राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के पांचवे
सरसंघचालक के. एस. सुदर्शन का पूरा नाम कुप्पाली सीतारमैया सुदर्शन था। सुदर्शन जी
मूलतः तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर बसे कुप्पहल्ली (मैसूर) ग्राम के निवासी थे।
सुदर्शन जी के पिता श्री सीतारामैया वन-विभाग की नौकरी के कारण अधिकांश समय
मध्यप्रदेश में ही रहे और वहीं रायपुर जिले में 6 जून,
1931 को श्री सुदर्शन जी का जन्म हुआ। तीन
भाई और एक बहिन वाले परिवार में सुदर्शन जी सबसे बड़े थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा
रायपुर,
दमोह,
मंडला
और चंद्रपुर में हुई।
9 साल की उम्र में उन्होंने
पहली बार आरएस एस शाखा में भाग लिया। उन्होंने वर्ष 1954
में
जबलपुर के सागर विश्वविद्यालय (इंजीनिरिंग कालेज) से दूरसंचार विषय (टेलीकाम/
टेलीकम्युनिकेशंस) में बी.ई की उपाधि प्राप्त कर वो 23
साल
की उम्र में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बने। सर्वप्रथम
उन्हें रायगढ़ भेजा गया। श्री सुदर्शन जी संघ
कार्यकर्ताओं के बीच शारीरिक प्रशिक्षण के लिए जाने जाते थे। वह ‘स्वदेशी’
की
अवधारणा में विश्वास रखते थे। शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को लोग याद
रखेंगे।
समरसता और सद्भाव के लिए अपने कार्यकाल के
दौरान वह ईसाई और मुस्लिम समाज से सतत संवाद स्थापित करने में प्रयत्नशील रहे। श्री
सुदर्शन जी ज्ञान के भंडार, अनेक विषयों एवं भाषाओं के
जानकार तथा अद्भुत वक्तृत्व कला के धनी थे। इसलिए उनको Encyclopaedia
of Sangh कहा जाता था। किसी भी समस्या की गहराई तक
जाकर,
उसके
बारे में मूलगामी चिन्तन कर उसका सही समाधान ढूंढ निकालना उनकी विशेषता थी। पंजाब
की खालिस्तान समस्या हो या असम का घुसपैठ विरोधी आन्दोलन,
अपने
गहन अध्ययन तथा चिन्तन की स्पष्ट दिशा के कारण उन्होंने इनके निदान हेतु ठोस सुझाव
दिये। उनकी यह सोच थी कि बंगलादेश से असम में आने
वाले मुसलमान षड्यन्त्रकारी घुसपैठिये हैं। उन्हें वापस भेजना ही चाहिए,
जबकि
वहां से लुट-पिट कर आने वाले हिन्दू शरणार्थी हैं, अतः
उन्हें सहानुभूतिपूर्वक शरण देनी चाहिए।
श्री सुदर्शन जी को संघ-क्षेत्र में जो भी
दायित्व दिया गया उसमें उन्होंने नये-नये प्रयोग किये। 1969
से
1971
तक
उन पर अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख का दायित्व था। इस दौरान ही खड्ग,
शूल,
छुरिका
आदि प्राचीन शस्त्रों के स्थान पर नियुद्ध, आसन,
तथा
खेल को संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक पाठ्यक्रम में स्थान मिला।
1979 में वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख बने। शाखा के अतिरिक्त
समय से होने वाली मासिक श्रेणी बैठकों को सुव्यवस्थित स्वरूप 1979
से
1990
के
कालखंड में ही मिला। शाखा पर होनेवाले ‘प्रातःस्मरण’
के
स्थान पर नये ‘एकात्मता स्तोत्र’
एवं
‘एकात्मता
मन्त्र’
को
भी उन्होंने प्रचलित कराया। 1990 में उन्हें सह सरकार्यवाह
की जिम्मेदारी दी गयी।
प्रमुख बिंदु:
सुदर्शन जी की . पहली नियुक्ति छत्तीसगढ़
प्रान्त के रायगढ़ जिला प्रचारक के रूप में हुई। वे रीवा विभाग प्रचारक भी रहे। 1964 में ही उन की गुणवत्ता को
ध्यान में रखकर उन्हें मध्य भारत के प्रान्त प्रचारक की जिम्मेदारी सौंपी गई।
-मध्य भारत के प्रान्त
प्रचारक रहते हुए ही सन 1969 में उन्हें अखिल भारतीय
