- पंडित जी लिखते हैं कि – अखंड भारत के आदर्श की ओर सबका रुझान होने के बाद भी अनेक लोग इसे अव्यवहारिक मानते हैं. उनकी समझ में नहीं आता कि भारत अखण्ड कैसे होगा.
- विभाजन के पूर्व तक पाकिस्तान को भी अव्यवहारिक समझा जाता था. किन्तु कुछ मुसलमानों की दृढ़ इच्छा शक्ति एवं आत्मविश्वास ने पाकिस्तान को सत्य-सृष्टि में परिणत कर दिया. क्या भारत के ३८ करोड़ (१९५२ में जनसंख्या) लोगों की दृढ़ इच्छा शक्ति आज खण्डित भारत को एक करने में समर्थ नहीं होगी?
- जयराम शुक्ल
पंडित दीनदयाल उपाध्याय
स्वतंत्र भारत के तेजस्वी, तपस्वी व
यशस्वी चिन्तकों में से एक हैं. उनके चिन्तन के मूल में लोकमंगल और राष्ट्र का
कल्याण सन्निहित है. उन्होंने राष्ट्र को धर्म, अध्यात्म
और संस्कृति का सनातन पुंज बताते हुए राजनीति की नई व्याख्या की. वे गांधी, तिलक और सुभाष की परम्परा के वाहक थे.
दलगत व सत्ता की राजनीति से ऊपर
उठकर वे वास्तव में एक ऐसे राजनीतिक दर्शन को विकसित करना चाहते थे जो भारत की
प्रकृति व परम्परा के अनुकूल हो और राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने में समर्थ
हो.
अपनी व्याख्या को उन्होंने
एकात्म मानवदर्शन का नाम दिया. यही दर्शन १९६४ में जनसंघ के ग्वालियर अधिवेशन में
अंगीकार किया गया.
पंडित जी की व्याख्याएं मौलिक
और यथार्थ के धरातल पर साकार होने वाली थीं. उनका दृढ़मत था कि बहुलतावादी देश में
मत व मन भिन्नता हो सकती है. पर इन सबके बीच राष्ट्र की एक सामान्य इच्छा नाम की
कोई चीज होती है. उसको आधार बनाकर काम किया जाए तो सर्वसामान्य व्यक्ति को लगता है
कि मेरे मन के मुताबिक कार्य हो रहा है.
‘Think
localy act globly’. यह पंडित
जी की ही अवधारणा थी जो वैश्विकरण के दौर में बार-बार दोहराई जाती रही. पंडित जी
कहते हैं – जहाँ तक शाश्वत सिद्धान्तों तथा स्थायी
सत्यों का सम्बन्ध है. हम सम्पूर्ण मानव के ज्ञान और उपलब्धियों का संकलित विचार
करें. इन तत्वों में जो हमारा है, उसे
युगानुकूल और जो बाहर का है, उसे
देशानुकूल ढालकर हम आगे चलने का विचार करें.
संस्कृति ही स्वराज का
प्राणतत्व है. संस्कृति विहीन, समाज और
राष्ट्र पतनशीलता के मार्ग को उन्मुख होता है. पंडित जी का दृढ़ मत था कि स्वराज
का स्व-संस्कृति से घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है. संस्कृति का विचार न रहा तो स्वराज की
लड़ाई स्वार्थी पदलोलुप लोगों की एक राजनीतिक लड़ाई मात्र रह जाएगी. स्वराज तभी
साकार और सार्थक होगा जब वह अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन सकेगा.
जिस दौर में विश्व में पूंजीवाद
बनाम साम्यवाद और समाजवाद का द्वंद्व चरम पर था, उसी दौर
में पंडित जी ने एकात्म मानवदर्शन को विश्व के समक्ष प्रस्तुत कर, समकालीन दार्शनिकों, चिन्तकों
व नीतिवेत्ताओं को चमत्कृत कर दिया था. यही विचार जनसंघ का व प्रकारान्तर में
भारतीय जनता पार्टी की आत्मा बना.
