कुण्डा | विश्व संवाद केन्द्र काशी के तत्वावधान में प्रचार
विभाग कुण्डा द्वारा देवर्षि नारद जयन्ती पर "वैश्विक महामारी
काल में सकारात्मक पत्रकारिता की भूमिका" संगोष्ठी का आयोजन
किया गया| संगोष्ठी के मुख्य वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, पूर्वी उत्तर प्रदेश के
क्षेत्र प्रचार प्रमुख नरेन्द्र सिंह जी ने कहा कि भारत में जब आधुनिक पत्रकारिता
प्रारंभ हुई, तब हमारे पूर्वजों
ने इसके लिए दैवीय अधिष्ठान की खोज प्रारंभ कर दी। उनकी वह तलाश तीनों लोक में
भ्रमण करने वाले और कल्याणकारी समाचारों का संचार करने वाले देवर्षि नारद पर जाकर
पूरी हुई।
उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि भारत के प्रथम हिंदी समाचार-पत्र ‘उदन्त
मार्तण्ड’ के प्रकाशन के लिए संपादक पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने देवर्षि नारद जयंती
(30 मई, 1826 / ज्येष्ठ
कृष्ण द्वितीया) की तिथि का ही चयन किया। हिंदी पत्रकारिता की आधारशिला रखने वाले
पंडित जुगलकिशोर शुक्ल ने उदन्त मार्तण्ड के प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर आनंद
व्यक्त करते हुए लिखा कि आद्य पत्रकार देवर्षि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह
पत्रिका प्रारंभ होने जा रही है। ऐसा नहीं है कि
पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने ही पत्रकारिता के अधिष्ठात्रा देवता के रूप में देवर्षि
नारद को मान्यता दी, अपितु अन्य प्रारम्भिक व्यक्तियों/संस्थाओं ने भी उनको ही संचार का
प्रेरणास्रोत माना।
उन्होंने आगे कहा कि हमारे यहां सन् 1940 के आस-पास पत्रकारिता की शिक्षा
बाकायदा शुरू हुई। लेकिन पत्रकारिता का जो दूसरा या तीसरा इंस्टीट्यूट खुला था, नागपुर में, वह एक क्रिश्चिन
कॉलेज था। उसका नाम है इस्लाब कॉलेज। उस कॉलेज के बाहर नारद जी की एक मूर्ति लगाई
गई थी।
इसी तरह 1948 में जब दादा साहब आप्टे ने भारतीय भाषाओं की प्रथम संवाद समिति (न्यूज एजेंसी) ‘हिंदुस्थान समाचार’ शुरू की थी, तब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल ने हिंदुस्थान समाचार को जो पत्र लिखा था, उसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि देवर्षि नारद पत्रकारिता के पितामह हैं। पत्रकारिता उन्हीं से शुरू होती है। हमने दो-तीन उदाहरण इसलिए दिए हैं, क्योंकि भारत में एक वर्ग ऐसा है, जो सदैव भारतीय परंपरा का विरोध करता है। देवर्षि नारद को पत्रकारिता का आदर्श मानने पर वह विरोध ही नहीं करता, अपितु देवर्षि नारद का उपहास भी उड़ाता है। इसके लिए वह जुमला उछालता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पत्रकारिता का ‘भगवाकरण’ करने का प्रयास कर रहा है। इस वर्ग ने त्याग और समर्पण के प्रतीक ‘भगवा’ को गाली की तरह उपयोग करना प्रारंभ किया है। इससे ही इनकी मानसिक और वैचारिक क्षुद्रता का परिचय मिल जाता है। बहरहाल, उपरोक्त उदाहरणों से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि आरएसएस ने देवर्षि नारद को पत्रकारिता का आदर्श या आद्य पत्रकार घोषित नहीं किया है, बल्कि भारत में प्रारंभ से ही पत्रकारिता विद्या से जुड़े महानुभावों ने देवर्षि नारद को स्वाभाविक ही अपने आदर्श के