– श्रीगुरु जी (माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर)
‘‘जब हम कहते हैं कि यह हिन्दू राष्ट्र है, तो कुछ लोग
तुरन्त प्रश्न करते हैं कि जो मुसलमान और ईसाई यहाँ रहते हैं, उनके विषय में आप क्या कहते हैं? क्या वे भी यहाँ
उत्पन्न नहीं हुए? तथा यहीं उनका पालन-पोषण नहीं हुआ?
वे धर्म के परिवर्तन से ही परकीय कैसे हो गये? किन्तु निर्णायक बात तो यह है कि क्या उन्हें यह स्मरण है कि वे इस भूमि
की संतान हैं? केवल हमारे ही स्मरण रखने से क्या लाभ?
यह अनुभूति और स्मृति उन्होंने पोषित करनी चाहिए. हम इतने क्षुद्र
नहीं हैं कि यह कहने लगे कि केवल पूजा का प्रकार बदल जाने से कोई व्यक्ति उस भूमि
का पुत्र नहीं रहता. हमें ईश्वर को किसी नाम से पुकारने में आपत्ति नहीं है. हम
संघ के लोग पूर्णरूपेण हिन्दू हैं. इसलिए हममें प्रत्येक पंथ और सभी धार्मिक
विश्वासों के प्रति सम्मान का भाव है, जो अन्य पंथों के
प्रति असहिष्णु है, वह कभी भी हिन्दू नहीं हो सकता. किन्तु
अब हमारे सामने प्रश्न यह है कि जो मुसलमान और ईसाई हो गए हैं उनका भाव क्या है?
निस्संदेह वे इसी देश में पैदा हुए हैं. किन्तु क्या वे इसके प्रति
प्रामाणिक हैं? इस मिट्टी के ऋणी हैं? क्या
इस देश के प्रति, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ है, कृतज्ञ हैं? क्या वे अनुभव करते हैं कि वे इस देश और
इसकी परम्पराओं की सन्तति है और इसकी सेवा करना उनके भाग्य की धन्यता है? क्या उसकी सेवा करना वे अपना कर्तव्य मानते हैं? नहीं.
धर्म परिवर्तन (पूजा के प्रकार
परिवर्तन) के साथ ही उनकी राष्ट्र के प्रति प्रेम और भक्ति की भावना समाप्त हो गई
है. मुसलमानों ने, उनको देश से आबद्ध करने वाले सभी पूर्व पारम्परिक राष्ट्रीय सम्बन्ध-सूत्र
काटकर अलग कर दिये हैं.
‘‘हमें यह स्पष्ट करना होगा कि यहाँ निवास करने वाले अहिन्दुओं का एक
राष्ट्रधर्म अर्थात् राष्ट्रीय उत्तरदायित्व है, एक समाज-धर्म
अर्थात् समाज के प्रति कर्तव्यभाव है, एक कुलधर्म अर्थात्
अपने पूर्वजों के प्रति कर्तव्यभाव है, तथा केवल व्यक्तिगत
धर्म, व्यक्तिगत निष्ठा का पंथ, अपनी
आध्यात्मिक प्रेरणा के अनुरूप चुनने में वह स्वतंत्र हैं.’’
‘‘ईसाई, मुसलमान, हिन्दू सभी को
साथ रहना चाहिए, यह भी केवल हिन्दू ही कहता है. किसी उपासना
पद्धति से हमारा द्वेश नहीं है. परन्तु राष्ट्र के विरोध में जो भी खड़ा होगा,
वह फिर प्रत्यक्ष अपना पुत्र ही क्यों न हों, तो
अहिल्याबाई या छत्रपति शिवाजी महाराज के समान व्यवहार का आदर्श हमारे यहाँ है. तब
राष्ट्रविरोधी यदि अन्य मतावलम्बी हुआ तो उसके साथ भी वैसा ही व्यवहार करेंगे,
यह कहने में हमें हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए.’’
(संदर्भ – श्रीगुरु जी और राष्ट्र अवधारणा)
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