पंडित जी ने इस विचार को जिस
सरलता से समझाया वैसी अध्यात्म दृष्टि दुर्लभ है. एकात्म दर्शन की व्याख्या करते
हुए उन्होंने लिखा –
जीवन की विविधता अन्तमूर्त एकता
का आविष्कार है और इसलिए उनमें परस्परानुकूलता तथा परस्पर पूरकता है. बीज की एकता
ही पेड़ के मूल, तना, शाखाएं, पत्ते फूल और फल के विविध रूप में प्रकट होती है. इन सबके रंग, रूप तथा कुछ न कुछ मात्रा में गुण में भी अन्तर होता है. फिर
भी उनके बीज के साथ के एकत्व के सम्बन्ध को हम सहज पहचान सकते हैं.
यहां मैं पंडितजी के एक आलेख – अखण्ड
भारत क्यों ? का
विवेचन करूंगा. इस आलेख को
जनसंघ की उत्तरप्रदेश इकाई ने
१९५२ में एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया था.
यह आलेख पंडित जी ने तब लिखा था
जब वे महज ३७ वर्ष के थे. एक युवा मन और उसका मस्तिष्क, राष्ट्र व राष्ट्रवासियों के बारे में कैसा चिन्तन करता है, इस लेख से सहज स्पष्ट है.
अखण्ड भारत कोटि-कोटि भारतीयों
की आकांक्षा है. विखण्डन की पीड़ा आज भी हृदय में टीस रही है. एकात्म मानवदर्शन के
प्रणेता, चिन्तक और मनीषी पंडित दीनदयाल
उपाध्याय ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पांच वर्ष बाद १९५२ में अखण्ड भारत क्यों? के प्रश्न पर मार्मिक और तार्किक तरीके से इस आहत आकांक्षा को
स्वर दिया. यह भारतीय जनसंघ की स्थापना का भी वर्ष था. यह वह दौर था, जब खण्डित भारत के पाकिस्तान से लुट-पिट और बर्बाद होकर आने
वालों की वेदना से देश क्लांत था.
जिन्होंने अंग्रेज शासकों, मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ समझौते की मेज पर देश को
अंग-भंग करने के निर्णय को सहजता से स्वीकार किया. उनके लिए भारत माता के
रक्तरंजित होने की व्यथा सत्ता के सिंहासन की लालसा के आगे तुच्छ थी. लेकिन जिनके
हृदय में भारत माता की अखण्ड छवि रची बसी थी, उनके
अन्तस में शूल चुभ रहे थे.
अखण्ड भारत क्यों? में देश की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक
एकरूपता को वैदिक काल से लेकर अब तक की स्थितियों का सहज-सरल तरीके से विवेचन किया
गया है. स्वतंत्रता संग्राम के दौर में ही अंग्रेजों के संरक्षण और कांग्रेस के
तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व की सहमति से ‘पाकिस्तान’ की पटकथा कैसे तैयार हुई, ऐतिहासिक
व राजनीतिक संदर्भों के साथ तथ्यों का प्रकटीकरण किया गया है.
जिस दौर में देश के सांस्कृतिक
राष्ट्रीय विचार के लोगों पर तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठान का दमन चक्र चल रहा था.
उसी दौर में पंडित जी ने बड़ी निर्भयता के साथ लिखा – ”भारत को खण्डित करने को लेकर 3 जून, १९४७ की माउन्टबेटन योजना को कांग्रेस के सर्वोच्च नेताओं ने
स्वीकार कर लिया. रक्त बहाकर जिस देश की अखण्डता की रक्षा की गयी थी. उसी देश को
रक्तपात के भय से खण्डित कर दिया.
उन्होंने आहत मन से कहा – ”रक्त की धार से लिखा हुआ इतिहास स्याही की रेखाओं से व्यक्त
नहीं किया जा सकता. आलेख में तथ्यों और तर्कों के साथ पंडितजी उद्घाटित करते हैं – भारत को स्वतंत्रता माउन्टबेटन योजना के कारण नहीं मिली, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों, अंग्रेजों की गिरी हुई दशा तथा भारत की राष्ट्रीय जागृति के
परिणाम स्वरूप प्राप्त हुई. इसमें एक पर भी मुस्लिम मांग का प्रभाव नहीं है.
