- रमेश शर्मा
पूरी दुनिया में भारत का अतीत विशिष्ट है. शोध अनुसंधान और
सांस्कृतिक विरासत में ही नहीं, अपितु
आक्रांताओं के अत्याचार, दासत्व
की लंबी अवधि और स्वतंत्रता संघर्ष की आहुतियों में भी. लगभग हजार वर्ष के संघर्ष
और अपने प्राणों की आहुति देने वालों के आंकड़े करोड़ों में हैं. उनमें अधिकांश का
उल्लेख तक नहीं. संघर्ष में 1857 की
क्रांति का इतिहास ऐसा ही है, जिसमें
लाखों सैनिक बलिदान हुये. क्रांति के दमन के लिये सामुदायिक सिर कलम किये गए, गांव के गांव जलाए गए. इनका
संदर्भ तो आता है, लेकिन इन
बलिदानियों का विवरण कहीं नहीं मिलता. संभव है इनका विवरण उन लाखों दस्तावेजों में
हो जो अभी पढ़े तक नहीं गए.
क्रांति के आरंभ होने की तिथि अलग-अलग इतिहासकार अलग-अलग
मानते हैं. कुछ इतिहासकार क्रांति के आरंभ होने की तिथि बंगाल इन्फैन्ट्री के
सिपाही मंगल पांडे के विद्रोह से मानते हैं, यह तिथि 29 मार्च, 1857 है. तो
कुछ इतिहासकार 10 मई, 1857 मानते
हैं. इस तिथि को मेरठ इन्फैन्ट्री के सिपाहियों ने दिल्ली कूच किया था. हालांकि, मार्च से मई तक प्रतिदिन कुछ न कुछ घटनाएं घटी हैं. अप्रैल
में मंगल पांडे सहित अनेक सैनिकों को फांसी दे गई थी. इन तमाम तनाव के चलते 6 मई को बंगाल की वह बटालियन भंग कर दी गई थी, जिसमें मंगल पांडे सिपाही थे. लेकिन अधिकांश इतिहासकार
क्रांति के आरंभ की तिथि नौ मई, 1857 मानते
हैं. इस दिन मेरठ इन्फैन्ट्री के 85 घुड़सवार
सिपाहियों ने विद्रोह का बिगुल बजाया था. इन सबका कोर्ट मार्शल हुआ. बस, इसके साथ ही इन्फैन्ट्री के अधिकांश सिपाहियों ने हथियार उठा
लिये, छावनी पदस्थ अंग्रेज अफसरों को बंदी बना लिया और अगले दिन 10 मई को दिल्ली कूच कर दिया था.
भारत की स्वतंत्रता के लिये अब तक हुए संघर्षों में सबसे
व्यापक था, जिसमें भारत के हर हिस्से से अंग्रेजों
के विरुद्ध आवाज उठी थी. यह केवल सैनिकों भर का संघर्ष न था. इसमें हर वर्ग और हर
क्षेत्र का व्यक्ति जुड़ा था. इन सबके अपने-अपने कारण थे. अंग्रेजों ने कदम दर कदम
अपने पैर जमाए, सत्ता पर काबिज हुए और भारत में
भारतीयों का दमन शुरु किया.
आज अतीत की घटनाएं हमारे सामने हैं. हम एक-एक घटना की समीक्षा
कर सकते हैं. यदि संपूर्ण इतिहास पर समग्र दृष्टि डालें तो अंग्रेजों की क्रमबद्ध
कुटिलता का आभास होगा. उन्होंने पहले चरण में व्यापार की अनुमति ली, फिर व्यापार में कुछ रियायतें. इसके बाद रियासतों के दरबार
में अपना स्थान बनाया, फिर
स्वयं की सुरक्षा के नाम पर सुरक्षा कर्मी नियुक्त करने की अनुमति ली. फिर
रियासतों अंदरूनी कलह में हस्तक्षेप आरंभ किया. रियासतों के उत्तराधिकार में
हस्तक्षेप आरंभ किया और धीरे-धीरे रियासतों पर कब्जा करना आरंभ किया. उन्होंने
भारतीय शासकों को पेंशन देकर किनारे करके सीधे अपना शासन स्थापित किया. अंग्रेजों
का हमला मध्यकाल के हमलों से एक कदम आगे था. मध्यकाल में अब तक हुए हमलों का आधार
लूट, धर्म और सत्ता स्थापित करना था. लेकिन अंग्रेजों का हमला एक
कदम आगे था. अंग्रेजों का उद्देश्य लूट, सत्ता और
अपने धर्म की स्थापना तो थी ही साथ ही सामाजिक हमला भी था. उन्होंने समाज की जीवन
शैली में बलपूर्वक बदलाव आरंभ कर दिये थे. उन्होंने 1850 में हिन्दू उत्तराधिकार कानून बनाया. जो क्षेत्र सीधे कंपनी
के अधिकार में थे, वहां
संपत्ति उत्तराधिकार उन्हीं को मिलता जो ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए थे.
