जनवरी माह की कपकपाती ठंड. वर्ष 1924 उत्तर प्रदेश का बस्ती शहर प्लेग की चपेट में था. एक के बाद एक लोग शहर खाली करके जाने लगे. लेकिन शहर के प्रसिद्ध मुख्तार (वकील) बाबू विजय बहादुर श्रीवास्तव की पत्नी नौ माह का गर्भ लिये कहाँ जाती, उस मरघट होते शहर में आये दिन मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही थी. ऐसे ही विकट समय में 7 जनवरी को घर के पास बगीचे में बाबू विजय बहादुर की पत्नी ने अपनी तीसरी संतान को जन्म दिया. शिशु का नाम रखा गया योगेन्द्र. बालक योगेन्द्र के तोतले बोलों पर रीझती माँ अचानक कहाँ चली गई, 2 वर्ष का योगेन्द्र कुछ नहीं समझ पाया. फिर उसे पड़ोस के ही एक ब्राह्मण परिवार में बेच दिया गया, इस मान्यता के कारण कि बेच देने से बच्चा दीर्घायु होता है. दस वर्ष तक उसी ब्राह्मण के घर योगेन्द्र का खाना-पीना रहा. माँ की कमी इस बिन माँ के बालक को कभी नहीं खाली, उस ब्राम्हणी ने न केवल माँ यशोदा की भूमिका निभायी, बल्कि खूब लाड-प्यार दिया.
यह शुरुआत थी एक निश्छल कर्मयोगी के कठिन जीवन की. बेहद साधारण सा धोती-कुर्ता, कन्धे पर गमछा और झोला, उसमें एक अदद हाथ से सिली बनियान, एक धोती-एक कुर्ता और मोती जड़े अक्षरों में देशभर के कलाकारों और संस्कार भारती के कार्यकर्ताओं के फोन नम्बर और पते. इस हुलिये में प्रथम दृष्ट्या अति साधारण से दिखने वाले व्यक्ति में इतना असामान्य व्यक्तित्व छिपा हुआ है, अनुमान लगाना ही कठिन था. डगर-डगर स्नेह पुष्प विखेरते इस व्यक्ति का नाम यूँ तो योगेन्द्र था, लेकिन सब उन्हें प्यार और श्रद्धा से ‘बाबा’ ही कहकर पुकारते. इस ‘बाबा’ शब्द में न केवल परिवार के मुखिया होने का भाव छिपा है, बल्कि एक फक्कड़पन भी झलकता, सांसारिक मोहमाया से दूर साधनारत कर्मयोगी. आँखों में और चेहरे पर साधना का तेज साफ झलकता था. कर्मयोगी की साधना अपने पिता के मार्ग दर्शन में शुरु हुई थी. पिता जी कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ता तो थे ही, आर्य समाज से भी गहरे जुड़े हुए थे. एक दिन बाबू विजय बहादुर को पता लगा कि बस्ती में कोई शाखा लगती है तो उन्होंने योगेन्द्र से कहा, ‘देख चल वहाँ कबड्डी, कुश्ती वगैरा होती है.’ पिता की बात मान बालक योगेन्द्र वहाँ चला गया और फिर तो जैसे शाखा का ही होकर रह गया. शाखा में ही माधवराव देशमुख से भेंट हुई. सोलह साल की आयु में नाना जी देशमुख से सम्पर्क हुआ, गोरखपुर में उन प्रारम्भिक दिनों की याद करते हुए ‘बाबा’ बताते थे, रोज सुबह-सुबह चार-पाँच बजे नाना जी मुझे जगाने आ जाते थे. जगाने इसलिए ताकि भोर में उठकर पढ़ाई कर रहा हूं या नहीं. उनकी सोच समझ और विचार धारा धीरे-धीरे मेरे भीतर तक बैठने लगी.
1942 में अठारह वर्ष की उम्र में योगेन्द्र पहली बार संघ शिक्षा वर्ग में आए. वर्ग लखनऊ में लगा था. बस यहीं से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्पर्क गहन होता चला गया. नव युवक की कर्मठता और उसके भीतर छिपी राष्ट्रधर्मिता को नाना जी भलीभाँति परख चुके थे. 1945 में उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रुप में नेपाल से लगे जिला गोरखपुर के गाँव महाराज गंज भेज दिया गया. न रहने की जगह, न खाने-पीने का ठौर-ठिकाना. ठिकाना न मिला तो सड़क के किनारे एक पान के खोखे के नीचे शरण ली. उसी के पीछे ईंटों का चूल्हा बनाया और पतीले को आज के कुकर की तरह इस्तेमाल करते हुए एक डिब्बे में दाल, एक में चावल चढ़ा देते और निकल जाते संपर्क अभियान में दो-तीन घण्टे में तीन-चार घरों से संपर्क करते और लौटते तो खाना तैयार होता था. भोजन करके फिर संपर्क. सांझ ढलती, फिर रात होती. सभी अपने-अपने घरों में जाते, पान वाला भी खोखा बन्द कर घर चला जाता. तब खोखे के सामने की बेंच होती इस युवा प्रचारक का बिस्तर. कई महीने यूँ ही बेंच पर सोकर बिताये.