दरअसल, कांग्रेस की सत्ता पिपासा ने द्विराष्ट्र के सिद्धान्त को
दूरगामी परिणाम का आंकलन किए बगैर ही स्वीकार कर लिया. कांग्रेस की भूल या
सत्ताकांक्षा पर आहत पंडित जी लिखते हैं – कांग्रेस
के नेता यदि डटे रहते तथा भारत की जन जागृति की मदद करते तो अंग्रेज अखण्ड भारत
छोड़कर जाते और सत्ता कांग्रेस के ही हाथ में देकर जाते.
पंडित जी ने आज से कोई 65 वर्ष पहले ही भारत पाक के रिश्तों की भावी स्थिति का आंकलन कर
लिया था. आज हम उनके आंकलन की परिणति देख रहे हैं. वर्तमान में भारत में पल रहे
मुस्लिम कट्टरवाद की स्थिति व उसके परिणाम का विश्लेषण भारत विभाजन के तत्काल बाद
ही देश के सामने रख दिया था – कल तक जो
काम लीग एक संस्था के रूप में करती थी. आज वही कार्य पाकिस्तान एक राज्य के रूप
में कर रहा है. निश्चित ही समस्या का परिवर्तित स्वरूप अधिक खतरनाक है.
पाकिस्तान के निर्माण में सहायक
भारत के मुसलमानों की साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को भी पाकिस्तान से बराबर बल मिलता
रहता है तथा भारत के राष्ट्रीय क्षेत्र में साढ़े तीन करोड़ मुसलमानों की गतिविधि
किसी भी सरकार के लिए शंका का कारण बनी रहेगी.
पंडित जी की भविष्यवाणी वर्तमान
में शब्दश: चरितार्थ हो रही है. पाक पोषित और प्रेरित आतंकवादियों एक बड़ी जमात आज
भारत में पल रही है. ये वो लोग हैं जो स्वयं और जिनके अग्रज, पूर्वज भारत विभाजन के समय योजना या परिस्थितिवश पाकिस्तान
नहीं गए और आज भारतीय होते हुए भी पाकिस्तान की शुभेक्षा तब से ही पाले हुए हैं.
पाकिस्तान व वहां तैयार हो रहे आतंकवादी गिरोहों के वे भारतीय एजेन्ट बने बैठे
हैं. देश को दहलाने वाली हर आतंकी गतिविधियों में यही चेहरे उभरकर सामने आते हैं.
इन सब स्थितियों के बावजूद
चिन्तक और मनीषी पंडित दीनदयाल उपाध्याय अखण्ड भारत की आकांक्षा की ज्योति को
निरंतर प्रज्ज्वलित किए रहने की आवश्यकता बताते हैं. अखण्ड भारत को भौगोलिक सीमा
से ज्यादा सांस्कृतिक सूत्र बांध सकते हैं.
देशों के नाम पर वे टुकड़े जो
कभी भारत के अविभाज्य अंग थे, उन्हीं
को शामिल कर अखण्ड भारत की छवि निर्मित होती है. वहां हमारी सनातनी सांस्कृतिक
विरासत बिखरी पड़ी है. कोई आवश्यक नहीं कि इनके एकीकरण के लिए आक्रमण या युद्ध ही
हो, एक ऐसा वातावरण निर्मित हो जिसकी
बुनियाद में हमारी सांस्कृतिक अस्मिता रहे, जिसके
आवेग से विभाजित भारत की सीमा रेखाएं मिट जाएं और अखण्ड भारत पुन: एकाकार हो जाए.
पंडित जी लिखते हैं कि – अखंड भारत के आदर्श की ओर सबका रुझान होने के बाद भी अनेक लोग
इसे अव्यवहारिक मानते हैं. उनकी समझ में नहीं आता कि भारत अखण्ड कैसे होगा.
विभाजन के पूर्व तक पाकिस्तान को भी अव्यवहारिक समझा जाता था. किन्तु कुछ मुसलमानों की दृढ़ इच्छा शक्ति एवं आत्मविश्वास ने पाकिस्तान को सत्य-सृष्टि में परिणत कर दिया. क्या भारत के ३८ करोड़ (१९५२ में जनसंख्या) लोगों की दृढ़ इच्छा शक्ति आज खण्डित भारत को एक करने में समर्थ नहीं होगी?
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