अंग्रेजों ने जो सेना गठित की उसमें 85 प्रतिशत
सैनिक भारतीय थे, लेकिन
उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार था. उनका कोई सम्मान नहीं था. उन दिनों भारत में
कुटीर उद्योगों का जाल बिछा था. स्थानीय आवश्यकता की प्रत्येक वस्तु का उत्पादन
स्थानीय स्तर पर होता था. इससे एक नमक को छोड़कर शेष सभी गांव की जरूरतें गांव में
ही पूरी हो जाती थीं. यहां तक कि औषधि निर्माण भी स्थानीय स्तर पर होता था.
अंग्रेजों ने इस सब को तबाह कर दिया था. इंग्लैंड में बना सामान खपाया जाने लगा.
इससे आजीविका की समस्या खड़ी हुई. राजस्व वसूलने और टेक्स बढ़ाने के नये-नये बहाने
खोजे गए. अंग्रेजों ने अपने कानून भारतीय समाज पर ही लागू न किये थे, बल्कि राजाओं पर भी लागू कर दिये थे. अंग्रेजों ने 1854 में एक दत्तक उत्तराधिकार कानून लागू किया, इसमें यदि किसी शासक की अपनी संतान नहीं होती थी तो वह किसी
दत्तक संतान को उत्तराधिकारी नहीं बना सकता था. वह रियासत सीधे ईस्ट इंडिया कंपनी
के अधिकार में चली जाती थी. यह सब चल ही रहा था कि भारत में एक रायफल आई, जिसके कारतूस को मुँह से खोलना होता है. यह रायफल 1956 में भारत आई जो 1853 में
निर्मित हुई थी. इस रायफल के साथ यह बात फैली कि इसमें डाले जाने वाले कारतूस के
कवर में सुअर की चर्बी और गाय के मांस का पुट है. इसी का सबसे पहला विरोध बंगाल
इन्फैन्ट्री में मंगल पांडे ने किया था. कुछ सिपाही साथ आए. अंग्रेजों ने
क्रांतिकारी मंगल पाण्डे और उनके साथियों को फाँसी दी. इसके साथ इन्फैन्ट्री में
दमन शुरु हुआ. लेकिन अंग्रेजों का दमन सफल न हो पाया. असंतोष बढ़ता गया. बंगाल
इन्फैन्ट्री की बात देश भर में फैलने लगी. न केवल छावनियों में अपितु समाज के अन्य
वर्गों में भी. छावनियों में सुगबुगाहट शुरु हो गयी. इसके साथ अंग्रेजों के
विरुद्ध जन जागरण आरंभ हो गया. समाज में गुप्त बैठकें आरंभ हो गयीं जो लोग
अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे, उन्हें
सहायता देने की रणनीति पर विचार होने लगा. इसी की शुरुआत मेरठ से हुई.
वह नौ मई का दिन था. मेरठ इन्फैन्ट्री में घुड़सवार बटालियन
थी, जिसमें कुल 90 सिपाही
थे. इनमें से 85 ने परेड में हिस्सा लेने से इंकार कर
दिया, वे बंदी बना लिये गए. इसका विद्रोह हुआ और अन्य सिपाहियों ने
विद्रोह आरंभ कर दिया. पूरे शहर में सिपाही फैल गए, कोतवाली
पर कब्जा कर लिया गया. कोतवाल धनसिंह के नेतृत्व में एक समूह ने जेल पर हमला बोला और वहां कैद 836 कैदियों
को छुड़ा लिया. दस मई को क्रांतिकारियों ने दिल्ली कूच किया. 11 को दिल्ली घेर ली गई. 12 मई को
दिल्ली पर अधिकार करके अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की बादशाहत घोषित कर दी
गई.
यह खबर पूरे देश में फैली, जिसकी
प्रतिक्रिया लखनऊ, भोपाल, मालवा, कानपुर, बरेली आदि सहित अन्य स्थानों पर हुई. समाज और सैनिक साथ-साथ
निकले. न जाति का भेद रहा, न धर्म
का, न राजा का भेद था न सेवक का. यदि लखनऊ की बेगम और झांसी की
रानी हाथ में तलवार लेकर मैदान में आईं तो कानपुर की नगर वधु ने भी कंधे से कंधा
मिलाकर क्रांति युद्ध में हिस्सा लिया. इसी प्रकार क्रांतिकारियों का जो समूह
दिल्ली पहुँचा था, उसमें
अधिकांश हिन्दू थे. फिर भी सर्वसम्मति से मुगल बादशाह को स्वीकार किया था. इसका
अर्थ यह है कि यह क्रांति धर्म जाति, वर्ग और
क्षेत्र सब प्रकार की सीमाओं से बहुत ऊपर थी.
