा है. उन्होंने अपील की भारतीयों को 15 नवंबर का दिन जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाना चाहिए. इस दिन भगवान बिरसा मुंडा की जयंती होती है.

मिलिंद परांडे ने कहा कि ओडिशा में बड़े पैमाने पर ईसाई मिशनरी धर्मांतरण के षड्यंत्रों में जुटी है. राज्य सरकार को तत्काल इस पर रोक लगानी चाहिए. झारखंड के रास्ते पश्चिम बंगाल में होने वाली गोवंश की तस्करी पर भी तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए.

Monday, August 22, 2022

जंगल सत्याग्रह और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – सत्याग्रही डॉ. हेडगेवार

- डॉ. श्रीरंग गोडबोले

    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की स्पष्ट सोच थी कि देश के लिए जान देने वाले नहीं, बल्कि जीवन देने वाले लोग चाहिएं; देश का कल्याण कुछ समय के लिए नहीं, बल्कि स्थायी देशभक्ति से संभव है; और व्यक्ति निर्माण के कठिन तथा दीर्घकालीन मार्ग से ही राष्ट्र निर्माण होता है. ऐसी स्पष्ट धारणा वाले डॉ. हेडगेवार ने जंगल सत्याग्रह में हिस्सा लेने के लिए 12 जुलाई, 1930 को अपने संगठन का नेतृत्व त्याग दिया था.

    जंगल सत्याग्रह के लिए डॉ. हेडगेवार की टुकड़ी में कुल बारह सत्याग्रही थे, जिनमें नागपुर के विठ्ठलराव देव, गोविंद सीताराम उपाख्य दादाराव परमार्थ, ‘महाराष्ट्रसमाचार पत्र के उप-संपादक पुरुषोत्तम दिवाकर उपाख्य बाबासाहेब ढवळे, वर्धा के हरी कृष्ण उपाख्य आप्पाजी जोशी (संघ के जिलाधिकारी), रामकृष्ण भार्गव उपाख्य भैय्याजी कुंबलवार, सालोडफकीर (वर्धा) के त्र्यंबक कृष्णराव देशपांडे (संघचालक), आर्वी (वर्धा) के नारायण गोपाल उपाख्य नानाजी देशपांडे (संघचालक), आनंद अंबाडे, चांदा के राजेश्वर गोविंद उपाख्य बाबाजी वेखंडे, घरोटे, और पालेवार शामिल थे.


सत्याग्रही टुकड़ी को विदाई

    डॉ. हेडगेवार के नेतृत्व में यह सत्याग्रही टुकड़ी 14 जुलाई, 1930 को नागपुर रेलवे स्टेशन से पुसद (यवतमाल जिला) के लिए निकली. स्टेशन पर लगभग 200-300 लोग उन्हें विदाई देने के लिए मौजूद थे, जिनके समक्ष डॉ. हेडगेवार ने भाषण देते हुए कहा, “वर्तमान आंदोलन ही स्वतंत्रता की अंतिम लड़ाई है तथा स्वतंत्रता मिल जाएगी, इस भ्रम में मत रहिये. इसके आगे असली लड़ाई लड़नी है तथा उसमें सर्वस्व की बाजी लगाकर कूदने की तैयारी करो. हम लोगों ने तथा अन्यों ने इस लड़ाई में भाग लिया, इसका कारण यही है कि हमें भरोसा है कि यह कदम हमें स्वतंत्रता के मार्ग पर आगे ले जाएगा.इसके बाद वंदे मातरम्उद्घोष के बीच रेलगाड़ी वर्धा के लिए रवाना हो गयी.

15 जुलाई, 1930 को यह मंडली वर्धा में थी और वहां के श्रीराम मंदिर में डॉ. हेडगेवार और उनके सहयोगियों का जोरदार स्वागत किया गया. स्थानीय लोगों द्वारा एक शोभायात्रा निकालकर उन्हें आगे की यात्रा के लिए रेलवे स्टेशन पहुंचाया गया. वर्धा के बाद पुलगांव, धामणगांव इत्यादि स्थानों पर सम्मान स्वीकार करते हुए यह मंडली पुसद पहुंची. (केसरी’, 22 जुलाई, 1930)

    बरार युद्ध मंडल के अध्यक्ष डॉ. जी.जी. भोजराज की 17 जुलाई, 1930 को हुई गिरफ्तारी के बाद उनके तथा गंगाधर बलवंत उपाख्य अण्णा साहेब पांडे हिरवेकर के अभिनंदन हेतु अधिवक्ता दामले की अध्यक्षता में यवतमाल में एक जनसभा का आयोजन किया गया. अनधिकृतपत्र-पत्रिकाओं पर प्रतिबन्ध एवं कांग्रेस कार्यसमिति को अवैध ठहराने वाले सरकारी आदेश के निषेध का एक प्रस्ताव जनसभा में पेश किया गया. जनसभा को डॉ. हेडगेवार और अप्पाजी जोशी ने संबोधित किया. (के.के. चौधरी, संपादक, सिविल डिसओबिडियंस मूवमेंट अप्रैल-सितंबर 1930 खंड 9, गैजेटीयर्स डिपार्टमेंट, महाराष्ट्र सरकार,1990, पृ. 997)

    19 जुलाई, 1930 को लक्ष्मण राव ओक की अध्यक्षता में यवतमाल में एक अन्य जनसभा का आयोजन किया गया. यहाँ यवतमाल जिला युद्ध मंडल की ओर से टी.एस. बापट ने आगे का सत्याग्रह पुसद के स्थान पर यवतमाल से चार मील की दूरी पर धामणगांव रास्ते के निकट जंगल में करने की घोषणा की. 21 जुलाई, 1930 से 21 दिन के इस सत्याग्रह की शुरुआत डॉ. हेडगेवार के हाथों हुई (चौधरी, पृष्ठ 998).


...और डॉ. हेडगेवार को बंदी बना लिया गया

    21 जुलाई, 1930 को यवतमाल में जंगल कानून तोड़ने के आरोप में डॉ. हेडगेवार और उनके साथ ग्यारह सत्याग्रहियों को अंग्रेज सरकार द्वारा बंदी बना लिया गया. केसरीने इस घटना का वर्णन 26 जुलाई, 1930 के अपने अंक में इस प्रकार किया है : यवतमाल में 21 तारीख को अवज्ञा आंदोलन शुरू किया गया. डॉ. मुंजे के पथक में शामिल होने की तैयारी से नागपुर से पधारे डॉ. हेडगेवार, ढवळे आदि लोगों ने बारह लोगों का अपना एक स्वतंत्र पथक तैयार कर पहले दिन ही कानून भंग किया. पुसद की तुलना में यह गांव बड़ा होने के कारण यहाँ 10 से 12 हजार का जनसमूह एकत्रित हुआ. यह स्थान पुसद से 4 मील 2 फलांग की दूरी पर एक पहाड़ी की तलहटी में है. आसपास पहाड़ी और सर्वत्र हरियाली होने से शस्य श्यामलाभूमि की प्राकृतिक रमणीय छटा मनमोहक थी. पांच-पांच साल के बच्चों से लेकर 70 से 75 वर्ष के पुरुष एवं महिलाएं और अनेक स्त्रियां अपने कंधों पर नन्हें बच्चे लिए पैदल चलकर इस पावन क्षेत्र में आई. डॉ. हेडगेवार ने अपने पथक के साथ जब कानून भंग किया, तब महात्मा गांधी की जय! स्वतंत्रता देवी की जय! इत्यादि गर्जनाओं से सारा जंगल गूंज उठा!