शारीरिक प्रमुख का दायित्व भी दिया गया।* सन 1975 में
आपातकाल की घोषणा हुई और पहले ही दिन इंदौर में उन को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्नीस
माह उन्होंने कारावास में बिताये।
-आपातकाल समाप्ति के पश्चात सन
1977 में उन्हें पूर्वांचल [असम, बंगाल
और पूर्वोत्तर राज्य] का क्षेत्र प्रचारक बनाया गया। क्षेत्र
प्रचारक के रूप में उन्होंने वहाँ के समाज में सहज रूप से संवाद करने के लिए
असमिया,
बंगला
भाषाओँ पर प्रभुत्व प्राप्त किया तथा पूर्वोत्तर राज्यों के जनजातियों की अलग अलग
भाषाओँ का भी पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। कन्नड़, बंगला,
असमिया,
हिंदी,
अंग्रेज़ी,
मराठी,
इत्यादि
कई भाषाओँ में उन्हें धाराप्रवाह बोलते हुए देखना यह कई लोगों के लिए एक आश्चर्य
तथा सुखद अनुभूति का विषय होता था।
भारतीय कृषि
भारतीय कृषि के बारे में भी उनका बड़ा आग्रह था
कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जो बीज दे रही हैं, वह
जेनेटिकली मोडिफाइड हैं। उन्हें गहरे और निरंतर प्रयोगों के बिना स्वीकार नहीं
किया जाना चाहिए, क्योंकि
कालांतर में इनका दुष्प्रभाव हमारी खेती पर पड़ेगा। और आज वास्तव में वह दिखाई भी
दे रहा है। वे जहाँ भी जाते थे, इसका
आग्रह करते थे कि ये बीज देश और किसान के लिए घातक हैं। इसलिए उनका जैविक खेती पर
बड़ा आग्रह रहता था। इसी से संबंधित गौ, पंचगव्य, गाय का कृषि में स्थान,कृषि की भूमिका-यह पूरा चक्र उन्होंने अपने
चिंतन से बनाया था। वे वे मानते थे कि गौ, ग्राम, कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था ही मंगलकारी है।
पोषणक्षम उपयोग
सुदर्शनजी कहते हैं कि पोषणक्षम विकास नहीं, बल्कि पोषणक्षम उपयोग को वरीयता दी जानी चाहिए, क्योंकि असीमित उपयोग खतरनाक है। उनका आग्रह
बिजली पानी
के उपयोग में भी एक संयमित दृष्टि विकसित करने पर रहता था। केवल कहने भर के लिए ही
वे ऐसा नहीं कहते थे, बल्कि उनके व्यवहार में भी
यह परिलक्षित होता था। वे पूरा गिलास पानी कभी नहीं लेते थे। पानी को व्यर्थ क्यों
करें। इसी तरह देश में पेट्रोल व डीजल की कमी को लेकर वह इसके विकल्प खोजने के
बारे में प्रयत्नशील रहते थे। इस विषय पर उन्होंने कई वैज्ञानिकों से चर्चा की और
परिणामस्वरूप प्लास्टिक के कूड़े से पेट्रोल बनवाकर दिखाया और उसे प्रयोग के तौर
पर परखा भी। इस तरह के प्रयोगों के द्वारा प्रकृति के संरक्षण के प्रति उनका बड़ा
आग्रह रहता था। वे उस पर हमेशा बल देते थे। बायोडीजल के उत्पादन और उससे खेती किए
जाने पर भी उनका आग्रह रहता था। इसके लिए कौन-कौन वैज्ञानिक सहायक होंगे,
उन्हें
बुलाने,
बैठाकर
चर्चा कराने का उनका लगातार आग्रह रहता था।
देश का बुद्धिजीवी वर्ग,
जो
कम्युनिस्ट आन्दोलन की विफलता के कारण वैचारिक संभ्रम में डूब रहा था,
उसकी
सोच एवं प्रतिभा को राष्ट्रवाद के प्रवाह की ओर मोड़ने हेतु ‘प्रज्ञा-प्रवाह’
नामक
वैचारिक संगठन की नींव में श्री सुदर्शन जी ही थे।
सुदर्शन जी का आयुर्वेद पर बहुत विश्वास था।
भीषण हृदयरोग से पीड़ित होने पर चिकित्सकों ने बाइपास सर्जरी ही एकमात्र उपाय
बताया;
पर
सुदर्शन जी ने लौकी के ताजे रस के साथ तुलसी, काली
मिर्च आदि के सेवन से स्वयं को ठीक कर लिया। कादम्बिनी के तत्कालीन सम्पादक
राजेन्द्र अवस्थी सुदर्शन जी के सहपाठी थे। उन्होंने इस प्रयोग को दो बार