रूप में स्वीकार कर लिया था। क्योंकि यह भारतीय परंपरा है कि हमारे प्रत्येक कार्यक्षेत्र के लिए एक दैवीय अधिष्ठान है और जब हम वह कार्य शुरू करते हैं तो उस अधिष्ठात्रा देवता/देवी का स्मरण करते हैं। पत्रकारिता क्षेत्र के भारतीय मानस ने तो देवर्षि नारद को सहज स्वीकार कर ही लिया है। जिन्हें देवर्षि नारद के नाम से चिढ़ होती है, उनकी मानसिक अवस्था के बारे में सहज कल्पना की जा सकती है। उनका आचरण देखकर तो यही प्रतीत होता है कि भारतीय ज्ञान-परंपरा में उनकी आस्था नहीं है। अब तो प्रत्येक वर्ष देवर्षि नारद जयंती के अवसर पर देशभर में अनेक जगह महत्वपूर्ण आयोजन होते हैं। नारदीय पत्रकारिता का स्मरण किया जाता है।
देवर्षि नारद को संचार के आदर्श के रूप में अपना रही नयी पीढ़ी
क्षेत्र प्रचार प्रमुख ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में आई जागरूकता का प्रभाव दिखना प्रारंभ हो गया है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाली नयी पीढ़ी भी अब देवर्षि नारद को संचार के
आदर्श के रूप में अपना रही है। देवी अहिल्या
विश्वविद्यालय (डीएविवि) के पत्रकारिता विभाग के बाहर दीवार पर युवा कार्टूनिस्टों
ने देवर्षि नारद का चित्र बनाया है,
जिसमें उन्हें पत्रकार के रूप में प्रदर्शित किया है। संभवत: वे युवा
पत्रकारिता के विद्यार्थी ही रहे होंगे। डीएविवि जाना हुआ, तब वह चित्र देखा, बहुत आकर्षक और
प्रभावी था। इसी तरह एशिया के प्रथम पत्रकारिता विश्वविद्यालय माखनलाल चतुर्वेदी
राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर देवर्षि नारद का
चित्र एवं उनके भक्ति सूत्र उकेरे गए हैं। विश्वविद्यालय के द्वार पर प्रदर्शित
नारद भक्ति सूत्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। दरअसल,
उन सूत्रों में पत्रकारिता के आधारभूत सिद्धांत शामिल हैं। ये सूत्र
पत्रकारिता के विद्यार्थियों को दिशा देने वाले हैं। पहला सूत्र लिखा है- ‘तल्लक्षणानि
वच्यन्ते नानामतभेदात।’ अर्थात् मतों में विभिन्नता एवं अनेकता है। ‘विचारों में
विभिन्नता और उनका सम्मान’ यह पत्रकारिता का मूल सिद्धांत है। इसी तरह दूसरा है-
‘तद्विहीनं जाराणामिव।’ अर्थात् वास्तविकता (पूर्ण सत्य) की अनुपस्थिति घातक है।
अकसर हम देखते हैं कि पत्रकार जल्दबाजी में आधी-अधूरी जानकारी पर समाचार बना देते
हैं। उसके कितने घातक परिणाम आते हैं,
सबको कल्पना है। इसलिए यह सूत्र सिखाता है कि समाचार में सत्य की अनुपस्थिति
नहीं होनी चाहिए। पूर्ण जानकारी प्राप्त करके ही समाचार प्रकाशन करना चाहिए। एक और
सूत्र को देखें- ‘दु:संग: सर्वथैव त्याज्य:।’ अर्थात् हर हाल में बुराई त्याग करने
योग्य है। उसका प्रतिपालन या प्रचार-प्रसार नहीं करना चाहिए। देवर्षि नारद के
संपूर्ण संचार का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि वह लोककल्याण के लिए
संवाद का सृजन करते थे। देवर्षि नारद सही अर्थों में पत्रकारिता के अधिष्ठात्रा
हैं।
कार्यक्रम में विशिष्ट वक्ता के रूप में वरिष्ठ पत्रकारद्वय अरविन्द दूबे एवं शील सिंह ने भी अपना विचार व्यक्त किया| संयोजन शैलेन्द्र द्विवेदी एवं संचालन सुरेश मिश्र ने किया|
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