राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी के 93वें शहादत दिवस पर
काशी/ अमर
क्रांतिवीर राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को उनके 93वें शहादत दिवस पर याद किया गया. इस
दौरान वक्ताओं ने उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व का वर्णन किया. इसके साथ ही काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग का पुस्तकालय का नाम भी राजेन्द्र लाहिड़ी
पुस्तकालय किया गया.
भारतीय स्वाधीनता संग्राम
में काकोरी कांड का बड़ा महत्त्व है. यह पहला अवसर था, जब स्वाधीनता सेनानियों ने सरकारी खजाना लूटकर
जनता में यह विचार फैलाने में सफलता हासिल की कि क्रान्तिकारी आम जनता के नहीं, अपितु शासन के विरोधी हैं. साथ ही जनता के मन
में यह विश्वास भी जाग गया कि अंग्रेज शासन इतना नकारा है कि वह अपने खजाने की
रक्षा भी नहीं कर सकता, तो फिर वह जनता की रक्षा क्या करेगा ? इस कांड में चार क्रान्तिवीरों को मृत्युदंड दिया गया था. इनमें से एक
राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी.
कार्यक्रम में अमर शहीद
लाहिड़ी जी के बारे में चर्चा करते हुए वक्ताओं ने कहा कि राजेन्द्र जी जब जेल में
कठिन व्यायाम कर रहे थे तो जेलर ने उनसे पूछा कि अब तुम्हें मरना है, ऐसे में
अभ्यास का क्या अर्थ है. उन्होंने कहा कि मई सच्चा हिन्दू हूँ. अगले जन्म में पुनः
देश के लिए न्यौछावर होने की इच्छा है. वक्ताओं ने आगे कहा कि राजेन्द्र लाहिड़ी ने
काशी के वैचारिक व आजादी के संघर्ष को धार दी.
राजेंद्र नाथ
लाहिड़ी (संक्षेप में)
सच्चे
अर्थों में वाराणसी के क्रांतिकारी जिलापति कहे जाने वाले राजेंद्र
नाथ लाहिड़ी का जन्म 23 जून,
1901 को
ग्राम मोहनापुर (जिला पावना, वर्तमान बांग्लादेश) में
माता बसन्त कुमारी के गर्भ से हुआ था. जन्म के समय उनके पिता क्रान्तिकारी
क्षितिमोहन लाहिड़ी और बड़े भाई बंग-भंग आन्दोलन में कारावास का दंड भोग रहे थे.
मात्र नौ वर्ष की अल्पावस्था में वे अपने मामा के पास काशी आ गये. काशी में उनका सम्पर्क प्रख्यात क्रान्तिकारी
शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुआ. लाहिड़ी की फौलादी दृढ़ता, देशप्रेम, तथा निश्चय की अडिगता को
पहचान कर उन्हें क्रांतिकारियों ने अपनी अग्रिम टोली में भर्ती कर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिवोल्यूशन आर्मी पार्टी’ का बनारस का प्रभारी बना दिया. वह बलिदानी
जत्थों की गुप्त बैठकों में बुलाये जाने लगे.
उस समय क्रान्तिकारियों के
आन्दोलन को गति देने के लिए तत्काल धन की आवश्यकता थी. इसके लिए अंग्रेजी सरकार का
खजाना लूटने की योजना बनाई गई. योजना के अनुसार नौ अगस्त, 1925 को सायंकाल छह बजे लखनऊ के पास काकोरी से छूटी
आठ डाउन गाड़ी में जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया गया. काम पूरा कर सब तितर-बितर
हो गये. इसमें रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह, ठाकुर रोशनसिंह सहित 19 अन्य क्रान्तिकारियों ने भाग लिया था. पकड़े
गये सभी क्रांतिवीरों पर शासन के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने एवं खजाना लूटने का
अभियोग लगाया गया.
इस कांड में लखनऊ की विशेष
अदालत ने छह अप्रैल 1927 को निर्णय सुनाया, जिसके अन्तर्गत राजेन्द्र लाहिड़ी, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह तथा अशफाक उल्लाह को मृत्यु दंड दिया
गया. शेष तीनों को 19 दिसम्बर को फांसी दी गयी, लेकिन भयवश अंग्रेजी शासन ने राजेन्द्र लाहिड़ी
को गोंडा कारागार में 17 दिसम्बर,
1927 को
ही फांसी दे दी.
मां की स्मृति में बना दी
पारिवारिक पुस्तकालय
राजेंद्र
नाथ का बांग्ला साहित्य में गहरा अनुराग था। उन्होंने अपनी मां बसंत कुमारी की
स्मृति में एक पारिवारिक पुस्तकालय की स्थापना भी कर डाली। यही नहीं, वह कई सालों
तक 'बीएचयू
बांग्ला साहित्य परिषद के मंत्री भी थे। उनके तमाम लेख पत्रिका 'बंगवाणी
और 'शंख में
प्रकाशित हुए थे। उन्होंने बनारस से क्रांतिकारियों के हस्तलिखित पत्र 'अग्रदूत
का प्रकाशन भी शुरू किया था। वर्ष 1923 में बनारस में क्रांतिकारियों द्वारा एक गुप्त सभा बुलाई गई थी जिसमें
राजेंद्रनाथ सहित तमाम क्रांतिकारी भी शामिल हुए थे। बैठक बनारस को उत्तर भारत में
क्रांतिकारी संगठन के केंद्र के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया गया था। इस
क्रम में 1924 में शचींद्रनाथ
सान्याल के नेतृत्व में 'हिंदुस्तान
रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना भी की गई। राजेंद्र लाहिड़ी 'हिंदुस्तान
रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक सदस्य रहे। क्रांतिकारी संगठन की ओर से 'द
रिवोल्यूशनरी शीर्षक से एक पर्चा छापा गया जिसे बनारस समेत उत्तर भारत के दूसरे
शहरों में बांटा गया। काकोरी कांड के बाद दक्षिणेश्वर (कलकत्ता) में उनकी
गिरफ्तारी हो गयी। दक्षिणेश्वर बम कांड के अंतर्गत उन पर मुकदमा चलाया गया और दस
वर्ष की सजा भी सुनाई गई। इसके बाद काकोरी षड्यंत्र केस के अंतर्गत उन पर मुकदमा
चला। उस समय वह बीएचयू से एमए कर कर रहे थे। प्राथमिक शिक्षा बंगाली टोल स्कूल से
प्राप्त की थी और आज भी उनकी स्मृति में शहीद वेदी को लोग नमन करते हैं।
राजेंद्र
लाहिड़ी ने अपने पत्र में लिखा है "मेरी
मौत नहीं जाएगी व्यर्थ"
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला भवन में राजेंद्र लाहिड़ी का 15 जुलाई 1927 को लिखा
पत्र आज भी संरक्षित है। उन्होंने अपने इस अंतिम पत्र में लिखा था कि "देश की बलिवेदी पर हमारे प्राणों के चढऩे की ही आवश्यकता है। मनुष्य
मृत्यु से दुख और भय क्यों माने? वह तो
नितांत स्वाभाविक अवस्था है, उतना ही
स्वाभाविक जितना सूर्य का उदय होना। यदि यह सच है कि इतिहास पलटा खाया करता है तो
मैं समझता हूं कि मेरी मौत व्यर्थ नहीं जाएगी। सबको मेरा नमस्कार, अंतिम
नमस्कार।"
1 comment:
बहुत अच्छा और प्रेरक कार्य हुआ है।सभी संबंधित बधाई के पात्र हैं।
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