कादम्बिनी में प्रकाशित किया। अतः इस प्रयोग की देश भर में चर्चा हुई।
चौथे सरसंघचालक श्री रज्जू भैया को जब लगा कि
स्वास्थ्य खराबी के कारण वे अधिक सक्रिय नहीं रह सकते,
तो
उन्होंने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से परामर्श कर 10 मार्च,
2000 को अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में श्री सुदर्शन जी को यह
जिम्मेदारी सौंप दी। नौ वर्ष बाद सुदर्शन जी ने भी इसी परम्परा को निभाते हुए 21
मार्च,
2009 को सरकार्यवाह श्री मोहन भागवत को छठे सरसंघचालक का
कार्यभार सौंप दिया।
के एस सुदर्शन जी का 15
सितम्बर
2012
को
रायपुर में दिल का दौरा पड़ने से निधन हुआ था। वह 81 वर्ष
के थे।
सुदर्शन जी को शारीरिक वर्ग में बहुत रूचि थी
दो साल जब वह आपातकाल की वजह से जेल में थे तब वह शारीरिक वर्ग की पुस्तकें साथ
लेकर गये थे और जेल में भी वह शारीरिक का अभ्यास किया करते थे
उत्कृष्टता का आग्रह:
अपने अंतिम दिन वह रायपुर कार्यालय में में
बैठे थे तो एक स्वयंसेवक से एकात्मता स्त्रोत्र में विसर्ग की त्रुटि हो गयी। तब
उन्होंने सबको रोका और और सबसे उस शब्द का पांच बार अभ्यास करवाया। हर बात में जो
करना है और किसी से करवाना है तो उसे उत्कृष्ट करने का हमेशा उनका आग्रह रहता था। यह
घटना उनके निधन से मात्र एक दिन पूर्व की है।
-विकास के लिए आवश्यकता है
प्रखर राष्ट्र भावना से ओत प्रेत समाज की। राष्ट्र भावना का आधार है मातृभूमि के
कण-कण से अनन्य प्रेम, उसके अन्दर पुत्र रूप में
रहने वाले समाज के प्रति आत्मीयता तथा उन सबको जोड़ने वाली सांस्कृतिक कड़ियों की
मजबूती। इस संस्कृति के संवर्धन एवं संरक्षण के लिए जिन महापुरुषों ने बलिदान दिया
उनके प्रति प्रखर श्रद्धा।
हमने शिक्षा पद्धति के एक भाग पर यानी
जानकारी देने वाली शिक्षा पर ध्यान दिया है पर दूसरे भाग यानी संस्कारों पर ध्यान
नहीं दिया। अपने ही समाज के एक वर्ग
को दलित शब्द से संबोधित करना ही कहाँ तक उचित है ? वास्तव
में जो लोग विकास के निम्न स्तर पर हैं, उनमें
ऊपर उठने का आत्मविश्वास जगाना पहली आवश्यकता है।
आज जो लोग रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का
विरोध कर उसके मार्ग में हर संभव बाधा कड़ी कर रहे हैं। वे इसे हिन्दू मुस्लिम
प्रश्न के रूप में देख रहे हैं वास्तव में, यह
तो राष्ट्रीय स्वाभिमान को स्थापित करने की बात है। राष्ट्र
के सर्वांगीण विकास के लिए दो बातें होना आवश्यक हैं पहला,
अखिल
भारतीय दृष्टिकोण और गौरव बोध तथा दूसरा यह मानसिकता कि अपना विकास अपने यहाँ
उपलब्ध संसाधनों के आधार पर हम स्वयं ही करेंगे।
इराक के राजदूत सालेह मुख़्तार एक बार सुदर्शन
जी से मिलने आये उनसे मुलाकात के बाद उन्होंने कहा था “आज
तक जितने भी लोगों से मेरी भेंट हुई सुदर्शन जी उनमें सबसे पवित्र व्यक्ति हैं। आज
सौ से भी अधिक देशों में हिन्दू रहते हैं हम सब हिन्दू,
हमारे
समक्ष जो तेजस्वी जीवन ध्येय है उसे स्वीकारने के लिए क्या हम तत्पर हैं?
सादा
जीवन और उच्च विचार के आदर्श को यदि हम चरितार्थ करते हैं तो निश्चित ही आगामी शती
हिन्दुओं की होगी।
सुदर्शन जी का वरिष्ठों के प्रति बहुत आदर
था। जब वह सरसंघचालक बनकर भोपाल गये तो सबसे पहले अपने समय के प्रचारकों के घर
जाकर शाल और श्रीफल प्रदान किया था।
- नरेन्द्र
सिंह
क्षेत्र प्रचार प्रमुख, पू.उ.प्र. क्षेत्र
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