– अतुल पांडे
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फ़िल्म इंडस्ट्री में युद्ध और देशभक्ति पर आधारित फ़िल्में बनाने का चलन ज़ोर पकड़
रहा है. लेकिन हर निर्माता सिर्फ़ प्रचलित घटना पर ही फ़िल्म बनाना चाहता है. ऐसे
में ‘भुज’ जैसे
अनसुने या कम सुने सब्जेक्ट पर फ़िल्म बनाने का रिस्क उठाना अपने आप में एक उदाहरण
है.
फिल्म की कहानी 1971 में भारत
और पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध की है. इस दौरान पाकिस्तानी सैनिकों ने भुज एयरबेस
पर जोरदार हमला किया था, जिसके
बाद वहां पास के गांव माधापार में रहने वाली 300 महिलाओं
ने अपनी जिंदगी को दांव पर लगाकर इंडियन एयरफोर्स के रनवे की मरम्मत का कार्य किया
ताकि वहां भारतीय सैनिक मदद के लिए पहुंच सकें. भुज एयरबेस के स्क्वाड्रन लीडर
विजय कार्णिक (अजय देवगन) ने रनवे पट्टी को रिपेयर करने के लिए उन स्थानीय लोगों
प्रेरित किया था. यह फिल्म संकट की घड़ी में देश के नागरिकों और सेना के सहयोग का
स्मरण करवाती है.
1962 के भारत-चीन युद्ध के परिणाम भले ही
भारतीय सेना के पक्ष में न आए हों. लेकिन उस युद्ध में हमारी सेना की बहादुरी के
किस्सों के साथ इतिहासकारों और फ़िल्म निर्माताओं ने बखूबी जीवित रखा. 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान के पैटन टैंकों का
अकेले सामना करके बलिदान होने वाले सैनिक अब्दुल हमीद और लोंगोवाल पोस्ट पर भारतीय
सेना की एक छोटी सी टुकड़ी के बड़े दुस्साहस को भी हमारी पाठ्य पुस्तकों में कुछ ऐसा
ही मुकाम हासिल हुआ है.
1999 के कारगिल युद्ध में बलिदान हुए
सैनिकों के जोशीले और अनूठे नारे आज के दौर में देशभक्ति की फ़िल्मों के लिए
प्रेरणास्तोत्र का बन चुके हैं. इस संदर्भ में फ़िल्म “उरी” सबसे
बड़ा उदाहरण है, जिसका एक नारा ‘हाऊ इज़ द जोश’ सबसे हिट
धुनों से भी बड़ा हिट बन गया और सार्वजनिक सभाओं से लेकर खेल के मैदानों और संसद
तक में भी गूंजता रहा. इस सप्ताह रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘भुज – द प्राइड ऑफ इंडिया’, युद्ध और
देशभक्ति पर बनी फ़िल्मों की उसी कड़ी का अगला हिस्सा है. इसलिए इस फ़िल्म का
विश्लेषण एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है.
1971 के युद्ध के दौरान भुज एयरबेस पर जो
हुआ उसके बारे में शायद ही किसी ने सुना होगा. ‘भुज – द प्राइड ऑफ इंडिया’ फ़िल्म की, फ़िल्म की समीक्षा करते हुए कुछ खास पहलुओं को भी ध्यान में
रखना होगा कि यह कोविड-19 महामारी
के दौरान बनाई गई एक बड़ी युद्ध फ़िल्म है, जिसके
कुछ मुख्य अभिनेता, तारीखों
में तालमेल न बैठने की वजह से फ़िल्म से अलग हो गए थे और इन सभी चुनौतियों का सामना
करते हुए फ़िल्म को अंजाम तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी एक नवोदित निर्देशक के कंधों
पर थी.
सभी सुरक्षा बलों के लिए ‘देशभक्ति
के नारे’ ऑक्सीजन का काम करते हैं. यह सुरक्षा बल, धर्म, जाति, लिंग और सामाजिक रुतबे जैसे हर एक भेदभाव को भुला कर, अपनी जान की परवाह किए बिना दुश्मन की बंदूक के आगे निडर होकर
डटे रहते हैं. “लड़ो या मरो” के सिद्धान्त का पालन करने वाले मराठा योद्धाओं (विजय
कार्णिक) के शौर्य को फ़िल्म में विस्तार से दर्शाया है. लेकिन यह फ़िल्म सिर्फ़
भारतीय वायु सेना अधिकारियों के बारे में नहीं है, माधापुर
गांव की लगभग 300 महिलाओं की दिलेरी भी फ़िल्म का एक अहम
और दिलचस्प हिस्सा है, जिन्होंने
भुज में स्क्वाड्रन लीडर कार्णिक (फ़िल्म में अजय देवगन द्वारा अभिनीत किरदार) की
सहायता की थी. हालांकि युद्ध पृष्ठभूमि पर आधारित इस फ़िल्म का ताना-बना कुछ ऐसा है
कि जिसमें आम नागरिकों और महिला किरदारों को शामिल करने की गुंजाइश न के बराबर थी, लेकिन सोनाक्षी सिन्हा के किरदार के माध्यम से हमेशा हाशिये
पर धकेल दिये जाने वाली गांव की महिलाओं की बहादुरी को याद किया गया है, जो उस मुश्किल समय के दौरान भारतीय वायु सेना की मदद का
इकलौता जरिया थीं, जब भुज
एयरबेस के संचार और सड़क के सभी कनेक्शन काट दिए गए थे. रनछोड़ पगी इस फ़िल्म में
एक महत्वपूर्ण किरदार है, जो 1965 और 1971 युद्ध के
दौरान भारतीय सेना के लिए बहुत ज़रूरी और महत्वपूर्ण शख्सियत थे. किसी मायावी इंसान
जैसे पगी के किरदार को संजय दत्त ने निभाया है.