केसरीने आगे लिखा, “कानून की अवज्ञा करने वाले वीरों को गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर कारागार के एक कमरे में मुकदमा चलाया गया. धारा 117 तथा धारा 279 के तहत आरोप प्रत्यारोपित कर डॉ. हेडगेवार पर को क्रमशः 6 और 3 माह यानि कुल 9 माह का सश्रम कारावास सुनाया गया. वहीँ  ग्यारह सत्याग्रहियों में प्रत्येक को धारा 379 के तहत 4 माह के सश्रम कारावास का दंड सुनाया गया. इन सभी को तुरंत अकोला कारागार ले जाया गया.


नागपुर में प्रतिक्रिया

    डॉ. हेडगेवार ने जिस दिन सत्याग्रह किया, उसी दिन शाम को संघ स्थान पर स्वयंसेवकों की एक सभा हुई. उमाकांत केशव उपाख्य बाबासाहब आपटे ने वहां एकत्रित स्वयंसेवकों के बीच एक भाषण दिया. रात्रि साढ़े दस बजे महाराष्ट्रद्विसाप्ताहिक के कार्यालय में तार आया, जिसमें लिखा था कि डॉ. हेडगेवार को नौ महीने तथा अन्य लोगों को चार माह के सश्रम कारावास का दंड सुनाया गया है.

    डॉ. हेडगेवार तथा उनकी टुकड़ी को यवतमाल में और डॉ. नारायण भास्कर खरे, पूनमचंद रांका, नीलकंठराव देशमुख विरुलकर, शंकर त्र्यंबक उपाख्य दादा धर्माधिकारी को नागपुर में गिरफ्तार करने के कारण 22 जुलाई, 1930 को नागपुर में एक बड़ी हड़ताल की गई. दोपहर में समस्त विद्यालयों तथा महाविद्यालयों के छात्र जुलूस निकालकर कांग्रेस पार्क में एकत्रित होने शुरू हो गए. वहां डॉ. मुंजे की अध्यक्षता में एक जनसभा हुई, और गिरफ्तार मंडली के अभिनंदन का एवं सरकार का निषेध करने वाला प्रस्ताव पारित किया गया. दोपहर में ही चिटणवीस पार्क में भी एक अन्य निषेध जुलूस का नेतृत्व युद्धमंडल के नवीन अध्यक्ष गणपतराव टिकेकर, पी.के. साळवे, छगनलाल भारुका, ढवले, रामभाऊ रुईकर, नंदगवली, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसेनापति मार्तंडराव जोग और अनसुया बाई काले ने किया (चौधरी, पृष्ठ 994).

    शाम को संघ स्थान पर डॉ. हेडगेवार और उनकी टुकड़ी का अभिनंदन करने के लिए संघ के स्वयंसेवकों सहित नागपुर के प्रतिष्ठित स्थानीय निवासियों तथा विद्यार्थियों की जनसभा हुई. संघ प्रार्थना के पश्चात सरसंघचालक डॉ. परांजपे और डॉ. मुंजे ने सभा को संबोधित किया. रात्रि में चिटणवीस पार्क में डॉ. हेडगेवार एवं पुरुषोत्तम उपाख्य बाबासाहेब ढवले की सजा का ब्यौरा दिया गया. इस सभा में संघ के शारीरिक प्रशिक्षण प्रमुख अनंत गणेश उपाख्य अण्णा सोहनी सहित 250 स्वयंसेवक उपस्थित थे. डॉ. हेडगेवार की गिरफ्तारी के बावजूद संघ के प्रतिदिन के क्रियाकलाप नहीं रुके. 23 जुलाई, 1930 से ही संघ की शाखाएं नियमित रूप से संचालित हुई और वहां दैनिक उपस्थिति 100 से अधिक होती थी.

    24 जुलाई की शाम को नागपुर से मराठी प्रांत युद्धमंडल के नए अध्यक्ष गणपतराव टिकेकर के नेतृत्व में 24 सत्याग्रहियों की एक टुकड़ी तलेगांव (वर्धा) पहुंची. उसमें दो स्वयंसेवक, रामाभाउ वखरे और विठ्ठलराव गाडगे, शामिल हुए थे. भंडारा संघ के उपसंघचालक कर्मवीर पाठक ने संघ की ओर से इनका स्वागत किया और अपने भाषण में स्पष्ट करते हुए कहा, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय संस्कृति के पुनरुज्जीवन के लिए जन्म लिया है और वह अपना राजकीय ध्येय साध्य करने के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु निकली किसी भी संस्था से सहयोग करेगा” (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, 7/DSC_0236 – 239).


स्वाभिमान का रुद्रावतार

    एक बंदी के रूप में यवतमाल से अकोला जाते समय जगह-जगह डॉ. हेडगेवार का सत्कार और जय-जयकार होती रही. स्टेशन पर लोगों का हुजूम लगता और डॉक्टर जी को पांच-पांच मिनट बोलने के लिए आग्रह किया जाता. गाड़ी जब दारव्हा (यवतमाल मार्ग पर एक बड़ा स्टेशन) पहुंची तो स्थानीय लोगों ने प्लेटफार्म पर मंच बनाकर उनके स्वागत की तैयारी कर रखी थी. लगभग सात सौ से हजार की संख्या में जन समुदाय वहां मौजूद था.

दारव्हा तक दरवाजे में खड़े होकर ही डॉक्टर जी स्वागत-अभिवादन स्वीकार करते रहे. दारव्हा में नीचे उतर प्लेटफार्म पर बने मंच पर उन्होंने पंद्रह-बीस मिनट का एक भाषण दिया. गाड़ी जरा ज्यादा देर रुकी थी. गार्ड, सब-इंस्पेक्टर और स्टेशन मास्टर सभी जल्दबाजी करने लगे. लोगों ने फलाहार आदि टोकरों में भरकर डिब्बे में चढ़ा दिए. दारव्हा रेलवे स्टेशन से गाड़ी छूटने पर घटित प्रसंग में डॉ. हेडगेवार के स्वाभिमान का रुद्रावतार कैसे हुआ, इसका वर्णन प्रत्यक्षदर्शी अप्पाजी जोशी ने इन शब्दों में किया : राम सिंह हथकड़ी निकालो”, दारव्हा से गाड़ी आगे बढ़ते ही 27-28 साल के सब-इंस्पेक्टर ने अपने सिपाही से कहा.

इस पर डॉ हेडगेवार ने पूछा, “हथकड़ी किस लिए?”

मैं क्या करूँ? डी.एस.पी. साहब की ओर से ऐसा आदेश आया है और नौकर होने के कारण मुझे उसका पालन करना होगा,” सब-इंस्पेक्टर बोला.

डी.एस.पी. की वैसी इच्छा होती तो सत्याग्रह से अब तक (हथकड़ी) पहनाई जा सकती थी, पर आपने देखा है कि उन्होंने अब तक हथकड़ी पहनाई नहीं है,” डॉक्टर जी ने उत्तर दिया.

