एक
स्वयंसेवक ने कहा – संघ
कार्य हिन्दू समाज का कार्य है. इसलिए जो आर्थिक मदद दे सकते हैं, ऐसे संघ से सहानुभूति रखने वाले लोगों से धन एकत्रित किया
जाए. अन्य स्वयंसेवक ने भी सुझाव का समर्थन करते हुए कहा कि समाज जीवन की उन्नति
हेतु चलने वाले सभी प्रकार के कार्य आखिर लोगों द्वारा दिए गए दान, अनुदान और चंदे की रकम से ही चलते हैं. अत: हमें भी इसी तरीके
से धन जुटाना चाहिए.
एक अन्य स्वयंसेवक ने इस पर आपत्ति उठाते हुए कहा कि हमारा
कार्य सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय कार्य है. इसका लोगों को बोध कराना होगा. किंतु इसके
लिए उनसे आर्थिक मदद मांगना उचित नहीं होगा. इसी बात को आगे बढ़ाते हुए अन्य
स्वयंसेवक ने कहा कि यदि हम इसे अपना ही कार्य कहते हैं तो संघ जैसे उदात्त कार्य
हेतु हम स्वयं ही अपना धन लगाकर खर्च की व्यवस्था क्यों न करें?
डॉक्टर हेडगेवार जी ने उसे अपना विचार अधिक स्पष्ट रूप से
कहने का आग्रह किया.
तब उस स्वयंसेवक ने कहा, अपने घर
में कोई धार्मिक कार्य अथवा विवाह आदि कार्य होते हैं. कोई अपनी लड़की के विवाह के
लिए चंदा एकत्रित कर धन नहीं जुटाता. इसी प्रकार संघ कार्य पर होने वाला खर्च भी, जैसे भी संभव हो, हम सभी
मिलकर वहन करें.
स्वयंसेवक खुले मन से अपने विचार व्यक्त करने लगे. एक ने
आशंका उपस्थित करते हुए कहा, यह धन
राशि संघ के कार्य हेतु एकत्र होगी. क्या, इसे हम
कार्य हेतु अपना आर्थिक सहयोग मानें? दान, अनुदान, चंदा
आर्थिक सहयोग आदि में पूर्णतया निरपेक्ष भाव से देने का भाव प्रकट नहीं होता. अपनी
घर-गृहस्थी ठीक तरह से चलाते हुए, हमें जो
संभव होता है, वही हम दान, अनुदान चंदा आदि के रूप में देते हैं. किंतु हमारा संघ कार्य
तो जीवन में सर्वश्रेष्ठ वरण करने योग्य कार्य है. वह अपना ही कार्य है, इसलिए हमें अपने व्यक्तिगत खर्चों में कटौती कर संघ कार्य
हेतु जितना अधिक दे सकें, उतना
हमें देना चाहिए, यह भावना
स्वयंसेवकों में निर्माण होनी चाहिए. अपने व्यक्तिगत जीवन में भी धन-सम्पत्ति की
ओर देखने का योग्य दृष्टिकोण हमें स्वीकार करना चाहिए.
मुक्त चिंतन के चलते स्वयंसेवक अपने अपने विचार व्यक्त कर रहे
थे. डॉक्टर जी ने सबके विचारों को सुनने के बाद कहा, कृतज्ञता
और निरपेक्षता की भावना से गुरु दक्षिणा समर्पण की पद्धति भारत में प्राचीनकाल में
प्रचलित थी. संघ कार्य करते समय धन संबंधी हमें अपेक्षित भावना गुरु दक्षिणा की इस
संकल्पना में प्रकट होती है. हमें भी वही पद्धति स्वीकार करनी चाहिए. डॉक्टर जी के
इस कथन से सभी स्वयंसेवकों के विचार को एक नई दिशा मिली और विशुद्ध भावना से ‘गुरुदक्षिणा’ समर्पण
का विचार सभी स्वयंसेवकों के हृदय में बस गया.
