स्वाधीनता
का अमृत महोत्सव जनजातीय वीर स्वतंत्रता सेनानियों को एक अरण्यांजलि है. जनमानस
में स्वतंत्रता के उस भाव को जागृत करना है, जिसके लिए अनगिनत जनजाति वीर योद्धाओं ने
अपना सर्वस्व समर्पित किया. उनकी इस शौर्यगाथा को प्रबुद्ध जनमानस तक पहुंचाने का
श्रेष्ठ माध्यम लेखन कार्य ही है.
जनजातीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास
भारतीय सीमाओं का अध्ययन करें तो स्पष्ट होता है कि इन सीमाओं पर
निवास करने वाला समू जनजातीय समाज ही था. जब-जब आक्रांताओं ने भारत में प्रवेश
करने का प्रयास किया, उनका सामना पहली रक्षा पंक्ति में खड़े वनवासियों से
होता था. आक्रमणकारी अलेक्जेन्डर का भारत में प्रवेश और सिबई, अगलासोई, मल्लस जैसी जनजातियों के साथ ‘युद्ध से स्पष्ट’ समझा जा सकता है. वनवासियों की
आरंभिक क्रांति आगे चल कर स्वाधीनता आंदोलन बनी. भारत के जंगलों में ऐसे सैकड़ों –
हजारों नायक रहे, जिन्होंने स्वाधीनता के लिये
अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया.
औपनिवेशिक आक्रांताओं के विरूद्ध जो क्रांतिकारी हुए, अमृत
महोत्सव में ऐसे गुमनाम जनजातीय नायकों का स्मरण करना है. जिन्हें इतिहास में कोई
स्थान नहीं दिया गया. जिसमें प्रथम क्रांतिकारी तिलका मांझी, टंट्या भील, सीताराम
कंवर, खाज्या नायक, रघुनाथ सिंह मंडलोई,
भीमा नायक, सुरेन्द्र साय, बिरसा मुण्डा, मंषु ओझा, हीरालाल
चाँदरी, दिलराज सिंह गोंड, राव अमान
सिंह गोंड, शिवराज सिंह गोंड, रणजोत
सिंह गोंड, निहाल सिंह कोरकू, राजा
ढिल्लन शाह गोंड, राजा महिपाल सिंह गोंड, राजा गंगाधर गोंड, राजा अर्जुन सिंह गोंड, देवीसिंह गोंड, भगवान सिंह गोंड, मोरगो मांझी, उम्मेर सिंह गोंड, परशुराम गोंड, बीरसिंह मांझी, सिदू
मुर्मू, जोधनसिंह गोंड, लल्लन गोंड,
सरवर सिंह गोंड, दुलारे गोंड, दल्ला गोंड, राजा अमान सिंह गोंड, बकरू भाऊ गोंड, गुलाब पुढारी, इमरत
भोई उरपाती, अमरू भोई, सहरा भोई,
झंका भोई, टापरू भोई, लोटिया
भोई, इमरत भोई कोंडावाला, इमरत भोई,
गंजन सिंह कोरकू, बिरजू भोई और बादल भोई
इत्यादि सैकड़ों नाम हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता के आंदोलनों
का नेतृत्व किया और अपने प्राणों का बलिदान दिया.
जनजातीय समाज के अनेक वीर योद्धाओं के साथ वीरांगनाओं ने भी देश की
आजादी की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति दी, जिन्हें इतिहास में उपयुक्त स्थान नहीं
मिल पाया. जिनमें प्रमुख रूप से रानी कमलापति, मुड्डे बाई,
रानी दुर्गावाती, रैनो बाई . इन वीरांगनाओं ने
भारत के अलग-अलग हिस्सों में स्वतंत्रता संग्राम की बागडोर स्वयं संभाली थी. ऐसी
ही अनेक वीरांगनाओं की शौर्य गाथाएं हमारे इतिहासकारों ने हमारे सामने नहीं आने
दीं. भारतीय इतिहासकारों ने इन वीरांगनाओं की वीरता को हमेशा नजरअंदाज किया. आज
आवश्यकता है कि हम स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के दौरान इन वीर एवं वीरांगनाओं की
शौर्य गाथा को जनमानस तक पहुंचाएं. अमृत महोत्सव पर हम गुमनाम बलिदानियों का स्मरण
करें, जिन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया.
तिलका मांझी –
प्रथम जनजातीय स्वतंत्रता संग्राम नायक, जिन्होंने
सन् 1857 के मंगल पाण्डेय द्वारा बौरकपुर में उठी हुंकार से
भी लगभग 70 वर्ष पूर्व सन् 1784 में
अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह का शंखनाद किया था, जिसे हम
संथाल परगना/जबरा पहाडिया/हूल पहाडिया के नाम से जानते हैं. 1707 में औरंगजेब की मृत्यु उपरांत बंगाल के मुगलों/जागीरदारों/जमिदारों के बाद
उपजे ब्रिटिश शासन में जनजातियों के शोषण के खिलाफ सन् 1770 में
भीषण अकाल के दौरान विद्रोह किया. तिलका मांझी ने भागलपुर, बिहार
में रखा अंग्रेजों का खजाना लूटकर टैक्स और सूखे की मार झेल रहे जनजाति समाज में
बांट दिया. 28 वर्षीय तिलका मांझी ने 1778 में अपने कुछ साथियों के साथ ब्रिटिश टुकड़ी पर चढ़ाई की और तत्कालीन
अंग्रेज कलेक्टर, क्लिवलैण्ड को मार गिराया. 12 जनवरी, 1785 के दिन तिलका मांझी पकड़े गए. भीषण
यातनाओं को सहते हुए अंग्रेजी हुकुमत द्वारा फांसी पर चढ़ा दिए गए.
तिलका मांझी बेशक इतिहास की पुस्तकों से गुम हैं. किन्तु संथाली समाज
आज भी लोक कथाओं और गीतों में गौरव के साथ उनका स्मरण करता है. तिलका मांझी के
विद्रोह के बाद ही 1831 का सिंहभूम विद्रोह, 1855 का
संथाल विद्रोह बंगाल, बिहार की धरती पर आकार ले पाया. वर्ष 1991
में बिहार सरकार ने भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर तिलका मांझी
विश्वविद्यालय किया.
लेखक – डॉ. दीपमाला रावत, विषय
विषेषज्ञ, जनजातीय प्रकोष्ठ, राजभवन,
भोपाल
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