पर अब ऐसी आज्ञा है,” सब-इंस्पेक्टर ने झूठ बोलते हुए कहा.

यह कोई पहली बार कारावास नहीं है. हमने अपनी इच्छा से सत्याग्रह किया है. भाग कर जाने वालों में हम नहीं हैं. हथकड़ी पहनाने के चक्कर में मत पड़ो,” डॉक्टर जी ने कहा.

फिर भी सब-इंस्पेक्टर ने सुना नहीं और अपने सहयोगी से बोला, “रामसिंह, हथकड़ी क्यों नहीं निकालते”?

इस पर डॉक्टर जी ने कड़े शब्दों में कहा, “तुम्हें विनती रास नहीं आती, ऐसा प्रतीत होता है.इन कड़े शब्दों से वह हड़बड़ा गया. डॉक्टर जी ने आगे कहा, “मैं कौन हूं यह तुम जानते नहीं, ऐसा लगता है. तुम हथकड़ी पहनाने पर तुले हो ऐसा जान पड़ता है. फिर मुझे भी मेरा निश्चय दिखाना होगा.

मतलब आप मुझे हथकड़ी पहनाने नहीं देंगे?” सब-इंस्पेक्टर बोला.

डॉ. हेडगेवार अत्यंत क्रोधित हो उठे. मैंने इतना क्रोधित उन्हें इसके पूर्व कभी नहीं देखा था. उन्होंने कहा, “पहनाओ तो कैसे पहनाते हो! ज्यादा नखरे करोगे तो तुम्हें डिब्बे से बाहर फेंक दूंगा. एक और मुकदमा सही हम पर! हम तो सत्याग्रही हैं, नौ माह की सजा होगी यह पता नहीं था. नौ की जगह अठारह माह की सजा हो जाएगी. देखता हूं कैसे हथकड़ी पहनाते हो.

डॉ. हेडगेवार के क्रोध से वृद्ध रामसिंह और साथ के सिपाही और भी हड़बड़ा गए. यह देखते हुए अप्पाजी ने कहा, “इस प्रांत में डॉक्टर जी का क्या स्थान है, सरकार का उनके प्रति व्यवहार कैसा है? आप यहाँ नए हो, इसलिए ऐसा लगता है कि इन सब बातों की जानकारी आपको नहीं है. डी.एस.पी. ने आदेश दिया है यह सब झूठ है’. जगह-जगह डॉ. हेडगेवार के अभिवादन से आप उग्र हो गये हैं, लेकिन इन चक्करों में न उलझो. अगर आप यह सोच रहे हो कि डी.एस.पी. एक मुसलमान है और उसे प्रसन्न कर साधा जा सकता है तो आपकी सोच गलत है. बेड़ियां डाल कर देखो, फिर तुम्हें डी.एस.पी. से ही बातें सुननी पड़ेंगी, तब समझ में आएगा कि डॉ. हेडगेवार और उनके संबंध कैसे हैं. हम क्या भाग कर जाने वाले हैं?” अप्पाजी की इन बातों को गंभीरता से लेते हुए साथ के सिपाहियों ने बेड़ियां न पहनाने के लिए सब-इंस्पेक्टर को समझाने का प्रयास किया.

सब-इंस्पेक्टर की अकड़ अब तक उतर चुकी थी. नीची आवाज में वह कहने लगा, “मैं गरीब आदमी. अलग-अलग स्टेशन पर आप उतरते हैं, तब आप में से कोई भाग गया तो मेरे गले में रस्सी होगी!इस पर अप्पाजी ने कहा, “भागना ही होता तो अब तक भाग नहीं गए होते! आप चिंता न करें. हम बारह लोगों को ठीक से कारावास पहुंचाने का श्रेय आपको मिलेगा, इसका विश्वास रखो.आखिरकार सब-इंस्पेक्टर को समझ में आ गया. वहां मची यह खलबली शांत होती दिखाई देने लगी. डॉ. हेडगेवार ने हंसते हुए पूछा, “विश्वास हुआ? समझ दिलाने का श्रेय अप्पाजी को जाना था, इसलिए मेरे बताने के बाद भी समझ नहीं आया.

सभी लोग खुलकर हंसे और फिर डिब्बे में चढ़ाए गए फलाहार का सब-इंस्पेक्टर सहित सभी ने स्वाद चखा. रात्रि दस बजे मूर्तिजापुर से गाड़ी बदलकर सभी सत्याग्रही रात्रि साढ़े बारह बजे के आसपास अकोला पहुंचे. फिर उन्हें एक ट्रक में बैठाकर जेल पहुंचाया गया. सभी को एक ही कमरे में ठूंसा गया था (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार पत्रक, Nana Palkar/Hedgewar notes – 5 5_115-119).

    इस प्रकार अकोला कारागृह में डॉ. हेडगेवार का कारावास 14 फरवरी, 1931 को समाप्त हुआ. जंगल सत्याग्रह करने कारण डॉ. हेडगेवार जेल गए, लेकिन अन्य संघ स्वयंसेवकों की जंगल सत्याग्रह में क्या भूमिका थी, वह अगले लेख में बताया जाएगा.

(मूल मराठी से अनुदित)

क्रमशः 

Saturday, August 20, 2022

अमृत महोत्सव – भारत की स्वतंत्रता में जनजातीय नायकों का योगदान

स्वाधीनता का अमृत महोत्सव जनजातीय वीर स्वतंत्रता सेनानियों को एक अरण्यांजलि है. जनमानस में स्वतंत्रता के उस भाव को जागृत करना है, जिसके लिए अनगिनत जनजाति वीर योद्धाओं ने अपना सर्वस्व समर्पित किया. उनकी इस शौर्यगाथा को प्रबुद्ध जनमानस तक पहुंचाने का श्रेष्ठ माध्यम लेखन कार्य ही है.

जनजातीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास

भारतीय सीमाओं का अध्ययन करें तो स्पष्ट होता है कि इन सीमाओं पर निवास करने वाला समू जनजातीय समाज ही था. जब-जब आक्रांताओं ने भारत में प्रवेश करने का प्रयास किया, उनका सामना पहली रक्षा पंक्ति में खड़े वनवासियों से होता था. आक्रमणकारी अलेक्जेन्डर का भारत में प्रवेश और सिबई, अगलासोई, मल्लस जैसी जनजातियों के साथ युद्ध से स्पष्टसमझा जा सकता है. वनवासियों की आरंभिक क्रांति आगे चल कर स्वाधीनता आंदोलन बनी. भारत के जंगलों में ऐसे सैकड़ों हजारों नायक रहे, जिन्होंने स्वाधीनता के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया.

