- डॉ0 मंजु
द्विवेदी
भारत के महान
पुरूषों में महामना जी का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। आपका जन्म 25 दिसम्बर 1861 में प्रयाग के श्रीमदभागवत्
के प्रकाण्ड विद्वान पंडित प्रेमदत्त चतुर्वेदी के परिवार में हुआ। इनके माता का
नाम मूना देवी और पिता का नाम ब्रजनाथ था।
महामना के
चरित्र और व्यक्तित्व पर अगर समग्र दृष्टि डाली जाय तो एक अजीब सी अनुभूति होती है
तथा स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि राष्ट्रवादियों की कतार में महामना प्रथम
पंक्ति में खड़े नजर आते हैं। महामना जी मानवता के पुंज थे। वे संकीर्ण और
साम्प्रदायिक विचारों से बहुत घृणा करते थे, उनके समक्ष
जब-जब हिन्दू-मुस्लिम झगड़े हुए उन्हें भारी दुःख हुआ। यह सच है कि महामना जी
सनातनी हिन्दू थे; और उन्हें प्राचीन रीति-रिवाजों से
भारी लगाव था, परन्तु वे राष्ट्र भक्ति के प्रति अगाध
श्रद्धा रखते थे। राष्ट्रीयता की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है कि
"राष्ट्रीयता उस भावना का नाम है जो देश के सम्पूर्ण निवासियों के हृदय में
देश-हित की लालसा में व्याप रही हो, जिसके आगे अन्य
भावों की श्रेणी नीची ही रहती हो।" (मालवीय जी के
लेख-पृष्ठ संख्या 99-महामना मदन मोहन मालवीय : जीवन और
नेतृत्व-मुकुट बिहारी लाल, पृष्ठ संख्या-600) "दिसम्बर सन् 1886 में मालवीय जी
कांग्रेस में शरीक हुए तथा सन् 1937 तक उसके
वार्षिक अधिवेशनों में करीब-करीब नियमित रूप से उपस्थित होते रहे और जीवन के अन्त
तक वे उससे सम्बन्धित रहे। 1886 में नव गठित
कांग्रेस के कोलकाता में आयोजित दूसरे वार्षिक सत्र में प्रेरणादायक भाषण देकर
राजनीतिक परिदृश्य में उभरे। वे चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष थे, 1909 में (लाहौर) 1918 और 1930 में (दिल्ली) 1932 में (कोलकाता) में
कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। स्वाधीनता आन्दोलन में गरम दल और नरम दल के उदारवादियों
एवं राष्ट्रवादियों के बीच सेतु का काम किया। महामना जी ने कांग्रेस की नीति-रीति
का समय-समय पर विरोध किया परन्तु कभी कांग्रेस को छोड़ने का प्रयास नहीं किया|
गोलमेज सम्मेलन की असफलता के बाद 1932 में राष्ट्रीय एकता सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता महामना जी ने की थी और 1934 में मैकडोनाल्ड के साम्प्रदायिक पंचाट का विरोध किया था। पंडित मालवीय
उतने उग्र भले न हों, जितना कुछ लोग उन्हें देखना चाहते
थे, पर वे निःसन्देह गतिशील और प्रगतिशील थे। अपनी
योग्यता से अपनी मातृभूमि और देशवासियों की भरसक सेवा की प्रखर कामना से वे
स्पन्दित थे और शायद ही कोई दावा कर सके कि उन्होंने हिन्दुस्थान के सार्वजनिक
जीवन के इतने बहुल क्षेत्रों में उनसे अधिक सेवा की।" प्राक्कथन-(महामना मदन मोहन मालवीय : जीवन और
नेतृत्व-मुकुट बिहारी लाल, पृष्ठ संख्या-4-5)
महामना के
स्वाधीनता से स्वतन्त्रता की ओर कर्म एवं विचार की परस्पर विवेचना की जाय तो
सम्पूर्ण तथ्यों की प्रकाशमान स्वरूप रूपी कुंजी उपर्युक्त सामाजिक समरसता के रूप
में मानस में अंकित हो जाती है। जो इस देश की उत्कृष्ट संस्कृति है और वह
