- नरेन्द्र सहगल
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 25 जून 1975 में उस समय एक काला
अध्याय जुड़ गया, जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती
इंदिरा गांधी ने सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं, राजनीतिक शिष्टाचार तथा सामाजिक मर्यादाओं को
ताक पर रखकर मात्र अपना राजनीतिक अस्तित्व और सत्ता बचाने के लिए देश में आपातकाल
थोप दिया। उस समय इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी नीतियों, भ्रष्टाचार
की पराकाष्ठा और सामाजिक अव्यवस्था के विरुद्ध सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के
नेतृत्व में ‘समग्र क्रांति आंदोलन’ चल
रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के
पूर्ण समर्थन मिल जाने से यह आंदोलन एक शक्तिशाली, संगठित
देशव्यापी आंदोलन बन गया।
उन्हीं दिनों श्रीमति इंदिरागांधी के खिलाफ
चुनाव में ‘भ्रष्ट तौर तरीके’अपनाने
के आरोप में चल रहे एक केस में उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट की इलाहाबाद खंडपीठ ने
इंदिरा जी को सजा देकर छह वर्षों के लिए राजनीति से बेदखल कर दिया था। कोर्ट के
फैसले से बौखलाई इंदिरा गांधी ने बिना केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सहमति एवं कांग्रेस
कार्यकारिणी की राय लिए सीधे राष्ट्रपति महोदय से मिलकर सारे देश में इमरजेंसी
लागू करवा दी। इस एकतरफा तथा निरंकुश आपातकाल के सहारे देश के सभी गैर कांग्रेसी
राजनीतिक दलों, कई
सामाजिक संस्थाओं, राष्ट्रवादी शैक्षणिक संस्थाओं, सामाचार
पत्रों, वरिष्ठ
पत्रकारों/नेताओं को काले कानून के शिकंजे में जकड़ दिया गया। डीआईआर (डिफेंस ऑफ
इंडिया रूल) तथा मीसा (मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट) जैसे सख्त कानूनों के
अंतर्गत लोकनायक जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल
कृष्ण आडवाणी, चौधरी
चरण सिंह, प्रकाश
सिंह बादल,सामाजवादी
नेता सुरेन्द्र मोहन और संघ के हजारों अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को 25 जून 1975 की रात्रि को गिरफ्तार
करके जेलों में बंद कर दिया गया। न्यायपालिका को प्रतिबंधित तथा संसद को पंगू
बनाकर प्रचार के सभी माध्यमों पर सेंसरशिप की क्रूर चक्की चला दी गई। आम नागरिकों
के सभी मौलिक अधिकारों को एक ही झटके में छीन लिया गया।
इस समय देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही
एकमात्र ऐसी संगठित शक्ति थी, जो इंदिरा गांधी की तानाशाही के साथ टक्कर
लेकर उसे धूल चटा सकती थी। इस संभावित प्रतिकार के मद्देनजर इंदिरा जी ने संघ पर
प्रतिबंध लगा दिया। मात्र दिखावे के लिए और भी छोटी मोटी 21संस्थाओं
को प्रतिबंध की लपेट में ले दिया गया। किसी की ओर से विरोध का एक भी स्वर न उठने
से उत्साहित हुई इंदिरा गांधी ने सभी प्रांतों के पुलिस अधिकारियों को संघ के
कार्यकर्ताओं की धरपकड़ तेज करने के आदेश दे दिये गए। संघ के भूमिगत नेतृत्व ने उस
चुनौती को स्वीकार करके समस्त भारतीयों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने का
बीड़ा उठाया और एक राष्ट्रव्यापी अहिंसक आंदोलन के प्रयास में जुट गए। थोड़े ही
दिनों में देशभर की सभी शाखाओं के तार भूमिगत केन्द्रीय नेतृत्व के साथ जुड़ गए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भूमिगत नेतृत्व
(संघचालक, कार्यवाह,प्रचारक)
एवं संघ के विभिन्न अनुशांगिक संगठनों जनसंघ, विद्यार्थी परिषद, विश्व
हिन्दू परिषद एवं मजदूर संघ इत्यादि लगभग 30 संगठनों ने भी इस आंदोलन
को सफल बनाने हेतु अपनी ताकत झोंक दी। संघ के भूमिगत नेतृत्व ने गैर कांग्रेसी
राजनीतिक दलों, निष्पक्ष बुद्धिजीवियों एवं विभिन्न विचार के
लोगों को भी एक मंच पर एकत्र कर दिया। सबसे बड़ी शक्ति होने पर भी संघ ने अपने
संगठन की सर्वश्रेष्ठ परम्परा को नहीं छोड़ा। संघ ने नाम और प्रसिद्धी से दूर रहते
हुए राष्ट्रहित में काम करने की अपने कार्यपद्धति को बनाए रखते हुए यह आंदोलन
लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा घोषित ‘लोक संघर्ष समिति’ तथा ‘युवा
छात्र संघर्ष समिति’ के नाम से ही चलाया। संगठनात्मक बैठकें, जन
जागरण हेतु साहित्य का प्रकाशन और वितरण, सम्पर्क की योजना,सत्याग्रहियों
की तैयारी, सत्याग्रह
का स्थान, प्रत्यक्ष