औपनिवेशिक आक्रांताओं के विरूद्ध जो क्रांतिकारी हुए, अमृत महोत्सव में ऐसे गुमनाम जनजातीय नायकों का स्मरण करना है. जिन्हें इतिहास में कोई स्थान नहीं दिया गया. जिसमें प्रथम क्रांतिकारी तिलका मांझी, टंट्या  भील, सीताराम कंवर, खाज्या नायक, रघुनाथ सिंह मंडलोई, भीमा नायक, सुरेन्द्र साय, बिरसा मुण्डा, मंषु ओझा, हीरालाल चाँदरी, दिलराज सिंह गोंड, राव अमान सिंह गोंड, शिवराज सिंह गोंड, रणजोत सिंह गोंड, निहाल सिंह कोरकू, राजा ढिल्लन शाह गोंड, राजा महिपाल सिंह गोंड, राजा गंगाधर गोंड, राजा अर्जुन सिंह गोंड, देवीसिंह गोंड, भगवान सिंह गोंड, मोरगो मांझी, उम्मेर सिंह गोंड, परशुराम गोंड, बीरसिंह मांझी, सिदू मुर्मू, जोधनसिंह गोंड, लल्लन गोंड, सरवर सिंह गोंड, दुलारे गोंड, दल्ला गोंड, राजा अमान सिंह गोंड, बकरू भाऊ गोंड, गुलाब पुढारी, इमरत भोई उरपाती, अमरू भोई, सहरा भोई, झंका भोई, टापरू भोई, लोटिया भोई, इमरत भोई कोंडावाला, इमरत भोई, गंजन सिंह कोरकू, बिरजू भोई और बादल भोई इत्यादि सैकड़ों नाम हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता के आंदोलनों का नेतृत्व किया और अपने प्राणों का बलिदान दिया.

जनजातीय समाज के अनेक वीर योद्धाओं के साथ वीरांगनाओं ने भी देश की आजादी की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति दी, जिन्हें इतिहास में उपयुक्त स्थान नहीं मिल पाया. जिनमें प्रमुख रूप से रानी कमलापति, मुड्डे बाई, रानी दुर्गावाती, रैनो बाई . इन वीरांगनाओं ने भारत के अलग-अलग हिस्सों में स्वतंत्रता संग्राम की बागडोर स्वयं संभाली थी. ऐसी ही अनेक वीरांगनाओं की शौर्य गाथाएं हमारे इतिहासकारों ने हमारे सामने नहीं आने दीं. भारतीय इतिहासकारों ने इन वीरांगनाओं की वीरता को हमेशा नजरअंदाज किया. आज आवश्यकता है कि हम स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के दौरान इन वीर एवं वीरांगनाओं की शौर्य गाथा को जनमानस तक पहुंचाएं. अमृत महोत्सव पर हम गुमनाम बलिदानियों का स्मरण करें, जिन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया.

तिलका मांझी

प्रथम जनजातीय स्वतंत्रता संग्राम नायक, जिन्होंने सन् 1857 के मंगल पाण्डेय द्वारा बौरकपुर में उठी हुंकार से भी लगभग 70 वर्ष पूर्व सन् 1784 में अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह का शंखनाद किया था, जिसे हम संथाल परगना/जबरा पहाडिया/हूल पहाडिया के नाम से जानते हैं. 1707 में औरंगजेब की मृत्यु उपरांत बंगाल के मुगलों/जागीरदारों/जमिदारों के बाद उपजे ब्रिटिश शासन में जनजातियों के शोषण के खिलाफ सन् 1770 में भीषण अकाल के दौरान विद्रोह किया. तिलका मांझी ने भागलपुर, बिहार में रखा अंग्रेजों का खजाना लूटकर टैक्स और सूखे की मार झेल रहे जनजाति समाज में बांट दिया. 28 वर्षीय तिलका मांझी ने 1778 में अपने कुछ साथियों के साथ ब्रिटिश टुकड़ी पर चढ़ाई की और तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर, क्लिवलैण्ड को मार गिराया. 12 जनवरी, 1785 के दिन तिलका मांझी पकड़े गए. भीषण यातनाओं को सहते हुए अंग्रेजी हुकुमत द्वारा फांसी पर चढ़ा दिए गए.

तिलका मांझी बेशक इतिहास की पुस्तकों से गुम हैं. किन्तु संथाली समाज आज भी लोक कथाओं और गीतों में गौरव के साथ उनका स्मरण करता है. तिलका मांझी के विद्रोह के बाद ही 1831 का सिंहभूम विद्रोह, 1855 का संथाल विद्रोह बंगाल, बिहार की धरती पर आकार ले पाया. वर्ष 1991 में बिहार सरकार ने भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर तिलका मांझी विश्वविद्यालय किया.

लेखक डॉ. दीपमाला रावत, विषय विषेषज्ञ, जनजातीय प्रकोष्ठ, राजभवन, भोपाल

Thursday, August 18, 2022

स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए जन-जन में स्व की भावना का जागरण जरूरी - रमेश जी

काशी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ काशी प्रांत के प्रांत प्रचारक रमेश जी ने कहा कि लंबे समय तक देश की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए जन-जन में स्व की भावना का जागरण जरूरी है। स्वभाषा, स्वसंस्कृति, स्वदेश की भावना बलवती होने पर ही देश में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा हो सकेगा। वे निवेदिता शिक्षा सदन इंटर कॉलेज में आयोजित स्वतंत्रता दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में छात्र-छात्राओं को संबोधित कर रहे थे।

     कॉलेज प्रांगण में उल्लास के वातावरण में संपन्न  ध्वजारोहण  के पश्चात छात्र-छात्राओं को संबोधित करते हुए उन्होंने आगे कहा कि देश को स्वतंत्रता लंबे संघर्ष एवं बलिदानों के पश्चात प्राप्त हुई है। इसकी रक्षा के लिए सभी को हमेशा तैयार रहना होगा। उन्होंने आगे कहा कि हर घर तिरंगा अभियान में जिस तरह लोगों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया है उससे सिद्ध हो गया है कि सभी लोगों के मन में देशभक्ति की भावना जगी है। इसी से यह विश्वास और भी मजबूत हुआ है कि आने वाले भविष्य में भारत संपूर्ण विश्व का नेतृत्व करेगा। भारत के लोग देश के लिए जीने के प्रति पूरी तरह संकल्प बद्ध हो चुके हैं। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भारत शांति और मैत्री का संदेश लेकर आगे बढ़ रहा है। भारत मृत्युंजय है, अजातशत्रु है। प्रांत प्रचारक जी ने कहा कि इस समय पर्यावरण की रक्षा, समाज की रक्षा तथा देश की रक्षा का संकल्प लेना होगा। भारत को मजबूत राष्ट्र बनाने के लिए सामाजिक समरसता, सद्भाव बनाए रखना भी बहुत जरूरी है। इतिहास में जो भूल हुई है वह दोबारा ना होने पाए इसके प्रति भी देशवासियों को जागरूक होना पड़ेगा।

     कार्यक्रम में लोक कल्याण न्यास के मंत्री श्री रामसूचित पाण्डेय, विद्यालय की प्रधानाचार्या डा. आनंद प्रभा सिंह, शिशु मन्दिर के प्रबंधक राजेश विश्वकर्मा सहित बड़ी संख्या में अभिभावक उपस्थित रहे।

15 अगस्त, 2022 – सर्व सामर्थ्य संपन्न, समरसता युक्त, शोषणमुक्त बनकर भारत सारे विश्व को सुख शांति का मार्ग दिखलाएगा

(नागपुर स्थित महाल संघ कार्यालय में आयोजित स्वतंत्रता दिवस समारोह में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी का उद्बोधन)

सभी नागरिक सज्जन, माता भगिनी.