समन्वयवादी परम्परा का पूरा सम्पुट है। नानाप्रकार की भाषा, धर्म, समुदाय, वर्ण, जाति से सम्पूरित आनन्द-कानन भूमि यह भारत भूमि है। आज सम्पूर्ण धर्म, दर्शन, संस्कृति, कला, इतिहास प्राचीन-अर्वाचीन विमर्श सनातन धर्म के इर्द-गिर्द घूमता नजर आ रहा
है। दिग्भ्रमित लोकमत को ध्यान में रखते हुए मालवीय जी अपने जीवन में सनातन धर्म
को आत्मसात करते हुए वह सृष्टि विद्या की परिभाषाओं पर ही आश्रित थे। महाभारत, श्रीमद्भागवत् का पाठ वह प्रतिदिन करते थे। वह सामाजिक और राजनीतिक जीवन
में आने से पहले ही सनातन धर्म सभा का आयोजन किया था, उसी
समय सारे देश में बहुतेरे राष्ट्रभक्त ग्रामसुधार और हरिजन आन्दोलन का वीड़ा उठाये
हुए थे; उसी समय में महामना जी अछूतों के वास्तविक ठोस
सुधार में लगे हुए थे। यह एक अनूठा संगम था, इसी कारण
वे स्वमेव महामना से महामानव के पथ पर अग्रसर हो गये थे। महामना ने अद्भुत, अलौकिक ज्ञान, उत्थान और मुक्ति पथ की ओर
परमेश्वरमय शान्ति स्थापित करने के लक्ष्य से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की
स्थापना की ताकि धर्मनिष्ठ विद्यार्थी सच्चे रूप से देशभक्त तैयार हो सकें। महामना
का व्यक्तित्व अथाह सागर की गहराई के समान अनन्त एवं अद्भुत है। वह किसी भी तथ्य
को बिना प्रमाण के नहीं कहते थे, उनके हर कथन-करणीय में
वेदों में वर्णित श्लोक, मंत्र एवं दृष्टान्त का ही
आधार था।
सनातन धर्म की
स्थिति उस हंस के समान है जो सरोवर के मध्य से दूसरा पैर उठाने के लिए पहले पैर को
स्थिर रखता है। महामना जी का जीवन इसी बात का प्रमाण है अर्थात् उनके जीवन में यह
सत्य भाष्वर रूप में दिखाई देता है। मालवीय जी के हृदय की अपार करूणा, दया और उदारता की अनुगूंज सुनाई पड़ती है। ‘‘हिन्दू
समाज और हिन्दू धर्म की रक्षा, कीर्ति और अभिवृद्धि के
लिए एवं तथाकथित अस्पृश्यों के अभ्युदय और निःश्रेयस के लिए छुआछूत की प्रथा का
धर्मानुकूल परिशोधन मालवीय जी नितान्त आवश्यक समझते थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्णों से सम्बन्धित व्यक्तियों
का कर्त्तव्य है कि शास्त्र विहित शील, सदाचार और
भगवद्भक्ति द्वारा वे स्वयं द्विजत्व के वास्तविक अधिकारी बनने का प्रयत्न करें और
अन्त्यज पर्यन्त सब शूद्रों को उसका उपदेश दें, उनके
साथ आत्मौपम्य व्यवहार करें तथा उनके उत्कर्ष में उनकी यथोचित सहायता करें। यही
सनातन धर्म है, यही सनातन धर्म का आदेश है, इसी में सनातन धर्म का गौरव है।" (मदन
मोहन मालवीय जीवन और नेतृत्व-मुकुट बिहारी लाल पृष्ठ संख्या-522-523) देदीप्यमान बुद्धित्व से सुशोभित महामानव पण्डित मदन मोहन मालवीय जी
शरीरधारी धर्म और धर्म की रक्षा के लिए समुद्यत समाज सेवा ही उनका जीवन प्राण था।
दीन-दुखियों के दुःख दूर करने में वह सदा लगे रहते थे। वह अपना स्पष्ट मत रखते हैं
कि सनातनधर्मी, आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी, सिक्ख, जैन और बौद्ध आदि सब हिन्दुओं को चाहिए
कि अपने-अपने विशेष धर्म का पालन करते हुए एक दूसरे के साथ प्रेम और आदर करें तथा
अपने सब जाति, धर्म के भाइयों को साथ लेकर जीवन कर्मफल
का अनुसरण और आनन्द पूर्वक भारत भूमि पर जीवन यापन करें।
- (लेखिका काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारत अध्ययन केन्द्र से जुड़ी हैं)
1 comment:
महामना को सादर नमन है।
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