- दत्तात्रेय होसबाले
आज भारत
औपनिवेशिक दासता से मुक्ति का पर्व मना रहा है। समारोहों की इस श्रृंखला के बीच
जहां स्वतंत्र भारत की 75 वर्षों की यात्रा का मूल्यांकन होगा वहीं इसे पाने के
लिये चार शताब्दी से अधिक के कालखण्ड में निरंतर चले संघर्ष और बलिदान का
पुण्यस्मरण भी स्वाभाविक ही है।
भारत में
औपनिवेशिक दासता के विरुद्ध चला राष्ट्रीय
आन्दोलन “स्व” के भाव से प्रेरित था जिसका प्रकटीकरण स्वधर्म, स्वराज और स्वदेशी की त्रयी
के रूप में पूरे देश को मथ रहा था। संतों और मनीषियों के सान्निध्य से आध्यात्मिक
चेतना अंतर्धारा के रूप में आंदोलन में निरंतर प्रवाहित थी।
युगों-युगों
से भारत की आत्मा में बसा “स्व” का भाव अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ प्रकट हुआ और इन विदेशी शक्तियों को
पग-पग पर प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। इन शक्तियों ने भारत की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक
व्यवस्था को तहस-नहस किया, ग्राम स्वावलम्बन को नष्ट कर डाला। विदेशी शक्तियों द्वारा यह सर्वंकश
आक्रमण था जिसका सर्वतोमुख प्रतिकार भारत ने किया।
यूरोपीय
शक्तियों के विरुद्ध भारतीय प्रतिरोध विश्व इतिहास में अनूठा उदाहरण है। यह
बहुमुखी प्रयास था जिसमें एक ओर विदेशी आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार किया जा रहा था
तो दूसरी ओर समाज को शक्तिशाली बनाने के लिये इसमें आई विकृतियों को दूरकर सामाजिक
पुनर्रचना का काम जारी था।
देशी
रियासतों के राजा जहां अंग्रेजों का अपनी शक्ति भर प्रतिकार कर रहे थे वहीं अपने
सहज-सरल जीवन में अंग्रेजों के हस्तक्षेप और जीवनमूल्यों पर हमले के विरुद्ध
स्थान-स्थान पर जनजातीय समाज उठ खड़ा हुआ। अपने मूल्यों की रक्षा के लिये जाग उठे
इन लोगों का अंग्रेजों ने क्रूरतापूर्वक नरसंहार किया किन्तु वे संघर्ष से पीछे
नहीं हटे। 1857 में हुआ देशव्यापी स्वातंत्र्य समर इसका ही फलितार्थ था जिसमें
लाखों लोगों ने बलिदान दिया।
भारतीय
शिक्षा व्यवस्था को नष्ट करने के प्रयासों को विफल करने के लिये काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय, शांति निकेतन, गुजरात विद्यापीठ, एमडीटी हिन्दू कॉलेज तिरुनेलवेल्ली, कर्वे शिक्षण संस्था व डेक्कन एज्यूकेशन सोसाइटी तथा गुरुकुल कांगड़ी जैसे
संस्थान उठ खड़े हुए और छात्र-युवाओं में देशभक्ति का ज्वार जगाने लगे।
प्रफुल्लचन्द्र राय और जगदीश चंद्र बसु जैसे वैज्ञानिकों ने जहाँ अपनी प्रतिभा को
भारत के उत्थान के लिये समर्पित कर दिया वहीं नंदलाल बोस, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर और दादा साहब फाल्के जैसे कलाकार तथा माखनलाल चतुर्वेदी सहित प्रायः सभी राष्ट्रीय नेता
पत्रकारिता के माध्यम से जनजागरण में जुटे थे। अपनी कलाओं के माध्यम से देश को जगा
रहे थे। महर्षि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द आदि अनेक मनीषियों की आध्यात्मिक
प्रेरणा इन सबके पथप्रदर्शक के रूप में कार्यरत थी।
बंगाल में
राजनारायण बोस द्वारा हिन्दू मेलों का आयोजन, महाराष्ट्र में लोकमान्य
तिलक द्वारा गणेशोत्सव और शिवाजी उत्सव जैसे सार्वजनिक कार्यक्रम जहाँ भारत की
सांस्कृतिक जड़ों को सींच रहे थे वहीं ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले जैसे
समाज सुधारक महिला शिक्षा और समाज के वंचित वर्ग को सशक्त करने के रचनात्मक अभियान
में जुटे थे। डॉ अम्बेडकर ने समाज को संगठित होने और सामाजिक समानता पाने के लिये
संघर्ष करने का मार्ग दिखाया।
भारतीय
समाज जीवन का कोई क्षेत्र महात्मा गाँधी के प्रभाव से अछूता नहीं था। वहीं विदेशों
में रह कर भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को धार देने का काम श्यामजी कृष्ण वर्मा, लाला हरदयाल और मादाम कामा
जैसे लोगों के संरक्षण में प्रगति कर रहा था। लंदन का इंडिया हाउस भारत की
स्वतंत्रता संबंधी गतिविधियों का केन्द्र बन चुका था। क्रान्तिवीर सावरकर द्वारा
लिखा गया 1857 के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास भारतीय क्रांतिकारियों के
बीच अत्यंत लोकप्रिय था। स्वयं भगत सिंह ने इसे प्रकाशित करा कर इसकी सैकड़ों
प्रतियाँ वितरित कीं।
देश भर
में सक्रिय चार सौ से अधिक भूमिगत संगठनों में शामिल क्रांतिकारी अपनी जान हथेली
पर लेकर भारतमाता को मुक्त कराने के अभियान में लगे थे। बंगाल के क्रांतिकारी
