इतिहास के आईने में हर एक क्षण
बेशकीमती होता है. अपने साथ कोई न कोई ऐसी बात रखता है, जिससे
आने वाली पीढ़ी उसे याद रख सके. साल 1989 इतिहास में दर्ज एक ऐसा ही साल
था, जब लोकतांत्रिक मूल्यों के विषय में हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि
समूचे विश्व में चर्चाएं जारी थीं. यह वही साल था, जब पूर्वी जर्मनी में
कम्युनिस्ट पार्टी का पतन होने के साथ ही बर्लिन की दीवार गिरा दी गई और इसके साथ
ही पूर्वी तथा पश्चिमी जर्मनी के एकीकरण की शुरुआत हो चुकी थी.
यह वही
साल 1989 था, जब दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद वाली
सरकार ने पहली बार राजनीतिक बंदियों की रिहाई शुरू की थी जो एक साल बाद नेल्सन
मंडेला की रिहाई के बाद समाप्त हुई. साल 1989 में ही हिंदुस्तान में हुए आम
चुनाव में पहली बार किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था.
कुल
मिलाकर देखें तो, साल 1989 में
हिंदुस्तान ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व में लोकतंत्र का
वास्तविक रूप दिखाई दे रहा था. लेकिन इसी साल चीन में लोकतंत्र की ऐसी हत्या की गई
कि पूरी दुनिया स्तब्ध रह गयी थी.
दरअसल, अप्रैल 1989 में चीन
की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और सुधारवादी नेता हू याओबांग की मृत्यु हो गई
थी. हू याओबांग चीन के रुढ़िवादियों और सरकार की आर्थिक और राजनीतिक नीति के विरोध
में थे और हारने के कारण उन्हें पद से हटा दिया गया था.
हू
याओबांग की छवि पूरे देश में एक महानतम सुधार-उदारवादी नेता के रूप में थी.
लोकप्रिय नेता की मृत्यु के बाद चीनी छात्रों ने उन्हीं की याद में 17 अप्रैल
को बीजिंग के तियानमेन चौक पर शोक सभा आयोजित की थी. इस शोक सभा में छात्रों की
संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी एवं तानाशाही समाप्त करने तथा अधिक स्वायतत्ता और
स्वतंत्रता देने की मांग भी छात्रों के एजेंडे में शामिल हो गई.
17 अप्रैल को आयोजित शोक सभा को छात्रों सहित स्थानीय लोगों का
भी सहयोग प्राप्त हुआ और यह सभा कब आंदोलन में बदल गई पता ही नहीं चला. शुरुआत में
जिस सभा में थोड़ी सी संख्या में सिर्फ़ छात्र थे, वहाँ अब अन्य छात्रों और
स्थानीय लोगों के सहयोग के बाद छात्र ‘आंदोलनकारी’ हो गए थे.
आंदोलनकारियों
की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी. पूरा तियानमेन चौक ‘जन-शक्ति’ से भर चुका था. 10 लाख से
अधिक प्रदर्शनकारी राजनीतिक आज़ादी की मांग को लेकर तियानमेन चौक पर इकट्ठा हो
चुके थे. इस आंदोलन को चीन के वामपंथी शासन के इतिहास में सबसे बड़ा राजनीतिक
प्रदर्शन कहा जाता है, यह प्रदर्शन कई शहरों और
विश्वविद्यालयों तक फैल गया था. आंदोलनकारी छात्र तानाशाही समाप्त करने और
स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र की मांग कर रहे थे.
प्रदर्शनकारियों
की बढ़ती संख्या के कारण हालात सरकार के काबू से बाहर हो गए थे. शीर्ष नेता देंग
श्याओपिंग ने चीन में मार्शल लॉ लागू कर दिया और सेना को कूच करने का आदेश भी थमा
दिया, लेकिन छात्रों की संख्या और साहस इतना अधिक था कि छात्रों ने
बैरीकेट्स लगाकर सैनिकों का आगे बढ़ने से रोक दिया. ऐसी स्थिति में अधिकारियों को
मजबूरन सेना को वापस आने का आदेश देना पड़ा.
चूंकि
चीन की सत्ता कम्युनिस्टों के हाथ में थी, इसलिए वे सत्ता का विरोध सहन
नहीं कर सके और 3 जून को एक बार फिर सेना बीजिंग में
प्रवेश कर जाती है. सेना के बीजिंग में प्रवेश की ख़बर आंदोलन में शामिल छात्रों
तक पहुंच चुकी थी, ऐसे में कुछ छात्रों ने आगे बढ़कर सेना
का विरोध करने का निश्चय किया. चूंकि इन छात्रों ने पिछली बार बैरीकेट्स लगाकर
सेना को वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया था, इसलिए उन्हें लगा कि वे इस बार
भी कामयाब हो जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
इस बार
सेना के हाथों में आदेश था, जनता के विरोध को किसी भी तरीके से
कुचलने का. चीनी सेना लगातार आगे बढ़ रही थी, छात्र भी बढ़ चढ़कर विरोध जता
रहे थे. इसी दौरान मक्सीडी अपार्टमेंट के पास छात्रों का विरोध प्रदर्शन तीव्र
होता देख सेना ने गोलीबारी शुरू कर दी, जिससे 36 प्रदर्शनकारी
छात्र कम्युनिस्ट सरकार की खूनी होली का शिकार हो गए.