सत्याग्रह, जेल
में गए कार्यकर्ताओं के परिवारों की चिंता/सहयोग, प्रशासन
और पुलिस की रणनीति की टोह लेने के लिए स्वयंसेवकों का गुप्तचर विभाग आदि अनेक
कामों में संघ के भूमिगत नेतृत्व ने अपने संगठन कौशल का परिचय दिया।
इस आंदोलन में भाग लेकर जेल जाने वाले
सत्याग्रही स्वयंसेवकों की संख्या डेढ़ लाख से ज्यादा थी। सभी आयुवर्ग के
स्वयंसेवकों ने गिरफ्तारी से पूर्व और बाद में पुलिस के लॉकअप में यातनाएं सहीं।
उल्लेखनीय है कि पूरे भारत में संघ के प्रचारकों की उस समय संख्या 1356 थी, अनुशांगिक संगठनों के प्रचारक इसमें शामिल
नहीं हैं, इनमें
से मात्र 189 को ही मात्र पुलिस पकड़ सकी, शेष भूमिगत रहकर आंदोलन का संचालन करते रहे।
विदेशों में भी स्वयंसेवकों ने प्रत्यक्ष वहां जाकर इमरजेंसी को वापस लेने का दबाव
बनाने का सफल प्रयास किया। विदेशों में इन कार्यकर्ताओं ने ‘भारतीय
स्वयंसेवक संघ’ तथा ‘फ्रेंड्स
ऑफ इंडिया सोसायटी’ के नाम से विचार गोष्ठियों तथा साहित्य वितरण
जैसे अनेक कामों को अंजाम दिया।
जब देश और विदेश दोनों जगह संघ की अनवरत
तपस्या से आपातकालीन सरकारी जुल्मों की पोल खुलनी शुरु हुई और इंदिरा गांधी का
सिंहासन डोलने लगा तब चारों ओर से पराजित इंदिरा गांधी ने संघ के भूमिगत नेतृत्व
एवं जेलों में बंद नेतृत्व के साथ एक प्रकार की राजनीतिक सौदेबाजी करने का विफल
प्रयास किया था -‘‘संघ से प्रतिबंध हटाकर सभी स्वयंसेवकों को
जेलों से मुक्त किया जा सकता है, यदि संघ इस आंदोलन से अलग हो जाए’’ परंतु
संघ ने आपातकाल हटाकर लोकतंत्र की बहाली से कम कुछ भी स्वीकार करने से मना कर
दिया। इंदिरा जी के पास स्पष्ट संदेश भेज दिया गया -‘‘देश
की जनता के इस आंदोलन का संघ ने समर्थन किया है, हम
देशवासियों के साथ विश्वासघात नहीं कर सकते, हमारे लिए देश पहले है, संगठन
बाद में’’।
इस उत्तर से इंदिरा गांधी के होश उड़ गए।
अंत में देश में हो रहे प्रचंड विरोध एवं
विश्वस्तरीय दबाव के कारण आम चुनाव की घोषणा कर दी गई। इंदिरा जी ने समझा था कि
बिखरा हुआ विपक्ष एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ सकेगा, परन्तु
संघ ने इस चुनौती को भी स्वीकार करके सभी विपक्षी पार्टियों को एकत्र करने जैसे
अति कठिन कार्य को भी कर दिखाया। संघ के दो वरिष्ठ अधिकारियों प्रो. राजेन्द्र
सिंह (रज्जू भैय्या) और दत्तोपंत ठेंगडी ने प्रयत्नपूर्वक चार बड़े राजनीतिक दलों
को अपने दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर एक मंच पर आने को तैयार करा लिया। सभी दल जनता
पार्टी के रूप में चुनाव के लिए तैयार हो गए।
चुनाव के समय जनसंघ को छोड़कर किसी भी दल के
पास कार्यकर्ता नाम की कोई चीज नहीं थी, सभी के संगठनात्मक ढांचे शिथिल पड़ चुके थे, इस
कमी को भी संघ ने ही पूरा किया। लोकतंत्र की रक्षा हेतु संघर्षरत स्वयंसेवकों ने
अब चुनाव के संचालन का बड़ा उत्तरदायित्व भी निभाया। ‘द
इंडियन रिव्यू’ के
संपादक एम.सी. सुब्रह्मण्यम ने लिखा था -‘‘जिन लोगों ने आपात काल के दौरान संघर्ष को
वीरतापूर्वक जारी रखा उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों का विशेष उल्लेख
करना आवश्यक है। उन्होंने अपने व्यवहार से न केवल अपने राजनीतिक सहयोगी कार्यकर्ताओं
की प्रसंशा प्राप्त की वर्ना जो कभी उनके राजनीतिक विरोधी थे उनसे भी आदर प्राप्त
कर लिया'।
प्रसिद्ध पत्रकार एवं लेखक दीनानाथ मिश्र ने
लिखा था -‘‘भूमिगत
आंदोलन किसी न किसी विदेशी सरकार की मदद से ही अक्सर चलते हैं, पर
भारत का यह भूमिगत आंदोलन सिर्फ स्वदेशी शक्ति और साधनों से चलता रहा। बलात नसबंदी, पुलिसिया
कहर, सेंसरशिप, तथा
अपनों को जेल में यातनाएं सहते देखकर आक्रोशित हुई जनता ने अधिनायकवाद की ध्वजवाहक
इंदिरा गांधी का तख्ता पलट दिया। जनता विजयी हुई और देश को पुनः लोकतंत्र मिल गया।
जेलों में बंद नेता छूटकर सांसद व मंत्री बनने की होड़ में लग गए, परंतु
संघ के स्वयंसेवक अपने राष्ट्रीय कर्तव्य की पूर्ति करके अपनी शाखा में जाकर पुनः
संगठन कार्य में जुट गए"।
(आपातकाल के दौरान 16 महीने की जेल यात्रा कर
चुके लेखक पूर्व संघ प्रचारक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
चुके लेखक पूर्व संघ प्रचारक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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