1943 में वाराणसी में आयोजित प्रशिक्षण शिविर में अटल विहारी बजपेयी से मुलाकात हुई. उनकी वाकपटुता और कविताओं से मन प्रभावित होता. खूब अच्छा साथ रहा. वर्ष 2000 में दिल्ली में योगेन्द्र जी के अमृत महोत्सव वर्ष के समापन समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री पद पर आसीन अटल बिहारी वाजपेयी जी के शब्द स्मरण होते हैं, ‘मेरी और योगेन्द्र जी की यात्रा एक साथ शुरु हुई थी.’ आगे राह बदल गई, मैं राजनीति की राह पर चल पड़ा और योगेन्द्र जी समाज की राह पर.
योगेन्द्र जी का पथ बहुत कठिन था, कई बार उनका मन हुआ, सब छोड़-छाड़ वापस घर चलें. तमाम आशा-निराशा के क्षण आने लगे, क्या बवाल पाल लिया. अगले ही क्षण लगा, इस ओखली में सिर तो मैंने खुद ही दिया है और फिर जुट गए अपनी पूरी ताकत के साथ.
योगेन्द्र जी अपने मार्गदर्शक नाना जी देशमुख को कैसे भूल सकते थे. जब तेज बुखार में तपते योगेन्द्र को अपने कन्धे पर लेकर डेढ़ किलोमीटर पैदल चलकर देवरिया के पडरौना स्टेशन पहुंचे थे नाना जी.
राष्ट्र सेवार्थ पूरा जीवन समर्पित करने वाले योगेन्द्र जी प्रचारक के रुप में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, प्रयाग, बरेली, बदायूँ, सीतापुर आदि जिलों में संघ कार्य के प्रसार में जुटे. लेकिन रचनाधर्मी कलाकार उनके भीतर कुलबुलाता रहा. भीतर से कुलबुलाहट पहली बार भारत-विभाजन के समय सामने आई. उसके लिए यह विभाजन मात्र भूखंड का नहीं-प्रिय मात्र भूमि का था. नाना जी के मार्गदर्शन में संवेदनशील योगेन्द्र ने विभाजन से सम्बन्धित चित्र एकत्रित किये और एक छोटी-सी प्रदर्शनी आयोजित की. जिसने भी यह प्रदर्शनी देखी भाव विहृवल हो उठा.
फिर तो ऐसे चित्र-प्रदर्शनियों का सिलसिला चल निकला. देशभक्ति भाव केन्द्रित इन प्रदर्शनियों ने जनमानस को उद्वेलित कर राष्ट्रभाव से भर दिया. शिवाजी, धर्म गंगा, जनता की पुकार, शीर्शक से कई प्रदर्शनियाँ आयोजित कीं. ऐसी ही एक प्रदर्शनी ‘इंडियाज कंट्रीब्यूशन टु द वर्ल्ड थॉट को, पद्मश्री हभिाऊ वाकणकर अमरीका ले गये. उसके बाद जलता हुआ कश्मीर, ‘संकट में गोमता’, ‘1857 की स्वाधीनता संग्राम की अमर गाथा’, ‘विदेशी षड्यंत्र’, ‘माँ की पुकार’ आदि प्रदर्शनियों ने देशभर में संवेदनशील मनों को झकझोर कर जगा दिया.
1981 में योगेन्द्र जी के प्रयोगों को नया आयाम मिला. लखनऊ में मकर संक्रांति (11 जनवरी, 1981) को कुछ कलाकारों को साथ लेकर एक नया प्रयोग आरम्भ किया – इसका नाम था – संस्कार भारती. भाउराव देवरस, माधवराव देवले, हरिभाऊ वाकणकर जैसे अधिकारियों की छत्रछाया में कलाकारों का यह नवजात संगठन पल्लवित, पुष्पित होने लगा. एक दशक के भीतर ही योगेन्द्र जी के अथक प्रयासों से संस्कार भारती देश व्यापी बन गई. कलासाधकों को अपने से जोड़ते चलने वाला यह योगी गाँव- गाँव, नगर-नगर, शहर-शहर कलाकार तलाशने लगा, उन्हें प्रेरित-प्रोत्साहित करने लगा. कितने ही उदीयमान कलाकारों को संस्कार भारती ने मंच दिया. ‘हीरों की परख जौहरी ही कर सकता है और जौहरी की पारखी नजरें योगेन्द्र जी के पास थीं.’ देशभर में संस्कारों का अलाव जगाने वाली संस्कार भारती आज विश्वव्यापी संगठन है. संस्कार भारती रुपी इस शरीर के आँख व कान, हाथ-पैर चाहे कोई हों, किन्तु आला हैं योगेन्द्र जी, सबके ‘बाबा’. वह आत्मा जिसके लिए गीता में कहा गया है अजर है, अमर है और सर्वव्यापी है. बाबा सशरीर किसी कार्यक्रम में भले ही मौजूद हों या न हों, उनकी उपस्थिति हर कार्यकर्ता महसूस करता, उसके कानों में गूँजते शब्द – हों मइया, ‘तो ताई-हाँ दीदी बोल’, देवी बता क्या बात है.
ऐसे ही थे अहर्निष साधनारत कर्मयोगी – फक्कड़ ‘बाबा’.
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