स्वतंत्रता के 75 साल हम सबने, हमारे देश ने पूर्ण किए हैं. इस उपलक्ष्य पर आप सभी को शुभकामनाएं. हमारे लिए गौरव का क्षण है और हमारे लिए संकल्प का भी क्षण है. 15 अगस्त, 1947 को हमको स्वतंत्रता मिली. अंग्रेजों से हमने अपने देश को अपने हाथ में ले लिया. यकायक नहीं हुआ है और भारत का इतना बड़ा भूभाग एक राजनीतिक छत्र के नीचे, एक सत्ता के नीचे, अपने स्वयं की सत्ता के नीचे शताब्दियों के बाद आया. इस लंबे कालखंड में संपूर्ण देश को ऐसा बनाने की भरसक चेष्टा बहुत लोगों ने की. 1857 के बाद का ही कालखंड देखते हैं तो प्रत्यक्ष शस्त्रास्त्रों के साथ संघर्षरत, समाज में राजनीतिक जागृति करके आंदोलन, समाज के दोष हटा कर समाज को सुधारित रूप में, संगठित रूप में आगे लाना और समाज में स्वत्व देशभक्ति का भाव जागरण, इन चारों रास्तों पर अनेक लोगों ने अपना सर्वस्व देकर काम किया है. इतना जब किया तब 15 अगस्त को हमको स्वतंत्रता मिली. यानि क्या, तो हम अपने देश को, अपने मन के अनुसार बनाएँ. अपने समाज की उन्नति के लिए, अपने समाज की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए हम अपने लिए अपने देश को बड़ा बनाएं. इसलिए हमको उस देश को चलाने का स्वातंत्र्य मिला. हमने लिया, मिलाया नहीं, किसी की कृपा से नहीं मिला. पूरा लंबा संघर्ष करने के बाद मिला. अब वो तंत्र तो हमको मिल गया, लेकिन उसको स्वतंत्र बनाना है. उसकी प्रक्रिया भी तब से शुरू हो गई. स्व-तंत्र बनाने में अनेक बातें रहती हैं. जिनको स्वतंत्र होना है, उनको सब मामलों में स्व-निर्भर होना पड़ता है. विश्व से संबंध तो रखने पड़ते है, लेकिन अपनी इच्छा के अनुसार हम रख सकें. इतना सामर्थ्य कमाना पड़ता है. जिनको स्वतंत्र रहना है, अपने स्व का तंत्र खड़ा करना है. उनको अपनी सुरक्षा के बारे में एकदम पक्का चाकचौबंद होना पड़ता है. और अपने स्व के आधार पर युगानुकूल पुनर्रचना तंत्र की करनी पड़ती है. अपनी संविधान सभा से इस प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ. यह प्रक्रिया भी लंबी चलेगी, क्योंकि हमने अपनी प्रकृति के अनुसार, अपनी इच्छा के अनुसार, अपनी आकांक्षा के अनुसार अपने देश को चलाने का प्रारंभ 15 अगस्त, 1947 को शताब्दियों के बाद किया. तब तक तो कभी सिकंदर, कभी कोई, कभी कोई वही अपने उद्देश्यों के लिए हमारे देश को चलातेथे. और इसलिए यह लंबी प्रक्रिया चलेगी. उसमें वही परिश्रम, वही त्याग आवश्यक है.

हमारा राष्ट्रध्वज बताता है हमको कैसा देश गढ़ना है. वो देश दुनिया में बड़ा होगा तो क्या होगा, वो अन्य लोगों पर राज नहीं करेगा, डंडा नहीं चलाएगा. वो तो अपने त्याग से दुनिया को गढ़ेगा, दुनिया के हित के लिए त्याग करेगा. इसलिए राष्ट्र ध्वज के शीर्षस्थ रंग को हम भगवा रंग कहते हैं. केसरिया जो त्याग का, कर्म का, प्रकाश का, ज्ञान का रंग है. और ऐसा हम तप कर सकेंगे, तब हम अंतर-बाह्य शुचिता युक्त बनेंगे, पवित्र बनेंगे. अपना स्वयं का मन विकारों से ग्रस्त नहीं होगा, शांत होगा. इसीलिए दूसरा रंग सफेद है और यह हम तब कर सकेंगे जब हम अपने देश को पहले खड़ा करेंगे. तो सब प्रकार की समृद्धि का, लक्ष्मी जी का प्रतीक हरा रंग उसके बाद में है. और यह सब हम करेंगे – By Hook or Crook, जैसे अंग्रेजी में कहते हैं ऐसा नहीं. यह हम सब समाज की, मानवता की, पर्यावरण की, सृष्टि की धारणा का धर्म पालन करके करेंगे. इसलिए अपने ध्वज के केन्द्र में धर्म चक्र है. अपना धर्म प्राण देश है.

इन बातों को समझकर हमको अपना परिश्रम करना चाहिए. आने वाले दिनों में ऐसा देश खड़ा होने तक हमको कभी ये नहीं पूछना चाहिए कि मुझे क्या मिलेगा, मेरा देश मुझे क्या देता है, मेरा समाज मुझे क्या देता है? ये प्रश्न छोड़ दीजिए. मैं अपने देश को क्या दे रहा हूँ, मैं अपने समाज को क्या दे रहा हूँ? मेरी उन्नति में मेरे समाज की देश की उन्नति हो रही कि नहीं? इसका विचार करके ही मैं अपना जीवन जिऊं, इसकी आवश्यकता है. जिस दिन इस संकल्प के साथ हम सब लोग चलना प्रारंभ कर देंगे, दुनिया को आश्चर्य लगेगा, दांतों तले उंगली दबा कर दुनिया देखेगी. इतने गति से हमारा देश सर्व सामर्थ्य संपन्न समरसता युक्त, शोषणमुक्त, ऐसा देश बनकर सारे विश्व को सुख शांति का नया मार्ग दिखलाएगा, इसमें कोई शंका रखने की आवश्यकता नहीं. हमारे देश के सब पुरोधाओं ने इस आशावादिता को, इस भविष्यवाणी को प्रकट किया है. उनकी इस आशा को साकार करने के लिए हमारी भी आकांक्षा है. उस आकांक्षा के संकल्पों पर पक्का होकर हम लोगों को आज इस झंडा वंदन के कार्यक्रम से इस संकल्प के साथ विदा होना पड़ेगा. इतना एक स्मरण इस प्रसंग पर मैं आपको देना चाहता हूँ.







Wednesday, August 17, 2022

चेतना प्रवाह के विशेषांक अखंड भारत का लोकार्पण संपन्न

काशी| लंका स्थित विश्व संवाद केंद्र काशी कार्यालय पर जागरण पत्रिका चेतना प्रवाह का लोकार्पण किया गया। उक्त पत्रिका का लोकार्पण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र कार्यवाह डॉ.वीरेन्द्र जायसवाल एवं काशी प्रांत प्रचारक रमेश जी ने किया।

     इस अवसर पर मुख्य अतिथि डॉ.वीरेन्द्र जी ने कहा कि विश्व संवाद केन्द्र काशी द्वारा प्रकाशित चेतना प्रवाह के अखण्ड भारत विशेषांक की विषय वस्तु निश्चित रूप से सराहनीय है। इससे अखण्ड भारत की संकल्पना को समाज में प्रसारित होने में सहायता मिलेगी। आजादी के अमृत महोत्सव पर यह प्रकाशन सराहनीय है| विशिष्ट अतिथि प्रान्त प्रचारक रमेश जी ने कहा कि राष्ट्रहित में सामाजिक चेतना का जागरण करना विश्व संवाद केंद्र का मुख्य उद्देश्य है| उसी के अनुसार विश्व संवाद केंद्र ने जागरण पत्रिका चेतना प्रवाह के अखंड भारत विशेषांक का लोकार्पण किया, जिसके लिए चेतना प्रवाह की संपादकीय टोली को साधुवाद।