दो दिन बाद ही व्यास पूर्णिमा थी. गुरु पूजन और गुरु दक्षिणा
समर्पण हेतु परम्परा से चला आ रहा, यह पावन
दिवस सर्वदृष्टि से उचित था. इसलिए डॉक्टर जी ने कहा कि इस दिन सुबह ही स्नान आदि
विधि पूर्णकर हम सारे स्वयंसेवक एकत्रित आएंगे और श्री गुरु पूर्णिमा व श्री गुरु
दक्षिणा का उत्सव मनाएंगे. डॉक्टर जी की यह सूचना सुनते ही घर लौटते समय
स्वयंसेवकों के मन में विचार-चक्र घूमने लगा. परसों हम गुरु के नाते किसकी पूजा
करेंगे? स्वयंसेवकों का गुरु कौन होगा? स्वाभाविकतया
सबके मन में यह विचार आया कि डॉक्टर जी के सिवा हमारा गुरु कौन हो सकता है? हम परसों मनाए जाने वाले गुरु पूजन उत्सव में उन्हीं का पूजन
करेंगे. कुछ स्वयंसेवकों के विचार में, राष्ट्रगुरु
तो समर्थ रामदास स्वामी हैं. प्रार्थना के बाद नित्य हम उनकी जय जयकार करते हैं.
अत: समर्थ रामदास जी के छायाचित्र की पूजा करना उचित रहेगा. उन्हीं दिनों अण्णा
सोहनी नामक एक कार्यकर्ता शाखा में उत्ताम शारीरिक शिक्षक के रूप में प्रसिद्ध थे, उनकी शिक्षा से हमारी शारीरिक क्षमता और विश्वास में वृद्धि
होती है, अत: क्यों न उन्हें ही गुरु के रूप में पूजा जाए? अनेक प्रकार की विचार तरंगें स्वयंसेवकों के मन में उठने
लगीं.
व्यास पूर्णिमा के दिन प्रात:काल सभी स्वयंसेवक निर्धारित समय
पर डॉक्टर जी के घर एकत्रित हुए. ध्वजारोहण, ध्वज
प्रणाम के बाद स्वयंसेवक अपने अपने स्थान पर बैठ गए. व्यक्तिगत गीत हुआ और उसके
बाद डॉक्टर जी भाषण देने के लिए खड़े हुए. अपने भाषण में उन्होंने कहा कि संघ किसी
भी जीवित व्यक्ति को गुरु न मानते हुए अपने परम पवित्र भगवा ध्वज को ही अपना गुरु
मानता है. व्यक्ति चाहे जितना ही श्रेष्ठ क्यों न हो, वह सदा अविचल-अडिग उसी स्थिति में रहेगा – इसकी कोई गारंटी नहीं. श्रेष्ठ व्यक्ति में भी कोई न कोई
अपूर्णता या कमी रह सकती है. सिद्धांत ही नित्य अडिग बना रह सकता है. भगवा ध्वज ही
संघ के सैद्धांतिक विचारों का प्रतीक है. इस ध्वज की ओर देखते ही अपने राष्ट्र का
उज्ज्वल इतिहास, अपनी श्रेष्ठ संस्कृति और दिव्य दर्शन
हमारी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है. जिस ध्वज की ओर देखते ही अंत:करण में
स्फूर्ति का संचार होने लगता है, वही भगवा
ध्वज अपने संघ कार्य के सिद्धांतों का प्रतीक है. इसलिए वह हमारा गुरु है. आज हम
उसी का पूजन करें और उसे ही अपनी गुरुदक्षिणा समर्पित करें.
कार्यक्रम बड़े उत्साह से सम्पन्न हुआ और इसके साथ ही भगवा
ध्वज को अपना गुरु और आदर्श मानने की पद्धति शुरु हुई. इस प्रथम गुरु पूजा उत्सव
में कुल 84 रु. श्रीगुरु दक्षिणा के रूप में एकत्रित हुए.
श्रीगुरुदक्षिणा का उपयोग केवल संघ कार्य हेतु ही हो, अपने व्यक्तिगत कार्य के लिए उसमें से एक भी पैसा उपयोग में
नहीं लाया जाए. इसकी चिंता स्वयं डॉक्टर जी किया करते. वही आदत स्वयंसेवकों में भी
निर्माण हुई. इस प्रकार आत्मनिर्भर होकर संघ कार्य करने की पद्धति संघ में प्रचलित
हुई.
(पुस्तक- संघ कार्यपद्धति का विकास)
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