36 छात्रों की निर्मम हत्या के बाद आंदोलन कुछ क्षण के शांत तो
हुआ, लेकिन यह तूफ़ान से पूर्व की शांति थी. अभी सेना मक्सीडी
अपार्टमेंट के पास ही रुक गई थी. अगली सुबह आंदोलन एक बार फिर तीव्र हो गया.
छात्रों के आंदोलन के इस रूप को यदि प्रचंड कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगा, लेकिन यह
प्रचंडता कम्युनिस्ट सरकार और उसके सैनिकों को नागवार गुजरी 4 जून को
सेना एक बार फिर टैंकों के साथ आगे बढ़ रही थी. लेकिन आंदोलनकारी छात्र पीछे हटने
को तैयार नहीं थे. सेना के टैंकों ने आगे बढ़ते हुए छात्रों को रौंदना शुरू कर
दिया, एक के बाद एक लाशें बिछती चली गईं. लेकिन बेदर्द कम्युनिस्ट
सरकार और उसके सैनिकों का दिल नहीं पिघला.
साल 1989 के जून
माह की 3 और 4 तारीख़ को कम्युनिस्ट सरकार ने
तियानमेन चौक पर छात्रों के खून से ‘लाल सलाम’ लिख दिया था. कम्युनिस्ट सरकार ने
इस घिनौनी हरकत के बाद जो मरने वालों की संख्या के आंकड़े जारी किए गए, वे बेहद
ही हैरान करने वाले थे.
यूँ तो 3 जून को
तो सिर्फ़ 36 लोग मारे गए थे. लेकिन चार जून की रात बीजिंग की सड़कों में
टैंक दौड़ रहे थे, गोलियों की तड़-तड़ करती आवाज़ें बता
रहीं थीं कि कम्युनिस्टों के ‘लाल सलाम’ ने हजारों लोगों को मौतों के घाट उतार
दिया है, लेकिन चीनी सरकार लगातार कह रही थी कि मरने वालों की संख्या
मात्र 200 है.
हालांकि, चीन का
यह झूठ दुनिया के सामने तब आया, जब ब्रिटिश पुरालेख ने पिछले साल एक
रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा था कि 4 जून की रात बीजिंग के तियानमेन
चौक में 10,000 से ज्यादा लोग कम्युनिस्ट सरकार की खूनी होली के शिकार हो गए
थे. इतना ही नहीं गत वर्ष टोरंटो यूनिवर्सिटी और हांगकांग यूनिवर्सिटी ने भी एक
दस्तावेज प्रकाशित किया था. जिसमें दावा किया गया कि चीन ने इस खूनी होली को
दुनिया से छिपाने के लिए 3,200 से ज्यादा सबूत मिटा दिए थे.
चीन ने
पूरी दुनिया को यही बताया कि वहां सिर्फ़ 200 जानें ही गईं थीं. तियानमेन चौक
की घटना के 31 साल हो चुके हैं. लेकिन आज भी अगर चीनी मीडिया या विदेशी
मीडिया उस जगह पर जाने का विचार नहीं कर सकती, क्योंकि चीन ने तियानमेन चौक
में मीडिया के जाने पर पूरी तरह से रोक लगा रखी है. आज चीन में तियानमेन चौक संबंध
में बात करना भी अपराध श्रेणी में आता है. चीनी सरकार नहीं चाहती कि कोई भी इस
मुद्दे पर बात करे, यही कारण है कि चीन की नई पीढ़ी को
उसकी सरकार द्वारा किए गए दुर्दांत घटनाक्रम की जानकारी नहीं है.
चाइनाज़
सर्च फ़ॉर सिक्योरिटी के लेखक और चीनी मामलों के जानकार एंड्रयू नाथन कहते हैं कि
“तियानमेन चौक की घटना के बाद चीन की कम्युनिस्ट सरकार और मजबूत हो गई है.
तियानमेन चौक में आंदोलनकारियों के एकत्रित होने के बाद से चीन ने अपने पुलिस
सिस्टम में आमूल चूल परिवर्तन किए हैं. एंड्र्यू आगे कहते हैं कि ‘तियानमेन चौक
में हुई हिंसा के बाद जिस तरह से अनेक देशों ने चीन पर प्रतिबंध लगाए उससे लगा कि
चीन की साम्यवादी सरकार टूट जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.’
चीन में
हत्याओं का दौर वहां कम्युनिस्टों के हाथों में सत्ता आते ही शुरू हो गया था जो अब
तक बदस्तूर जारी है, कभी माओ तो कभी देंग श्याओपिंग तो कभी
शी जिनपिंग सभी ने सिर्फ़ तानाशाही और हत्याओं के बल पर ही अपनी ताक़त को मजबूत
किया है जो कम्युनिस्ट विचारधारा का मूल उद्देश्य है.
आज चीन
में लोकतंत्र के नाम पर कुछ भी नहीं बचा है. शी जिनपिंग वहां के राष्ट्रपति हैं जो
अपनी आख़िरी साँसों तक राष्ट्रपति रहेंगे. वहाँ न तो अब चुनावों का कोई महत्व रह
गया है और न ही अभिव्यक्ति का. चीन की कम्युनिस्ट सरकार न तो वहां किसी को अपनी
आज़ादी से कुछ भी पढ़ने देती है और न ही कुछ भी बोलने की आज़ादी देती. यदि कोई भी
व्यक्ति चीनी सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की कोशिश करता है तो उसका वही हश्र
होता है जो तीन दशक पहले तियानमेन चौक में हुआ था.
स्रोत- विश्व संवाद केन्द्र, भारत
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