     जागरण पत्रिका प्रमुख नागेन्द्र द्विवेदी ने कहा कि चेतना प्रवाह का अखंड भारत विशेषांक एक ऐतिहासिक धरोहर है| इसको हमें समाज के बीच प्रचारित-प्रसारित करना है, जिससे कि अखंड भारत की स्मृति युवा पीढ़ी तक गांव-गांव में पहुंच सके। पत्रिका के प्रधान संपादक प्रो.ओम प्रकाश सिंह ने प्रस्तावना रखते हुए कहा कि समाज प्रतिवर्ष 14 अगस्त को अखंड भारत दिवस के रूप में मनाता है| 1947 में विभाजित भारत पुनः अखंड होगा| यही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार दर्शन है| राष्ट्र इस समय आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है| इस अवसर पर अखंड भारत की स्मृति, उसके इतिहास एवं अन्य संदर्भों को समाज में प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व संवाद केंद्र काशी द्वारा प्रकाशित जागरण पत्रिका चेतना प्रवाह के 16 अगस्त 2022 के अंक की विषय वस्तु अखंड भारत केंद्रित है| इसी पत्रिका के अखंड भारत अंक का लोकार्पण किया गया।

इस अवसर पर अशोक चौरसिया, अरुण श्रीवास्तव, कुमकुम पाठक, प्रो.अमिता सिंह, धर्मेन्द्र सिंह, डॉ.सत्य प्रकाश, विजय जायसवाल, जयन्ती लाल, श्रीप्रकाश, सुरेश बहादुर आदि लोग उपस्थित रहें| अध्यक्षता डॉ.हरेन्द्र राय एवं सञ्चालन सचिव प्रदीप कुमार ने किया|

Monday, August 15, 2022

अमृत महोत्सव – संकल्पबद्ध होकर त्याग व परिश्रम से भारत को परम वैभव संपन्न बनाना है

 डॉ. मोहन भागवत

सरसंघचालक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

कल (15 अगस्त) भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होंगे, स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के निमित्त समारंभ पहले ही शुरू हुए हैं, आगे वर्षभर भी चलते रहेंगे. जितना लंबा गुलामी का यह कालखंड था, उतना ही लंबा और कठिन संघर्ष भारतीयों ने स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु किया. भारतीय जनता का विदेशी सत्ता के विरुद्ध यह संघर्ष भौगोलिक दृष्टि से सर्वव्यापी था. समाज के सब वर्गों में जिसकी जैसी शक्ति रही, उसने वैसा योगदान दिया. स्वतंत्रता प्राप्ति के सशस्त्र व नि:शस्त्र प्रयासों के साथ समाज जागृति व परिष्कार के अन्य कार्य भी समाज के व्यापक स्वतंत्रता संघर्ष के ही भाग बनकर चलते रहे. इन सब प्रयासों के चलते 15 अगस्त, 1947 को हम लोग भारत को अपनी इच्छानुसार, अपने लोगों के द्वारा चलाने की स्थिति में आ गए. ब्रिटिश राज्यकर्ताओं को यहां से विदाई देकर अपने देश के संचालन के सूत्र अपने हाथ में लिए. इस अवसर पर हमें, इस प्रदीर्घ संघर्ष में अपने त्याग तथा कठोर परिश्रम द्वारा, जिन वीरों ने इस स्वतंत्रता को हमारे लिए अर्जित किया, जिन्होंने सर्वस्व को होम कर दिया, प्राणों को भी हंसते-हंसते अर्पित कर दिया, (अपने इस विशाल देश में हर जगह, देश के प्रत्येक छोटे-छोटे भू-भाग में भी ऐसे वीर पराक्रम दिखा गए) उनका पता लगाकर उनके त्याग व बलिदान की कथा संपूर्ण समाज के सामने लाना चाहिए. मातृभूमि तथा देशबांधवों के प्रति उनकी आत्मीयता, उनके हित के लिए सर्वस्व त्याग करने की उनकी प्रेरणा तथा उनका तेजस्वी त्यागमय चरित्र आदर्श के रूप में हम सबको स्मरण करना चाहिए, वरण करना चाहिए.

स्वतंत्रता प्रथम शर्त

इस अवसर पर हमें अपने प्रयोजन, संकल्प तथा कर्तव्य का भी स्मरण करते हुए उनको पूरा करने के लिए पुन: एक बार कटिबद्ध व सक्रिय होना चाहिए. देश को स्वराज्य की आवश्यकता क्यों है? मात्र सुराज्य से, फिर वह किसी परकीय सत्ता से ही संचालित क्यों न हो, क्या देश और देशवासियों के प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकते? हम सब नि:संदिग्ध रूप से यह जानते हैं कि यह नहीं हो सकता. स्व की अभिव्यक्ति, जो प्रत्येक व्यक्ति व समाज की स्वाभाविक आकांक्षा है, स्वतंत्रता की प्रेरणा है. मनुष्य स्वतंत्रता में ही सुराज्य का अनुभव कर सकते हैं, अन्यथा नहीं. स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि प्रत्येक राष्ट्र का उदय विश्व में कुछ योगदान करने के लिए होता है. किसी भी राष्ट्र को विश्व जीवन में योगदान कर सकने के लिए स्वतंत्र होना पड़ता है. विश्व में अपने जीवन में स्व की अभिव्यक्ति द्वारा वह राष्ट्र विश्व जीवन में योगदान के कर्तव्य का निर्वाह करता है. इसलिए योगदान करने वाले राष्ट्र का स्वतंत्र होना, समर्थ होना यह उसके योगदान की पूर्व शर्त है.

देश की स्वतंत्रता के लिए भारतीय जनमन की जागृति करने वाले, स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्यक्ष सशस्त्र अथवा निशस्त्र आंदोलन का मार्ग पकड़कर सक्रिय रहने वाले, भारतीय समाज को स्वतंत्रता प्राप्ति के व उस स्वतंत्रता की सम्हाल के लिए योग्य बनाने का प्रयास करने वाले सभी महापुरुषों ने भारत की स्वतंत्रता का प्रयोजन अन्यान्य शब्दों में बताया है. कवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी प्रसिद्ध कविता चित्त जेथा भयशून्य उन्नत जतो शिरमें स्वतंत्र भारत के अपेक्षित वातावरण का ही वर्णन किया है. स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी प्रसिद्ध स्वतंत्रता देवी की आरती में स्वतंत्रता देवी के आगमन पर सहचारी भाव से उत्तमता, उदात्तता, उन्नति आदि का अवतरण भारत में अपने आप होगा, ऐसी आशा व्यक्त की है. महात्मा गांधी ने उनके हिंद स्वराज में उनकी कल्पना के स्वतंत्र भारत का चित्र वर्णित किया है तथा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने देश की संसद में संविधान को रखते समय दिए दो भाषणों में भारत की इस स्वतंत्रता का प्रयोजन तथा वह सफल हो इसके लिए हमारे कर्तव्यों का नि:संदिग्ध उल्लेख किया है.