संगठन अनुशीलन समिति की गतिविधियों में सक्रिय डॉ. हेडगेवार लोकमान्य तिलक की
प्रेरणा से कांग्रेस से जुड़े और सेन्ट्रल प्रोविंस के सचिव चुने गये। 1920 में
नागपुर में सम्पन्न राष्ट्रीय अधिवेशन की आयोजन समिति के वे उप-प्रधान थे। इस
अधिवेशन में उन्होंने अपने साथियों के साथ पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित कराने
के भरसक प्रयत्न किये किन्तु कांग्रेस नेतृत्व इसके लिये तैयार नहीं हुआ। अंततः यह
प्रस्ताव आठ वर्ष बाद लाहौर में पारित हो सका।
द्वितीय
विश्वयुद्ध के दौरान ही नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व
संभाला। उनके नेतृत्व में न केवल स्वतंत्र भारत की प्रथम सरकार का गठन हुआ अपितु
आजाद हिन्द फौज ने पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों को स्वतंत्र कराने में सफलता भी
प्राप्त की। लाल किले में आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों पर चले मुकदमे ने पूरे देश
को रोष से भर दिया। इसके साथ ही नौसेना द्वारा ब्रिटिश अधिकारियों के विरुद्ध किये
गये विद्रोह ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिये विवश कर दिया।
स्वतंत्रता
का सूर्य उगा, लेकिन विभाजन का ग्रहण उस पर लग चुका था। कठिन परिस्थिति में भी आगे बढ़ने
का हौंसला बना रहा, इसका श्रेय प्रत्येक भारतीय को जाता है जिसने सैकड़ों वर्षों की राष्ट्रीय
आकांक्षा को पूर्ण करने के लिये अपना खून-पसीना बहाया।
महर्षि
अरविन्द ने कहा था – भारत को जागना है, अपने लिये नहीं बल्कि पूरी दुनियाँ के लिये, मानवता के लिये। उनकी यह
घोषणा सत्य सिद्ध हुई जब भारत की स्वतंत्रता विश्व के अन्य देशों के स्वतंत्रता
सेनानियों के लिये प्रेरणा बन गयी। एक के बाद एक, सभी उपनिवेश स्वतंत्र होते
चले गये और ब्रिटेन का कभी न छिपने वाला सूर्य सदैव के लिये अस्त हो गया।
पुर्तगाली, डच, फ्रेंच तथा सबसे अंत में
ब्रिटिश भारत आये। सभी ने व्यापार के साथ-साथ भारतीय संस्कृति को नष्ट करने तथा
मतान्तरण करने के निरन्तर प्रयास किये। औपनिवेशिकता के विरुद्ध प्रतिकार उसी दिन
प्रारंभ हो गया था जिस दिन पहले यूरोपीय यात्री वास्को-दा-गामा ने वर्ष 1498 में
भारत की भूमि पर पाँव रखा। डचों को त्रावणकोर के महाराजा मार्तण्ड वर्मा के हाथों पराजित होकर
भारत छोड़ना पड़ा। पुर्तगाली गोवा तक सिमट कर रह गये। वर्चस्व के संघर्ष में अंततः
ब्रिटिश विजेता सिद्ध हुए जिन्होंने अपनी कुटिल नीति के बल पर भारत के आधे से कुछ
अधिक भाग पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। शेष भारत पर भारतीय शासकों का आधिपत्य बना
रहा जिनके साथ अंग्रेजों ने संधिया कर लीं। स्वतंत्रता के पश्चात इन राज्यों के
संघ के रूप में भारतीय गणतंत्र का उदय हुआ।
भारत ने
लोकतंत्र का मार्ग चुना। आज वह विश्व का सबसे बड़ा और सफल लोकतंत्र है। जिन लोगों
ने भारत के सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिये स्वतंत्रता के आन्दोलन में अपना
योगदान किया, उन्होंने ही भारत के लिये संविधान की रचना का कर्तव्य भी निभाया। यही कारण
है कि संविधान की प्रथम प्रति में चित्रों के माध्यम से रामराज्य की कल्पना और
व्यास, बुद्ध तथा महावीर जैसे भारतीयता के व्याख्याताओं को प्रदर्शित कर भारत के
सांस्कृतिक प्रवाह को अक्षुण्ण रखने की व्यवस्था की गयी।
“स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव” का यह अवसर उन बलिदानियों, देशभक्तों के प्रति कृतज्ञताज्ञापन का अवसर है जिनके त्याग और बलिदान के
कारण ही हम स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जागतिक समुदाय में अपना यथोचित स्थान
प्राप्त करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। उन अनाम वीरों, चर्चा से बाहर रह गयी घटनाओं, संस्थाओं और स्थानों, जिन्होंने स्वतंत्रता
आन्दोलन को दिशा दी और मील का पत्थर सिद्ध हुईं, का पुनरावलोकन, मूल्यांकन तथा उनसे जुड़ी
लोक स्मृतियों को सहेज कर उन्हें मुख्यधारा से परिचित कराना होगा ताकि आने वाली
पीढ़ियां जान सकें कि आज सहज उपलब्ध स्वतंत्रता के पीछे पीढ़ियों की साधना, राष्ट्रार्चन के लिये
शताब्दियों तक बहाये गये अश्रु, स्वेद और शोणित का प्रवाह है।
(लेखक वर्तमान में राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह है)
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