फ़िल्म में हल्की सी रोशनी इस मुद्दे पर भी डाली गई है कि 1971 में बांग्लादेश को आज़ाद कराने के दौरान, पश्चिमी सीमा को किस कदर नजरअंदाज किया गया था और उस इलाके
में तैनात सैनिकों को उनकी अपनी बहादुरी और किस्मत के भरोसे छोड़ दिया गया था. हर
एक सैनिक इस सच्चाई से वाकिफ़ था कि उनके बचने की संभावना न के बराबर थी क्योंकि
पाकिस्तान हर मुठभेड़ में सैकड़ों टैंक और हजारों सैनिकों भेजता था.
अब बात करते हैं अजय देवगन की, हालांकि
अज्ञात लोगों के किरदार को पर्दे
पर निभाना, इतना आसान काम नहीं है. लेकिन अजय ने न
सिर्फ़ स्क्वाड्रन लीडर कार्णिक की भूमिका के साथ न्याय किया है, बल्कि अपने दम पर इस फ़िल्म की ओर दर्शकों का ध्यान खींचने में
भी सफल रहे हैं.
युद्ध की फ़िल्मों में सहायक किरदार की भूमिका निभाने में संजय
दत्त अब माहिर हो चुके हैं. जबकि सोनाक्षी सिन्हा के किरदार को हैंडल करना
निर्देशक अभिषेक दुधैया के लिए एक खास चुनौती रहा होगा क्योंकि यह किरदार उनकी
अपनी माँ के जीवन पर आधारित है. इस फ़िल्म की लेखन टीम का हिस्सा होने के नाते
अभिषेक ने अपनी माँ के उस अनुभव को दिल से महसूस किया होगा. शरद केलकर ने एक बार
फिर साबित कर दिया कि स्क्रीन का साइज़ बड़ा हो या छोटा, शरद की मौजूदगी हर किरदार को यादगार बना देती है, जबकि छोटे पर्दे से बड़े पर्दे की ओर रुख़ करने वाले बहुत से
अभिनेता ऐसा नहीं कर पाते.
डॉग फाइट सीक्वेंस बड़े हैं, लेकिन
वास्तविक लगते हैं. लगता है कि ‘टॉप गन’ के बाद किसी ने ज़्यादा डॉग फाइट्स नहीं देखी है. हवाई हमले के
दृश्य बेहतरीन नहीं हैं, लेकिन
बुरे भी नहीं हैं. असीम बजाज की सिनेमेटोग्राफ़ी को उनका सबसे अच्छा काम नहीं कहा
जा सकता, हालांकि वीएफ़एक्स डिपार्टमेंट की मेहनत का निखार साफ़ दिखाई
देता है. भुज एक अच्छी कहानी है, हालांकि
फ़िल्म की पटकथा को और असरदार बनाया जा सकता था. डायलॉग में कविता क्षेत्र में ढलने
की उल्लेखनीय प्रवृत्ति है. संगीत एक कमी है, और फ़िल्म
में गानों की जरूरत नहीं थी.
ऐसा लगता है कि विषय की विशालता ने कहीं-कहीं अभिषेक दुधैया
को बेहतर बना दिया है, यही बात
फ़िल्म की एडिटिंग के बारे में भी कही जा सकती है. कुल मिलाकर फ़िल्म भुज, ज़्यादातर युद्ध फिल्मों की तरह एक ऐसी फ़िल्म है, जिसका सही आनंद और अनुभव उचित साउंड सिस्टम वाले थिएटर में
लिया जाना चाहिए.
अब सवाल यह कि क्या भुज की घटना, एक बेहतर फ़िल्म का रूप ले सकती थी? जवाब में मैं तो यही कहूँगा कि हाँ, बेशक ऐसा हो सकता था. लेकिन एक सच्ची और ईमानदार समीक्षा करते
समय मैं उन सभी पहलुओं और चुनौतियों पर ज़रूर गौर करूंगा, इतने पड़े पैमाने की फ़िल्म बनाते हुए जिनका सामना इसके
निर्माता और निर्देशक ने किया होगा.
स्रोत- विश्व संवाद केन्द्र, भारत
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