चिंतन से जानें स्व की परिभाषा

हमारी स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के इस आनंद और उत्साह से भरे पुण्य पर्व पर, हर्षोल्लासपूर्वक विभिन्न आयोजनों को संपन्न करने के साथ ही हमको अंतर्मुख होकर यह विचार भी करना चाहिए कि हमारी स्वतंत्रता का प्रयोजन यदि भारत के जीवन में स्व की अभिव्यक्ति से होने वाला है, तो वह भारत का स्व क्या है? विश्व जीवन में भारत के योगदान के उस प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए हमको भारत को किस प्रकार शक्तिशाली बनाना होगा? इन कार्यों को संपन्न करने के लिए हमारे कर्तव्य क्या हैं? उसका निर्वाह करने के लिए समाज को कैसे तैयार किया जाए? 1947 में हमने खुद को प्राण प्रिय भारतवर्ष का जो युगादर्श व तदनुरूप उसका युगस्वरूप खड़ा करने के लिए महत्प्रयासपूर्वक स्वाधीन कर लिया, वह कार्य पूर्ण करने हेतु यह चिंतन तथा हम सबके कर्तव्य के दिशा की स्पष्टता आवश्यक है.

विविधता में है एकता

भारतवर्ष की सनातन दृष्टि, चिंतन, संस्कृति तथा विश्व में अपने आचरण द्वारा प्रेषित संदेश की यह विशेषता है कि वह प्रत्यक्षानुभूत विज्ञानसिद्ध सत्य पर आधारित समग्र, एकात्म वह स्वाभाविक ही सर्वसमावेशी है. विविधता को वह अलगाव नहीं, एकात्मता की अभिव्यक्ति मात्र मानती है. वहां एक होने के लिए एक सा होना अविहित है. सबको एक जैसा रंग देना, उसकी अपनी जड़ों से दूर करना कलह व बंटवारे को जन्म देता है, अपनापन अपनी विशिष्टता पर पक्का रहकर भी अन्यों की विशिष्टताओं का आदर करते हुए सबको एक सूत्र में पिरोकर संगठित एक समाज के रूप में खड़ा करता है. मां भारती की भक्ति हम सबको उसके पुत्रों के नाते जोड़ती है. हमारी सनातन संस्कृति हमें सुसंस्कृत, सद्भावना व आत्मीयतापूर्ण आचरण का ज्ञान देती है. मन की पवित्रता से लेकर पर्यावरण की शुद्धता तक को बनाने बढ़ाने का ज्ञान देती है. प्राचीन काल से हमारी स्मृति में चलते आए हमारे सबके समान पराक्रमी शीलसंपन्न पूर्वजों के आदर्श हमारा पथनिर्देश कर ही रहे हैं. हम अपनी इस समान थाती को अपनाकर, अपनी विशिष्टताओं के सहित, परन्तु उनके संकुचित स्वार्थ व भेदभावों को संपूर्ण रूप से त्याग कर, स्वयं केवल देशहित को ही समस्त क्रियाकलापों का आधार बनाएं. संपूर्ण समाज को हम इसी रूप में खड़ा करें, यह समय की अनिवार्यता है, समाज की स्वाभाविक अवस्था भी!

स्वाधीनता की सुरक्षा

काल के प्रवाह में प्राचीन समय से चलते आए समाज में रूढ़ि-कुरीतियों की बीमारी, जाति, पंथ, भाषा, प्रांत आदि के भेदभाव, लोकेषणा, वित्तेषणा के चलते खड़े होने वाले क्षुद्र स्वार्थ इत्यादि का मन-वचन-कर्म से संपूर्ण उच्चाटन करने के लिए, प्रबोधन के साथ-साथ स्वयं को आचरण के उदाहरण के रूप में ढालना होगा. अपनी स्वाधीनता की सुरक्षा करने का बल केवल वही समाज धारण करता है जो समतायुक्त व शोषण मुक्त हो. समाज को भ्रमित कर अथवा भड़काकर अथवा आपस में लड़ाकर स्वार्थ का उल्लू सीधा करना चाहने वालों अथवा द्वेष की आग को ठंडा करना चाहने वाली षड्यंत्रकारी मंडलियां देश में व देश के बाहर से भी सक्रिय हैं. उन्हें यत्किंचित भी अवसर अथवा प्रश्रय न मिल पाए, ऐसा सजग, सुसंगठित, सामर्थ्यवान समाज ही स्वस्थ समाज होता है. आपस में सद्भावना के साथ समाज का नित्य परस्पर संपर्क तथा नित्य परस्पर संवाद फिर से स्थापित करने होंगे.

स्वतंत्र व प्रजातांत्रिक देश में नागरिकों को अपने प्रतिनिधि चुनकर देने होते हैं. देश का समग्र हित, प्रत्याशी की योग्यता, तथा दलों की विचारधारा का समन्वय करने का विवेक, कानून, संविधान तथा नागरिक अनुशासन की सामान्य जानकारी व उनके आस्थापूर्वक पालन का स्वभाव, यह प्रजातांत्रिक रचना के सफलता की अत्यावश्यक पूर्वशर्त है. राजनीतिक हथकंडों के चलते इसमें आया क्षरण हम सबके सामने है. आपस के विवादों में अपनी वीरता को सिद्ध करने के लिए बरता जाने वाला वाणी असंयम (जो अब समाज माध्यमों में शिष्टाचार बनते जा रहा है) भी एक प्रमुख कारण है. नेतृवर्ग सहित हम सभी को ऐसे आचरण से दूर होकर नागरिकता का अनुशासन व कानून की मर्यादा की पालना व सन्मान का वातावरण बनाना पड़ेगा. खुद को तथा संपूर्ण समाज को इस प्रकार योग्य बनाए बिना विश्व में कहीं भी किसी भी प्रकार का परिवर्तन न आया, न यशस्वी हुआ. स्व के आधार पर स्वतंत्र देश का युगानुकुल तंत्र, प्रचलित तंत्र की उपयोगी बातों को देशानुकूल बनाकर स्वीकार करते हुए करना है तो समाज में स्व का स्पष्ट ज्ञान, विशुद्ध देशभक्ति, व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय अनुशासन तथा एकात्मता का चतुरंग सामर्थ्य चाहिए. तभी भौतिक ज्ञान, कौशल व गुणवत्ता, प्रशासन व शासन की अनुकूलता इत्यादि सहायक होते हैं.

स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव हम सभी के लिए कठोर तथा सतत परिश्रम से पाई उस स्थिति का उत्सव है, जिसमें संकल्पबद्ध होकर उतने ही त्याग व परिश्रम से, हमें स्व आधारित युगानुकुल तंत्र के निर्माण द्वारा भारत को परम वैभव संपन्न बनाना है. आइए, उस तपोपथ पर हर्षोल्लासपूर्वक संगठित, स्पष्ट तथा दृढ़भाव से हम अपनी गति बढ़ाएं.