पर, अंग्रेजों
ने हार नहीं मानी. उन्होंने योजना से पहले इस संगठित अभियान में दरारें डालीं, कुछ को लालच से तोड़ा. और क्रांति का दमन आरंभ किया. दिल्ली
में बादशाहत ज्यादा न चल सकी. मात्र साढ़े चार माह बाद 21 सितम्बर, 1857 को
अंग्रेजों ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया. इसके बाद देश के विभिन्न भागों में
दमन आरंभ हुआ और लगभग डेढ़ वर्ष में क्रांति का पूर्णतया दमन हो गया. अंग्रेजों
द्वारा क्रांति के दमन की कहानियाँ क्रूरता और आतंक से भरी हैं.
अवध, मालवा, गोंडवाना, बुन्देलखण्ड, और रूहेलखंड आदि में इस क्रांति की अग्नि सबसे प्रबल रही.
अंग्रेजों का दमन इन्हीं इलाकों में सबसे अधिक हुआ. दिल्ली और उसके आसपास की
बस्तियों में गाँव के गाँव जलाए गए. गांव वालों को पकड़ कर सामूहिक हत्याएं की
गयीं. जिन ग्राम वासियों पर क्रांतिकारियों को सहयोग देने का संदेह था, वहां गांव और खेतों में आग लगा दी गई. लोग अपने प्राण बचाने
और पेट भरने के लिए भागने लगे. लोग भुखमरी से प्राण देने लगे. संयोग से इस क्रांति
से ठीक एक वर्ष पहले देश में अवर्षा की स्थिति थी, इस कारण
फसलें यूं भी कमजोर रहीं. उस पर अंग्रेजों का आतंक और फसलों और गांव में आग लगाने
से तबाही. यह दमन लगभग छह वर्षों तक चला. लाखों करोड़ो लोगों ने भागते भागते प्राण
दे दिये. क्रांति प्रभावित गांवों में आज भी एक कहावत प्रचलित है “छप्पन का भूखा”. वस्तुतः
वह लगातार छह वर्षों तक सूखा नहीं था, बल्कि
अंग्रेजों के आतंक से कृत्रिम भुखमरी थी. जिसमें वे ही क्षेत्र प्रभावित थे, या भुखमरी का शिकार हुए जो क्रांति में अगुआ थे. जो रियासतें
अंग्रेजों के साथ थीं, वहां
इतनी वीभत्स स्थिति नहीं थी, खेती हो
रही थी. मौत की विभीषिका केवल वहीं थीं, जिन
क्षेत्रों ने क्रांति में हिस्सा लिया था.
विद्रोह में हिस्सा लेने वालों की कुल संख्या अठारह से बीस
लाख मानी जाती है. इसमें लगभग आठ लाख वे सैनिक थे, जिन्होंने
देश के किसी न किसी स्थान पर क्रांति में हिस्सा लिया था. लगभग एक लाख वे पंडे
पुजारी थे जो कमल और रोटी का संकेत लेकर गांव-गांव घूमे थे. जिन्होंने जमींदारों, किलेदारों, माल
गुजारों और स्थानीय राज प्रतिनिधियों को तैयार किया था. क्रांति के दमन के बाद
इनमें कोई जीवित नहीं बचा. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अंग्रेजों और उनके
एजेंटों ने लगभग सात से आठ लाख लोगों की हत्या की, जबकि
इतने ही लोग गुमनामी में मौत का शिकार हुए. इसके अतिरिक्त लगभग एक करोड़ लोग वे
हैं जो इन छह वर्षों में भूख प्यास का शिकार होकर मौत के मुँह में चले गए. ये लोग
प्रकृति या अवर्षा से खेती के अभाव से नहीं, बल्कि
अंग्रेजों के आतंक से उजड़ी खेती के कारण भुखमरी का शिकार हुए.
इतिहास के पन्नों में उन हुतात्माओं का विवरण तो मिलता है
जिन्होंने क्रांति का नेतृत्व किया, सीधा
मैदान में आकर युद्ध किया. लेकिन उन योद्धाओं का विवरण नहीं, जिन्होंने क्रांति में सिपाही की भूमिका निभाई या क्रांति में
सहयोग करते करते अपने प्राणों का उत्सर्ग किया. निःसंदेह उनकी भूमिका, उनका बलिदान भी प्रणम्य है. आज देशवासियों के पास स्वतंत्रता
है, स्वाधीनता का शुभ्र प्रकाश है. लेकिन एक स्मरण उन असंख्य
बलिदानियों के लिये अवश्य होना चाहिए जो गुमनामी में खो गए हैं.
स्रोत - विश्व संवाद केन्द्र, भारत
No comments:
Post a Comment