राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि भारत हमारी भोग भूमि नहीं
है. ये तो हमारी कर्मभूमि है, कर्तव्य
की भूमि है. यहां रहने वाले प्रत्येक का इस भूमि के प्रति, समाज के प्रति कर्तव्य है और वह उस संस्कृति ने निर्धारित कर
दिया है. वह किसी पंथ, संप्रदाय
और पूजा पर आधारित नहीं है. सरसंघचालक “Citizenship Debate
over NRC & CAA: Assam and Politics of History” पुस्तक
विमोचन कार्यक्रम में संबोधित कर रहे थे.
उन्होंने कहा कि सेकुलरिज्म, सोशलिज्म, डेमोक्रेसी, ये बातें
दुनिया से हमको सीखनी नहीं हैं. ये हमारी परंपरा में, हमारे खून में है. और इसलिए सबसे अधिक प्रामाणिकता से उसको
लागू करके हमारे देश ने उसको जीवंत रखा.
उन्होंने
बताया कि पहली बार मेरी प्रणव दा से भेंट हुई थी. उन्होंने ही कहा कि
धर्मनिरपेक्षता को लेकर चर्चा चल रही है. धर्मनिरपेक्षता हमें कौन सिखाएगा. हमको
दुनिया क्या सिखा सकती है, हमारा
संविधान धर्मनिरपेक्ष है. फिर उन्होंने कहा कि हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष होगो, फिर हम सेकुलर होंगे ऐसा नहीं है. हमारे संविधान के निर्माता
ही इस माइंड सेट के थे, सेकुलर
थे. इसलिए वो ऐसा बनाया. फिर कुछ देर रुककर कहा – और ये
हमारे संविधान के निर्माता पहले लोग नहीं है भारत में सेकुलर. पांच हजार वर्षों की
हमारी संस्कृति उसने हमको यही सिखाया है. दुनिया क्या सिखाएगी हमको सेकुलरिज्म.
मोहन भागवत जी ने कहा कि भाऊराव जी देवरस इंग्लैंड गए थे.
वहां राजनयिकों, सांसद, नाइटहुड
की उपाधि प्राप्त लोगों के साथ भोजन था. भोजन के समय भाषण होते हैं तो एक ने उनके
स्वागत में भाषण दिया – बड़ा
अच्छा लगता है कि भारत के साथ हमारा संबंध आया, भारत को
प्रजातंत्र हमने दिया है….वगैरह-वगैरह.
तो भाऊराव जी ने उनको कहा कि आपने सब कुछ अच्छा कहा, धन्यवाद. लेकिन एक तथ्यात्मक गलती है. ये गणतंत्र आपने नहीं
दिया. शायद हमारे यहां से वाया ग्रीक आपके यहां आया होगा. क्यों जब आपका देश नहीं
था तब भी हमारे यहां वैशाली, लिच्छवी, ऐसे अनेक गणराज्य थे.
सरसंघचालक
जी ने कहा कि सीएए और एनआरसी किसी भारतीय के नागरिक के विरूद्ध बनाया हुआ कानून
नहीं है, भारत के नागरिक मुसलमान को सीएए से कुछ नुकसान नहीं पहुंचने
वाला. राजनीतिक लाभ के लिए दोनों विषयों (सीएए-एनआरसी) को हिन्दू मुसलमान का विषय बना
दिया, यह हिन्दू मुसलमान का विषय ही नहीं है. अपने देश के नागरिक
कौन हैं, ये जानने की प्रत्येक पद्धति प्रत्येक देश में है. उसमें
एनआरसी एक पद्धति है. ये किसी के खिलाफ नहीं है.
उन्होंने कहा कि हमें दुनिया की किसी भाषा से, किसी धर्म से, किसी बात
से परहेज नहीं है क्योंकि हमारी दृष्टि वसुधैव कुटुंबकम की है. स्वदेशोभुवनत्रयः.
हमारे देश में तो कितने अलग-अलग राज्य थे, लेकिन
वीज़ा, पासपोर्ट नहीं था. यात्राएं होती थीं. हिमालय से कन्याकुमारी, कच्छ से कामरूप लोगों का आना जाना चलता था. क्योंकि व्यवस्था
की दृष्टि से राज्य है, देश है.
हमारा तो पूरा देश है, हम तो
स्वदेशोभुवनत्रयः मानते हैं. ऐसा मानने वाले हम सब लोग थे.
हमारे यहां पहले से ही पूजाओं की स्वतंत्रता है, कुछ बिगड़ता नहीं हमारा. हम भगवान को एक रूप में देखते हैं, आप किसी दूसरे रूप में देखते हैं ठीक है. अपनी भक्ति में हम
पक्के हैं, आपकी भक्ति में आप भी पक्के रहो. हमको
कोई दिक्कत नहीं है. एक-दूसरे की भाषा का आदर और सम्मान करके हम रहेंगे, एक-दूसरे की भाषाओं की सुरक्षा की भी चिंता करेंगे. यह सारी
बातें सभी कहते हैं, यह बात
आदर्श की बात के रूप में कही जाती है. लेकिन, इस आदर्श
को चरितार्थ करने वाला केवल हिंदुस्तान की परंपरागत संस्कृति का आचरण करने वाला
व्यक्ति है, ये हमारी संस्कृति है.
सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि 1930 से योजनाबद्ध रीति से मुसलमानों की संख्या बढ़ाने के प्रयास
हुए. उसका कारण जैसा बताया गया अभी कि कोई संत्रास था, इसलिए इधर आ कर यहां संख्या बढ़े इसलिए नहीं था. इकोनॉमिक
आवश्यकता थी, ऐसा नहीं है. एक योजनाबद्ध विचार था कि
जनसंख्या बढ़ाएंगे, अपना
प्रभुत्व, अपना वर्चस्व स्थापित करेंगे. और इस देश को पाकिस्तान
बनाएंगे.
यह पूरे पंजाब के बारे में था, यह सिंध
के बारे में था, यह असम के बारे में था, यह बंगाल के बारे में था. कुछ मात्रा में सत्य हो गया, भारत विखंडन हो गया पाकिस्तान बन गया. लेकिन जैसा पूरा चाहिए
था, वैसा नहीं मिला. असम नहीं मिला, बंगाल
आधा ही मिला, पंजाब आधा ही मिला. बीच में कॉरिडोर
चाहते थे, वह नहीं मिला. तो फिर जो मांग के मिला वो मिला, अब इसको कैसे लेना ऐसा भी विचार चला.
कुछ लोग पीड़ित संत्रस्त होकर आते थे. वह शरणार्थी थे, रिफ्यूजीस थे. और कुछ लोग आते थे जाने अनजाने होगा, चाहे अनचाहे होगा. लेकिन संख्या बढ़ाने का उद्देश्य लेकर आते
थे. वह संख्या बढ़े, इसलिए
उनको सहायता भी होती थी, आज भी
होती है. जितने भू-भाग पर हमारी संख्या बढ़ेगी, उतने
भू-भाग पर सब कुछ हमारे जैसा होगा. जो हमारे से अलग हैं, वह हमारी दया पर वहां रहेगा अथवा नहीं रहेगा. पाकिस्तान में
यही हुआ, बांग्लादेश में यही हुआ.
हम यह अनुभव करते हैं कि ऐसे लोग आकर यहां बसते हैं, वहां संख्या अगर बढ़ गई तो जिनकी संख्या कम हो गई उनको सदा
चिंता में रहना पड़ता है. यह भारत का अनुभव है, असम का
अनुभव है. फिर भी हमारी वृत्ति क्या है, एसिमिलेशन
होना चाहिए.
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