स्वाधीनता का अमृत महोत्सव – समरस समाज से ही बनेगा सशक्त भारत

 - दत्तात्रेय होसबालेसरकार्यवाहराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

आज जब देश की स्वाधीनता को ७५ वर्ष हो रहे हैं तो इस अवसर पर देश का हर नागरिक उल्लासित है. हमारे देश ने तमाम व्यवधानों और संकटों को पार करते हुए इन ७५ वर्षों की यात्रा तय की है. यह यात्रा अपने आप में रोमांचित करने वाली है. आज जब हमारे देश की स्वाधीनता को ७५ वर्ष हो रहे हैं तो देश की उपलब्धियांचुनौतियाँ सभी हमारे सामने हैं. कैसे एक राष्ट्र ने स्वतंत्र होते ही विभाजन जैसी त्रासदी का सामना किया और विभाजन के कारण हुई हिंसा का दंश झेला. इसके तुरंत बाद सीमा पर आक्रमण का सामना कियापरन्तु ये चुनौतियाँ हमारे राष्ट्र के सामर्थ्य को हरा नहीं पायीं. हमारा राष्ट्र इन चुनौतियों का सामना करते हुए अपने लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करता रहा. आज हम केवल कल्पना कर सकते हैं कि कैसे हमारे देश के नागरिकों ने विभाजन और आक्रमण के दुःख झेलने के बाद १९५२ में लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व को मनाया और भारत में लोकतान्त्रिक सरकार की स्थापना की.

यह भारतवासियों का सामर्थ्य और इच्छाशक्ति ही थीजिसने १९४७ के बाद लगातार भारत के छूटे हुए हिस्से गोवादादरा एवं नगर हवेलीहैदराबाद और पुड्डुचेरी को फिर भारत भूमि में मिलाने का प्रयास जारी रखा और अंत में नागरिक प्रयासों से लक्ष्य की प्राप्ति की. कई बार यह प्रश्न आता है कि एक राष्ट्र जिसको राजनीतिक स्वतंत्रता केवल कुछ वर्षों पूर्व मिली होइतना जल्दी कैसे कर सकता हैइसको समझने के लिए हमें भारत के समाज को समझना होगा. भारत का समाज सभी प्रकार के आक्रमण और संकट को सहते हुए भी अपने एकता के सूत्र को नहीं भूला. यदि भारत के स्वतंत्रता संग्राम को समझने का प्रयास करेंगे तो पाएंगे कि संघर्ष के पदचिन्ह नगरोंग्रामोंजंगलोंपहाड़ों व तटीय क्षेत्रों हर जगह मिलते हैं. चाहे संथाल का विद्रोह हो या दक्षिण के वीरों का सशस्त्र संघर्षआपको सभी संघर्षों में एक ही भाव मिलेगा. सभी लोग किसी भी कीमत पर स्वाधीनता चाहते थे और वो यह स्वाधीनता केवल अपने लिए ही नहींअपितु अपने समाज और सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए चाहते थे.

स्वाधीनता के लिए भारतीय समाज की व्याकुलता इतनी थी कि वह इसके लिए हर प्रकार के त्याग और हर प्रकार के मार्ग पर चलने को इच्छुक थे. यही कारण है कि भारत की स्वतंत्रता के लिए लन्दनयूएसजापान हर जगह से प्रयास हुए. लन्दन स्थित इंडिया हाउस तो भारतीय स्वाधीनता का एक प्रमुख केंद्र बन गया था.

भारत का स्वाधीनता आन्दोलन इतना व्यापक था कि उसने भौगोलिकआर्थिक और सामाजिक सभी विभाजनों के परे जाकर भारत के जनमानस को एक किया. इसके लिए किसी एक का नाम लेना बेमानी होगा क्योंकि भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में अनेकों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी. इनमें से कुछ का नाम हम जानते हैं और कुछ का नाम नहीं जानते हैं. यह एक आन्दोलन थाजिसके असंख्य नायक थे. मगर हर नायक का मकसद एक ही था.

यही कारण है कि स्वाधीनता के बाद देश को परम वैभव की ओर ले जाने का भाव देश की जनता के मन में था और यह इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व पर निर्भर नहीं था. इसी कारण जब देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर हमले का प्रयासआपातकाल के रूप में हुआ तो देश की जनता ने उसकी सम्हाल की और स्वयं ही संघर्ष किया.

आज जब हमारी स्वाधीनता को ७५ वर्ष हो रहे हैं तो हमें यह भी विचार करना होगा कि स्वाधीनता के शताब्दी वर्ष तक हमारे लक्ष्य क्या होंगेआज जब सम्पूर्ण विश्व कोरोना और वैश्विक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है तो एक राष्ट्र के रूप में हमारे क्या लक्ष्य होने चाहियेंइसमें कोई संदेह नहीं कि पिछला दशक भारत के लिए अनेकों उपलब्धियों से भरपूर रहा है. चाहे वह भारत के नागरिकों को मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करने का विषय होजिसमें स्वास्थ्यआवास और वित्तीय समावेशन का विषय होयह सब यही परिलक्षित करता है कि भारत का समाज और नागरिक सशक्त हो रहा है. यह भारत की मेधा शक्ति ही हैजिसने कोरोना के समयसबसे कम समय में सबसे सस्ती और सबसे सुरक्षित वैक्सीन का निर्माण किया. जिसने पूरे विश्व की सहायता की और करोड़ों जीवन की रक्षा की.

इन सभी बातों के बाद भीभारतीय समाज और एक राष्ट्र के रूप में हमें कई आंतरिक और बाह्य संकटों का न केवल सामना करना हैअपितु उसका समाधान भी ढूँढना है. भारत को अभी भी समरसता के लिए और प्रयास करने होंगे क्योंकि समाज जितना समरस होगाउतना सशक्त होगा. इसलिए इस पर और भी कार्य करने की आवश्यकता है. आज भारतीय अर्थव्यवस्था तमाम संकटों के बाद भी आगे बढ़ रही हैमगर भारत की बढ़ी आबादी की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इसे और तेजी से प्रगति करनी होगी. इसके लिए आवश्यक है कि हम भारतीय उद्योगों और उपक्रमों को बढ़ावा दें. इसके बिना हम भारत की रोजगार की अपेक्षा को पूरा नहीं कर पाएंगे. भारत सही मायने में तभी सशक्त होगाजब भारत स्वावलंबी होगा.

भारत की स्वाधीनता को जब आज ७५ वर्ष पूरे हो रहे हैं तो यह आवश्यक है कि हम विचार करें कि क्या भारत के नीति प्रतिष्ठानवर्तमान के भारत की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के अनुरूप हैं. अगर वह नहीं हैं तो उसमे परिवर्तन कैसे हो सकता हैइस पर भी विचार की आवश्यकता है. आज हम बहुत सी ऐसी व्यवस्था देखते हैंजिसमें एक साधारण आदमी अपने को असहज और असमर्थ पाता हैचाहे वह आज की न्यायिक व्यवस्था हो या राजनीतिक व्यवस्था. ये एक साधारण आदमी की पहुंच में सहजता और सुलभता से कैसे पहुंचेइस पर विचार करने की आवश्यकता है.

भारत वैश्विक चुनौतियों का सामना तभी कर सकता हैजब उसकी आंतरिक व्यवस्था मजबूत हो और आंतरिक व्यवस्था न केवल आर्थिक या न केवल सामाजिक सशक्तिकरण पर निर्भर है. भारत की आंतरिक व्यवस्था का समाधान आर्थिक और सामाजिक दोनों चुनौतियों के समाधान में निहित है.